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________________ ७६ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन कारण यह अनिन्द्रिय या ईषत् इन्द्रिय कहलाती है। मनके सकल कार्य आभ्यन्तर ही होते हैं, उनके लिए नेत्रादि इन्द्रियों का आश्रय नहीं लेना पड़ता, इसीलिए इस मनको "अन्तर्गतकरण" अथवा "अन्तष्करण" भी कहा जाता है। इस मन या अन्त:करणको अनेकविध विकल्प जाल रूप माना गया है। जैन मान्य मनकी तुलना सांख्य मान्य मनसे की जा सकती है, क्योंकि सांख्य दर्शनमें भी इस विचित्र इन्द्रियको संकल्प विकल्पात्मक माना गया है।" यद्यपि मनको अनिन्द्रिय कहा गया है, परन्तु सब इन्द्रियाँ इसीकी चेष्टासे ही चेष्टाशील हैं । इन्द्रिय जनित समस्त ज्ञान और क्रियाएं मनके द्वारा ही चालित होती हैं, इसीलिए मनको इन्द्रियोंका राजा भी कहा जाता है। मनके इस स्वरूप पर से इसकी कारणभूता मनोवर्गणाके स्वरूपका स्मष्ट अनुमान कियाजासकता है, क्योंकि कारणके गुणही कार्यमें अभिव्यक्त हुआ करते हैं। यह वर्गणा जहां ध्वन्यात्मक स्पन्दन का आश्रय है, वहाँ संकल्प, विकल्प, गुण, दोष, विचार औरस्मरणादिकार्यकरने के लिए भीसमर्थ है।' इसप्रकार यह वर्गणासूक्ष्मताकेक्षेत्रमें आगे बढती हुई, पौद्गलिक होते हुए भी जीवात्माके आश्रयसे चेतनवत प्रतीत होने लगती है। ड. कार्मण वर्गणा अन्तमें कार्मण नामकी उस वर्गणाका उल्लेख प्राप्त होता है, जो कर्मसिद्धान्तका मूल है। प्रसंगवश इसके कार्यभूत कर्म शब्दका उल्लेख पहले कई बार हो चुका है और अग्रिम अध्यायोंमें इसका विस्तृत विवेचन किया गया है। मन, वचन और कायके द्वारा जीवात्माकी कर्मचेतना जो कुछ भी विचारती है, बोलती है अथवा चेष्टा करती है वह सब उसका कर्म कहलाता है। कर्तृत्व युक्त होनेके कारण ही उसे कर्म चेतना कहा गया है। यद्यपि यह चेतनावत् प्रतीत अवश्य होती है, परन्तु यथार्थमें कामण वर्गणासे उत्पन्न होनेके कारण पौद्गलिक ही है क्योंकि इस वर्गणाके पुद्गल स्कन्ध कर्मों के योग्य होते हैं और रागद्वेषादि १. णोइंदियत्ति सण्णा तस्स हवे......गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाया ४४४ २. इन्द्रियानपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवत् बहिरनुपलब्धेश्च अन्तर्गते - करणमन्त: करणमित्युच्यते। सर्वार्थसिद्धि, पृ० १०९ ३. नाना विकल्पजाल रूप मनोभण्यते। वृहदद्रव्य संग्रह, गाथा १२, पृ० ३० ४. संकल्पकमिन्द्रियं च, सौख्यकारिका, ने० २७ । ५. "युगपज्ज्ञानक्रियानुत्पलिमनसो हेतु:* राजवार्तिक, पृ०५७ ६. सवार्थसिद्धि, पृ० १०९ ७. पश्चनिर्दिष्ट- अध्याय ४,५ ८. स्वेहापूर्वेष्टानिष्ट विकल्परूपेण विशेष रागद्वेष परिणमनं ; कर्मचेतना, वृहदद्रव्यसंग्रह, (गाथा १५) ९. जैनेद्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० ५२१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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