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________________ (X) चलता रहता है । जब आसक्ति छोड़कर पुद्गलको पुद्गल रूपमें जान लेता है तब कर्मपुद्गलों का संचय नहीं होता और जीव मुक्तावस्थाको प्राप्त हो जाता है । चतुर्थ अध्यायमें कर्म के स्वरूप का तुलनात्मक विवेचन करते हुए जैन मान्य कर्मके स्वरूप का वर्णन किया गया है। जीव और कर्मके पौद्गलिक संबध को द्रव्य कर्म कहा जाता है और जिन कारणों से पौद्गलिक संबंध होता है उसे भावकर्म कहा जाता है । द्रव्य कर्मसे भाव कर्म और भाव कर्म से द्रव्य कर्म इस प्रकार कर्मबन्ध की यह परम्परा अनादि काल से प्रवाहित हो रही है। कर्मसिद्धान्त में द्रव्य कर्मों की दृष्टिसे ही वर्णन किया जाता है। कर्म जिस अवस्थामें बन्ध को प्राप्त होते हैं उसी अवस्था में नहीं रहते अपितु वर्तमान की क्रियाओं और विचारणाओंके द्वारा प्रतिक्षण उनमें परिवर्तन होता रहता है। इस परिवर्तन को दर्शाने के लिये ही बन्ध, उदय, सत्व, अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण, उपशम, उदीरणा, निधत्त और निकाचित इन दस करणोंका उल्लेख किया गया है । 1 पंचम अध्यायमें कर्मबन्ध के कारणों का सामान्य कथन किया गया है और विभिन्न दर्शनों में वर्णित कर्मबन्धके कारणों का उल्लेख करते हुए जैन मान्य कर्मबन्धके कारणों का सूक्ष्म विवेचन किया गया है। कर्मबन्धके मूल कारणों को जानकर ही उनको दूर करने का उपाय किया जा सकता है । बन्ध को प्राप्त कर्मों का कोई न कोई स्वभाव, बन्धे रहने का काल, शक्ति और प्रदेश अवश्य होते हैं। इसी को चतुर्विध बन्धके द्वारा दर्शाया गया है। स्वभावका कथन करने वाला 'प्रकृति बन्ध', काल को दर्शान े वाला 'स्थिति बन्ध', विपाक अर्थात् शक्तिकी हीनाधिकताको दर्शाने वाला 'अनुभागबन्ध' और कर्मों की विरलता तथा सघनता को दर्शाने वाला 'प्रदेशबन्ध' है । जैन कर्मसिद्धान्त में प्रकृतिबन्धको मूल आधार मानकर ही समस्त कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु नाम, गोत्र और अन्तराय । देवताकी मूर्ति पर ढके वस्त्रके समान ज्ञानको आवृत्त करनेवाला ज्ञानावरणीय कर्म, राजद्वार पर बैठे प्रतिहारीके समान दर्शन गुणमें बाधा डालने वाला दर्शनावरणीयकर्म, शहद लिपटी तलवार की धारको चाटने पर जिस प्रकार सुख दु:ख का वेदन होता है उस प्रकार सुख दुःखका वेदन कराने वाला वेदनीय कर्म, मदिरा के सेवन से उत्पन्न मूर्च्छा के समान जीवको मोह से मूर्छित करने वाला मोहनीय कर्म; काल या सांकलके फन्दे में फंसे व्यक्ति के समान निश्चित काल तक जीवको एक ही शरीर में रोक रखनेवाला आयु कर्म; 1 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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