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________________ १२२ ' जैन दर्शन में कमान्त -एक अध्ययन अन्य भी अनेक कारणोंसे ज्ञानावरणीय कर्मका बन्ध होता है - जैसे आचार्य या उपाध्यायके प्रतिकूल चलना, अकाल अध्ययन करना, अनादरसे पाठ सुनना, स्वपक्षका दुराग्रह करना, अविनय पूर्वक ज्ञान प्राप्त करना आदि ज्ञानावरणीय प्रकृति बन्धके कारण कहे जा सकते हैं। उपरोक्त सभी कारणोंमें ज्ञान प्राप्तिके साधनोंका तिरस्कार दृष्टिगोचर होता है अत: ज्ञान प्राप्ति के साधनोंका तिरस्कार करने वाला जीव ज्ञानावरणीय जाति के कर्म पुद्गलोंसे आवृत हो जाता है । । ज्ञानावरणीय कर्मकी मूलोत्तर प्रकृतियाँ पूर्ण ज्ञानका प्रतिबन्धक कर्म केवलज्ञानावरण कहा जाता है, परन्तु पूर्ण ज्ञानका प्रतिबन्धक यही आवरण, अपूर्ण ज्ञानका जनक भी होता है। जैसे मेघावृत सूर्यका अपूर्ण प्रकाश भी वस्त्र, भित्ति आदिके उपाधि भेदसे नाना रूप हो जाता है, उसी प्रकार अपूर्ण ज्ञानावरण भी विविध आवरणों के तारतम्यसे मति, श्रुत, अवधि व मन:पर्यय रूपसे चार प्रकारका हो जाता है । इस प्रकार ज्ञानावरण की पांच उत्तर प्रकृतियाँ हैं – १. मतिज्ञानावरण २. श्रुतज्ञानावरण ३. अवधिज्ञानावरण ४. मन:पर्ययज्ञानावरण ५. केवलज्ञानावरण - १. मतिज्ञानावरण. इन्द्रिय और मनके निमित्तसे शब्द, रस, स्पर्श, रूप और गन्धादि विषयोंमें जो अवबोध उत्पन्न करता है, वह मतिज्ञान है और मतिज्ञानको आवृत करने वाले कर्मपुद्गलोंको ज्ञानावरणीय कहते हैं। मतिज्ञानावरणके चार भेद हैं - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। इनको पांच इन्द्रियों और मनसे गुणित करने पर चौबीस भेद हो जाते हैं। अन्य भेद प्रभेद करनेपर ३३६ भेद माने गये हैं। इन सब प्रकारके मतिज्ञान को आवरण करने वाली असंख्यात प्रकृतियाँ हो जाती हैं । मतिज्ञानके विविध आवरणों को जानने के लिए मतिज्ञानके विविध भेदों को जान लेना आवश्यक है इसी कारण मतिज्ञानके विविध भेदोका संक्षिप्त परिचय देना इष्ट है। १. अवग्रह मतिज्ञान - पदार्थके अव्यक्त ज्ञानको 'अर्थावग्रह' कहते हैं । १. राजवार्तिक, पृ० ५२९ २. “मतिज्ञानमावृणोति आब्रियतेऽनेनेति मतिज्ञानावरण", गोम्मटसार कर्मकाण्ड जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ३३ ३. क. अभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कमस्स चउव्विहं वा चदुवीसदिविधं, षट्खण्डागम ,धवला टीका १३, भाग ५, पृ०२३. ४ ख. मदिणाणावरणीय पयडीओ..असंरवेज्जलोग्गमेत्ताओ, षटखण्डागम. धवला १२. भाग ४. ५० ५०१ ए Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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