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________________ १७८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन सभी कर्मों की होती है और विशेष पुरूषार्थ करने वाले जीवोंको ही होती है।' अविपाक निर्जराका मोक्ष मार्गमें विशेष महत्त्व है । अविपाक निर्जरामें कर्मों के फलित होनेसे पहले ही तपस्या द्वारा फलीभूत करके उनको क्षीण कर दिया जाता है। जैसे आम आदिको पकनेसे पहले ही पाल आदि में रख उसे पका लिया जाता है उसी प्रकार विशेष तपस्या द्वारा फलीभूत होनेसे पहले ही कर्मोको फलोन्मुख कर लिया जाता है। सिद्धान्तकी भाषा में इस प्रकार कहा गया है - तपादि औपक्रमिक क्रिया विशेषकी सामर्थ्य से उदयावलीमें प्रविष्ट हो करके जो कर्म अनुभव किया जाता है, वह अविपाकज निर्जराका द्योतक है ।२ । जैनदर्शनका अविपाकज निर्जराका सिद्धान्त वेदान्तके उस सिद्धान्तसे साम्यता रखता है जिसके अनुसार ज्ञानप्राप्तिसे संचित कर्मों को प्रभावहीन बनाया जाता है, जैसा कि शंकराचार्यने तत्त्वबोधमें कहा है - “संचितं कर्म ब्रह्मैवाहमितिनिश्चयात्मकम् ज्ञानेन नश्यति" मोक्षपुरूषार्थीको प्रारब्धकर्मके प्रति अनासक्त रहना चाहिए, क्योंकि प्रारब्ध कर्म अनासक्त भावसे भोगकर ही समाप्त किये जा सकते हैं और संचित कर्म तपस्याके द्वारा क्षय किये जा सकते हैं । तपके बिना केवल संवरसे ही मोक्ष नहीं होता। जैसे संचित धन उपभोगमें लाये बिना समाप्त नहीं होता, वैसे ही संचित कर्म तपस्या के बिना समयसे पूर्व नष्ट नहींहोते, इसीलिए कर्म निर्जराके लिए तप आवश्यक है ।' यह निर्जरा संवर पूर्वक ही होती है क्योंकि जैसे तालाब में जलप्रवाह यदि आता ही रहे तो पूर्व संचित जलका निकलना व्यर्थ हो जाता है, इसी प्रकार नवीन कर्मों का आगमन यदि होता ही रहे तो निर्जरा व्यर्थ हो जाती है। कर्मों के आगमनको रोककर ही यथार्थ निर्जरा होती है।' ___इस प्रकार उत्तराध्ययन सूत्रमें भी कहा है बडे तालाबके पानीके आने के मार्गको रोक देने के समान संयत जीवकोकर्मों का आश्रव नहीं होता और तत्पश्चात् करोड़ों जन्मोंके संचित कर्मको तपस्या के द्वारा निर्जीर्ण किया जा सकता है। १. बारस अणुवेक्खा, गाथा ६७ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ०३९९ ३. तत्त्वबोध, सूत्र ४४ ४. भगवती आराधना, गाथा १८४६-१८४७ भगवतीआराधना, गाथा १८४५ जहां महातलायस्स सन्निरूद्धे जलागमे । उस्सिंचणाएं तवणाएं कमेण सोसण भवे ॥ एवं तु संजयस्सा वि पाव कम्म निरासवे। भय कोडिसंचियं कामं तवसा निज्जरिज्जइ॥ उतराध्ययन सूत्र ३३,५-६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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