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जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन शरीर, मन, वचन, सुख दुःख, जीवन-मरण आदि रूप विभिन्न स्कन्ध और परमाणु सब पुद्गल द्रव्यमयी हैं ।"
८. संस्कार और चिदाभासी जगत्
संस्कार शब्द प्रायः सभी दर्शनों में किसी न किसी रूपमें प्राप्त होता है । बौद्धके द्वादश प्रतीत्य समुत्पादमें संस्कारकी गणनाकी गयी है, जिसका संबंध अतीत जीवनसे बताया गया है ।' न्याय और वैशेषिक दर्शनमें चौबीस गुणोंमें संस्कारकी गणनाकी गयी है और गति स्मृति और स्थितिके रूपमें तीन प्रकारका संस्कार माना गया है । ३
जैन दर्शनमें बौद्ध दर्शन और न्यायवैशेषिक दर्शनकी भाँति संस्कार शब्दका उल्लेख मौलिक पदार्थों या तत्त्वों के रूपमें तो प्राप्त नहीं है, परन्तु स्मृतिबीजके रूपमें संस्कार शब्दका प्रयोग अनेक स्थानों पर मिलता है । पूज्यपादाचार्यने बन्ध तथा मोक्ष के हेतुकी विवेचना करते हुए कहा है -
अविद्याभ्यास-संस्कारैरवशं क्षिप्यते मनः ।
तंदैव ज्ञान संस्कारैः स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ॥५
अर्थात् मिथ्याज्ञान रूप संस्कारोंके द्वारा मन विक्षिप्त होकर पराधीन हो जाता है और सम्यक्ज्ञान रूप संस्कारोंके द्वारा आत्मा स्वंय अपने स्वरूपमें स्थिर हो जाता है । इस प्रकार देह, वाणी अथवा बुद्धि आदिके द्वारा किसी भी कार्यको करते रहनेसे अभ्यासवश चेतनामें एक ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जो पुन: उसी कार्यको करने के लिए प्रेरित करती है, इसीको संस्कार कहा जाता है ।
संस्कारों द्वारा चालित चेतना, चेतनावत् प्रतीत अवश्य होती है, परन्तु वास्तवमें वह चेतना नहीं है, इसे चिदाभासी जगत कहा जा सकता है, जो पौगलिक होते हुए भी चेतनावत् प्रतीत होता है ।
अग्निके संयोगसे उत्पन्न होनेके कारण जिस प्रकार उष्णता जलका स्वाभाविक धर्म नहीं है, आगन्तुक है, इसी प्रकार मोह, राग, द्वेषादि चांचल्य, चेतनाके स्वाभाविक धर्म न होकर आगन्तुक हैं, क्योंकि ये संस्कारोंके संयोगसे उत्पन्न होते हैं । उष्णावस्थामें उष्णताको चाहे जलका विकार कह लें, परन्तु
१.. पंचास्तिकाय, गाथा ८२
२. हरेन्द्र सिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० ९५
३. हरेन्द्र सिन्हा, वही, पृ० १९५
४. संस्कारस्मृतिबीजमादधीत, अकलंक भट्ट, सिद्धि विनिश्चय, १९५१, पृ. १४
५. पूज्यपाद, समाधिशतक, श्लोक ३७
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