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________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें ६१ वास्तवमें वह जलका विकार न होकर अग्निका होता है, उसी प्रकार जीवकी संसारावस्थामें दृष्ट यह वैषम्य भले ही जीवका विकार दिखाई देता हो, परन्तु वास्तवमें वह चेतनाका विकार न होकर संस्कार रूप पुद्गलोंका ही है।' संस्कार अशुभ भी हो सकते हैं और शुभ भी । क्रोधादिके संस्कार अशुभ कहलाते हैं और भक्ति, आत्मचिंतन, परोपकार, क्षमा आदिके संस्कार शुभ कहलाते हैं। शुभ संस्कार परम्परा रूपसे कर्म विनाशमें सहायक होते हैं और अशुभ संस्कार जन्म पुनर्जन्म रूप संसारका कारण बन कर भवभवान्तर तक जीवके साथ रहते हैं। ___ संसारावस्था में प्रत्येक जीवमें इतने संस्कार पड़े हुए हैं कि उनकी गणना नहीं की जा सकती। यही कारण है कि व्यक्तिको इच्छासे अथवा अनिच्छासे, ज्ञात भावसे अथवा अज्ञात भावसे, संस्कारों से प्रेरित होकर विभिन्न प्रकारके कार्यों में व्यस्त रहना पड़ता है। इन संस्कारोंके पौद्गलिक और मूर्त होनेके कारण ही जीवकी कर्मबद्ध अवस्थाको भी मूर्त कह दिया जाता है।' इस प्रकार संस्कारों को एक दृष्टिसे पौद्गलिक कहा गया है, परन्तु सर्वथा पौद्गलिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जिस प्रकार चूने व हल्दीके मिश्रणसे उत्पन्न लाल रंगको न चूनेका कह सकते हैं और न ही हल्दीका | उसी प्रकार चेतना तथा पुद्गलसे मिश्रित चिदाभासी तत्त्वको न अकेले जीवका कह सकते हैं और न ही अकेले पुद्गलका । जिस प्रकार स्त्री तथा पुरूषके संयोगसे उत्पन्न पुत्रका लोकमें विवक्षावश देवदत्तका पुत्र है या देवदत्ताका पुत्र है ऐसा कह दिया जाता है उसी प्रकार जीव तथा पुद्गलके संयोगसे उत्पन्न रागादि भाव रूप चिदाभासी जगत्को विवक्षावश अकेले जीवका या अकेले पुद्गलका भले ही कह दिया जाये परन्तु वास्तवमें वह दोनों के संयोगका ही परिणाम है ।' - तात्त्विक दृष्टिसे देखनेपर राग-द्वेषादि भाव अथवा इनके विविध विस्तार वाले जगत्की सत्ता ही नहीं है, क्योंकि अज्ञान भावमें ही रागादिक भावोंकी प्रतीति होती है, ज्ञानमें स्थित योगीको समाधि कालमें इनकी प्रतीति ही नहीं होती। जिस प्रकार शुद्धजीवमें.रागद्वेषादि भावोंकी उपलब्धि नहीं होती, उसी प्रकार रूप, रस, गन्ध, वर्ण वाले भौतिक पुद्गलमें भी रागद्वेषादि जगत् उपलब्ध नहीं होता। इस १. समयसार, गाथा ५१,५५ २. षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ६, भाग १, पृ०४१ ३. “कर्मबद्धपर्यायापेक्षया स्यान्मूर्त:” सर्वार्थसिद्धि, पृ० १६१ २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश. भाग तीन. प०५६९ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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