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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ___ चतुर्विध कर्मबन्धकी व्याख्यामें प्रकृति बन्धके अतिरिक्त कर्मों के कालकी सीमाका निर्धारण स्थिति बन्धके द्वारा किया गया है। कुछ कर्म हजारों वर्षों के लम्बे कालके लिए बन्धको प्राप्त होते हैं और कुछ क्षणिक बन्धको प्राप्त होते हैं। बन्धनेके पहले समयसे लेकर फलोन्मुख होनेके समय तकके समयको कर्मोका स्थिति बन्ध कहा जाता है । अनेक पौराणिक आख्यानोंसे यद्यपि कर्मों की स्थितिका आभास प्राप्त होता है , जिससे यह सिद्ध होता है कि अन्य दर्शनों में भी कोंके स्थिति बंध को स्वीकार अवश्य किया है, परन्तु जैनदर्शनकी भाँति कर्मसिद्धान्तके मुख्य अंगके रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया और न ही, जैन दर्शनके समान अन्य दर्शनोंमें कर्मके एक-एक स्वभावका, जघन्य और उत्कृष्ट समयका निर्धारण किया गया है | कर्मों की स्थितिका अपकर्षण और उत्कर्षण संबंधी विवेचन भी अन्य दर्शनोंमें जैन दर्शनके समान स्पष्ट नहीं किया गया है।
तीव्र रागद्वेषादि परिणामोंके द्वारा बन्धको प्राप्त कर्म तीव्र रूपसे ही फलोन्मुख होते हैं और मन्द परिणामों के द्वारा बद्ध कर्म मन्द रूपसे ही फलोन्मुख होते हैं। इस प्रकार कर्मकी विपाक शक्ति को अनुभागबन्धके द्वारा निर्दिष्ट किया गया है और कर्मों की सघनता और विरलताको दर्शाने वाले प्रदेश बन्धके द्वारा कर्म परमाणुओं की संख्याका अवधारण किया गया है । जिस प्रकार रूईका गोला विरल होता है और लोहेका गोला सघन होता है इसी प्रकार कर्मों का बन्ध भी विरल और सघन दो प्रकार का होता है। विरल प्रदेश बन्धमें कर्म परमाणुओं की मात्रा कम होती है और सघन प्रदेश बन्धमें कर्म परमाणुओं की मात्रा अधिक होती है। __इस प्रकार कर्मों के कारण प्रत्ययों तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश इन चुतुर्विध बन्धके निर्देशनसे, जैन मान्य कर्मकी धारणाका सुस्पष्ट अवलोकन हो जाता है । कर्मों के कारण और बन्ध के स्वरूपको जानकर ही विविध साध नाओंके द्वारा कर्मों के कारणभूत प्रत्ययोंको दूर किया जा सकता है। कारण प्रत्ययोंका जैसे-जैसे अभाव होता जाता है, वैसे-वैसे ही कर्मों की प्रकृति, पापसे पुण्य, स्थिति-उत्कृष्टसे जघन्य, अनुभाग-तीवसे मन्द और प्रदेश-सघनसे विरल होते चले जाते हैं। अन्तमें समस्त कारण प्रत्ययोंका अभाव हो जाने पर कर्म बन्धका ही विघटन हो जाता है और जीव सिद्धावस्थाको प्राप्त कर लेता है।
कर्मबन्धके नवीन कारणोंको रोक देना संवर कहा जाता है और पूर्वबद्ध कर्मोंको जीर्ण करना निर्जरा कहा जाता है। इनका विवेचन अग्रिम अध्यायमें किया गया है।
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