________________
वस्तु स्वभाव प्रयोजनकी अपेक्षा भिन्न हो जाता है, जिससे वस्तु एक दूसरेसे विलक्षण प्रतीत होती है। अपने स्वरूपके ग्रहण और अन्य के स्वरूपके त्यागसे ही वस्तुके वस्तुत्व गुण की व्यवस्था है। इस गुणके कारण घट, घटका ही कार्य करता है पटका नहीं। जीव द्रव्यका वस्तुत्व गुण ज्ञाता और दृष्टा होना है और पुद्गलका वस्तुत्व गुण बनना और नष्ट होना है, इस प्रकार द्रव्योंके स्वभावकी व्यवस्था भी वस्तुत्व गुणके द्वारा ही बन पाती है। (३) द्रव्यत्वगुण- वस्तुका जो गुण वस्तु की सभी पर्यायों में अन्वित रहता है, उसे द्रव्यत्वगुण कहते हैं। वस्तु के इसी गुणके कारण जीव द्रव्य नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव बनता है, पुद्गल द्रव्य स्कन्ध और परमाणुका रूप धारण करता है, काल द्रव्य समय, आवली, पहर आदि के नामोंसे पुकारा जाता है और आकाशद्रव्य घटाकाश, मठाकाश, लोकाकाश आदि रूपोंमें व्यवहृत होता है।
. वस्तुका नित्य प्रवाहित होना स्वभावसे ही सिद्ध है, क्योंकि जगत् में प्रत्यक्ष रूपसे परिणमन दृष्टिगोचर होता है। यह स्वाभाविक परिणमन सत् है, क्योंकि सत् उत्पाद व्यय धौव्य युक्त कहा गया है। वस्तु का यह गुण, जैन मान्य वस्तुको बौद्धमान्य क्षणिकतासे और वेदान्तमान्य कूटस्थतासे पृथक् करता है । वस्तुके इसी गुणके कारण वस्तु का विभिन्न रूपों में निर्माण होता है । इस प्रकार सृष्टिकी विचित्रता को बनाने वाला यह गुण, ईश्वर कर्तृत्व का भी विरोध करता है। कुन्दकुन्दाचार्य ने द्रव्यत्व गुण का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है
दवियदि गच्छदि ताई ताई सम्भावपज्जयाई जं। दवियं तं भयंते अणण्णभूदं तु सत्तादो॥
द्रव्यत्वगुणके कारण, द्रव्य विभिन्न सत्ताभूत पर्यायों में यथानाम रूप से परिवर्तन करता हुआ भी, सत्ता के साथ अनन्य रूप से अवस्थित है । सूर्यबिम्ब
और अकृत्रिम चैत्यालयों को जैनदर्शन में त्रिकाल स्थायी कहा गया है, परन्तु त्रिकालस्थायी मानते हुए भी द्रव्यत्व गुण के कारण उसके सूक्ष्मपरिवर्तन को भी स्वीकार किया है।
१. विमलदास, सप्तभंगी तरंगिनी, सन् १९१६, पृ० ३८ २. जैन तत्त्व कलिका, सप्तम कलिका, पृ० २३७ ३. कुन्दकुन्दाचार्य, पंचास्तिकाय, गाथा ९ ४. जिनेन्द्र वर्णी, नय दर्पण, १९६५ पृ० ५६३
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org