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कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें
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दृष्टिसे अन्य सभी दर्शनोंके कर्म सिद्धान्त पर पृथक् पृथक् विचार करना आवश्यक है -
(क.) न्याय वैशेषिक से तुलना
न्यायवैशेषिक दर्शनमें कर्मको “अदृष्ट" कहा गया है। धर्म व अधर्म रूप क्रियाओं का जो संस्कार आत्मापर पड़ता है वही "अदृष्ट" है । विश्वकी समस्त वस्तुएं यहाँ तक कि परमाणु भी अदृष्टसे प्रभावित होते हैं।' इस अदृष्टका फल ईश्वरके माध्यम से प्राप्त होता है ।
जैनोंके मतानुसार पुद्गल द्रव्य अनादिकालसे विद्यमान है । मन, वचन, कायकी क्रियाओंके द्वारा पुद्गलमें एक विशेष प्रकारका संस्कार उत्पन्न होता है, जिससे पुद्गल कर्म रूप में परिणत हो जाता है । यह संस्कार पुद्गल द्रव्यसे अभिन्न है, इसीलिए कर्मको भी पौद्गलिक कहा जाता है । नैयायिकोंने भी संस्कारको अचेतन कहा है, क्योंकि नैयायिकों के मतानुसार आत्मा ही चेतन है, उसके गुण चेतन नहीं हैं। इस दृष्टिसे जैन मान्य कर्म और न्याय मान्य संस्कारमें समानता है । परन्तु न्यायवैशेषिकोंके अनुसार अदृष्टका फल ईश्वरके माध्यम से प्राप्त होता है, जबकि जैन मतानुसार जीव स्वयं कर्मका कर्त्ता है और उसका फल भी उसीके अनुसार स्वयं भोगता है । कर्मफलकी व्यवस्थामें जैन किसी ईश्वरीय शक्तिके नियंत्रणको स्वीकार नहीं करता । ३
(ख.) मीमांसा दर्शनसे तुलना
अन्य दार्शनिक जिसे कर्म, संस्कार, योग्यता, सामर्थ्य या शक्ति कहते हैं, उसे मीमांसा दर्शनमें अपूर्व नामसे कहा गया है । अपूर्वकी उत्पत्ति वेदविहित कर्मसे होती है । यह अपूर्व जैनोंके भाव कर्मके समान है । मीमांसाके अनुसार कर्मसिद्धान्त स्वचालित है। इसे संचालित करनेके लिए ईश्वरकी कोई आवश्यकता नहीं है। मीमांसाका यह सिद्धान्त जैन मान्य कर्मसिद्धान्तसे समानता रखता है । (ग) योग दर्शनसे तुलना
योगदर्शन में संस्कारको वासना, कर्म या अपूर्व भी कहा गया है । अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पांच कर्म और कर्म से पांच क्लेश, इस प्रकारके कार्यकारण भावको, बीजाड्०कुरकी तरह अनादि माना है । जैनोंने भी १. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० १६
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२. दलसुख मालवणिया, आत्म मीमांसा, पृ० १०० ३. जिनेन्द्रवर्णी, कर्म सिद्धान्त, पृ० ३
४. हरेन्द्र सिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६
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