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(IX) द्वितीय अध्यायमें कर्मसिद्धान्त से संबंधित प्रथम मूल तत्त्व जीव और जीवकी कर्मजनित अवस्थाओंका उल्लेख किया गया है। सर्वप्रथम जीवके कर्तृत्व, चेतनत्व आदि अष्ट विशेषताओं के द्वारा जैन मान्य जीवकी अन्य दर्शनों से तुलना की गयी है। शरीर में रहने वाला यह अमूर्तिक और चेतन तत्त्व ही एक शरीर से दूसरे शरीर में जाकर चारों गतियों में भ्रमण करता रहता है। पांच इन्द्रियों को क्रमपूर्वक धारण करने से इसे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय कहा जाता है। पांच प्रकारके स्थावर काय-पृथिवी, जल, अग्नि वायु तथा वनस्पति और एक प्रकारकी त्रसकाय-द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक; इस प्रकार छह शरीरों को धारण करने वाले षट् कायिक जीवों का विवेचन किया गया है। इस प्रकार कर्मजनित अवस्था में जीव अनेक प्रकारका हो जाता है। प्रत्येक जीव अपने कर्मका स्वयं कर्ता है, स्वयं ही भोक्ता है और स्वयं ही पुरुषार्थ करके कर्मजनित अवस्था को नष्टकर सिद्धावस्था को प्राप्त कर सकता है।
तृतीय अध्यायमें कर्मसिद्धान्तसे संबंधित और अजीव तत्त्वमें प्रमुख पुद्गल द्रव्य और पुद्गलकी स्थूल सूक्ष्म अवस्थाओंका विवेचन किया गया है। अन्यदर्शनकार जिसे पंचभूत कहते हैं अंग्रेजी में जिसे मैटर कहा जाता है उस मूर्तिक और दृष्ट पदार्थको ही जैन दर्शनमें पुद्गल कहा गया है । यह संघात से मिल जाता है और भेदसे पृथक् हो जाता है इस भेद संघातसे पूर्णगलन को प्राप्त होनेके कारण ही इसकी पुद्गल संज्ञा दी गयी है। जीव अपने मन वचन व कायके योगों की क्रिया से और काषायिक प्रवृत्ति से चुम्बक की तरह सूक्ष्म कर्मपुद्गलों को आकर्षित करता रहता है । भौतिक जगतकी व्याख्या यधपि अन्य सभी दर्शनोंमें की गयी है परन्तु जीवके साथ नीरक्षीरवत् संबंध को प्राप्त कर्मपुद्गलोंका विवेचन केवल जैन दर्शनमें ही किया गया है। पुद्गलमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चार-गुण पाये जाते हैं। पुद्गलका सबसे छोटा अंश परमाणु कहलाता है और दो या दो से अधिक परमाणुओंके मिलने से स्कन्धोंकी उत्पत्ति होती है। विविध प्रकारके स्कन्धों से आहारक, तैजस, भाषा, मनो और कार्मण नामक पंचविध वर्गणायें बनती हैं, इन वर्गणाओं से ही शरीरकी उत्पत्ति होती है । औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण पंचविध शरीरोंका मूलकारण पुद्गल ही है। शरीर, वचन, मन, प्राण, सुख, दु:ख, जीवन, मरण सब पुद्गल द्रव्यके ही कार्य हैं । जीवोंके शरीरों व इन्द्रियों का निर्माण भी पुद्गलसे ही होता है। जितना भी यह दृष्ट जगत है यहाँ सब पुद्गल ही दृष्टिगोचर होता है। जीवजबतक अपनी प्रवृत्तिसे इन सूक्ष्म कर्मपुद्गलों को संचित करता रहता है तब तक संसार पथ
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