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पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें
जैन मान्य पुद्गलका यह सिद्धान्त सांख्य मान्य प्रकृतिसे समानता रखता है, क्योंकि सांख्यमें भी महाभूत, तन्मात्रा, बुद्धि, अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ इन सात तत्त्वोंको प्रकृतिका विकार कहा गया है। गीतामें भी विकारयुक्त क्षेत्रका प्रतिपादन करते हुए पंचमहाभूत, बुद्धि, मन, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, इच्छा, सुख-दु:ख आदि सबको चित्त शक्ति के विकारके रूप में ग्रहण किया गया है जो अचेतन होते हुए भी चेतन सदृश दिखाई देते हैं ।
केशववर्णी ने गोम्मटसार जीवकाण्डकी टीकामें पुद्गलको संसारी जीवोंका वाचक भी कहा है – “मूर्तिमत्सु पदार्थेषु संसारिण्यपि पुद्गला:"३
इस प्रकार शास्त्रलिखित कुछ ऐसे तथ्य हैं जो कि पुद्गल द्रव्यको जड़त्वसे ऊपर उठाकर चेतनत्वके निकट पहुंचा देते हैं । यद्यपि अगुरूलघुत्व गुणके कारण पुद्गल अपनी अचेतनत्व रूप जातिका उल्लंघन करके चेतनत्वको पाने में समर्थ नहीं हैं, परन्तु चेतनवत् प्रतीत अवश्य होता है, इसीलिये इसे चिदाभास कह दिया गया है परन्तु सैद्धान्तिक रूपमें जैन दर्शनमें चिदाभास शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। ९. पुद्गल द्रव्यके भेद प्रभेद... जैन दर्शनमें पुद्गलको विभिन्न दृष्टियोंसे अनेक भागोंमें वर्गीकृत किया गया है। सामान्यत: उसे दो भागोंमें विभक्त किया गया है अणु और स्कन्ध ।' डॉ० हिरियन्नाने भी जैन मान्य इन रूपोंका विवेचन करते हुए पुद्गलके दो रूप कहे हैं - एक सरल या आणविक और दूसरा यौगिक जिसे स्कन्ध कहते हैं ।"
किसी भी वस्तुका विभाजन करते करते एक ऐसी स्थिति आ जाती है, जिससे आगे उसका विभाजन संभव नहीं होता। उस अविभाज्य अन्त्यांश को ही अणु कहा जाता है। ये अणुही घन, घनतर और घनतम संयोगसे स्थूल स्वरूपको प्राप्त होकर स्कन्ध कहलाते हैं। दूसरे शब्दोंमें जब दो या दो से अधिक परमाणु परस्पर बन्धको प्राप्त कर लेते हैं तब वे स्कन्ध कहलाते हैं। आचार्य अकलंक भट्ट ने कहा है
१. सांख्य कारिका, न०३ २. भगवद्गीता, अध्याय १३, श्लोक १५, १६ ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ५९५, सन् १९७९, पृ०८२३ ४. अणव: स्कन्धाश्च, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र २५ ५. भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० १६३ ६. भेदादणु:, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र २७
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