SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन गुण प्रत्यय अवधिज्ञान अनुगामी अननुगामी वर्धमान हीयमान अवस्थित अनवस्थित जो अवधिज्ञान जीवके साथ दूसरे भवमें भी जाता है उसे अनुगामी कहा हैं, दूसरे भवमें न जाने वाला ज्ञान अननुगामी कहलाता है, विशुद्ध परिणामों प्रभावसे जो ज्ञान नित्य वृद्धिको प्राप्त होता रहे उसे वर्धमान कहा गया है। संक्ले परिणामों के कारण जो ज्ञान घटता रहे उसे हीयमान कहते हैं । घटने बढ़नेसे अवधिज्ञानको अवस्थित कहते हैं और घटने बढ़ने वाले अवधिज्ञानको अनवरि कहते हैं। पूर्वोक्त भिन्न भिन्न प्रकारके अवधिज्ञानोंको आवरण करने वाले को अवधिज्ञानावरणीय कहते हैं। अवधिज्ञानके भेदोंके असंख्यात विकल्प भी सं हैं इसी कारण अवधिज्ञानावरणकी असंख्यात प्रकृतियाँ हैं।' ४. मन:पर्ययज्ञानावरणीय मनपर्ययज्ञानका अर्थ करते हुए पूज्यपादजीने कहा है “परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते । साहचर्यात्तस्य पर्ययणं, परिगमनं मन:पर्यय: बिना पूछे दूसरेके मनोगत बातको प्रत्यक्ष जान लेना मन: पर्ययज्ञान है मन:पर्ययज्ञान अवधिज्ञानसे अधिक सूक्ष्म तथा विशुद्ध होता है । इसका विष्णु अवधिज्ञानके विषयसे अल्प होता है । यह दो प्रकारका होता है - ऋजुमति औ विपुलमति । ऋजुमति केवल वर्तमानमें चिन्तित पदार्थको ही जानता है, परन विपुलमति चिन्तित, अचिन्तित, अर्धचिन्तित और चिन्तित पूर्व सभी पदार्थों जानने में समर्थ होता है।" सुखलालने इस विषयका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है - चिन्तनी वस्तुके भेदके अनुसार चिन्तनमें प्रवृत मन भिन्न भिन्न आकृतियोंको धारा करता रहता है, वे आकृतियाँ ही मनकी पर्याय हैं, उन आकृतियोंको जानने वाले ज्ञान ही मन:पर्ययज्ञान है । मन:पर्ययज्ञानी आकृतियोंको देखकर ही व्यक्ति १. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १२७, कर्मग्रन्थ भाग १, गाथा ८ २. कर्मग्रन्थ, भाग १,गाथा९ ३. ओहिणाणावरणीयस्स कम्मस्स असंखेज्जजाओ पयडीओ...... . असंखेज्जविपप्पत्तादो, षट्खण्डागम, धवला १३, भाग ५, पृ० २८९ ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ०९४ ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० २७२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy