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________________ ५२ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन दर्शनमें जीव के साथ संबंधको प्राप्त होने वाले विशिष्ट पुद्गलोंको ही कर्म संज्ञा दी गयी है । यह सबंध संसारी जीवोंमें ही पाया जाता है, मुक्त जीवों में नहीं। इससे सिद्ध है कि जीवके साथ कर्म पुद्गलोंका तादात्म्य संबंध नहीं है, संयोग संबं है, जिसे दूर किया जा सकता है। अतः जीवके साथ कर्मपुद्गलों का संबंध अनादि होते हुए भी सान्त है । इस प्रकार पुद्गल जैन कर्म सिद्धान्तका अनिवार्य अंग है। जैन कर्म सिद्धान्तको समझने के लिए पुद्गल और पुद्गलकी सूक्ष्म स्थूल अवस्थाओं का परिचय पाना अनिवार्य है । २. पुद्गल द्रव्यके विशेष गुण पुद्गल शब्द अपना एक विशेष अर्थ रखता है। पुद्+गल, इन दो शब्दों के मिलने से पुद्गल शब्द बनता है। पुद् का अर्थ है - पूर्ण होना और गल का अर्थ है - गलना, अर्थात् टूटना, जो पूर्ण भी हो सकता है और टूट भी सकता है। पंद कैलाशचन्द्र शास्त्री के शब्दों में “जो टूटे-फूटे बने और बिगड़े वे सब पुद्गल द्रव्य हैं । " जैन मान्य पुद्गल यद्यपि बनता बिगड़ता रहता है, परन्तु फिर भी पुद्गलक अस्तित्व नष्ट नहीं होता, क्योंकि पुद्गलको जैनोंने वास्तविक सत्ता के रूप में माना है और जैन मान्य सत्ता, उत्पाद् - व्यय युक्त होते हुए भी अपने ध्रौव्यत्वको नहीं छोड़ती । पुद्गल द्रव्यमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, मूर्तत्त्व और अचेतनत्व ये छ विशेषतायें पायी जाती हैं, देवसेनाचार्यने कहा है - “पुद्गलस्यस्पर्शरसगन्धवर्णा: मूर्तत्त्वमचेतनत्वमिति षट् "५ पुद्गल द्रव्यमें प्रत्येक समयमें ये षट् गुण पाये जाते हैं । जैन दर्शनमें गुण गुणीके भेदको नहीं माना गया है, इसीलिये पुद्गल द्रव्यके ये गुण किसी भी अवस्थामें पुद्गलसे पृथक नहीं होते। इन गुणका पुद्गल से तादात्म्य संबंध है। आगे इन गुणोंकी पृथक-पृथक अनेक पर्याय हो जाते हैं, जिनकी संख्या बीस होती है । मूर्तत्व और अचेतनत्व मिलाकर कुल बाईस विशेषतायें हो जाती हैं। इस १. (क) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० २५ (ख) Karman is a complexus of very fine matter. Glasenapp, The Doctrine of Karaman in Jain Philosophy p.3. २. पुरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गला, राजवार्तिक, पृष्ठ ४३४ ३. कैलाशचन्द शास्त्री, जैन धर्म, १९७५, पृ० ९३ ४. पूर्व निर्दिष्ट, अध्याय एक, पृ० २४ ५. आलाप पद्धति, पृ० ३३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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