________________
४२
जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन जैनोंके देह परिमाणत्वका यह सिद्धान्त उपनिषदोंके “अणु मात्र या अंगुष्ठमात्र सिद्धान्तसे भिन्न है। परन्तु उपनिषदोंमें जीव को अणुमात्र मानते हुए भी उसके चेतन प्रकाशको जैनोंके समान ही सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त माना है।
जैनों का यह सिद्धान्त न्यायवैशेषिक, वेदान्त, मीमांसा और सांख्य दर्शन से भी विपरीत है क्योंकि इन दर्शनोंमें आत्माको व्यापक माना है। यदि जीव व्यापक है तो जैसे जीवको अपने शरीरमें होने वाले सुख दु:खका अनुभव होता है, वैसे ही पराये शरीरमें होने वाले सुख दु:ख का भी अनुभव होना चाहिए, परन्तु यह बात प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्ध है कि पराये शरीरमें होने वाले सुख-दुखका अनुभव जीवको नहीं होता, अत: जीव अपने शरीरके ही बराबर है। अत: आगम, युक्ति और अनुभवसे यह सिद्ध हो जाता है कि जीव देह परिमाण ही है । ६. जीव संसारी है -
संसारी जीवका लक्षण है – “कर्मचेतनाकर्मफलचेतनात्मका : संसारिण:"" अर्थात् कर्म तथा कर्मफल चेतनासे युक्त जीव संसारी होता है , ऐसे जीवका उपयोग अशुद्ध होता है और वह नित्य जन्म और पुनर्जन्म रूप संसारमें भ्रमण करता रहता है । जीवकी यह अवस्था जीवके स्वयं कृत कर्मों के द्वारा ही होती है, जीव एक शरीरको छोड़ कर दूसरा नया शरीर धारण करता है, इस प्रकार अनादि कालसे अनेक शरीरोंमें जो संसरण अथवा परिभ्रमण करता है, उसे ही संसार कहते हैं। अनादि कालसे इस संसारमें भ्रमण करने के कारण ही कर्मों से बद्ध जीवको संसारी कहते हैं।
जैनोंका जीवको संसारी माननेका यह मत, सदाशिव सम्प्रदायके विपरीत है, क्योंकि सदाशिव सम्प्रदायके मतानुसार-जीव सदा ही शिव स्वरूप है, जन्ममरण केवल इन्द्रजाल और माया है। जैनोंने यद्यपि कर्मबद्ध जीवको संसारी कहा है, परन्तु संसारी होते हुए भी, सदाशिव होनेकी शक्ति उसमें विद्यमान रहती है, १. कठोपनिषद, अध्याय 8, श्लोक १३ २. द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा १० । ३. सव्व गओ जदि जीवो सव्वत्थ वि दुक्ख - सुख - संपत्ति।
जाइज्जण सा दिट्ठी णिय तणु माणो तदो जीवो।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १७७ पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गाथा १०९ एक्क चयदि सरीरं अण्णं गिण्हेदिणवणवे जीवो।
पुणु पुणु अण्णं अपणं गिण्हदि मुंचेदि बहु बारं ।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा, ३२ ६. द्रव्यसंग्रह. बह्मदेवटीका. गाथा २
-
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org