________________
कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा
१७९ कर्मों की विपुल निर्जरा आत्मशुद्धिके लिए किये गये तपसे ही संभवहै, पूजा, प्रतिष्ठा तथा कीर्तिकी भावनासे किये गये तपसे आत्मशुद्धि नहीं होती।' आत्मशुद्धिके अभावमें कर्मों की निर्जरा भी नहीं होती। अधिकांश तथा संपूर्ण निर्जरा मनुष्य गतिमें ही संभव हैं क्योंकि अन्य गतियों का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव मुक्तिके योग्य नहीं होता। ग. निर्जरामें तपकी प्रधानता
पूज्यपादजीने तपका लक्षण करते हुए कहा है – “कर्मक्षयार्थ तप्यते इति तप:३ अर्थात् कर्मक्षयके लिए पुरूषार्थ करनाही तप है । इसीको राजवार्तिककार अकलंक भट्टनेइस प्रकार कहा है – “कर्मदहनात्तप:" कर्मको दहन अर्थात् भस्म कर देनेके कारण ही इसको तप कहा जाता है । आचार्य पद्मनन्दिने इसी भावको प्रगट करते हुए कहा है – “कर्ममलविलयहेतोर्बोध दृशा तप्यते तप: सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रको धारण करने वाले साधु द्वारा कर्मरूपी मैलको दूर करने के लिए जो तपस्याकी जाती है, वही वास्तवमें तप कहलाता है। चारित्रके लिए जो उद्योग और उपयोग किया जाता है उसको भी तप कहते हैं, 'वह तप साक्षात् इच्छा निरोध रूप ही होता है। " तपसे संवरऔर निर्जरा दोनों ही होते हैं। घ. तपके भेद
तपके दो भेद कहे गये हैं १. बाह्य तप २. आभ्यन्तर तप। बाह्यपदार्थों के अवलम्बनसे और अन्यको दृष्टिगोचर होने वाला तप “बाह्यतप” कहलाता है। यह बाह्यतप छहप्रकारका कहा गया है, जैसा कि उमास्वामीने तत्त्वार्थसूत्रमें निर्दिष्ट किया है -
... "अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त शय्यासनकायक्लेशा: बाह्यतप:
१. उमराव कुंवर, गणधरगौतम: तपसाधना जयगुंजार, निर्वाण अंक, १९८५ पृ०७ २. जैन मित्र, संपादकीय वक्तव्य, तीन अप्रैल, १९८६ गांधी चौक, सूरत ३. सर्वार्थसिद्धि,पृ० ४१२ ४. राजवार्तिक, पृ० ६१९ ५. पद्मनन्दि पंचविंशतिका, अधिकार १, श्लोक ९८ ६. भगवती आराधना, गाथा १० ७. इच्छानिरोधस्तपोविदु: मोक्षपंचाशिका, श्लोक ४८ ८. सर्वार्थसिद्धि, प०४३९ ९. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९ सूत्र १९
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org