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________________ चतुर्थ अध्याय कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें - २. कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोत्ति होदि दुविहं तु। पोग्गल पिंडो दव्वं तत्सत्ती भावकम्मं तु॥ बंधुक्कड्ढ़णकरणं संकममोकड्ढुदीरणा सत्तं । उदयुवसामणिधत्ति णिकाचणा होति पड़िपयड़ी ।। (गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ६,४३७) १. कर्मका स्वरूप श्री जिनेन्द्रवर्णीने कोशमें कर्मका सामान्य परिचय देते हुए कहा है -- कर्म शब्दके अनेक अर्थ हैं, उन सबको तीन भागोंमें विभाजित किया जा सकता हैकर्मकारक, क्रिया और जीवके साथ बन्धने वाले विशेष जातिके पुद्गल स्कन्ध ।' व्याकरण शास्त्र में कर्म कारकको कर्म कहा जाता है जिसे कर्ता अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता है । पाणिनीने अष्टाध्यायी में कहा है - "कर्तुरीप्सिततमं कर्म" । सधारणतया कर्म शब्दका अर्थ “क्रिया” समझा जाता है । खाना, पीना, सोना, चलना आदि विभिन्न क्रियायें कर्मकी द्योतक हैं, विभिन्न व्यवसायोंके अर्थमें भी कर्म शब्दका प्रयोग होता है। न्याय शास्त्रमें उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण और गमन रूप पांच सांकेतिक क्रियाओंमें कर्म शब्दका व्यवहार किया जाता है। पौराणिक परम्परामें व्रत, नियम आदि धार्मिक क्रियायें कर्म रूप मानी जाती हैं। तीसरे प्रकारके कर्मका निरूपण केवल जैन सिद्धान्तमें ही किया गया है। जीव मन, वचन और कायके द्वारा जो क्रियायें करता है, उनसे प्रभावित होकर, एक विशेष जातिके सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध जीवके साथ बँध जाते हैं। बँधको प्राप्त १. जिनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग, दो पृ० २५ २. अष्टाध्यायी, अध्याय १, पाद ४, सूत्र ४९ ३. तर्कभाषा, पृ० २४४, सर्वोदयप्रेस जत्तीवाड़ा मेरठ, सन् १९७६ ४. पूर्व निर्दिष्ट. अध्याय तीन (कर्मग्रहणयोग्या: पुद्गला :- सूक्ष्मा: न स्थूला:) सर्वार्थसिद्धि पृ०४०२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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