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प्रथम अध्याय वस्तु स्वभाव
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दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुण पज्जयासयं वाजं तं भण्णंति सव्वण्हू॥
पंचास्तिकाय, गाथा १०. १, सामान्य परिचय
वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जैन दर्शन की दृष्टि से जाने बिना, जैन कर्म सिद्धान्त को नहीं जाना जा सकता। इसीलिये सर्वप्रथम वस्तु क्या है, विभिन्न दर्शनों में वस्तु का क्या स्वरूप है, जैन दर्शन से वह किस प्रकार भिन्न है, जैन दर्शन में वस्तु के असाधारण गुण क्या हैं, इत्यादि वस्तु से संबंधित विभिन्न विषयों पर विचार करना आवश्यक है। __ वस्तु क्या है - इस विषय पर विचार करते हुए कर्म सिद्धान्त मर्मज्ञ जिनेन्द्र वर्णी ने कहा है, "जो कुछ भी यहाँ दिखाई दे रहा है या व्यवहार में आ रहा है, उन सबको वस्तु या पदार्थ कहने का व्यवहार लोक में प्रचलित है । वस्तु, पदार्थ और द्रव्य तीनों का एक ही अर्थ है। इसी को सैद्धान्तिक भाषा में कहा जाता है कि जो सत्ता रखता है या जो सत् है वही वस्तु पदार्थ या द्रव्य है। इस प्रकार वस्तु, द्रव्य, सत्, पदार्थ आदि सब एक ही अर्थ का प्रतिपादन करते हैं । जैन दर्शन का वास्तववाद, वास्तविकता तथा सत्ता में भेद नहीं करता। उसके अनुसार वस्तु ही सत् है और सत्ता ही वस्तु है ।
वस्तु के स्वरूप का विवेचन करते हुए आचार्य मल्लिषेण ने कहा है - “वसन्ति गुणपर्याया अस्मिन्निति वस्तु २ जिसमें गुण और पर्यायें रहती हैं, वह वस्तु है । मल्लिषेणाचार्य की यह परिभाषा उमास्वामीकी द्रव्यकी परिभाषा से
१. (क) जिनेन्द्रवर्णी, पदार्थ विज्ञान, १९८२, पृ० ६, (जिनेन्द्रवर्णी ग्रन्थमाला, पानीपत)
(ख) दवियदि गच्छदि ताईताइंसब्भावपज्जयाई जं। दवियं तं मण्णते अणंण भूदं तु सत्तादो॥ (पंचास्तिकाय गाथा ९)
(ग) हवदिपुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता (प्रवचनसार २.१३) २. मल्लिषेणाचार्य, स्याद्वाद् मंजरी, सन् १९३५ श्लोक २३, पृ० २७२
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