________________
१४२
जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन
नामकर्म
स्थावर
पिण्ड प्रकतियाँ प्रत्येक प्रकतियाँ
असदशक
स्थावर दशक (८)
(१०)
(१०) गति ४ परघात
वस जाति ५ उपघात
बादर
सूक्ष्म शरीर ५ उच्छवास
पर्याप्त
अपर्याप्त अंगोपांग३ आतप
प्रत्येक
साधारण बन्धन ५ उद्योत
स्थिर
अस्थिर संघात ५ अगुरूलघु
अशुभ संहनन ६ निर्माण
सुभग
दुर्भग संस्थान६ तीर्थकर
सुस्वर
दुस्वर वर्ण ५
आदेय
अनादेय गन्ध२
यश:कीर्ति
अयशकीर्ति रस५ स्पर्श आनुपूर्वी ४ विहायोगति २ नामकर्मके उत्तर भेदोंका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार किया गया है१. पिण्ड प्रकृतियाँ
एकसे अधिक प्रकृतियों के समूहमें निर्दिष्ट होने वाली प्रकतियों को पिण्ड प्रकृतियाँ कहा जाता है। ये समूहोंमें वर्गीकृत हैं और संख्या में पैंसठ हैं। जीवको एक भवसे दूसरे भवको प्राप्त कराने वाली प्रकृतिको गति नाम दिया गया है। यह नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवके भेदसे चार प्रकारकी है। चारों गतियों में जीवोंको अव्यभिचारी और सादृश्य धर्मसे एकत्रित करने वाली प्रकृति, जाति है ।' एकेन्द्रियादि जीव समान होकर भी इन्द्रिय भेदके कारण परस्पर एक्यको प्राप्त नहीं होते, यही अव्यभिचारीपन है और इन्द्रियत्वकी दृष्टिसे समान है, यही सादृश्यता है। १. एकेन्द्रिय जाति २. द्वीन्द्रिय जाति ३. त्रीन्द्रिय जाति ४. चतुरिन्द्रिय जाति और ५. पंचेन्द्रिय जातिके भेदसे जाति पाँच प्रकारकी कही गई
शरीरोंका निर्माण करनेवाली प्रकृतिको शरीर नामकर्म कहते हैं। यह १. औदारिक २. वैक्रियिक ३. आहारक ४. तैजस और ५. कार्मणके भेदसे पाँच प्रकारका है। शरीरके
१. षदखण्डागम धवा १, पृ० १३५ २. पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक ९७६-९७९ ३. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३८९ ४. षट्खण्डागम ६/१, सूत्र ३० ५. गोम्मटसार कर्म काण्ड, गाथा ३३
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org