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________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन २२ निष्कर्ष जैन मान्य वस्तु स्वभाव के षट् सामान्य गुणों से यह स्पष्ट होता है कि जैन मान्य वस्तु या सत्ता षट् द्रव्य रूप है । वह अपने स्वभाव के कारण ही परिवर्तन को प्राप्त करती है, अन्य कारण उसमें निमित्त मात्र हैं। इस प्रकार जैनोंका यह सिद्धान्त बौद्धों के असत्कारणवादका निराकरण करता है, क्योंकि वास्तविक सत्ता के बिना कार्य की निष्पत्ति नहीं हो सकती। जैन मान्य वस्तुस्वरूप अद्वैत वेदान्तियों के सत्कारणवादसे भी भिन्न है, क्योंकि जैनोंने सत् रूपमें, जड़ और चेतन दोनों तत्त्वोंको स्वीकार किया है, जबकि वेदान्तमें केवल एक आत्मतत्त्वको ही सत् रूपमें स्वीकार किया है। __ जैन मान्य वस्तु न्यायवैशेषिकोंके असत्कार्यवाद से भी पृथक् है, क्योंकि जैनोंके अनुसार समस्त सृष्टि सत् रूप है, और सत् रूपमें रहते हुए ही अपने द्रव्यत्व गुणके कारण परिवर्तन करती है। इस प्रकार जैनोंका वस्त स्वरूप सांख्य के सत्कार्यवादसे काफी समानता रखता है, क्योंकि सांख्य दर्शन और जैन दर्शन दोनोंने जड़ और चेतन तत्त्वोंको सत् रूपमें माना है और इन दोनोंसे ही बाह्याभ्यन्तर जगत् रूप कार्यकी उत्पत्ति होती है। परन्तु सांख्य का चेतन तत्त्व निष्क्रिय है, जैनों ने दोनों तत्त्वों को क्रियाशील माना है। इस प्रकार जीव तथा पुद्गल भले ही अपनी क्रिया शक्तिके कारण एक दूसरेसे संबंधको प्राप्त हों, परन्तु उनकी सत्ता पृथक्-पृथक् है, इस विवेकको प्राप्त कर ही जीव अनादिकालीन कर्ममलको अपनेसे पृथक कर सकता है। जैन दर्शनके अनुसार जगत् का अस्तित्व तो है, परन्तु यह जगत् जीवका साध्य नहीं है, इसीलिये साधक को, आत्मा को आच्छादित करने वाले कर्ममलका अपगम करना होता है। श्री जिनेन्द्र वर्णी जी के शब्दों में षट् सामान्य गुणोंके समुदाय रूप वस्तु स्वंय सत्, नित्य और अनादि है। अभूतपूर्व नई वस्तु का निर्माण करना सम्भव नहीं है औरन ही बीजभूत मौलिक वस्तुका नाशसम्भव है। असत्की उत्पत्ति और सत् का विनाश तीन कालमें भी सम्भव नहीं है । समन्तभद्राचार्यने भी कहा है - "नैवासतो जन्म सतो न नाशो। गीताके द्वारा भी इसकी तुलनाकी जा सकती है। १. जैन तत्त्वकलिका, प्रस्तावना, पृ० २६ २. जिनेन्द्र वर्णी , कर्म सिद्धान्त, सन् १९८१, पृ०११ ३. समन्तभद्राचार्य, स्वयम्भूस्तोत्र, श्लोक २४ ४.. भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक १६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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