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________________ ५८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन शब्दादिके समान ये पुद्गल द्रव्यके ही परिणाम हैं। तमको जैन दर्शनमें अभाव रूप न मानकर पुद्गल द्रव्यकी पर्यायके रूपमें ही माना है, क्योंकि जैनोंके अनुसार अभाव काई प्रमाण सिद्ध विषय नहीं है।' ७. पुद्गल द्रव्य के कार्य जैन दर्शनके अनुसार यह विश्व छह द्रव्योंका समुदाय है । छहों द्रव्यों का परस्पर सह अस्तित्व है संघर्ष नहीं, क्योंकि छहों द्रव्य अपने स्वाभाविक गणों के कारण ही परिणमन करते हुए, परस्परमें उपयोगी होते है। विश्वव्यवस्था परनियंत्रण करने वाली कोई पृथक् सत्ता नहीं है, अपितु द्रव्योंमें निहित शक्तियाँ ही अपने गुणोंका उल्लंघन न करते हुए, अन्य द्रव्योंके लिए सहयोगी हो जाती पुदगल और संसारी जीवका परस्पर घनिष्ट संबंध है। पुद्गल असंख्य रूपों में संसारी जीवोंके लिए उपकार करता है । जीवके प्रति किये गये कार्यों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है - द्रव्य कर्म रूपसे शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण आदिका निर्माण करता है और मोह तथा अज्ञानमय परिणामोंके द्वारा सुख दु:ख, जीवन-मरण आदि रूपसे विविध कर्मों की रचना करता है। तत्त्वार्थ सूत्रमें पुद्गल द्रव्यके नोकर्म और कर्मरूप कार्यों को दो सूत्रोंमें वर्णित किया गया है - "शरीरवाड्० मन: प्राणापाना : पुद्गलानाम्" "सुख - दु:ख जीवितमरणोपग्रहाश्च"" पुद्गल के विभिन्न भेद-प्रभेदोंको मुख्य रूपसे पांच वर्गणाओंमें वर्गीकरण किया जा सकता है । पाँच वर्गणाओं को भी दो भागोंमें विभक्त किया गया है । नोकर्म वर्गणा और कर्मवर्गणा। इनका विस्तृत वर्णन पृथक् वर्गणा शीर्षकमें किया गया है । शरीरके योग्य नोकर्म पुद्गल वर्गणाओंका ग्रहण प्रत्येक संसारी जीव किया करता है। औदारिक आदि सभी शरीरोंका निर्माण पुद्गलसे ही होता है। द्वीन्द्रिय जीवोंसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक के सभी संसारी जीव भाषा रूप पुद्गलोंका ग्रहण किया करते हैं । जीवसे प्रेरित होकर वचन रूपमें परिणत होने १. वृहद् द्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा १६ २. जीवस्स बहु पयारं उवयारं कुणदि पुग्गलं दव्वं । देहं च इंदियाणि य वाणी उस्सास - णिस्सासं । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २०८ ३. अण्णं पि एवमाई उवयारं कुणदि जाव संसारं। मोह-अणाण-मयं पि य परिणामं कुणदि जीवस्स ।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २०९ ४. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र १९, २० Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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