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________________ गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें ८३ इस प्रकार कहा जा सकता है कि जैन मान्य पाँच शरीर, आहारक आदि वर्गणाओं का कार्य है। जैन दर्शनमें चर्तुगति में भ्रमण करने वाले समस्त जीवों के शरीरों की विशेषताओंका जैसा सूक्ष्म विश्लेषण किया है, वैसा किसी अन्य दर्शनमें नहीं किया गया है । यद्यपि स्थूल और सूक्ष्म शरीरों का विवेचन प्राय: सभी भारतीय दर्शनों में प्राप्त होता है, परन्तु अन्य शरीरों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। सूक्ष्म शरीरका विश्लेषण सांख्य दर्शनमें अतिसूक्ष्मतासे किया गया है, इसी कारण जैन मान्य कार्मण शरीरकी सांख्य मान्य सूक्ष्म शरीरसे अत्यधिक समानता है, परन्तु जैन दर्शनमें कार्मण शरीरका जितना विस्तृत, सांगोपांग और सूक्ष्मतासे वर्णन किया गया है, वैसा अन्य किसी भी दर्शनमें प्राप्त नहीं होता । कर्म सिद्धान्त विषयक सभी विचारणायें कार्मण शरीरपर ही अवलम्बित हैं । कर्म की विविध अवस्थायें, कर्मबन्धके कारण, बन्धके भेद प्रभेद और कर्म मुक्तिके सोपान, इन सभीमें कार्मण शरीरका महत्व सर्वोपरि है । वस्तुत: कार्मण शरीर इन सबकी आधारशिला है । निष्कर्ष पुद् गलका यह सिद्धान्त जैन कर्मसिद्धान्तका मूल है। पुद्गल परमाणुओंके समूहसे वर्गणाओंका और वर्गणाओंसे शरीरोंका निर्माण होता है । अनेक जन्मों में विभिन्न शरीरोंके द्वारा ही जीव अच्छे या बुरे कर्मों को भोगता रहता है | शरीरों में कर्मण शरीर सबसे सूक्ष्म और अन्य शरीरोंका कारण है । इसी कारण इसको बनाने वाले परमाणु भी सूक्ष्मतम माने गये हैं । आत्मा अनादिकालसे इन कर्म समूहों से बन्धी हुई है । इन कर्मों से छुटकारा होना ही आत्माकी मुक्ति है । डॉ० गोपीनाथ कविराजने पुद्गलके विषयमें अपने विचार प्रगट करते हुए लिखा है - " चार्वाकको छोड़कर हिन्दु, बौद्ध, और जैन सभी दर्शनों में भौतिकताके सिद्धान्तको एक बुराई के रूपमें स्वीकार किया गया है और इसके बन्धनसे छुटकारा दिलाने का पक्ष लिया है।" जैन पारिभाषिक शब्दावली के अनुसार सांख्य, योग और वेदान्त में कर्म को केवल पौद्गलिक माना है । बौद्ध दर्शनमें कर्म को केवल आत्मिक स्वीकार किया है, परन्तु जैन दर्शनानुसार द्रव्य कर्म को सूक्ष्म पुद्गलोंका माना जाता है, जो रागद्वेषादि भाव कर्मों का निमित्त पाकर जीवके साथ संबद्ध होते हैं । इस प्रकार १. के०के० मित्तल, मैटेरियलिज़म इन इंडियन थॉट, पृ० २ २. Wordly existence means bondage of both spirit and Matter. Tatia Nath mal, studies in Jaina Philosphy, p. 228. Jain cultural Research Society Banaras, Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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