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________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें वाले पुद्गल ही वाणीके रूपमें कार्य किया करते हैं । इसी प्रकार मनोवर्गणाओंका ग्रहण संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव किया करते हैं, जिससे संकल्प विकल्पात्मक कार्य किया जाता है । इसके अतिरिक्त स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्रादि इन्द्रियोंकी और श्वास् निश्वास अथवा प्राण-अपान रूप वायुकी रचना भी पौद्गलिक है ।सुखलाल संघवीके अनुसार ये सब जीवनप्रद होने के कारण संसारी जीवके लिए अनुग्रहकारी है और भाषा, मन, प्राण और अपान, इन सबका व्याघात और अभिभव देखने में आता है, इसी कारण ये भी शरीरकी भाँति ही पौद्गलिक हैं । नेमिचन्द्राचार्य ने भी पुद्गल को शरीर वाणी मन और श्वासोच्छवासका कारण मानते हुए तीन गाथाओंमें नोकर्म वर्गणाओं और कर्म वर्गणाओं रूप पौद्गलिक जगत्का वर्णन किया है। ___ संसारमें कोई भी पदार्थ केवल इष्ट या अनिष्ट नहीं होते, क्योंकि एक ही पदार्थ किसीको इष्ट प्रतीत होता है और किसीको अनिष्ट । एक ही व्यक्तिको भी एक समयमें कोई पदार्थ इष्ट प्रतीत होता है और कालान्तरमें वही पदार्थ अनिष्ट प्रतीत होने लगता है। रागके विषयभूत इष्ट पदार्थ सुखका कारण होते हैं और द्वेष के विषयभूत अनिष्ट पदार्थ दु:खका कारण होते हैं। ____ इसी प्रकार आयु कर्मके निमित्त से देहधारी जीवके वर्तमान शरीरमें प्राण और अपानका चलते रहना जीवन है और प्राणापानका विच्छेद हो जाना मरण है। अन्न जलादि पुद्गल पदार्थ प्राणधारण करने में उपकारी होते हैं, इसके विपरीत, शस्त्र, अग्नि आदि पुद्गल पदार्थ मरणमें निमित्त होते हैं । सुख दु:खमें वेदनीय कर्म और जीवन-मरणमें आयु कर्म कारण होता है। इस कारण संसारी प्राणीशुभाशुभरूप कर्म पुद्गलोंसे संयुक्त होकर सुखदु:ख,जीवन-मरण आदि परिणामोंको भोगते रहते हैं। मुक्तावस्थामें जीव सुखदु:ख, जीवन-मरण आदि परिणामोंसे रहित होते हैं, क्योंकि सुख-दु:ख और जीवन-मरण आदिके कारण भूत कर्मवर्गणा रूपपुद्गलों का मुक्तावस्थामें अभाव पाया जाता है । जीव जब कर्मपुद्गलोंसे मुक्त हो जाते हैं, तब कर्म पुद्गल जन्य सुख-दु:खादि परिणामोंसे भी मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार जीवके अतिरिक्त जो कुछ भी है सब पौद्गलिक है । ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच वर्गणाओंसे निर्मित पंचविध १. संघवी सुखलाल, तत्त्वार्थ सूत्र विवेचना, पृ० १२६ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा६०६-६०८ ३. जैन तत्त्वकलिका, सप्तम् कलिका, पृ०२३३ ४. Sphere of this Matter....... In fact all that is other than Jiva, 'Materialism in Indian thought p. 105. ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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