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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त - एक अध्ययन!
मनसे, वचनसे अथवा कायसे हम जो कुछ भी अच्छा या बुरा विचारते हैं। अच्छा या बुरा बोलते हैं अथवा अच्छा या बुरा करते हैं, वे ज्योंके त्यों कार्म शरीरपर टेपरिकार्डरकी भाँति अंकित हो जाते हैं । यही चित्तका वह अक्षयको बन जाता है जिसे उपचेतना भी कहा जाता है ।
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जिस प्रकार मशीन माध्यमसे हम टेपपर अंकित ज्योंका त्यों सब कुछ सुन सकते हैं, उसी प्रकार विशेष काल प्राप्त होने पर मन, वचन, काय माध्यम से, कार्मण वर्गणाओंपर अंकित सब कुछ ज्यों का त्यों अनुभव कर सकते हैं। जैसा संस्कार उस पर अंकित होता है, वैसा ही मनके द्वारा हम विचारते हैं। वचन के द्वारा हम बोलते हैं और शरीरके द्वारा वैसा ही कार्य हम करते हैं। जैस ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जानते हैं, वैसा ही कर्मेन्द्रियोंके द्वारा करते हैं और अन्त:करण के द्वारा भोगते हैं । इस प्रकार ज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वका वाहक तथ परिचालक कार्मण शरीर ही है ।
सूक्ष्मता के कारण यद्यपि यह दृष्टिपथमें नहीं आता, परन्तु कर्मके क्षेत्रम इसका महत्व सर्वोपरि है। जड़ होते हुए भी टेप के समान मन-वचन-कायक संस्कारों को ग्रहण कर लेने के कारण चेतनवत् प्रतीत होता है ।
१५. पंचविध शरीरोंका तुलनात्मक विवेचन
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जैनदर्शनानुसार उपरोक्त पंचविध वर्गणाओंसे पांच शरीरोंका निर्माण माना गया है - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण । पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि औदारिक शरीर सबसे स्थूल होता है । औदारिक से सूक्ष्म वैक्रियिक, वैक्रियिकसे सूक्ष्म आहारक, आहारकसे सूक्ष्म तैजस और कार्मणशरी सबसे सूक्ष्म होता है । मनुष्य व तिर्यञ्चोंका स्थूल और दृष्टिगत शरीर औदारिक होता है । देव और नारकियोंका शरीर जन्मसे ही वैक्रियिक होता है, परन्तु मनुष्यों को यह शरीर विशेष तपस्याके बलसे ही प्राप्त हो सकता है । आहारव शरीर विशेष तपस्वियोंको केवल मनुष्यगतिमें ही प्राप्त होना संभव है और तैजस और कार्मण शरीर सभी संसारी जीवोंको प्राप्त है। अंतिम दोनों शरीरोंका संबंध सभी संसारी जीवोंके साथ नित्य ही रहता है, स्थूल शरीरके छूटने पर भी यह शरीर जीवके साथ ही रहता है। ये दोनों शरीर प्रतिघात रहित होते हैं । इनकी गतिमें
१. औदारिक, वैक्रियिकाहारक तैजसकार्मणानि शरीराणि तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय, २, सूत्र ३६ २. औपपादिकं वैक्रियिकम्, लब्धि प्रत्ययंच, तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २, सूत्र ४६, ४७
३. शुभंविशुद्धमव्याधाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव, वही, सूत्र ४९ ४. पूर्व निर्दिष्ट, वर्गणायें ।
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