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________________ (XI) चित्रकारकी तरह चित्र विचित्र आकृतिको बनाने वाला नामकर्म, कुम्हारके छोटे बड़े घट निर्माण के समान उच्च और नीच कुलमें उत्पन्न करनेवाला गोत्र कर्म, भंडारीकी तरह जीवके अनन्त गुणोंमें बाधा डालने वाला अन्तरायकर्म है। अष्टविध कर्मों की उत्तर प्रकृतियोंका भी संक्षिप्त विवचेन दिया गया है। इस प्रकार इस अध्यायमें जीव और कर्म पुद् गलों की संयुक्तावस्थाका कारण, मूलस्वरूप और उसकी विविध अवस्थाओंका निर्देशन किया गया है । इस प्रकारका विस्तृत विवेचन जैन दर्शनमें ही प्राप्त होता है । षष्ठ अध्यायमें अन्यदर्शनों में कथित मुक्ति मार्ग का निर्देशन करते हुए जैन दर्शनके मुक्ति के मार्गका कथन किया गया है । प्रस्तुत अध्यायमें जीव के पुरुषार्थकी सार्थकता का दिग्दर्शन कराया गया है। जीव अपने सत्य पुरुषार्थ से नवीन कर्म पुद्गलोंके आगमनको रोक सकता है और संचित कर्म पुद्गलों का विनाश कर सकता है । संवर और निर्जरा तत्त्वोंके द्वारा इस पुरुषार्थका विवेचन किया गया है । पूर्वबद्ध कर्म प्रवाहको रोकने के लिए व्रत, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय तथा चारित्रका मार्ग अपनाकर संवर पथ का अनुगमन किया जा सकता है और पूर्वबद्धकर्मों की निवृत्ति के लिए विविध प्रकारके बाह्य तथा आभ्यन्तर तपका उल्लेख किया गया है। विविध प्रकार की साधनाओं के द्वारा जीव क्रमिक विकास करता हुआ क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य तथा करण लब्धिको प्राप्त करता हुआ, मोक्षपथपर आगे बढ़ता जाता है । ' सप्तम अध्यायमें कर्ममुक्तिके विविध सोपानों का जैन मान्य चौदह गुणस्थानोंसे दिग्दर्शन कराया गया है । गुणस्थानों में कर्मों से लिप्त संसारी आत्मासे लेकर कर्मों से मुक्त जीवनमुक्त परमात्मा तक की अवस्थाका वर्णन किया गया है । सिद्ध अवस्था गुणस्थानोंसे अतीत की अवस्था है । अध्यायके अन्त में जीवनमुक्त अवस्था और मोक्षका विभिन्न दर्शनों से तुलनात्मक अध्ययन करते हुए जैन मान्य जीवनमुक्त और मोक्षावस्थाका प्रतिपादन किया गया है । अन्त में परिशिष्ट के रूपमें शोधप्रबन्ध में प्रयुक्त प्राकृत शब्दों का संस्कृत रूपान्तर और मौलिक एवं सहायक ग्रन्थों की सूची दी गयी है। Jain Education International 2010_03 डा० कुमारी मनोरमा जैन रोहतक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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