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________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १३३ मोहनीयकर्म (२८) दर्शन मोहनीय-३ . चारित्र मोहनीय-२५ मिथ्यात्व सम्यक्मिथ्यात्व सम्यक्त्व कषाय १६ नोकषाय ९ क्रोध मान माया लोभ चतुष्क चतुष्क चतुष्कं चतुष्क हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्रीवेद पुरूषवेद नपुसंक वेद १. दर्शनमोहनीय कर्म दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन ये सव एकार्थ वाचक नाम हैं । आत्मा, आगम या पदार्थों में रूचि या श्रद्धाको दर्शन कहते हैं । उस दर्शनको जो मोहित करता है अर्थात् विपरीत कर देता है, उसे दर्शन मोहनीय कर्म कहते हैं । यह दर्शन मोहनीय तीन भागोंमें विभक्त होता है - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । मिथ्यात्वके उदयसे जीव सर्वज्ञ प्रणीत मार्गसे विमुख, तत्त्वार्थके श्रद्धान करने में निरुत्सक और हिताहितके विचार करने में असमर्थ होता है, यही "मिथ्यात्व" दर्शनमोहनीय है । यही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेषके द्वारा क्षीणाक्षीण भेदशक्ति वाले कोदोके समान, अर्धशुद्ध स्वरस वाला होनेपर “सम्यग्मिथ्यात्व" कहलाता है। वही मिथ्यात्व जब शुद्ध परिणामों के कारण, अपने उदयको रोक देता है और उदासीन रूपसे अवस्थित रहकर आत्माके भावको नहीं रोकता तव सम्यक्त्व कहलाता है । इसका वेदन करने वाला सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्व प्रकृति अश्रद्धा रूप होती है, और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति श्रद्धा व अश्रद्धासे मिश्रित होती है । सम्यक् प्रकृतिकी श्रद्धामें शिथिलता अर्थात् अस्थिरता होती है, जिसके कारण चल, मलिन और अगाढ़ ये तीन दोष उत्पन्न होते हैं। यह प्रकृति श्रद्धा गुणका घात नहीं करती, परन्तु शंकादि दोषोंको उत्पन्न करती है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टिको ही इसका उदय होता है। १. षट्खण्डागम धवला, ६/१, पृ० ३८ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३८५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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