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द्वितीय अध्याय जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें
जीवोत्ति हवदि चेदा उवओग विसेसिदोपहू कत्ता। भोत्ताय देहमेत्तोण हि मुत्तो कम्म संजुत्तो॥
पंचास्तिकाय · गाथा २७ १. सामान्य परिचय
जैन दर्शन में वस्तु को षड्द्रव्य रूप कहा गया है - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें से जीव चेतन है और अन्य सब अचेतन हैं। बाह्य जगत् में जीवकी जितनी अवस्थायें दृष्टिगोचर होती हैं, वे सभी जीव द्रव्य और अजीव द्रव्यके संबंधसे ही उत्पन्न होती हैं, इसीलिये कर्म सिद्धान्तसे संबंधित जीव और अजीव द्रव्योंके स्वरूपका परिचय और अन्य दर्शनोंसे तुलनात्मक विवेचन आवश्यक है | इस अध्यायमें जीव और उसकी अवस्थाओं का विवेचन ही इष्ट है, क्योंकि जीवका कर्मके साथ घनिष्ट संबंध होता है।
व्युत्पत्तिके आधारपर जीवका अर्थ है – “जीवति, अजीवीत्, जीविष्यति इति वा जीव: २ अर्थात् जो तीनों कालोंमें अपनी पर्यायानुसार जीता है, जीता था और जीयेगा, इस त्रैकालिक जीवन गुण. वालेको जीव कहते हैं । कुन्दकुन्दाचार्य ने भी जीवका यही लक्षण किया है।
__ संसारावस्था और मोक्षावस्था दोनों ही अवस्थाओंमें जीव एक प्रधान तत्त्व है। जैन दर्शनानुसार • कर्मसे लिप्त जो जीव संसारमें अनेक अवस्थाओं को धारण करता रहता है, वही जीव साधनाविशेषके द्वारा कर्मों का क्षय कर देने पर परमात्मा बन जाता है, उसीको जैन दर्शनमें ईश्वर या भगवानके रूप में माना गया है, उससे पृथक् किसी एक ईश्वरको जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता। जीव अपने समस्त अनुभवोंका स्वयं केन्द्र है, इसलिए यह स्वयं सत्य है। जीवकी सत्यता
१. तत्त्वार्यसूत्र, अध्याय ५, सूत्र २,३,३९ २. राजवार्तिक, पृ० २५ ३. पंचास्तिकाय, गाथा ३० ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग II, पृ० ३३०
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