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। कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था .
१९३ छद्मस्थ अर्थात् आवरणपनेका सूचक है । सयोगकेवली गुणस्थानमें सयोग पद अन्त: दीपक है । यह नीचेके सम्पूर्ण गुणस्थानोंके सयोगपनेका प्रतिपादक है।'
__संवरके स्वरूपका विशेष परिज्ञान करने के लिए चौदह गुणस्थानोंका विवेचन आवश्यक है। इनमेंसे प्रथम चार गुणस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि में औदयिक पारिणामिक क्षायोपशमिक और औपशमिक आदि भाव पाये जाते हैं । ये चारों दर्शनमोहकी अपेक्षा प्रधान हैं । प्रथम चार गुणस्थानों में चारित्र नहीं है। इससे आगे के देशसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयतमें क्षायोपशमिक भाव है । यहाँ उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम की अपेक्षा चारित्रमोह की प्रधानता से कथन किया गया है। इससे ऊपरके अपूर्वकरणादि गुणस्थान भी चारित्र मोहकी अपेक्षा ही कहे गये हैं। इनमें उपशम तथा क्षपक दो श्रेणियाँ होती हैं।
गुणस्थानके विषयमें वीरचन्द गांधीने एक विशेष दृष्टिकोण प्रदान करते हुए कहा है कि जैन दर्शन में गुणस्थानों का विवेचन न्याय के अनुसार किया गया है, कालकी दृष्टि से नहीं, क्योंकि प्रात: के समय कोई जीव निम्न सोपानपर हो सकता है, और वही जीव दोपहर बाद उच्चतर सोपानोंपर भी जा सकता है, इसी प्रकार प्रात: उच्च सोपानवर्ती जीव दोपहर बाद निम्न सोपानपर भी आ सकता है। जीव जिस किसी सोपान पर भी आरोहण या अवरोहण करे उस सोपानके निश्चित कर्म उसमें अवश्य ही पाये जायेगें।
गुणस्थान व्यवस्था के अनुसार जीवको प्रथमसे तृतीय गुणस्थान तक बहिरात्मा, चतुर्थसे बारहवें गुणस्थान तक अन्तरात्मा और अन्तिम दो गुणस्थानमें परमात्मा कहा जाता है। त्रिविध आत्मा--
आगम में आत्माके तीन रूपों को स्वीकार किया गया है- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। उपनिषदमें आत्मा के तीन रूपों का कथन करते हुए कहा गया है. “त्रिविध: पुरुषोऽजायतात्माऽन्तरात्मा परमात्माचेति ।” शरीरको १. षट्खण्डागम, धवला टीका १, भाग १, पृष्ठ १७६, १९०, १९१
चारित्तंणत्थि जदोअविरद अंतेसु ठाणेसु, गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा १२ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा १३-१४ 14 Stages are in their logical order and not in chronological order. In the morning you may be in a low stage and afternoon in a higher one or vice versa. The Karma Philosophy, P.60 वृहदद्रव्यसंग्रह, गाथा १४ (६) आत्मोपनिषद् १,१
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