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________________ (VI) भूमिपर अंकित होता जाता है। प्रथम क्षणमें जो संस्कार उसमें प्रवेश पाता है वह 'आसव' कहलाता है और उत्तरोत्तर उसका परिपुष्ट होते रहना 'बन्ध' कहा जाता है। बन्धको प्राप्त यह संस्कार भीतर ही भीतर जीवको पुन: पुन: वही कर्म करनेके लिये उकसाया करता है। करणानुयोगमें इस सूक्ष्म जड़ द्रव्यको 'कर्म' संज्ञा दी गई है उसका कारण यह है कि इसके द्वारा जीवके सूक्ष्मसे सूक्ष्म भाव-कर्म का सरल रीतिसे कथन करना संभव हो जाता है । वास्तव में यहाँ इस द्रव्य-कर्मको बताना इष्ट नहीं है, न वह कुछ दु:ख ही देता है । उसपर से जीवके भाव कर्मको दर्शाना इष्ट है और वह ही दु:ख सुखमें हेतु होता है। द्रव्य-कर्म जीवके भावोंको मापनेका एक यंत्र मात्र है। अत: उस नामके कर्मसे उस प्रकारके भावका ही ग्रहण करना चाहिये। पूर्व-सञ्चित संस्कार या कर्म -बन्धसे तदनुकूल गति, इन्द्रिय व भोग आदि मिलते हैं, जिससे प्रेरित होकर जीव पुन: वही भाव या कर्म करता है। उससे फिर संस्कार तथा कर्म-बन्ध और उससे फिर गति आदि । यह चक्र अनादि से चला आ रहा है और चलता रहेगा। अब प्रश्न यह होता है कि यह चक्र कैसे रुके । इसका उपाय कर्म-सिद्धान्त बताता है। जड़ कर्म जीवको बल पूर्वक वैसा भाव कराता हो, ऐसा नहीं है। वह कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न करता है या करनेमें निमित्त होता है जिसमें कि जीवको प्राय: वैसाभाव करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। संस्कारका बल भी सदैव समान नहीं रहता, तीव तथा मन्द होता रहता है। तीन शक्तिसे युक्त कर्म तथा संस्कारके उदय में भले ही जीवको विवश तदनुकूल भाव करने पड़ें, परन्तु मन्द उदयमें यदि सद्गुरुकी शरण प्राप्त हो जाय और उनका उपदेश सुने तो तत्त्व चिन्तनकी दिशामें झुककर कदाचित् अहंकारसे निवृत्त होना उसके लिये संभव हो सकता है। ऐसी दशा उत्पन्न हो जानेपर पूर्व संस्कारोंका बल उत्तरोत्तर ढीला पड़ता जाता है और उनके स्थानपर कुछ नवीन संस्कारोंका निर्माण होने लग जाता है। इस प्रकार संस्कारोंकी और उनके साथ-साथ कर्मोंकी दिशा बदल जाती है । अशान्ति-जनक संस्कारोंकी गति रुद्ध हो जाती है। इसे 'संवर' कहते हैं। शान्तिजनक नवीन संस्कारोंका बल उत्तरोत्तर बढ़ने लगता है जिससे पुरातन संस्कारोंकी शक्ति क्षीण होने लगती है। धीरे धीरे वे मृत-प्राय: हो जाते हैं । इसको निर्जरा कहते हैं । यह समस्त प्रक्रिया आगममें अपकर्षण, संक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशम, क्षय आदि विभिन्न नामोंसे विस्तार सहित बताई गई है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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