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पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें
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है ।' यद्यपि भाषा शब्द सुनकर प्राय: अक्षर, शब्द, वाक्य आदिके सम्मिलित स्वरूपका ग्रहण होता है, परन्तु यहाँ इसका अर्थ वह सामान्य ध्वनि है, जो अक्षर, शब्द, वाक्य आदिमें सर्वत्र अनुगत है । स्वर तथा व्यंजनका समूह तथा उनके योगसे उत्पन्न शब्द व वाक्य आदि स्वयं सत्ताधारी नहीं है । ये सब ध्वनिके उपाधिकृत कार्य अथवा परिणाम हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने इन्हें पुद्गल की पर्याय कहा है |
जैनकी एक विशेष मान्यता है कि सर्वकर्मों का क्षय हो जाने पर, केवलज्ञान होने के पश्चात्, अर्हत् देवके सर्वांगसे एक विचित्र गर्जना रूप ओंकार ध्वनि निकलती है । भगवानकी इच्छा न होते हुए भी भव्य जीवोंके कल्याणके लिए यह ध्वनि सहज ही निकलती है, इसमें तालु, दन्त, औष्ठ तथा कण्ठके हिलने रूप कोई व्यापार नहीं होता । यह वाणी सब प्राणियोंका हित करने वाली तथा वर्ण विन्यास रहित होती है ।" यह वाणी प्राणियोंका अज्ञान दूर करके उन्हें तत्त्वबोध कराने वाली होती है । सब प्रकारकी उपाधियोंसे रहित होने के कारण ही यह मेघ गर्जन अथवा घंटा निनाद जैसी होती है। इस प्रकार भाषा वर्गणा, आहारक वर्गणा जैसी स्थूल नहीं है, अपितु अपनी ही जातिका एक विशिष्ट स्कन्ध है जो आहारक वर्गणासे सूक्ष्मतर है ।
मनोवर्गणा
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भाषा वर्गणासे भी सूक्ष्म चतुर्थ वर्गणाका नाम मनोवर्गणा है । भाषा वर्गणाके पारस्परिक संश्लेषसे, इस शरीरमें “मन” नामक सूक्ष्म शरीरकी रचना होती है | आगमके उल्लेखानुसार - हृदयस्थल पर अष्टदल कमलके आकार वाली एक विशेष प्रकारकी रचना है, जो मनोवर्गणाके स्कन्धोंसे उत्पन्न होती है। शरीरका अंग होने के कारण इस रचनाको " द्रव्यमन” कहा जाता है । ७ नेत्र, श्रोत्र आदि की भाँति यह भी यद्यपि एक इन्द्रिय है, परन्तु नेत्रादिकी भाँति प्रत्यक्ष न होनेके १. तत्त्वार्थ सूत्र विवेचना, पृ० १२९
२.
प्रवचनसार, गाथा १३२
३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० ४२९
४. एदासिं भासाणं तालुवदंतोट्ठकंठवावारं ।
परिहरियं एक्ककालं भव्वजणाणंदरभासो | तिलोएपण्णति, अधिकार, १, गाथा ६२
५.
“ यत्सर्वात्महितं न वर्ण सहितं” पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गाथा १
६. महापुराण, सर्ग २३, श्लोक ६९
७. हिदि होदिहु दव्वमणं वियसिय अट्ठच्छदारविंदं वा ।
अंगोवंगुदयादो मणावग्गणखंददो णियमा ॥ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४४३
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