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जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन
कर्म सिद्धान्तकी भाषामें कहा जा सकता है कि मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीव, दर्शनमोहनीयकी कर्मप्रकृतियोंके प्रगाढ़ बन्धनमें बंधा होने के कारण तत्त्वार्थ श्रद्धा से विमुख होता है, ' तत्त्वार्थ श्रद्धानके अभाव में शुभाशुभ, कर्तव्याकर्तव्य तथा लक्ष्यका विवेक मिथ्यादृष्टि जीवको नहीं होता ।
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जैनदर्शनके अनुसार समस्त विश्वकी अधिकांश आत्मायें मिथ्यात्व गुणस्थान में ही हैं, इस गुणस्थानमें मिथ्या श्रद्धानके कारण संवरका अभाव होता है ।
मिथ्यादृष्टि जीव एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान इन पांच प्रकारके मिथ्या परिणामोंसे कलुषित होता है। इन पांच प्रकारके मिथ्यात्वका परिचय कराते हुए वीरसेन स्वामीने कहा है
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सत्-असत्, एक- अनेक, नित्य- अनित्य आदि धर्मों में एकान्त श्रद्धा रखना एकान्त मिथ्यात्व है । सीपको चांदी समझने के समान विपरीत श्रद्धा रखना विपरीत मिथ्यात्व है । विपरीत मिथ्यात्वके वशीभूत हुआ आत्मा हिंसा, झूठ, चोरी, व राग, द्वेष, मोह आदि को ही सुख तथा मुक्तिका कारण मान लेता है । ज्ञान, दर्शन, तप, संयम आदि की अवहेलना करके एक मात्र विनयको ही मुक्तिका कारण मानना वैनयिक मिथ्यात्व है, "यह स्थाणु है या पुरुष" इस प्रकारके संशयमें ही भटकाने वाला मिथ्या श्रद्धान संशयमिथ्यात्व कहलाता है, ज्ञानके अभाव रूप श्रद्धानको अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं । अज्ञान मिथ्यात्व के वशीभूत हुआ जीव हिताहितके विवेकसे रहित होकर अहित में ही प्रवृत्ति करता रहता है ।
बौद्धदर्शनमें भी मिध्यात्वको अविद्याजनित अवस्था कहा गया है, जिसके फलस्वरूप मिथ्यादृष्टिका प्रादुर्भाव होता है और व्यक्ति असत् को सत्, अनात्माको आत्मा, नश्वरको अविनाशी और दुःखको ही सुख समझने लगता है । " मिथ्यात्व दशाकी तुलना गीताकी तामस प्रवृत्तिसे की जा सकती है जहाँ प्राणियों की ज्ञान शक्ति, मायासे कुण्ठित रहने के कारण पापमय और आसुरी हो जाती है ।
१.
राजवार्तिक, पृ०५८८
२. मिध्यादृष्टि गुणस्थाने संवरो नास्ति, वृहद् द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा, ३४ एयंतविणय विवरीयसंसयमण्णाणमिदि हवे पंच, बारस अणुवेक्खा, गाथा ४८
३.
8.
५.
६.
षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ८, भाग १, पृ० २०
सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० १० भगवद्गीता अध्याय ७, श्लोक १५
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