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पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें परमाणु स्वयं निष्क्रिय और गतिहीन हैं, परन्तु उनको गति देने वाला कोई बाह्य कारण है, जिसे अदृष्ट अथवा ईश्वर कहा गया है । जैन दर्शन वैशेषिकों की इस मान्यताका भी निराकरण करता है, क्योंकि जैन दर्शनानुसार क्रियाशीलताकी शक्ति उपादान रूपसे पुद्गलमें ही होती है और काल उसका बाह्य निमित्त है । ईश्वर कर्तृत्व को जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता क्योंकि जैन दर्शनका सत्ता सिद्धान्त, सत्ताभूत पदार्थों को ही जगत् का कर्ता मानता है, परमात्म पदको प्राप्त आत्मा जगत् के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता।
संक्षेपमें जैन मान्य परमाणुकी न्याय वैशेषिकके परमाणुसे समानता तथा विभिन्नताका विवेचन निम्न प्रकारसे किया जा सकता है - समानता१. जैन दर्शन और न्याय वैशेषिक दर्शन दोनोंने ही परमाणुको शाश्वत माना है, इनकी न सृष्टि होती है और न ही विनाश होता है। २. दोनों दर्शनोंका परमाणुवाद भौतिक जगत् की ही व्याख्या करता है । ३. विभिन्न परमाणुओंके संयुक्त होनेसे वस्तुओंका निर्माण होता है और परमाणुओंके विच्छेद होनेसे वस्तुओं का विघटन हो जाता है, इस तथ्यको दोनों दर्शनोंने ही स्वीकार किया है। विभिन्नता१. जैन दर्शनमें परमाणुको सक्रिय माना गया है, परन्तु न्याय वैशेषिक दर्शनमें परमाणु स्वयं निष्क्रिय और गतिहीन होते हैं, परन्तु ईश्वरकी शक्तिसे उसमें गतिशीलता आ जाती है, जैन दर्शनमें क्रियाशीलताको परमाणुका स्वाभाविक गुण माना गया है। २. जैनदर्शनमें सभी परमाणुओंको चतुर्गुण युक्त माना गया है, परन्तु न्याय वैशेषिकमें सबको समान रूपसे चतुर्गुण युक्त नहीं माना। ३. परमाणुओंके पारस्परिक संयोगका सिद्धान्त दोनों दर्शनों का भिन्न-भिन्न है।
१. (क) James Hastings, Encyclopaedia of Religion and Ethics, VoI II P.201
(ख) प्रशस्तपाद भाष्य, पृ. २० २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० १६१ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० १९ ४. संधवी सुखलाल, तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, पृ० १३१, १३२
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