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________________ जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें जिसे जीव पुरुषार्थ के द्वारा प्रगट कर सकता है। संसारीजीवके भेद प्रभेद-संसारीजीव अपने कर्मों की भिन्नताके अनुसार विभिन्न प्रकार की गतियोंमें भ्रमण करता रहता है, और विभिन्न प्रकारके शरीरोंको धारण करता रहता है। गति आदि विभिन्न अपेक्षाओंसे संसारी जीवके अनेक भेद - प्रभेद किये गये हैं, जो निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट किये जा सकते हैं: संसारीजीव गति ४ इन्द्रिय ५ प्राण ६ काय ६ स्थावरकाय त्रसकाय नारक एकेन्द्रिय चारप्राणधारी पृथ्वीकाय तिर्यञ्च द्वीन्द्रिय षद् प्राणधारी अपकाय मनुष्य त्रीन्द्रिय सप्त प्राणधारी तेजकाय देव चतुरिन्द्रिय अष्ट प्राणधारी वायुकाय पंचेन्द्रिय . नव प्राणधारी वनस्पति काय - दश प्राणधारी समनस्क अमनस्क (क) गति के आधार पर जीव का वर्गीकरण गतियों का नाम निर्देशन करते हुए पूज्यपादजी ने कहा है - "गतिश्चतुर्भेदानरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिर्देवगतिरिति । २ नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति के भेद से गतियाँ चार प्रकार की हैं, इन गतियों में उत्पन्न होने वाले जीव भी नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चार प्रकार के हो जाते हैं। इनमें नरक गति के जीव अधम और देवगति के जीव उत्तमकोटि के माने जाते हैं। जैन मान्यइन जीवों की तुलना, सांख्यमान्य भौतिकसर्ग केजीवों से कीजासकती है। सांख्य में भौतिक सर्ग में तीन प्रकार के भवों का विवेचन किया गया है - देवयोनि, तिर्यग्योनि और मनुष्योनि। देवयोनि को उत्तम, तिर्यग् योनि को अधम और मनुष्य योनि को मध्यम माना गया है। सांख्य में नरकगति को नहीं माना, शेष तीनों श्रेणियां जैन मान्य तीन श्रेणियों से समानता रखती हैं। है, जिनेन्द्र वर्णी, शान्तिपथ प्रदर्शन, १९८२, पृ०४३ जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला, पानीपत। २. सर्वार्थसद्धि, पृ० १५९ ३. सांख्य कारिका, ५३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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