SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन इसी प्रकार समस्त अनैतिकताका पूर्ण रूपेण त्याग कर देता है। इसगुणस्थानवी जीवके अनन्तानुबन्धी चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क और अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क ये बारह चारित्रमोहके कषाय उपशमित हो चुके होते हैं, परन्तु संज्वलन नामक मन्द कषाय और हास्यादि नव किंचितकषाय' उदयमें होते हैं। इन कषायको ही प्रमाद कहा जाता है। नेमिचन्द्राचार्यने कहा है संजलणणोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा। मलजणणपमादो विय तम्हा हु पमत्त विरदो सो। अर्थात संज्वलन आदि मन्द कषायोंसे संयमका घात नहीं होता, परन्तु संयममें प्रमाद जनित दोष आ जाता है जिसके कारण कभी कभी जीव आचरणसे स्खलित हो जाता है। इसीलिए प्रमत्तसंयमी जीव को चित्रल आचरण वाला भी कहा जाता है। जीवके संयमको कलुषित करने वाला प्रमाद पन्द्रह प्रकारका होता है, जिसका वर्णन पहले बन्धके कारणों में किया गया है। इस गुणस्थानमें जीवका काल निर्धारण करते हुए डॉ० ग्लॉसनैपने कहा है कि इसका अल्पतम काल एक समय है और अधिकतम काल एक मुहूर्त है। इस समयके पश्चात् यदि वह प्रमादको विजय कर लेता है तो अप्रमत्त होकर अग्रिम सोपानमें चला जाता है अन्यथा पुन: पंचम गुणस्थान में आ जाता है। इस गुणस्थानकी तुलना श्रोतापन्न अवस्थासे की जा सकती है जहां कामधातु अर्थात् तीव्र वासनायें समाप्त हो जाती है, परन्तु रूपधातु (मन्द राग, मोह, द्वेष) शेष रह जाती है।६ - इस गुणस्थानसे आगे कर्मकी असाता, अशुभ, अयश:कीर्ति, अस्थिर, अरति और शोक " इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान अप्रमत्तसंयत गुणस्थान विकासकी सप्तम श्रेणी है। इस श्रेणी में आकर जीवमें २. पूर्वनिर्दिष्ट-अध्याय ५, चारित्र मोहनीय कर्म गोम्मटसार जीवकाण्ड,गाथा ३३ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३३ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३४ डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ०८२ सागर मल, गुणस्थान सिद्धान्त एक अध्ययन, पृ० १०० उद्धृत वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च, बुलेटिन न०३ (क) जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग,३, पृ०९८ (ख) गलैसनैप डॉक्टराइन ऑफकर्मइन जैन फिलोसफी, पृ०८३ ७. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy