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ही नहीं मानता, केवल पुरुषार्थको ही मानने वाला पुरुषार्थवाद है । इस प्रकार जगत् के कारणका अन्वेषण करते हुए विभिन्न कारणोंकी चर्चा की गई है।
कर्मवादके समर्थक विचारकोंने इन सब वादका कर्मवादके साथ समन्वय करते: हुए पंच कारण समवाय को प्रस्तुत किया है। अनेकान्तवादी होनेके कारण जैन दर्शन यह स्वीकार नहीं करता है कि इनमें से केवल एक या दो कारण पर्याप्त हैं। कोई भी कार्य अपनी उत्पत्ति के लिए अनेकों कारणोंकी अपेक्षा रखता है, जैसे मिट्टीका पिण्ड घट रूप कार्यकी उत्पत्तिमें उपादान रूपसे समर्थ होते हुए भी कुम्हार, दण्ड, चक्र, डोरा, जल, काल, आकाश आदि अनेकों "नैमित्तिक" कारणोंकी अपेक्षा करता है । उसी प्रकार विभिन्न वादों का सहवर्तित्व ही कार्य की उत्पत्ति हेतु होता है । काल, स्वभाव, नियति, दैव (पुराकृत कर्म) और पुरूषार्थ (वर्तमान कर्म)। इन पाँचोंका समवाय ही जैन दर्शनमें मुख्यतासे स्वीकार किया गया है । इनमें से किसी एकको मानकर अन्यकी उपेक्षा करना मिथ्यात्व कहा गया है |
इस तथ्य की पुष्टिमें कहा जा सकता है कि कृषक कृषि कर्ममें तभी सफल होता है जब पंच समवाय अनुकूल हों । खेतमें बीज बोने का समय अनुकूल हो, का अंकुरित होनेका स्वभाव हो, क्योंकि जला हुआ बीज समय पर बोने पर भी अंकुरित नहीं होगा, खेतमें उसे अंकुरित करने की शक्ति अर्थात् नियति हो, और पूर्वकृत शुभ कर्म का उदय हो, तब कृषकका पुरूषार्थ सिद्धहोता है । इस प्रकार यद्यपि मुख्य कारण वर्तमानका पुरुषार्थ है, परन्तु काल आदि सहकारी कारण हैं, दैव भी पूर्वकृत कर्मका ही परिणाम होता है। इस प्रकार पांचों कारण ही सम्मलित रूपसे कार्यकी निष्पत्ति में कारण होते हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद् तथा भगवद्गीतामें भी पाँचों कारणके संयोगको माना गया है ।
नियतिको जैनाचार्यों ने काललब्धि कहा है, वस्तुमें निहित स्वधर्म विशेषको “स्वभाव" कहा है' और विधि, ब्रह्मा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म, ईश्वर ये सब कर्म रूपी ब्रह्माके वाचक शब्द कहे हैं। " वर्तमान कर्मको पुरूषार्थ के द्वारा अभिहित
१. नेमिचन्द्राचार्य, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, श्लोक, ८७९-८८३
२.
आत्माराम, जैन तत्त्व कलिका, छठी कलिका, पृ० १५०
३.
४.
५.
(क) श्वेताश्वतर उपनिषद्, अध्याय १, श्लोक २
(ख) भगवद्गीता, अध्याय १८, श्लोक, १४, १५
स्वेनात्मना असाधारणेन धर्मेण भवनं स्वभाव इत्युच्यते । राजवार्तिक, पृ० ५३९
विधिसृष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम् ।
ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेया: कर्मवेधसः || महापुराण, सर्ग ४, श्लोक ३७
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