________________
जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन
६६
स्कन्धों का कारण होता है परन्तु स्वयं किसीका भी कार्य नहीं है। परमाणुकी मुख्य पांच विशेषताओंका वर्णन किया गया है । '
१. परमाणु शाश्वत है । २. परमाणु शब्द रहित है । ३. परमाणु एक प्रदेशी है । परमाणु अविभागी अथवा निरंश है ।
8.
५. परमाणु मूर्तिक है ।
१.
परमाणु शाश्वत है, क्योंकि यह त्रिकाल अविनाशी है, यद्यपि विविध परमाणुओं के मिलापसे यह एक पर्यायसे दूसरी पर्यायको प्राप्त होता रहता है, तथापि अपनी परमाणु रूप मूल सत्ता को कभी नहीं छोड़ता । परमाणुको तीक्ष्ण अस्त्रोंके द्वारा छेदा भेदा नहीं जा सकता, अग्निके द्वारा जलाया नहीं जा सकता और जलके द्वारा गलाया नहीं जा सकता क्योंकि ये अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं । स्कन्धके रूपमें इन्द्रिय ग्राह्य हो जाने पर भी परमाणु रूपमें इन्द्रिय ग्राह्य नहीं हैं, क्योंकि ये आदि, मध्य और अन्तसे रहित होते हैं । परमाणु यद्यपि जड़ और अचेतन होते हैं, परन्तु परमाणुकी यह नित्यता आत्माकी नित्यतासे साम्यता रखती है, क्योंकि आत्माकी नित्यताका दिग्दर्शन कराते हुए, गीतामें भी आत्माको अछेद्य, अदाह्य और अशोष्य कहा है, जिसे अग्नि जला नहीं सकती, शस्त्र काट नहीं सकता, जल गला नहीं सकता और पवन सुखा नहीं सकता ।
परमाणु इस अव्यक्त रूपकी साम्यता सांख्य मान्य प्रधान तत्त्वसे की जा सकती है, जो प्रकृतिकी उस अवस्था का द्योतक है जिसमें सत्व, रज और तम इन तीन गुणोंकी साम्यावस्थाके कारण प्रकृतिके गुण अव्यक्त रहते हैं । "
२. परमाणु शब्द रहित हैं- जैन मान्यताके अनुसार परमाणु स्वयं अशब्द अर्थात् शब्द रहित हैं, परन्तु विभिन्न परमाणुओंके मिलापसे शब्द पर्यायको धारण कर लेता है । शब्दकी उत्पत्ति अनन्त परमाणुओंके समूह रूप पुद्गल वर्गणाओं से होती है, क्योंकि जब अनन्त परमाणुओं के समूह रूप स्कन्ध परस्पर संघटनको प्राप्त होते हैं, उसी समय शब्दकी उत्पत्ति होती है, परमाणु स्वयं अशब्दमयहोते हैं। जयसेनाचार्यकी तात्पर्यवृत्तिके शब्दोंमें
“एक प्रदेशत्वेन कृत्वानंतपरमाणुपिंड लक्षणेन शब्द पर्यायेण सह विलक्षणत्वात् स्वयं व्यक्ति रूपेणाशब्द: ५
१. “सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो” पंचास्तिकाय, गाथा ७७
२. सत्थेण सुतिक्खेण छेत्तुं भेत्तुं च जं किरसक्कं ।
जलयणलादि हिं णासं ण एदिसो होदि परमाणु ॥ तिलोएपण्णति, अधिकार १ गाथा ९६
३. भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक १३
४. सांख्यकारिका, न० ८
५. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गाथा ७९
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org