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________________ कर्मबन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १९३९ भोग रही है उसे भुज्यमान आयु कहते हैं और भुज्यमान आयुमें ही जो अग्रिम भवी आयुका बन्ध होता है, उसे ही बध्यमान आयु कहते हैं । ' देह अथवा शरीरको " भव" कहा जाता है। आत्मा आयुकी सहायता से ही शरीरको धारण करता है, अत: शरीर धारण कराने में समर्थ आयुकर्मको भवायु भी कहा जाता है । मरण समयमें भुज्यमान आयुका विनाश हो जाता है और बध्यमान आयु का उदय होने वाला होता है | जीव भुज्यमान आयुकर्मके उदयसे जीता है और बध्यमान आयुकर्म के उदयसे मर जाता है । इस बध्यमान आयुका अपवर्तन और उत्कर्षण हो सकता है, परन्तु भुज्यमान आयुका उत्कर्षण संभव नहीं है परन्तु अपवर्तन अवश्य हो सकता है, अपवर्तनको कदली घातमरण कहा जाता है । विष सेवन, रक्त स्राव, शस्त्रघात, संक्लेश आधिक्य, आहार और श्वासोच्छवासके रुक जाने से जो मरण होता है उसे कदलीघात मरण कहा जाता है ।" भुज्यमान आयुका अपवर्तन सब जीवों के लिए संभव नहीं होता । उमास्वामीने सूत्रमें कहा है औपपादिक चरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः "" अर्थात् उपपाद शरीर वाले देव, नारकी तथा उसी भवसे मोक्ष जाने वाले चरम शरीरी और असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमिके तिर्यञ्च तथा मनुष्योंकी आयुका अपवर्तन नहीं होता । जीवनमें आयु बन्धके योग्य केवल आठ अवसर आते हैं जो आठ अपकर्ष काल कहे जाते हैं । इन आठ अपकर्षों में से हीन अथवा अधिक जो भी स्थिति बन्ध हो जाता है, वही उस आयुकी स्थिति समझी जाती है ।' तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कट विशुद्ध परिणामों से और जघन्य स्थिति बन्ध उत्कट संक्लेश परिणामोंसे होता है, इसके विपरीत नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कट संक्लेश परिणामों से और जघन्य स्थिति बन्ध उत्कट विशुद्ध परिणामोंसे होता है । " १. २. ३. ४. ५. ६. 19. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३३४ आउगवसेण जीवो जायदि जीवदि य आउगस्सुदय । गोवा मरद य पुव्वायु णासे वाइति । भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, गाथा २८ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ६४३ भावपाहुड, गाथा २५ तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २, सूत्र ५३ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ६४३ सव्वविदीणमुक्कस्सओ टु उक्कस्ससंकिलेस्सेण । विवरीदेण जहण्णो आउगतियवज्जियाणं तु ॥ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १३४ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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