________________
२०
जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त-एक अध्ययन (४) प्रमेयत्वगुण - वस्तुका जो गुण, वस्तुको प्रमाणका विषय बनाये, उसे प्रमेयत्व गुण कहते हैं ।' प्रमेयत्व गुण के कारण वस्तु किसी भी देश अथवा काल में, किसी न किसी के ज्ञानका विषय अवश्य बनती है। जो वस्तु किसी भी देश कालमें ज्ञाता के ज्ञानका विषय नहीं बनती, वह वस्तु न रहकर शशविषाणवत् कल्पना मात्र रह जायेगी ।
जैन मान्यता के अनुसार जीवादि षट द्रव्यों का प्रमाण, केवल ज्ञान में प्रत्यक्ष झलकता है, इसीलिए वे प्रमेयत्व गुण को प्राप्त हैं। जीव, पुद्गल, आकाश व काल इन चार द्रव्योंको तो न्यूनाधिक रूप से अल्पज्ञ भी प्रत्यक्ष करते हैं, परन्तु धर्म और अधर्म द्रव्य (जिसका वर्णन अन्य दर्शन में द्रव्य रूप से नहीं है) सर्वज्ञ के ही ज्ञान का विषय होते हैं । इस प्रकार धर्मादि समस्त द्रव्यों का ज्ञान प्रमेयत्व गुण के कारण ही प्राप्त होता है ।
(५) अगुरुलघुत्व गुण- गुरूता और लघुता का अभाव अगुरुलघु कहलाता है । इस गुण के निमित्त से प्रत्येक द्रव्य अपने गुण और पर्यायों में गमन करता हुआ भी दूसरे द्रव्य रूप में परिणमन नहीं कर सकता, एक गुण दूसरे गुण में परिणमन नहीं कर सकता और द्रव्य के विभिन्न गुण अपनेसे पृथक् नहीं हो सकते। यह गुण सभी जीव, अजीव द्रव्योंमें पाया जाता है । यह गुण सभी द्रव्योंका नियामक है । सुखलाल संघवीके अनुसार इस गुणके कारण द्रव्य अन्य द्रव्य रूप नहीं हो सकता, द्र गुण गुणान्तर का कार्य नही करते और द्रव्य की नियत सहभावी शक्तियाँ पृथक नहीं हो पाती ।
अगुरुलघुत्व गुण के कारण वस्तु ताम्बे तथा सोने, अथवा नीर क्षीर की भाँति संश्लिष्ट हो जाने पर भी वस्तु के स्वाभाविक गुणों में अल्पमात्र भी कहीं हो पाती। जड़ वस्तु जड़ के गुणों सहित जड़ ही रहती है और चेतन वस्तु चैतन्य गुणों सहित चेतन ही रहती है। इस प्रकार हानिवृद्धिके अभाव के कारण ही, इस गुण को अगुरुलघु नाम दिया गया है ।"
(६) प्रदेशत्व गुण- प्रदेशत्व गुण का लक्षण करते हुए आलापपद्धति में देवसेना
वरैयागोपालदास, जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, १९६२, पृ० ३०
जैन तत्त्वकलिका, सप्तम कलिका, पृ० २३७
जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, १९६२, पृ० ३०
१.
२.
३.
8. विवेचना सहित तत्त्वार्थ सूत्र, पृ० १२७ की टिप्पणी ५. अगुरूलघोर्भावोऽगुरुलघुत्वम्, आलापद्धति, पृ० ८९
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org