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________________ जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें है, उसी प्रकार जीव, चींटी का शरीर धारण करते समय संकुचित हो जाता है और हाथीका शरीर धारण करते समय विस्तृत हो जाता है। इस प्रकारजीव जिस समय जिस शरीरमें समाहित होता है उसके अनुसार अपने को संकुचित या विस्तृत कर लेता है। हिरियन्नाके शब्दोंमें, “जैन दर्शन में एक विचित्र बात यह है कि वह जीव के आकारको सांसारिक दशामें घटने बढने वाला मानता है, यह वस्तु स्वभावकी परिवर्तनशीलताका भी द्योतक है, जो सामान्यत: अन्य विचारकों द्वारा नहीं मानी गयी है। जैनों के अनुसार जीव समस्त शरीरमें व्याप्त होकर रहता है, क्योंकि सिरसे लेकर पाँव तक जहाँ कहीं भी कोई संवेदन या पीडा होती है, उसका अनुभव जीवको उसी समय हो जाता है। गुणों और पर्यायोंसे युक्त, अपनी आत्माका अपने अनुभवसे अपने शरीरमें ही संवेदन होता है, शरीरसे बाहर अन्यत्र आत्माका संवेदन सम्भव नहीं है। अत: स्वसंवेदन जन्य अनुभवके आधारपर भी जीवका देह परिमाणत्व सिद्ध होता है। कुन्दकुन्दाचार्य के शब्दों में “सव्वत्थ अस्थि जीवो णा य एक्को एक्ककाय एक्कट्ठो”६ देह के मध्य सर्वत्र जीव है, उसके किसी एक देश में ही जीव रहता है, ऐसा जैन दर्शन नहीं मानता। जीवका देह परिमाणत्व मुक्तावस्थामें भी रहता है, परन्तु उस समय संसारी जीवोंकी भाँति संकोच विकासशील नहीं होता । संकोच विस्तार रूप परिवर्तनशीलताजीवमें तभी तक रहती है, जब तक जीव कमोंसे बद्ध रहता है और जन्म - पुनर्जन्मके द्वारा छोटे बड़े शरीरोंको धारण करता रहता है। कर्मों से मुक्त हो जाने पर जीवमें संकोच विस्तार गुण नहीं रहता, परन्तु देह परिमाणत्व उस समय भी रहता है, क्योंकि जैनोंने मुक्त जीवको अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार वाला माना है। १. दास गुप्त, एस.एन., भारतीय दर्शन का इतिहास, पृ० १९८ २. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १५९ ३. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १५९ ४. पदार्थ विज्ञान, पृ०७९ ५. स्वसंवेदन साध्येव, प्रवचनसार, गाथा १३७ की टीका ६. पंचास्तिकाय, गाथा ३४ ७. “किचणा चरमदेहदो सिद्धा” द्रव्यसंग्रह . गाथा १४ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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