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________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १८१ आत्मा और शरीरके भेद विज्ञानसे उत्पन्न हुए आनन्दसे जो आनन्दित है वह द्वादशविध तपके द्वारा उदयमें लाये गये भयानक दुष्कर्मों के फलको भोगता हुआ भी खेदको प्राप्त नहीं होता । इस प्रकार जैन दर्शनमें पुरुषार्थपूर्वक कर्मों की हानि करनेके लिए संवर और निर्जराके पथको अपनाया गया है । संवर और निर्जराके पथपर चलते हुए जीव, अपने को कर्मबन्धनोंसे उन्मुक्त कर सकता है । कर्मोंन्मूलनका यह पथ पुरुषार्थकी अपेक्षा रखता है, जैसे जैसे पुरूषार्थ में वृद्धि होती जाती है, कर्मों का भार जीवपर से हल्का होता जाता है । इस पुरूषार्थ के विकासक्रममें सबसे पहले जीवको पंचलब्धियों की प्राप्ति होती है जिससे आत्मा बहिरात्म भावको छोड़कर अन्तरात्मा के भावकी ओर अभिमुख हो जाता है अतः आगे पंचलब्धियों का विवरण आवश्यक है । ५. पंच लब्धि कर्ममुक्तिके पुरूषार्थ स्वरूप जीवको विविध शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं, जिसके फलस्वरूप जीव, मुक्तिके सोपानोंपर अग्रसर हो जाता है इन्हें जैन सिद्धान्तमें लब्धि कहा जाता है । जीवके कर्मोंन्मूलनके क्रममें पंच लब्धियका महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्री जिनेन्द्र वर्णी के शब्दों में- “ज्ञानकी शक्ति विशेषको लब्धि कहते हैं ।” सम्यक् श्रद्धाकी प्राप्तिमें पांच लब्धियोंका होना आवश्यक है ? और सम्यक् श्रद्धाके बिना कर्मोंन्मूलन संभव नहीं है, पुरुषार्थकी अभिव्यक्तिका यह क्रमिक विकास पांच भागों में विभक्त है । उन पाँचोंके नाम हैं- क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करण लब्धि, २ इन पांचों लब्धियोंके द्वारा जीव सत्पुरुषार्थ जागृत हो जाता है और मोक्ष प्राप्तिकी विशिष्टपात्रता उपलब्ध हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप जीव कर्मोदयकी अटूट श्रृंखलाको छिन्नभिन्न कर उत्तरोत्तर उन्नत हुई दृष्टिके द्वारा मुक्ति पथकी ओर अग्रसर होजाता है । पद्मनन्दी पंचविशतिकामें यही अभिप्राय दर्शाते हुए कहा गया है लब्धिपंचक सामग्री विशेषात्पात्रतां गतः । भव्य सम्यग्दृगादीनां यः सः मुक्तिपथे स्थितः । १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० ४२४ २. खयउवसमियविसोही देसणपाउग्गकरणलद्धी य चत्तारि वि सामण्णा करणं सम्मत्तचारित्ते । नेमिचन्द्राचार्य, लब्धिसार, गाथा ३ ३. पद्मनन्दि पंचविशतिका, अधिकार ४, श्लोक १२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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