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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ही आत्मा मानना और शरीरके जन्म-मरण को ही आत्माका जन्म-मरण मानने वाले अज्ञानी पुरुष बहिरात्मा होते हैं । इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख, काम, मोह, आदिको ही आत्म रूपमें न मानने वाला आत्मा अन्तरात्मा होता है और सर्वगुणोंसे रहित, शुद्ध, सूक्ष्म, निरंजन, शब्द, रूप, रस रहित, निराकार आत्माको परमात्मा कहा गया है।'
जैन दर्शनमें भी आत्मा के इन तीनों रूपों का वर्णन किया गया है, जो मूल रूपमें उपनिषद्से समानता रखते हैं। आत्माके इन तीनों रूपों का गुणस्थानकी दृष्टिसे निम्न प्रकार कथन किया जा सकता है
आत्मा
परमात्मा
जघन्य
बहिरात्मा
अन्तरात्मा उत्कृष्ट उत्कृष्ट
उत्कृष्ट प्रथमगुणस्थानवर्ती बारहवें गुणस्थानवर्ती सिद्ध गुणस्थान से अतीत मध्यम मध्यम
- मध्यम द्वितीयगुणस्थानवर्ती ५ से ११ गुणस्थान
अयोग केवली
१४ गुणस्थानवर्ती जघन्य
जघन्य तृतीय गुणस्थानवर्ती चतुर्थ गुणस्थानवर्ती
सयोग केवली (अविरत सम्यग्दृष्टि) १३ गुणस्थानवर्ती बहिरात्मा-अन्तरात्मा-परमात्मा
___उपरोक्त चार्टमें चौदह गुणस्थानोंमें तीन प्रकारकी आत्माओंका दिग्दर्शन कराया गयाहै-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।बन्धके पांचो कारण-(मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषायऔरयोग) जिनजीवोंमें पायेजाते हैं ऐसेजीवबहिरात्माकहलाते हैं। बहिरात्मा जीवोंमें मिथ्यात्व कर्मका उदय होता है, तीव्र कषायोंका समावेश होता है और ये देह और आत्माको एक माननेके कारण ही बहिरात्मा कहे जाते हैं। प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानमें जीव उत्कृष्ट बहिरात्मा है, दूसरे सासादन गुणस्थानमें जीव मध्यम बहिरात्मा है और तीसरे
१. आत्मोनिषद १,२,३,४ २. जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९२ ३. मिच्छत्त परिणदप्पा तिव्व कसाएण सुठ्ठ आविट्ठो।
जीवं देह एक्कं मण्णंतो होदि बहिरप्पा। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९३
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