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________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन शुद्धचेतना है। इसे ही ज्ञान चेतना भी कहते हैं, क्योंकि शुद्धचेतनाका भाव ज्ञाता दृष्टा भावसे जानना मात्र होता है । इष्टानिष्ट बुद्धिका सद्भाव ज्ञान चेतना में नहीं होता, क्योंकि ज्ञान चेतना वाला जीव अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य से सम्पन्न कर्म और कर्मफलके भोगसे रहित, स्वाभाविक सुख में तन्मय होता है। अशुद्धचेतना दो प्रकार की होती है - कर्मचेतना और कर्मफल चेतना। अशुद्धचेतना आत्मा और कर्म के संयोगसे युक्त होती है । इष्टानिष्ट बुद्धिपूर्वक अपने कर्मका अनुभव करने वाली चेतना, कर्मचेतना कहलाती है और इन्द्रिय जनित सुख-दुखका अनुभव करने वाली चेतना कर्मफल चेतना कहलाती है । अमृतचन्द्राचार्यने पंचास्तिकायकी टीकामें कहा है - "कार्यानुभूति लक्षणा कर्मफलानुभूति लक्षणा चाशुद्धचेतना"३ . इस प्रकार जैनदर्शनमें जीवको चेतना लक्षण वाला कहा गया है जो सर्व अवस्थाओंमें जीवके साथ रहता है। चेतनाके योग से ही इन्द्रियाँ जड़ होते हुए भी क्रियावती प्रतीत होती हैं और शरीरका अस्थिपंजर, चेष्टाहीन होते हुए भी सचेष्ट दिखाई देता है। चैतन्य के अभावमें जीवकी कल्पना करना भी असम्भव जैन दर्शन का चेतना संबंधी यह विचार न्यायवैशेषिकके चेतना संबंधी विचारसे भिन्नता रखता है, क्योंकि न्यायवैशेषिकमें चैतन्यको आत्मा का एक आगन्तुक गुण माना गया है। न्यायवैशेषिकके अनुसार आत्मा स्वभावत: अचेतन है। परन्तु शरीर, इन्द्रिय, मन आदिसे संयुक्त होनेपर आत्मा में चैतन्यका संचार होता है। जैन दर्शनका चेतना संबंधी यह विचार चार्वाक मतसे भी भिन्न है, क्योंकि चार्वाक ने चेतनाको पौद्गलिक माना है । चार्वाकके मतानुसार चैतन्य विशिष्ट देह ही आत्मा है, देहके नष्ट हो जाने पर आत्मा भी नष्ट हो जाता है जैन दर्शनके अनुसार, जीवनी शक्ति शरीरसे बिल्कुल पृथक् है, अत: यह विचार भ्रमात्मक है १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग II, पृ० २९६ २. पंचास्तिकाय, तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ३८ ३. पंचास्तिकाय, तत्त्वप्रदीपिका, गाथा १६ ४. “चेतना लक्षणो जीव:" सर्वार्थसिद्धि, पृ० १४ ५. Atma is essentially non-conscious, जैन एथिक्स पृ० ४० ६. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १४ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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