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________________ २०७ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था संयत जीव समय-समय पर संक्लिष्ट और विशुद्ध होता रहता है। लब्धिसारमें भी कहा गया है "देसोसमये समये सुज्झतो संकिलिस्समाणो य" इस गुणस्थानकी विशिष्टता दर्शाते हुए वसुनन्दि श्रावकाचार में यह कहा गया है“सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमट्ठमए"२ श्रावकोंके आचरणको पालन करने वाला संयतासंयत क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव, तीसरे भवमें या देव और मनुष्योंके सुख भोगकर पांचवें, सातवें या आठवें भवमें सिद्ध पदको प्राप्त कर लेता है । जैन मान्य इस गुणस्थान की तुलनागीताके ऐसे योगीसे की जा सकती है जो सिद्धि के लिए प्रयत्नशील है, वह सिद्धिको अवश्य प्राप्त कर लेता है, चाहे अनेक जन्मोंमें ही प्राप्त क्यों न हो। इस गुणस्थान से आगे प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, और लोभका बन्ध नहीं होता और तिर्यंचगति, तिथंच आयु, उद्योत, नीचगोत्र और प्रत्याख्यान चतुष्क कर्म प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणा भी नहीं होती।' ६. प्रमत्तसंयतगुणस्थान प्रमत्तसंयत जीवका व्युत्पत्यर्थ करते हुए वीरसेनस्वामीने कहा है- “प्रकर्षण मत्ता: प्रमत्ता:, सं सम्यक् यता: विरता: संयता: प्रमत्ताश्चते संयताश्च प्रमत्तसंयता" प्रकर्षसे मत्त प्रमादी जीवको प्रमत्त कहते हैं और सम्यक् प्रकारसे विरत अर्थात् संयमी जीवको संयत कहते हैं। इस प्रकार प्रमत्त होते हुए भी जो जीव संयमको प्राप्त हैं उन्हें प्रमत्तसंयत कहते हैं, ये षष्ठगुणस्थानवर्ती कहे जाते हैं। ___ इस गुणस्थानमें आकर जीवका संयम एक देश नहीं रहता अपितु वह पूर्ण संयमको धारण कर लेता है । हिंसा, झूठ, चौरी, कुशील और परिग्रह आदि अनैतिक आचरणका आंशिक त्याग यहाँ पूर्ण त्यागमें परिवर्तित हो जाता है। दयानन्द भार्गवने भी निष्कर्ष रूपमें कहा है कि वह न केवल हानि रहित जीवोंकी हिंसासे विरत होता है अपितु हानिकारक जीवों की हिंसासे भी विरत हो जाता है। १. लब्धिसार, गाथा १७६ २. वसुनन्दिश्रावकाचार, गाथा ५३९ गीता, अध्याय ६,श्लोक १५ (क) गलैसनैप डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी,पृ०८२ (ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ३९० ५. षट्खण्डागम, धवला, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १४, पृ० १७५ ६. जैन एथिक्स, पृ०२१५ - - Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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