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________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें ७७ परिणामों के निमित्त से उत्पन्न होते हैं। धवलामें कहा गया है कि “कर्मणि भव वा कार्मणं कर्मैव वा कार्मणमिति कार्मणशब्द व्युत्पते:"।' कर्ममें होना अथवा कर्मरूपहोना ही कार्मण शब्दका व्युत्पत्ति अर्थ है। मनोवर्गणा नामक चतुर्थ वर्गणा यद्यपि अत्यधिक सूक्ष्म हो जाती है, परन्तु कार्मण वर्गणाकी इस पंचम श्रेणीको प्राप्त हो जाने पर यह सूक्ष्मता, चरम सीमाको प्राप्त हो जाती है। यहां आकर यह बौद्धमान्य आलय विज्ञान ओर मनोविज्ञानिकोंकी उपचेतनाके समान हो जाती है, जो जीवके द्वारा किये गये समस्त कर्मों के समस्त संस्कारोंको अपने में धारण करने में समर्थ है। समस्त संस्कारोंको धारण करने वाला कार्मणवर्गणाका कार्यभूत कार्मण शरीर, स्थूल शरीरके छूट जानेपर भी जीवके साथ भव भवान्तरमें भ्रमण करता रहता है। कार्मण वर्गणाओंके पारस्परिक संश्लेषसे उत्पन्न यह सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीरसे क्षीरनीरकी भाँति एक रूप रहता है, परन्तु सूक्ष्म होनेके कारण दृष्टिपथमें नहीं आता। यद्यपि तैजस शरीर भी सूक्ष्म है और स्थूल शरीरमें एकरूप होकर रहता है, परन्तु कार्मण शरीर तैजस शरीरसे अधिक सूक्ष्म है।' कार्मण वर्गणा रूप, रस, गन्ध वाले परमाणुओंका कार्य होने के कारण मूर्त, साकार और पौद्गलिक होते हुए भी इन्द्रियगोचर तथा अप्रतिघाती होनेके कारण अमूर्त निराकार और अपौद्गलिक प्रतीत होती है । यद्यपि पौद्गलिकत्व, मूर्तत्व और साकारत्वका इस वर्गणामें प्रत्यक्ष किया जाना संभव नहीं है परन्तु मूर्त विषयों द्वारा फलभोग किये जानेके कारण इसका ज्ञान, अनुमान प्रमाणसे या आगम प्रमाणसे किया जा सकता है। कार्मणशरीर जीवोंके समस्त आगामी कर्मों का प्ररोहक, आधार तथा उत्पादक है और त्रिकालगोचर समस्त सुख तथा दु:ख का बीज है। यद्यपि यह शरीर दृष्टिपथ में नहीं आता, परन्तु इसके बिना औदारिक शरीरका कोई मूल्य नहीं है। मृत्युके समय बाहरका यह स्थूल शरीर जीवसे पृथक् हो जाता है, परन्तु कार्मण शरीर अनादि कालसे, भव भवान्तरमें भी सदा जीवके साथ ही जाता है। यह कार्मण शरीर, उस समय तक जीवसे पृथक् नहीं होता, जब तक जीव स्वयं १. षट्खण्डागम, धवला १४, खण्ड ५, पृ० ३२८ २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग एक, पृ०७५ ३ तेजसात् कार्मणं सूक्ष्ममिति-सर्वार्थसिद्धि,पृ० ३७ ४. अप्रतिघाते, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र ४० ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १९ ६. सव्वकम्माण परूहणुप्पादयं सुहृदुक्खाणं बीजमिदि-षटखण्डागम १४, सूत्र २४१ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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