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________________ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था २०५ डॉ० सागरमलने औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि की तुलना स्थविरवादी बौद्ध परम्पराकी श्रोतापन्न अवस्थासे की है, जिस प्रकार औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवमें सम्यक् मार्गसे पराड्.मुख होनेकी सम्भावना रहती है, उसी प्रकार श्रोतापन्न साधकमें भी मार्गच्युत होने की सम्भावना रहती है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टिकी तुलना ऐसे वृद्ध पुरुष से की जा सकती है, जो लकड़ीको शिथिलता पूर्वक पकड़ कर चलता है, जिस प्रकार शिथिलता पूर्वक लकडीको पकड़नेसे वह वृद्ध कभी भी गिर सकता है, उसी प्रकारी शिथिल श्रद्धाके कारण क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि कभी भी विचलित हो सकता है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव चतुर्थ असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे प्रारम्भ होकर, सप्तम अप्रमत्त गुणस्थान तक होते हैं। इससे आगेकी श्रेणियों में इस जीवका सम्यक्व क्षय अथवा उपशममें से एक श्रेणीको प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार चतुर्थगुणस्थानवी जीवकी तीन अवस्थायें निर्दिष्ट की गई हैं। महायानी बौद्धसाहित्यके “बोधि प्रणिधिचित्त" से इस अवस्थाकी तुलना की जा सकती है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्माकी दृष्टि सम्यक् होती है, चाहे वह तीनों अवस्थाओंमें से किसी भी अवस्थाको प्राप्त क्यों न हो। वह यर्थाथ मार्गको जानता है और उस पर चलने की भावना भी रखता है, परन्तु मार्गपर चलना प्रारम्भ नहीं करता । बोधिप्रणिधिचित्तमें भी इसी प्रकार यर्थाथ मार्गमें गमन की और लोकपरित्राण की भावना होती है, परन्तु वह भावना कार्यमें प्रवृत्त नहीं होती। अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, वज्र वृषभनाराच संहनन, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, औदारिक शरीर और औदारिक अंगोपांग (कर्मबन्ध अध्याय में निर्दिष्ट) इन दस कर्म प्रकृतियोंका बन्ध इस गुणस्थान से आगे नहीं होता।" डॉ० ग्लॉसनैप ने भी इस तथ्य का निर्देशन किया है। ५. संयतासंयत गुणस्थान-- यह विकास की पंचमश्रेणी है । वीरसेन स्वामी ने संयतासंयतका व्युत्पत्यर्थ सागरमल, गुणस्थान सिद्धान्त एक तुलनात्मक अध्ययन, पृ० ८०, वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च बुलेटिन नं०३ षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १२, पृ० १७१ षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, पृ०३९७ सागरमल, गुणस्थान सिद्धान्त एक तुलनात्मक अध्ययन पृ० ८९ उद्धृत वैशाली इंस्टीच्यूट रिसर्च बुलेटिन नं०३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ०९८ गलॉसनैप डॉक्टराईन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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