SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन १. ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान, अवबोध, अवगम और परिच्छेद ये सब एकार्थ वाचक नाम हैं। ज्ञानको जो आवृत करता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म है। पूज्यपादजीने आवरणका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है – “आवृणोत्यावियतेऽनेनेति वा आवरणम् अर्थात् जो आवृत करता है अथवा जिसके द्वारा आवरण किया जाता है, वो आवरण है। ज्ञानावरण कर्म आत्माको इस प्रकार आवृत किये रहता है कि अर्थका ज्ञान नहीं होने पाता। ज्ञानावरणीय कर्मका स्वरूप दर्शाते हुए ब्रह्मदेवने कहा है - "सहजशुद्धकेवलज्ञानमभेदेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं ज्ञानशब्द वाच्य परमात्मानं वा आवृणोतीति ज्ञानावरणं" । केवलज्ञानादि अनन्तगुणोंका आधारभूत ज्ञान शब्दसे कथनीय परमात्म स्वरूपको आवृत करने वाला कर्म ज्ञानावरणीय कर्म है। ज्ञानावरणीय कर्मकी उपमा देवताकी मूर्ति पर ढके हुए वस्त्रसे दी जा सकती है। देवताकी मूर्ति पर ढका हुआ वस्त्र, जिस प्रकार देवताको आच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञानको आच्छादित किये रहता है। आवरण जितना कम प्रगाढ़ होगा, उतना ज्ञानका प्रागट्य भी बढता जाता है । आवरणका स्वरूप दर्शाते हुए यशोविजयजी ने दो प्रमुख तथ्यों की ओर निर्देश किया है - (क) आवरण एक प्रकारका द्रव्य है। (ख) यह द्रव्य कितना ही निबिड़ क्यों न हो, परन्तु अपने आवार्य ज्ञान गुणको सर्वथा आवृत नहीं कर सकता ।' आवरणके स्वरूपके विषयमें भी दो धारणायें हैं । बौद्ध और न्यायवैशेषिकोंने भी क्लेशावरण, ज्ञेयावरण आदि आवरणों को स्वीकार किया है। परन्तु इसे चित्त का एक संस्कार मात्र कहा है, जड़ रूप नहीं माना, परन्तु सांख्य और वेदान्तने इस आवरणको जड़ रूप माना है । सांख्यके अनुसार बुद्धितत्त्व का आवारक तमोगुण है, जो एक सूक्ष्म, जड़ द्रव्यांश मात्र है, जिसे सांख्य परिभाषा अनुसार प्रकृति या अन्त:करण कह सकते हैं। वेदान्तके अनुसार भी आवरणको अज्ञान और एक प्रकारका जड़ द्रव्य ही कहा गया है। १. णाणमवबोहो अवगमो परिच्छेदो इदि एयट्ठो। तमावरेदित्तिणाणावरणीय कम्मं । षट्खण्डागम, धवला ६, भाग १, पृ०६ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३८० ३. बृहद् द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३१ ४. ज्ञानावरणीयस्य कर्मण: का प्रकृति: देवतामुखवस्त्रमिव ज्ञानप्रच्छादनता" वही, गाथा ३३ ५. यशोविजय उपाध्याय, ज्ञानबिन्दु प्रकरणम्, संवत् १९९८, पृ० १४ ६. वही, पृ० १५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy