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________________ १०६ गुणस्थान १. मिथ्यादृष्टि २. सासादन ३. सम्यक्मि ध्यात्व ४. अविरत सम्यकदृष्टि ५. देशसंयत ६. प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत ७. ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण बन्ध १ " 99 " 节 ㄌ 21 "3 發 १०. सूक्ष्मसाम्पराय ११. उपशान्तमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोगकेवली १४. अयोगकेवली x " " 我 दस करणोंका गुणस्थानकी दृष्टिसे निर्देशन उत्क - अपक. - संक्र. उदी. सत्ता उदय उप र्षण मण रणा र्षण शम ४ ५ २ " 3 Jain Education International 2010_03 " " 男 ל y 5 野 奶 ॐ X ३ n 男 野 66 剪 " ת X 野 男 " 男 列 ग 野 男 育 X X X X " " - 功 5 " 奶 " जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन X ६ Y " 好 " 19 野 剪 For Private & Personal Use Only . 开 39 " ছ " Я 努 " Я ८ 33 39 ५ n " " 37 X X X X X X निधति निका. - चना १० ९ " 剪 " " " 券 X X X X X X " , 門 21 99 ת 刘 . I क्षय हो जानेसे संक्रमण करण का भी क्षय हो जाता है । सयोगीमें भी छह करण ही होते हैं । ' सयोग केवली गुणस्थानके अंतिम समय में बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण और उदीरणा करणोंका भी क्षय हो जाता है और अयोग केवलीमें केवल दो ही करण होते हैं, " अयोगे सत्त्वोदयकरणे द्वे एव" । X X X X. X X दस करणों के उपरोक्त गुणस्थान संबंधी विवेचन से यह ज्ञात होता है कि निधत्ति और निकाचना नामक कर्मकी अवस्थायें, यद्यपि प्रगाढ होती हैं, परन्तु मिथ्यात्व अथवा अविद्याके नाश हो जानेपर और कषायोंके तीव्रतम वेगों के समाप्त हो जाने पर इन कर्मों की ये अवस्थायें विध्वंस हो जाती हैं । कर्मों की प्रगाढ़ता मन्द होने पर कुछ समयके लिए जीव शांतिका अनुभव करता है। जैसेजैसे विकासके मार्ग पर अग्रसर होता जाता है, वैसे वैसे ही कर्मों का अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण भी नहीं होता । जीव यथारूप ही कर्मों को भोगता है । सिद्ध १. “संक्रमणकरणं बिना षड़ेव सयोगपर्यन्तं भवंति ” गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्व प्रदीपिका, गाथा ४४२ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्व प्रदीपिका, गाथा ४४२ www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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