Book Title: Bruhat Sangrahani Author(s): Chandrasuri Publisher: Umedchand Raichand Master Catalog link: https://jainqq.org/explore/023435/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यादयादवगंत मंजनादिव ॥ श्रीवर्द्धमानस्वामिने नमः ॥ श्रीमान् मलधारीगच्छना श्री हेमचंद्रसूरिना बालशिष्य चंद्रसूरि विरचित. बृहत्संग्रहणी ॥ प्रातः स्मरणीय तपोगच्छना पूज्यपाद गुरुणीजी महाराज श्री सौभाग्यश्रीजीना सदुपदेशथी. उपावी प्रसिद्ध करनार खंभात निवासी. मास्तर उमेदचंद रायचंद. सु. अमदावाद, ठे. पांजरापोल आवृत्ति पहेली 91 7000 कीमत १-८-० 1000000ole Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री बद्धमान स्वामिने नमः॥ My TION श्रीमान् मल्लधारीगच्छना थी हेमचंद्रसूरिना बाल शिष्य चंद्रसूरि विरचित. बृहत्संग्रहणी॥ CLEAN En प्रातः स्मरणीय तपगच्छना पूज्यपाद गुरुणीजी श्रीश्री-१०८ वीजकोर श्रीजी महाराजश्रीना सुविहित शिष्या गुरुणीजी देवश्रीजी तेमना शिष्या. गुरुणीजी महाराज श्री सौभाग्य श्रीजी ___ ना सदुपदेशथी. +((1-9 चतुर्विध संघना उपयोग सारु. छपावी प्रसिद्ध करनार. खंभात निवासी. मास्तर उमेदचंद रायचंद. मुं. अमदावाद. ठे. पांजरापोल. संवत. १९८० ॥ वीर निर्वाण सं. २४५० ॥ सन् १९२४. आवृत्ति १ ली. प्रत १०००. श्री विवेकानंद मुद्रणालयमांमहताबसाइलाल शंकरलाले छाप्यु. सतिकी अमदावा कीमत Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. सुज्ञ जैनबंधुओ ने व्हेनो. - आ एक अति उत्तम प्रकारनो ग्रंथ छे के जेनुं नाम श्री बृहत्संग्रहणी अर्थात् मोटी संग्रहणीना नामे प्रसिद्ध छे. तेनुं बीजुं नाम त्रलोकदीपीका पण कहेवाय छे अने ते नाम पण सार्थकज छे. एनो अर्थ ए थाय छे के आ ग्रंथ त्रण लोकना दीवा समान छे. कारण के आ ग्रंथनी अंदर देवता- मनुष्य- तिथेच अने नारकी एम चारे गतीना जोवोना - शरीर - आयुष्य. संघयण संस्थानभुवन विमान-गति आगति - विगेरे जाणवानी इच्छा करनाराने आ संग्रहणी नामनुं पूस्तक उत्तम साधन रूप छे. देवता अने नारकी जीव अज्ञानना बलथी बीजी गतीमां रहेला जीवोना आयुष्य प्रमाण तथा सुख दुखने जाणी शके पण मनुष्य तो अवधि ज्ञानना अभावने लीये हमणां पूर्वाचार्याना रचेला ग्रंथोना आधारथीज बीजी गतीना जीवोनां आयुष्य तथा सुख दुःखादि जाणवा समर्थ थाय छे. जो के दरेक जीव उंची गतीमां जवानी तथा विशेष सुख मेळवानी ईच्छा करे छे परन्तु नारकी तिच अने देवता पोतानी गतीथी विशेषे उंची एटले मोक्ष सुख मेळववानी ईच्छा छतां पण चारित्रना अभावे मनुष्य गति पाम्या विना ते मेळवी शकाएं नथी. आम होवाथी पांच ज्ञानना धारक पूर्व महा पुरुषोएं मनुष्य गतीना जीवोना उपकारने माटे अन्य गतिमां रहेला जीना शरीर आयुष्य संत्रण संस्थान विगेरेनुं तेमज सुख दुःख आदिनुं अनेक ग्रंथोनी अंदर वर्णन करेलं छे पण ते बहु ग्रंथोनी अंदर भिन्न भिन्न रुपे वर्ग होवाथी जाणवानी ईच्छा करनारने व दुष्कर थाय छे. आ कारणथी मल्लधारीगच्छना श्री हेमचंद्रसूरिना बाल शिष्य श्रीमान् चंद्रसूरिए अनेक भव्य जीवोना उपकार माटे आ संग्रहणी नामनो ग्रंथ रच्यो छे. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ आग्रेय बहु जीवोने उपकारक होवाथी तेनुं भाषांतर गुजरातीमां वढवाणवाला शास्त्री हरिशंकर कालीदासे करी जैनी भाइओनी मददी छपानी बहार पाडेलु हतुं. पण हाल ते मलतु नहीं होवाथी अने घणा - जैनी भाइओने तथा - साधु साध्वीओने भणवा वांचवानुं सुगम होवाथी प्रातःस्मरणीय तपगच्छना पूज्यपाद गुरुणीजी महाराजश्री सौभाग्यश्रीजीना सदुपदेशथी अने तेमनी खास प्रेरणाथीज कोइनी कांइ पण मदद नहीं छतां तेनी योग्य कींमत राखी आ पूस्तक बहार पाडवामां आव्युं छे. जेओ साहेबना उपकार साथै तेमनुं टुंक वृत्तांत अहीं आपवामां आव्युं छे. आपने सुविदित छेके आ जैन शासनना प्ररुपक महान् वितराग तीर्थंकर भगवान होय छे तेमना अभावे सासन चलावनार आचार्य महाराजा होय छे. जेम कोने विशेष उपकारक आचार्य महाराजा होय छे तेमज श्राविकाओ तथा बालीकाओने विशेष उपकारक गुरुणीजी महाराजा होय छे. तेज न्याये आ पूज्यपाद पवित्र चारित्र भूषण गुरुणीजी महाराजश्री सौभाग्यश्रीजी महाराज साहेब पण हिंदुस्तानना घणा शहेरो अने गामोमां विहार करवा पूर्वक-श्राविकाओ अने वालीकाओने धर्म मार्गमां जोडवामां हमेशां उध्यमवंत अने घणाज खंत धराबनारा महापवित्र साध्वीजीओमांना एक उत्तम चारित्रवंत गुरुणीजी महाराज छे. एटलुंज नहीं पण तेमनो समुदाय पण गामो गाम विहार करवा पूर्वक अनेक उपकार करी रह्यो छे ते नीचे मुजब छे. तप गच्छना मुख्य प्रातः स्मरणीय परम पूज्य गुरुणीजी महाराजश्री जे श्रीजीनी शिष्याओ. गुरुगीजी श्री विजकोर श्रीजी. तेमनी शिष्याओ. विनयश्री जी. देव श्रीजी. हेमश्रीजी उत्तम श्रीजी उमेदश्रीजी. अने रिद्धीश्रीजी गुरुणीजी साहेब श्री देवश्रीजीनी शिष्याओ. भाव · Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजी. सौभाग्यश्रीजी आनंद श्रीजी हरखश्रीजी. गुरुणीजीमहारा जश्री सौभाग्यश्रीजीनी शिष्याओ. चंपाश्रीजी. हीरश्रीजी दानश्रीजी. लावण्य श्रीजी. गुलाबश्रीजी दोलत श्रीजी कनकश्रीजी विद्धाश्रीजी मणीश्रीजी सुनंदाश्रीजी. साध्वी आणदश्रीजीनी शिष्याओ. अनोपीजी कमल भीजी शांती श्रीजी चंद्रश्रीजी. साध्वी हरखश्रीजीनी शिष्याओ. प्रसनश्रीजी. साध्वी चंपाश्रीजीनी शिष्याओ. दरसनश्रीजी शिवश्रीजी हीरा श्रीजी खीमाश्रीजी प्रभाश्रीजी साध्वीदान श्रीजीनी शिष्याओ. दीपश्रीजी वलभभीजी. मांगरोलवाला साध्वीजी गुलाबश्रीजीनी शिष्याओ. पुन्यश्रीजी गुणश्रीजी प्रधानश्रीजी. उपर बतावेलो परीवार तथा प्रशिष्याओनो घणो समुदाय विगेरे हालमां विचरे छे. अने घणी श्रावीकाओ तथा वालीकाओने धर्म मार्गमां जोsवामां घणो उपकार करी रह्या छे, एटलुंज नही परंतु प्राचीन स्तवनो जीनशतक दंडक प्रकरण ४९ द्वारखांलुं तेमज नीत्य स्मरणीय शेत्रुंजा प्रकरणो आदि नाना मोटा पुस्तको पण तेमना सदुपदेशथी छपानी बहार पाडवामां आवेला छे अने ते एटला बधा लोकप्रीय थयेला छे के तेनी बजे चार चार आत्तिओ काडवी पडी छे. तेज प्रमाणे आ मोटी संग्रहणीनुं पण पुस्तक लोकप्रीय थशे तेमां कांड संदह जेवुं नथी. 8 " · उपरनी हकीकत जणाव्या बाद हवे आ बृहत्संग्रहणीनी प्रत यंत्रो सहित उक्त गुरुणीजी महाराज तरफथो बरावर सुद्ध करावी छपाववामां आवी छे छतां पण दृष्टी दोपथी तेमज प्रेस दोषथी- जे कांइ भुल चुक रही गइ होय अगर जीनाज्ञा विरुद्ध कांह लखा गयुं होय तेनी क्षमायाची मीच्छामि कडे देवा पूर्वक आ प्रस्तावना समाप्त करवामां आवे छे. एज सुज्ञेशुकीं बहुनां. संवत १९८० ना ' महा शुद५ रवीवार. ली० प्रसिद्धकर्ता. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीवर्द्धमानस्वामिने नमः ॥ Q l l l l l l l l l l l l l l l l l l l l l l ॥ श्री बृहत्संग्रहणी प्रारभ्यते ॥ 000000000000000000 l l श्री परमपददायकाष्टकर्मारिघातकत्रिलोकाधारकचतुर्दशरज्यात्मकप्रकटकारक धर्मदीपका दिप्ररूपकपरमपुरुषोत्तमाय नमोनमः ॥ श्रीदानादिचतुष्कस्य शक्त्या धारकशासनाधिष्ठायकदेवेभ्यो नमोनमः ॥ श्रीमहावीरस्वामिने नमोनमः ॥ वे ग्रंथकर्त्ता प्रथम शिष्टाचार पालवाने अर्थे तथा विघ्न निवारवाने अर्थ दोढ गाथाथी मंगलाचरण अने अभिधेय, प्रयोजन, सम्बन्ध तथा अधिकारी ए चार वस्तुनुं प्रतिपादन करेछे । नमिउं अरिहंताई, टिड्भवणो गाहणा य पत्तेयं ॥ सुरनारयाण वुच्छं, नरतिरियाणं विणा भवणं ॥ १ ॥ १ उववाय चवण विरहं, संखं इगसमइयं गमागमणे ॥ अर्थ - ( अरिहंताई) के० अरिहंतादिक पांच परमेष्ठिने-त्यां सकल त्रण भुवनना जनने चमत्कार उपजावनार, उत्तम अरिहंतम Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिमाने विस्तारनार, अशोकवृक्षादिक आठ प्रातिहार्य धारक, चोत्रीश अतिशयथी सुशोमित, रागादिक शत्रुने हणनार अने बार गुण सहित ते अरिहंत कहेवाय. तथा ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्म रहित, आउ गुणना धारक अने सिद्धक्षेत्रने विषे निराकारपद धारक ते सिद्ध कहेवाय. तथा ज्ञानादिक पांच आचारने पोते पालनार, बीजाने पलावनार पालतांने अनुमोदना करनार, धमनो उपदेश आप नार अने छत्रीश गुण सहित ते आचार्य कहेवाय. तथा पच्चीश गुणना धारक, बीजाओने भगावनार अने शुद्ध वाचना आफ्नार ते उपाध्याय कहेवाय. तथा सत्तावीश गुणना धारक, सत्तर प्रकारे संयम पालनार, पांच महाव्रतना धारक, बावीस परिसहने जीतनार, दशविध यति धर्मना धारक, पांच सुमति त्रण गुप्तिना आधार, षट्कायना रक्षक, मन वचन काय योगने गोपवनार अने बेंतालीश दोष रहित आहारनी गवेषणा करनार ते साधु कहेवाय. ते पूर्व कहेला पांच परमेष्ठीने ( नमिउं) के० त्रिकरण शुद्धिथी नमस्कार करीने (सुरनारयाण) के देवता तथा नारकीनी (ठिइ) के० स्थिति एटले आयुष्य (भवग) के० निवास करवानां घर अने (ओगाहणाय) के० शरीरनु प्रमाण, अहिं मूलगाथामां य शब्दनु ग्रहण कर्युछे तेथी ए देवतानां चिह्न, संस्थान, शरीर, अवधिज्ञान, अवधिज्ञाननो आकार, विमान, विषय, लेश्या ए (पत्तेयं) के० अनुक्रमे प्रत्येक (बुच्छ) के० कहीशुं, परन्तु (नरतिरियाण) के० मनुष्य अने तिर्यचना (भवण विणा) के० भानो शाश्वतां न होवाथी भुवन विना आयुष्य तथा अवगाहना कहीशुं. ए ३ द्वार थयां ॥१॥ तथा (उववायविरह) के एक देव उज्या पछी बीजो देव केटला कालने आंतरे उपजे ? ते उपपात विरहकाल ४, तथा (चवणविरहं) के० एक देव चव्या पछी बीजो देव केटला कालने आंतरे चवे ? ते च Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ वन विरहकाल ५, तथा (इगसमइयं) के० एक समये (संबं) के० संख्याए गणतां केटला उपजे ? ते उपपात संख्या ६, तथा एक समये संख्याए गणतां केटला चवे ? ते चवन संख्या ७, तथा (गमण) के० मरीने केटली गतिमां जाय ? ते गति ८, तथा (आगमणे) के० केटली गतिना आव्या जीवो देवपणे उपजे ? ते आगति ९॥ एम देवता तथा नारकीनां नव नव द्वार मळी अढार द्वार थाय. अने मनुष्य तथा तिर्यंचनां भवन विना आठ आठ द्वार मली शोल थाय, एम सर्व मली चोत्रीश द्वार थाय. ए चोत्रीश द्वार कहीशुं, ए अभिधेय का. ग्रन्थकर्ताने ग्रन्थ रचतां जे शुभ आश्रव अने अशुभनी निजरा थाय ते अनन्तर प्रयोजन अने तेथी परंपराए मोक्षप्राप्ती ते परंपरा प्रयोजन जाणवू. ए वे प्रयोजन ग्रन्थकर्तानां जाणवां. तथा श्रोताने देवादिकनुं स्वरूप जाणवू ते श्रोता- अनंतर प्रयोजन अने तेथी परंपराए मोक्षप्राप्ती ते श्रोता, परंपरा प्रयोजन, ए वे प्रयोजन श्रोतानां जाणवां. संबंध बे प्रकारनो छे. गहलो उपायोपेय लक्षग अने बीजो गुरुपर्वक्रम लक्षण. तेमां संग्रहणी ग्रंथ ते उपाय अने तेनु तत्वज्ञान ते उपेय एम बन्ने मलीने आयोपेय लक्षण संबंध जाणवो. तथा गुरुपवक्रमलक्षण ते ए संग्रहणीनो अर्थ श्रीवीरप्रभुए वखाण्यो, त्यार पछी सुधर्मा स्वामीए द्वादशांगीमां गुंथ्यो. त्यांथी श्यामाचार्यादिके पन्नवणा प्रमुखमां गुंथ्यो. त्यांथी जिनभद्र गणि क्षमाश्रमगे आ सग्रहहणीमां उतार्यो. ए गुरुवर्यक्रम लक्षण जाणवु. ए संबंध. कह्यो. वली आ संग्रहणी ग्रन्थ भणवाना अधिकारी साधु साध्वी श्रावक अने श्राविका छे. ते अधिकारीपणुं जाणवू. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे जेबी रीते अनुक्रमे करीने चोत्रीश द्वार कया, तेवोज रीते अनुक्रमे करीने देवतानी स्थिति प्रमुख नव द्वार कहे छे, तेमां प्रथम १ भुवनपति, २ व्यंतर, ३ ज्योतिषी अने ४ वैमानिक. ए चार प्रकारना देवोमांथी भुवनपति देवोनीजवन्य आयुष्यनी स्थिति अर्द्धगाथाए करीने कहे छे दस वाससहस्साई, भवणवईणं जहन्नठिई ॥२॥' - अर्थ-(भवणवईणं)के० असुरकुमारादिक दश प्रकारना भुवनाति देवोनी अने भुवनातिनी देवीओनी सामान्यपणे (दस वाससहस्साई) के० दश हजार वर्षनी (जहन्नठिई) के० जघन्यथी आयुष्यनी स्थिति होय, पण तेथी ओछी न होय. ___ अहिं देवताओना आयुष्यनुं प्रमाण पलोरम तया सागरोपमथी कहेशे, माटे पल्योपम तथा सागरोपमनुं स्वरूप देखाडे छे. देवकुरु तथा उत्तरकुरुना उमजेला सात दिवसना घेटाना एक उत्सेवांगुल प्रमाण रोमखण्डना सात वार आठ आठ खण्ड करतां ते सर्व मलीने वीस लाख सत्ताणुं हजार एक सो बावन खंड थाय. तेवा खंडथी चार गाउनो घनवृत्त (चार गाउ विष्कंभ अने चार गाउ उंडाईवाळो) कूवो ठांसीने कांठा सुधी भरी तेमांथी समये समये एक एक रोमखंड काढतां ज्यारे कूवो खाली थाय त्यारे एक उद्धार पल्योपम कहेवाय, अने सो सो वर्षे एक एक रोमखण्ड काढतां अद्धा पल्योपम कहेवाय छे. तेवा दश कोडाकोडी पल्योपमे एक सागरोपम थाय छे. अहिं छ प्रकारना पल्योपमर्नु विशेष स्वरूप क्षेत्रसमासादि ग्रन्थोथी जाणी लेवु ॥ ____हवे भुवनपति देवोनी उत्कृष्टी आयुष्यस्थिति बे गाथाए करी कहे छे. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमरबलि सारमहियं, तद्देवीणं तु तिन्नि चत्तारी ॥ पलियाई सढाई, सेसाणं नव निकायागं ॥ ३ ॥ दाहिण दिवढ्ढ पलियं, उत्तरओ हुँति दुन्नि देसूणा॥ तदेवीमद्धपलियं, देसृणं आउमुक्कोसं ॥४॥ अर्थ-भुवनपति देवोना दश निकाय (जाति विशेष अथवा निवास स्थान ) छे. ते दरेक निकायमा दक्षिण अने उत्तर एम बबे खण्ड छे. दरेक खण्डनो एक एक इन्द्र छे तेथी भुवनपति देवोना सर्व मलीने वीश इंद्रो छे. तेमां पहेला निकायने विषे दक्षिण दिशाना खण्डमां रहेनारा असुरकुमारोनो राजा (चमर) के० चमरेंद्र छे, तेनुंउत्कृष्ट आयुष्य (सारं) के० एक सागरोपमर्नु छे. तथा उत्तर दिशाना खण्डमां रहेनारा असुरकुमारोनो राजा (बलि ) के० बलीन्द्र छे. तेनुं उत्कृष्ट आयुष्य ( अहियं) के० एक सागरोपमथी कांइक अधिक छे. (तु) के० वली (तद्देवीणं) के० ते चमरेन्द्रनी देवी, उत्कृष्ट आयुष्य ( सट्टाई तिनि पलियाई) के० साडात्रण पल्योपमनुं छे. तथा बलीन्द्रनी देवी, उत्कृष्ट आयुष्य (सहाई चत्तारि पलियाई) के० साडाचार पल्योपमनुं छे. तथा (सेसाणं नव निकायाणं) के० ए चमरेन्द्र तथा बलीन्द्र विना बाकीना जे नव निकायना इंद्रो छे. ॥३॥ तेमां (दाहिण) के० दक्षिण दिशाना नव निकायना धरणेंद्र प्रमुख नव इन्द्रो छे तेमनुं उत्कृष्ट आयुष्य (दिवट्ठ पलियं) के० दोढ पल्योपमनुं जाणवू, अने (उत्तरओ) के० उत्तर दिशाना नव निकायना भूतानेंद्र प्रमुख नव इंद्रो छे तेमनुं उत्कृष्ट आयुष्य (दुनि देसूणा) के० देशे जणु बे पल्योपमर्नु एटले बे पल्योपममां कांइक ओछु जाणवु. तथा (तद्देवीमद्ध ) के० ते धरणेन्द्र प्रमुख Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव इंद्रोनी देवीओर्नु अर्द्धा पल्योपमर्नु अने भूतानेन्द्र प्रमुख नव इंद्रोनी देवीओk (देसूर्ण पलिय) के० देशे जणुं एक पल्योपमनुं (आउमुक्कोसं) के० उत्कृष्ट आयुष्य जाणवू अहिं इन्द्रना उपलक्षणथी सामान्य भुवनपति देवोर्नु तथा तेमनी देवीओनुं उत्कृष्ट आयुष्य पण पूर्वोक्त प्रकारे जाणवू ॥ ४ ॥ हवे व्यंतरदेवता तथा तेमनी देवीओनुं जघन्य अने उत्कृष्ट आयुष्य गाथाना त्रण पदे क ने कहे छे, वंतरियाण,जहन्नं, दसवाससहस्स पलियमुक्कोस।। देवीणं पलियद्धंअर्थ-(वंतरियाण) के० व्यंतरदेवता तथा तेमनी देवीओर्नु (जहन्न) के० जघन्य आयुष्य (दसवाससहस्स) के० दश हजार वर्षनु होय छे. अने व्यंतरदेवोर्नु (पलिय) के० एक पल्योपमनुं तथा (देवीणं) के० तेमनी देवीओन (पलियद्धं) के० अपिल्योपमनु. (उकोस) के० उत्कष्ट आयुष्य जाणवु. . हवे चद्र सूर्य ग्रह नक्षत्र अने तारा ए पांच जातना ज्योतिषी देवता तथा तेमनी देवीओनु जघन्य तथा उत्कृष्ट आयुष्य एक पद अने बे गाथाए करीने कहे छे. १ भवनपतिनी पेठे अहिं व्यन्तरना इन्द्र इन्द्राणिओर्नु आयुष्य का नथी तो पण व्यन्तरेन्द्र अने इन्द्राणीनुं आयुष्य उत्कृष्ट पल्योपम अने अर्ध पल्योपम अनुक्रमे जाणवु. इन्द्र इन्द्राणीओनु जघन्य आयुष्य संभवे नहि. २ श्री डीधृति विगेरे देवीओk आयुष्य १ पल्योपम छे ते व्यन्तर निकायनी नहि पण भवनपति निकायनी होवाथी (१) पल्यापमनुं आयुष्य छे. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलियं अहियं ससिरखीणं ॥ ५ ॥ लक्खेण सहस्सेण य, वासाण गहाण पलियमेए सिं ॥ ठिइ अर्द्ध देवीणं, कमेण नक्खत्त ताराणं ॥ ६ ॥ ( पलिअद्धं चउभागो, चउअडभागाहिगा उ देवीणं ॥ चउजुले चउभागो, जहन्नमडभाग पंचम ॥ ७ ॥ ( अर्थ - ज्योतिषी देवताना वे भेद छे. चर अने स्थिर. तेमां अढी द्वीपनी मांहेला चर छे अने अढी द्वीपनी बाहेरना स्थिर छे. ते सर्व ज्योतिषी मांहेना जे ( ससि) के० चंद्रमा इन्द्र अने चन्द्रमाना विमानवासी देवो छे, तेमनुं उत्कृष्ट आयुष्य ( वासाण लक्खेण अहियं पलियं ) के० एक लाख व अधिक एक पल्योपम, अर्थात् एक पल्योपम अने एक लाख वर्षं होय छे. (य) के० तथा (रवीणं) के० सूय इन्द्र अने सूर्यना विमानवासी देवोनुं उत्कष्ट आयुष्य ( वासाग सहस्सेण अहियं पलियं ) के० एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपमं अर्थात एक पल्योपम अने एक हजार वर्षनुं होय छे. तथा (गहाण) के० ग्रह विमानाधिपति अने ग्रहना विमानवासी देवोनुं उत्कृष्ट आयुष्य ( पलियं ) के० एक पल्योपमनुं होय छे. वली (एएसिं) के० ए पूर्वे कहेला. चन्द्र सूर्य अने ग्रहो तथा तेमना विमानवासदेवो ए सर्वनी (देवीणं) के० देवीओनी ( ठिइ) के० आयुष्य (अर्द्ध) के० अर्द्ध जाणवु. एटले चंद्रनी देवीनुं तथा चंद्रना विमानवासी देवोनी देवीओनुं उत्कष्ट आयुष्य अर्ध पल्योपम अने पचास हजार वर्ष उपर होय छे. तथा सूर्यनी देवीनुं अने सूर्यना विमानवासी देवोनी देवीओनुं उत्कष्ट आयुष्य अर्ध पल्योपम अने Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचसो वर्षतुं उपर होय छे. तथा ग्रहनी देवीनुं तथा ग्रहना विमा. नवासी देवोनी देवीओन उत्कृष्ठ आयुष्य अर्धं पलयोपमनुं होय छे. हवे (नक्षत्तताराणं) के नक्षत्र तथा तारानुं उत्कृष्ठ आयुष्य (कमेण) के० अनुक्रमे करीने कहे छे. ॥६॥ नक्षत्र अधिपति अने नक्षत्रना विमानवासी देवोनुं उत्कृष्ठ आयुषय (पलियद्धं) के० अर्दा पल्योपमर्नु होय छे. तथा तारा अविराति अने ताराना विमानवासी देवोनुं उत्कृष्ठ आयुष्य (चउभागो) के० पल्योपमना चोथाभाग होय छे. तथा (देवीण) के० नक्षत्रनौ देवीनुं तथा नक्ष ना विमानवासी देवोनी देवीओ- (आउ ) के० उत्कृष्ठ आयुष्य (चउभागाहिग) के० पलयोपमनो चोथो भाग विशेषाधिक एटले पल्योपमनो चोथा भाग अने काइक वधारे होय छे. तथा तारानी देवीओर्नु अने ताराना विमानवासी देवोनी देवीओर्नु उत्कृष्ठ आयुष्य ( अड भागाहिग) के० पल्योगमनो आठमो भाग विशेषाधिक एंटले पत्योपमनो आठमो भाग अने कांइक वधारे होय छ: एम ए ज्योतिषी देवोनां पांचे युगलनु उत्कृष्ट आयुष्य क. हवे ज्योतिषी देवोर्नु जयन्य आयुष्य कहे छे. पांच जातना ज्योतिषीमां चंद्र अने सूर्य ए बे इंद्र छे अने बाकीना त्रण विमानना अधिपतिओ छ, तेथी तेमनु जघन्य तथा मध्यम आयुषय नथी, माटें तेमना विना (चउजुअले) के० चार जुगल-ते चंद्रना विमानबासी देव अने देवीओ १, सूर्यना विमानवासी देव अने देवीआ २, ग्रहना विमानवासी देव अने देवीओ ३, नक्षत्रना विमानवासी देवे अने देवीओ ४, ए चारे जुगलजें (जहन्न) के जघन्य आयुष्य (चउं भागी) के० पल्यापमनो चोथो भाग होय अने (पंचमए) के० ताराना विमानवासी देव अने देवीओ ए पांचमा युगलनु जयन्य Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aman आयुष्य अड भाग के० पलयोपमना आठमा भागनुं जाणवु. ए ज्योतिषी देव तथा देवीओनी जघन्य तथा उत्कृष्ट आयुष्य स्थिति कही ॥७॥ हवे वैमानिक देवोनुं उत्कृष्ट आयुष्य दोढ गाथावडे कहे छ.. ८१ सारा दो साहि सत्त साहिय, दस चउदस संतर अयर जा सुक्को ॥ इक्कि महियमित्तो, जा इगतीसुवरि । गेविज्जे ॥मा तित्तीसणुत्तरेसु, सोहम्माइसु इमा १3. ठिई जिठा ॥ ___ अर्थः-पहेला सौधर्म देवलोकने विषे देवतार्नु उत्कृष्ट आयुष्य (दो ) के० बे सागरोपमर्नु होय छे. आ आयुष्य सौधर्म देवलोकना छल्ला तेरमा प्रतरमां निवास करनारा देवतार्नु जाणवु. बीजा ईशान देवलोके पण तेरमा प्रतरे बे सागरोपम अने ( साहि ) के० पल्योपमनो असंख्यातमो भाग अधिक होय छे. त्रीजा सनत्कुमार देवलोके देवतार्नु उत्कृष्ट आयुष्य ( सत्त ) के० सात सागरोपमर्नु छेल्ले प्रतरे होय छे. ए प्रमाणे चोथा माहेन्द्र देवलोके सात सागरोपम अने ( साहि ) के० पल्योपमनो असंख्यातमी भाग अधिक होय छे. पांचमे ब्रह्मदेवलोके देवता, उत्कृष्ट आयुष्य (दस) के० दश सागरोपमनु, छठे लांतक देवलोके ( चउदस) के० चउद सागरोपमनु, अने सातमे शुक्र देवलोके देवतार्नु उकृष्ट आयुष्य (सतर अयर) के० सत्तर सागरोपमनुं होय छे. एम (जा सुको) के० यावत् खा शुक्र देवलोक सुधी जाणवु. ( इत्तो ) के० त्यार पछी (इक्किकमहियं ) के० एक एक सागरोपमनी वृद्धि करवी ते (जा) के० ज्यां सुधी ( उवरि गेविजे) के० उपरना नवमा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवयके ( इगतीस ) के० एकत्रीश सागरोपमनुं आयुष्य थाय ते कही देखाडे छे. आठमा सहस्रार देवलोके अहार सागरोपम, नवमा आनत देवलोके ओगगीश सागरोपम, दशमा प्राणत देवलोके वीश सागरोपम, अग्यारमा आरग देवलोके एकवीश सागरोपम, अने बारमा अच्युत देवलोके बावीश सागरोपमर्नु उकृष्ट आयुष्य होय छे. वली त्रण त्रण ग्रैवेयकना त्रण जोडलां मली नव ग्रैवेयक उपरा उपरी रहेला छे. तेमां नीचेना त्रगमांना नीचेना सुदर्शन वेयके वीश, बच्चेना (बीजा) सुप्रतिष्ट ग्रैनेयके चोवीश अने उपरना त्रीजा मनोरम ग्रेवेयके पच्चीश सागरोपमनुं आयुष्य होय छे, वच्चेना त्रगमांना नीचेना., एटले चोथा सबभद्र अवेयके छवीश, वच्चेना एटले पांचमा सुविशाल वेयके सत्यावीश अने उपरना एटले छठा सोमनस ग्रैवेयके अहावीश सागरोपमनुं आयुष्य होय छे. तथा उपरना त्रणमानां नीचेना एटले सातमा सुमनस ग्रैवेयके ओगणत्रीश, वच्चेना एटले आठमा पीयंकर देयके त्रीश अने उपरना नवमा आदित्य ग्रैवेयके एकत्रीश सागरोपमर्नु उत्कृष्ट आयुष्य होय छे ॥ ८ ॥ एहथी उपरना विजय वैजयंत जयंत अपराजित अने सर्वार्थसिद्ध ए पांचे अनुत्तर विमानने विषे देवता- (तित्तिस ) के० तेत्रीश सागरोपमनुं उत्कृष्ट आयुष्य जाणवू. ( सोहम्माइसु ) के० सौधर्म देवलोकथी मांडी पांच अनुत्तर विमान सुधीना वैमानिक देवतानी (इमा ) के० आ (जिहा ठिइ) के० उत्कृष्ट स्थिति कही. हवे वैमानिक देवोनुं जयन्य आयुष्य बे गाथाथी कहे छे:सोहम्मे ईसाणे, जहन्नहिई पलियमहियं च ॥९॥ दो साहि सत्त दस चउ-दस सत्तर अयराइं जा सहस्सारो ॥ तप्परओ इकिकं, अहियं जाणुत्तर Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... १६. जा चउक्के ॥ १०॥ इगतीस सागराई, सबढे पुण जहन्नठिइ नत्थि ॥ ___ अर्थः-(सोहम्मे ) के० सौधर्म देवलोकने विषे देवताओनी (जहन्नहिई) के. जघन्य आयुष्य (पलियं ) के एक पल्योपमर्नु होय छे. आ आयुष्य सौधर्म देवलोकना तेरे प्रतरमां निवास करनारानुं जाणवू. (च) के० अने (ईसाणे) के० ईशान देवलोकने विषे एक पल्योपम तथा (अहियं ) के० एक पल्योपमनी असं.. ख्यातमो भाग अधिक होय छे ॥ ९॥ त्रीजा सनत्कुमार देवलोके (दो) के० बे सागरोपमर्नु अने चोथा माहेन्द्रदेवलोके बे सागरोपम अने ( साहि ) के० काइक अधिक होय छे. पांचमा ब्रह्म देवलोके ( सत्त) के० सात सागरोपमनु, छठा लांतक देवलोके दस के० दश सागरोपमनु, सातमा शुक्र देवलोके ( चउदस ) के० चउद सागरोपमर्नु, एम ( जा सहस्सारो) के० यावत् आठमा सहस्रार देवलोकने विषे ( सत्तर अयराई) के० सत्तर सागरोपमर्नु जघन्य आयुष्य होय छे. (तप्परओ) के० तेथी उपर आनतादि देवलोकने विषे (इक्विकं अहियं ) के एक एक सागरोपम वधारता जवु. ते ( जा णुत्तरचउक्के) के. ज्यां सुधी चोथा अनुत्तर विमानने विषे एकत्रीश सागरोपमनुं जघन्य आयुष्य थाय छे. ते आ प्रमाणे-आनत देवलोके. अढार सागरोपमनु, प्राणत देवलोके ओगणीश सागरोपमनु, आरण देवलोके वीश सागरोपमर्नु, अने अच्युत देवलोके एकवीश सोगरोपमर्नु जघन्य आयुष्य थाय छे. त्यारपछी नवे ग्रैवेयके एक एक सागरोपम वधारतां नवमे ग्रैवेयके त्रीश सागरोपमर्नु जघन्य आयुष्य होय. त्यार पछी विजय वैजयंत जयंत अने अपराजित ए चार अनुत्तर विमाने-॥ १०॥ (इग Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ तीससागराई ) के० एकत्रीश सागरोपमनुं जघन्य आयुष्य होय. ( पुग) के० वली ( सबठ्ठे ) के० सर्वार्थसिद्ध नामना पांचमा अनुत्तर विमानने विषे ( जहन्नठि नत्थि ) के० जघन्य आयुष्य नथी ॥ वैमानिक देवीओ केला देवलोक सुवी होय छे ? तथा केला प्रकारनी होय छे ? ते अर्धी गाथा वडे कहे छे. परिगहियाणियराणि य, सोहम्मीसाण देवी || ११ || अर्थः- (देवी) के० वैमानिक देवीनी उत्पत्ति ( सोहम्मीसाण ) ० सौधर्म तथा ईशान ए वे देवलोकने विषे होय छे. अने ते देवीओ बे प्रकारनी छे. ( परिगहियाणिइयराणि य ) के० एक परिग्रहिता ते परणेली कुलांगना सरखी अने बीजी अपरिग्रहिता ते साधारण गणिका सरखी जाणवी ॥ ११ ॥ हवे एक इंद्रनाभवमां केटली देवीओ उत्पन्न थइ मरण पामे ? ते वे गाथावडे कहे छे. दोकोडाकोडीओ, पंचासी कोडी लक्ख इगसयरी | कोटिसहस्स चउकोडि - सयाण अडवीसकोडीणं ।। १२ ।। सत्तावन्नं लक्खा चउदससहस्साय दुस १ देवोमां मनुष्यवत् परणवानी विधी नथी परन्तु अमुक एक पतिदेवनीज ते देवी गणाती होवाथी पतिव्रतापशुं होय छे. प्रथम पतिदेव चवी गयाथी बीजो तेज स्थाने उपजेला देवने पुनः पति तरीके अंगीकार करे तो पण पतिव्रतापणुं लोपाय महि एवी देवलोकनी मर्यादा छे. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ पंचासी ॥ इय संखा देवीओ, चवंति इंदस्स जम्मंमि ॥ १३ ॥ अर्थः- ( दो कोडाकीडीओ ) के० वे क्रोडाक्रोड, (पंचासीकोडीलक्ख ) के० पंचाशी क्रोड लाख, ( इगसयरि कोडी सहस्स ) के० एकोतेर क्रोड हजार, ( चउकोडि सयाण ) के० चार सो क्रोड अने ( अडवीस कोडीणं ) के० अठावीस क्रोड ॥ १२ ॥ ( सत्तावन्नं लक्खा ) के० संत्तावन लाख, ( चउदस सहस्सा ) के० चउद हजार ( य ) के० अने ( दुसय पंचासी ) के० बसो पंचाशी. २८५७१४२८५७१४२८५ ( इय संखा देवीओ) के० एटली देवीओनी संख्या इंदस्स जम्मंमि के० ॥ एक इंद्रना भवमां ( चवंति ) के० मरण पामे छे. ॥ १३ ॥ ed वैमानिक देवीओनुं जघन्य तथा उत्कृष्ट आयुष्य एक गाथाथी कहे छे. पलियं अहियं च कमा, ठिई जहन्ना इओ य उक्कोसा ॥ पलियाई सत्तपन्नास, तहय नव पंचवन्नाय ॥ १४ ॥ १. अर्थः- सौधर्म देवलोकने विषे ( इओ) के० ए परिग्रहीता तथा अपरिग्रहीता देवीओनी ( जहन्ना ठिइ ) के० जघन्य आयुष्य (पलियं ) के० एक पल्यो मनुं, (च) के० ईशान देवलोकने विषे परिग्रहीता तथा अपरिगृहीता देवीओनुं जवन्य आयुष्य ( अहियं ) के० एक पल्योपथी कांक अधिक ( कमा ) के० अनुक्रमे करीने जाणवु. तथा सौधर्म देवलोके परिग्रहीता देवीओनुं (उकोसा ) के० उत्कृष्ट आयुष्य (पलियाई सत्त) के० सात Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ पल्योपमनी अने अपरिग्रहीता देवीओनी ( पन्नास ) के० पचास पल्योपमनी आयुस्थिति होय छे. ( तह ) के० तथा ईशान देवलोके परिग्रहीता देवीओनुं ( नव ) के० नव पल्योपम अने अपरिग्रहीता देवीओनुं ( पंचवन्ना ) के० पंचावन पल्योपमर्नु आयुष्य होय छे ॥ १४ ॥ सौधर्म तथा ईशान देवलोकना देवताने भोग्य एवी जे पतिव्रता देवीओ छे ते परिग्रहीता देवीओ कहेवाय छे. सौधर्म देवलोके अपरिग्रहीता देवीओनां छ लाख विमान छे. ते अपरिग्रहीता देवीओ गणिका जाति छे. ते अपरिग्रहीता देवीओ वीजा पांचभा सातमा नवमा अने अग्यारमा देवलोकना देवोने भोग्य छे, तेथी जे देवीओ जे देवलोकने भोग्य छे ते त्यां जाय छे. तथा ईशान देवलोके अपरिग्रहीता देवीओनां चार लाख विमान छे. ए अपरिग्रहीता देवीओ चोथा छठ्ठा आठमा दशमा अने बारमा देवलोकना देवने भोग्य छे, तेथी जे देवीओ जे देवलोकने भोग्य छे ते त्यां जाय छे. हवे असुर कुमारादिक इंद्रोनी अग्रमहिषीओनी संख्या कहे छे. पण छ चउ चउ अठ्ठ य, कमेण पत्तेयमग्गमहिसीओ ॥ असुरा नागाइ वंतर - जोईस कप्प दुगिंदाणं ॥ १५ ॥ ४ अर्थः- जे प्रधान पटराणी होय ते अग्रमहिषी कहेवाय छे. तेमां भुवनपतिनी पहेली निकायनी बे दिशामां रहेनारा ( असुरो ) के ० ० असुरकुमारना चमरेन्द्र तथा बलीन्द्र नामना बे इंद्र छे. तेमने एक एकने ( पण ) के० पांच पांच ( अग्गमहिसीओ ) के० अग्रमहिषीओ होय छे. तथा ( नागाइ ) के० नागकुमार विगेरे बाकीना भुवनपतिनी नव निकाय छे तेना धरणेंद्र तभूतथा नेिंद्र विगेरे Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ अढार इंद्र छे, तेमने दरेकने (छ) के० छ छ अग्रमहिषीओ छे. तथा (नंतर ) के० व्यंतर देवतानी सोल निकायना काल महाकाल विगेरे बत्रीश इंद्र छे. तेमने दरेकने ( उ ) के० चार चार अग्रमहिषीओ होय छे, तथा ( जोईस) के० ज्योतिषीना चंद्र तथा सूर्य ए वे इन्द्रने ( उ ) के० चार अग्रमहिषीओ होय छे. तथा (कप्पदुर्गिदाणं ) के० सौधर्म तथा ईशान ए वे देवलोकना बे इन्द्र छे तेमने दरेकने ( अट्ठ ) के० आठ आठ अग्रमहिषीओ होय छे. सौधर्म तथा ईशान देवलोकथी उपरना देवलोकने विषे देवीनुं उपजवं नथी, तेथी त्यां परिग्रहीता देवीओ पण नथी. परंतु ते देवलोकना इंद्र तथा देवोने ज्यारे विषय सेववानी इच्छा थाय त्यारे तेमने यथायोग्य सौधर्म तथा ईशान देवलोकनी अपरिग्रहीता देवीओ उपभोगने अर्थ थाय छे, माटे त्यां अग्रमहिषीओनो संभव नथी ॥ १५ ॥ हवे देवलोकना प्रतरनी संख्या एक गाथावडे कहे छे:दुसु तेरस दुसु बारस, छ पण चउ चउ दुगे दुगे य च ॥ विज्जणुत्तरे दस, बिसी पथरा उवरि लोए || १६ || १८ अथः — जेम धरने उपराउपर माल होय छे, तेम देवलोकमां उपराउपर प्रतर होय छे. पण माळनी पेठे एक प्रतरथी बीजा प्रतरनी बच्चे टेकारूप कइ न होय. देवलोकनां दरेक प्रतरो आकाशमां निराधार होय. मां (दुसु ) के० सौधर्म अने इशान ए बे देवलोकना मलीने ( तेरस ) के० तेर प्रतर वलयाकारे छे. तेमां पूर्व महाविदेह अने पश्चिम महाविदेहनी वचमां अर्द्धवलयाकार खंडथी अर्द्ध अर्द्ध खंड करवा, जेमां एक दक्षिण दिशानो खण्ड, अने Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ बीजो उत्तर दिशानेो खण्ड तेमां दक्षिण दिशाना अर्द्धवलय खण्डना तेर प्रतर सौधर्मेन्द्रना जाणवा अने उत्तर दिशाना अर्द्धवलय खण्डना तेर प्रतर ईशानेंद्रना जाणवा.' तेमज (दुसु ) के० सनत्कुमार ने महेंद्रने विषे मलेला वलयाकार ( बारस ) के० बार प्रतर छे, अहिं पग अर्द्धअर्द्ध करी दक्षिण दिशाना सनत्कुमारेन्द्रना अने उत्तर दिशाना माहेन्द्रना प्रतर जाणवा. ब्रह्म देवलोके (छ) के० छ प्रतर, लांतक देवलोके ( पण ) के० पांच तर, शुक्र देवलोके ( उ ) के० चार मतर, सहस्रारे ( उ ) के० चार प्रतर, तथा आनत अने प्राणत ए ( दुगे ) के० वे देवलोकना मलीने ( उ ) के० चार प्रतर, तथा आरण अने अच्युत ए ( दुगे य) के० वे देवलोकना मलीने चार प्रतर जाणवा. ए सर्व मलीने बावन प्रतर थया. वली ( गेविज ) के० नव ग्रैवेयके एक एक प्रतर गणतां नव प्रतर थाय, अने ( अणुतरे ) के० पांचे अनुत्तर विमाने एक प्रतर ए (दस) के० दश प्रतर थया. ते पूर्वे कला बावन साथै मेलवतां ( उवीर लोए ) के० अरना लोकने विषे ( बिसहि पयग ) के० बास प्रतर थाय छे ॥ १६ ॥ हवे प्रतरे प्रतरे जूनुं जूढुं उत्कृष्ट तथा जनन्य आयुष्य जाणवा माटे प्रथम सौम देवलोके उपाय कहे छे. सोहम्मुकोस, नियपयर विहत्त इच्छ संगुणिओ | १ सौधर्मना १३ प्रतर अने इशानना १३ प्रतर मळी २६ प्रतर न गणाय, पण १३ प्रतरज गणाय. कारण के सौधर्मने तांबे दक्षिण बाजुना १३ अर्धा प्रतर अने इशान इन्द्रने ताबे उत्तर बाजुना १३ अर्धा प्रतर मळी १३ आखा प्रतर थाब. ए प्रमाणे त्रीजा चोथा आठमा नवमा दशमा अने अगीआर बारमा देवलोके पण जाणवुं. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ पयरुको सहिइओ, सव्वत्थ जहन्नओ पलियं ॥ १७ ॥१८ " अर्थ: - ( सोहम्मुकोस ) के० पहेला सौधर्म देवलोकने विषे जे उत्कृष्ट स्थिति बे सागरोपमनी छे तेने ( नियपयर ) के० पोताना तेर प्रतर साथे (वित्त ) के० वर्हेचीने पछी ( इच्छ संगुणिओ ) के० अहिं जे त्रीजा पांचमा अथवा सातमा प्रतरनुं आयुष्य काढवाने इच्छेलुं होय ते प्रतरनी साथे ज्यारे गुणाकार करीर त्यारे (पयर) के० ते प्रतरनी (उकोसहिओ ) के० उत्कृष्ट स्थिति थाय. ते आ प्रमाणे- सौधर्म देवलोकना तेरमा प्रतरे उत्कृष्ट आयुष्य स्थिति में सागरोपमनी छे, तेमांथी एक एक सागरोपमना तेर तेर भाग करोये त्यारे वे सागरोपमना तेरीया छवीश भाग थाय, तेने तेर भागे बेचतां एक सागरोपमना तेरीया बे भागनुं आयुष्य पहेले प्रतरे होय. एवीज रीते बीजा प्रतरनुं आयुष्य काढवु होय तो तेने ते साथे गुणीये तो एक पल्योपमना तेरीया चार भाग आवे. तेबीज रीते त्रीजे प्रतरे छ भाग, चोथे आठ भाग, पांचवे दश भाग, छठ्ठे बार भाग, सातमे चउद भाग एले एक सागरोपम अने पर तेरीओ एक भाग, आठमे एक सागरोपम ने ऋण भाग, नवमे एक सागरोपम ने पांच भाग; दशमे एक सागरोपम ने सात भाग, अग्यारमे एक सागरोपम ने नवभाग, बारमे एक सागरोपम ने अग्यार भाग अने तेरमे प्रतरे बे सागरोपम संपूर्ण आयुष्य होय. एज प्रमाणे ईशान देवलोकने विषे पण प्रत्येक प्रतरमां आयुष्य काढवानो आय जाणवो, परन्तु एटलं विशेष छे के-ए देवलोकना पहेले प्रतरे सागरोपमना तेरीया बेभागथी कांक अधिक आयुष्य कहेवु. एम दरेक प्रतरे अधिक आयुष्य कहेतां तेरमे प्रतरे वे सागरोपम साधिक आयुष्य स्थिति थाय, अने ( सव्वत्थ ) के० सौधर्म देवलोकना सर्वत्र एटले तेरे Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतरने विवे ( जहन्नओ) के० जयन्यथी (पलिय) के एक पल्योपमनी आयुष्य स्थिति होय. तथा ईशान देवलोकना तेरे प्रतरने विजयन्यथी एक पल्योगम अधिक आयुष्य स्थिति होय छे. ॥ १७ ॥ ., हवे सौधन्द्रना चार लोकपालोनुं उत्कृष्ट आयुष्य कहे छे. सोमजमाणं सतिभाग-पलियं वरुणस्स दुन्नि देसूणा॥ वेसमणे दो पलिया, एस टिइ लोगपालाणं ॥१८॥ . अर्थः-पूर्व दिशानो लोकपाल ( सोम ) के० सोम छे अने दक्षिण दिशानो लोकपाल (जम) के० यम छे. ते बन्नेनुं उत्कृष्ट आयुष्य ( सतिभागालियं ) के एक पल्योपमना त्रीजा भाग सहित एक पल्योपमनुं छे. पश्रिम दिशानो (वरुणस्स) के० वरुण नामनो लोकपाल छे, तेनुं उत्कृष्ट आयुष्य ( दुन्नि देसूणा ) के० देशे उणा वे पल्योपमनुं छे. तथा उत्तर दिशाना (वेसमणे ) के० वैश्रमण नामना लोकपालन उत्कृष्ट आयुष्य ( दोपलिया ) के बे पल्योपमनुं छे. ए प्रमाणे ( लोगपालाणं ) के. सौधर्मेन्द्रना चारे लोकपालनी ( एस ठिइ ) के० ए उत्कृष्ट आयुष्यनी स्थिति वही ॥ १८॥ . ए लोकपालोनां विमान केवडां होय छे ? ने एक गाथाथी कहे छे:अद्धतेरसलक्खा, विमागमागं च लोगपालागं ॥ भणीयं च पंचमंगे, बुहेहिं निचं मुणेयव्यं ॥ १९ ॥ अथः-च) के० वली (लोगपालाणं) के० ए लोकपालनां' (विमाणमाणं) के० विमानोनुं प्रमाण एटले विमानोनी १ इन्द्रना मोटा अधिकारीओ. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ लंबाई तथा पहलाई (अद्धतेरसलक्खा ) के० साडा बार लाख योजननी ( पंचमंग ) के० भगवती सूत्रमां ( भणीयं ) के० कही छे. ते ( बुहेहिं ) के० विद्वानोए ( निच्च ) के० नित्य ( मुणेयव्वं ) के० जागं ॥ १९ ॥ ed art देवलोकना इन्द्रोने रहेवानां स्थानक कहे छे:कप्पस्स अंतपयरे, नियकप्पवडिंसया विमाणाओ ॥ इंदनिवासा तेसिं, चऊदिसि लोगपालाणं ॥ २० ॥ ५ अर्थः- ( कप्पस ) के० दरेक देवलोकना ( अंतपयरे ) के० छल्ला प्रतरना मध्यभागने विषे ( नियकप्पवर्डिसया ) के० पोतपोताना कल्पने नामे अवतंसक नामना (विमाणाओ ) के० विमानो छे. जेमके - सौधर्म देवलोकना उपरना तेरमा प्रतरने विषे दक्षिण दिशाए मध्यभागे सुधर्मावर्तक नामनुं विमान छे तेमज ईशान देवलोकना उपरना तेरमा प्रतरने विषे उत्तर दिशाए मध्य भागे ईशानraine नामनुं विमान है. एवी रीते सर्व देवलोकने विषे जाणं. परंतु नवमा तथा दशमा देवलोकनो एक इन्द्र छे त्यां चोथा प्रतरे प्राणावतंसक नामनुं विमान छे अने अग्यारमा तथा बारमा देवलोकनो एक इन्द्र छे, त्यां पण चोथा प्रतरे अच्युतावतंसक नामनुं विमान छे. ते अवतंसक नामना विमानाने विषे ( इंदनिवासा) के० इंद्रोनो निवास छे अने ( तेर्सि) के० ते विमाननी ( चऊदिसि ) के० चारे दिशाने विषे ( लोगपालाणं ) ० ते सोम विगेरे चार लोकपालोनो निवास छे. एम सर्व देवलोकने विषे जाणवुं ॥ २० ॥ १ पोतपोताना ताबाना अर्धवलय प्रतरना वा पूर्ण प्रतरना मध्य भागे. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे सनत्कुमारादिक देवलोकना प्रत्येक प्रतरोने विषे जयन्य तथा उत्कृष्ट आयुष्यनी स्थिति जाणवानो उपाय कहे छः सुरकप्पठिइविसेसो, सगपयरविहत्त इच्छ संगुणिओ॥ हिछिल्लठिइसहिओ, इच्छियपयरंमि उक्कोसा ॥ २१ ॥२-२. ___ अर्थः-( सुरकप ) के० देवोना कल एटले देवताओने निवास करवाना बार देवलोक ते कल्प कहेवाय छे अने नव ग्रैवेयक तथा पांच अनुत्तर विमान ते कल्लातीत कहेवाय छे. ते सुरकल्पना उत्कृश आयुष्यनी जे ( ठिइ ) के० स्थिति छे तेनो (विसेसो ) के० विश्लेष करवो, अर्थात् अधिक स्थितिमांथी ओछी स्थिति काही नाखवी. एम कर्या पछी जे वधे तेने ( सगपयरविहत्त ) के० पोत पोताना प्रतरे करीने येहेंचीए. पछी ( इच्छसंगुणिओ) के० ए स्थाने वांछित प्रतर साथे गुगी. तेनो जे आंक आवे तेने (हिडिल्लठिइसहिओ) के० हेठली उत्कृष्ट स्थिति साथे एकठो करीए त्यारे ( इच्छियपयरंमि ) के० इच्छित प्रतरने विवे ( उक्कोसा ) के० उत्कृष्ट स्थिति आवे.. ते वातने अहिं उदाहरण सहित समजावे छे केः-हेला सौधर्म देवलोकना तेरमे प्रतरे उत्कृष्ट आयुष्यनी स्थिति बे सागरोपमनी छे अने सनत्कुमार देवलोकनुं उत्कृष्ट आयुष्य सात सागरोपमर्नु छ, माटे सात सागरोपममांथी बे सागरोपमनी स्थिति वाद करीर त्यारे पांच सागरोपम सनकुमारना बाकी रहे. पछी ते पांच सागरोपमने सनत्कुमारना बार प्रतरे करीने व्हेंचीए. ते एवी रीते के-एक सागरोपमना बार बार भाग करवा, जेथी पांचे सागरोपमना बारीया साठ भाग थाय अने ते साठे भागने बारे प्रतरे वेहेंचीए त्यारे एक एक प्रतरे सागरोपमना बारीया पांच पांच Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग आहे. पछी नीचेना सौधर्म देवलोकनी उत्कृष्ट स्थिति बे सागरोपमनी छे ते तेनी साथे भेलीए त्यारे त्रीजा सनत्कुमार देवलोकना पहेला प्रतरनी बे सागरोपम अने एक सागरोपमना बारीया पांच भाग उपर एटली उत्कृष्ट आयुष्य स्थिति थाय. वीज रीते बीजा प्रतरे बे सागरोपम अने उपर बारीया दश भाग थाय. त्रीजे प्रतरे त्रण सागरोपम ने उपर बारीया त्रण भाग 'थाय. ए प्रमाणे प्रतरे प्रतरे बारीया पांच पांच भाग वधारवा, जेथी छेल्ला बारमा प्रतरे बराबर सात सागरोपमनुं उत्कृष्ट आयुष्य थाय. ए ते माहेन्द्रे साविक सात सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति कहेवी. ए प्रमाणे अरना सर्व देवलोकना प्रतरने विषे आयुष्य स्थिति काढवी. आयुष्यनी स्थिति यंत्रमां आपी छे तेमांथी जोइ लेवी ॥ २१ ॥ अहिं देवताना आयुष्यनुं प्रथम द्वार सम्पूर्ण थयुं ॥ हवे देवगतिने विषे भुवन सम्बन्धी बीजुं द्वार कहे छे:असुरा नाग सुवन्ना, विज्जु अग्गी य दीव उदही अ ॥ दिसि पवण थणिय दसविह, भवणवई तेसु दुदु इंदा ॥ २२ ॥ ४ अर्थः- चार निकायना देवतामा प्रथम भुवनपति देवतानां भुवन कहेवाने माटे भुवनपतिनी दश जातिनां नाम कहे छे. १ ( असुरा) के० असुर कुमार, २ ( नाग ) के० नाग कुमार, ( सुन्ना) के० सुवर्ण कुमार ४ ( विज्जु ) के० विद्युत्कुमार, ५ ( अग्गीय ) के० अग्नि कुमार, ६ ( दिव) के० द्वीप कुमार, ७ ( य ) के० अने ( उदही ) के० उदधि कुमार, ८ ( दिसि ) के० दिशि कुमार, ९ ( पत्रण ) के० वायु कुमार, अने १० ( थणिय ) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के० स्तनित कुमार. ए ( दस विह भवणवइ ) के० दश प्रकारना भुवनपति देवता छ. (तेसु ) के० ते एक एक निकायने विषे एक दक्षिण श्रेणिनो अने एक उत्तर श्रेणिनो एम ( दुदु इंदा) के० बे बे इन्द्रो छे. ए दशे निकायना देवो कुमार एटले बालकनी पेठे क्रीडा करनारा छे, माटे दरेक नामनी साथे कुमार शब्द जोड्यो छे. ॥ २२ ॥ हवे भुवनपतिनी दश निकायना वीश इन्द्रोनां नाम कहे है:चमरे बली य धरणे, भूयाणंदे य वेणुदेवे य ॥ तत्तो य वेणुदाली, हरिकंते हरिस्सहे चेव ॥ २३ ॥ अग्गिसिह अग्गिमाणव, पुनविसिढे तहेव जलकंते॥ जलपह तह अमि अगई, मियवाहण दाहि गुत्तरओ ॥ २४ ॥ वेलंबे य पभंजण, घोस महाघोस एसिमन्नयरो॥ जंबुद्दी छत्तं, मेरं दंडं पहु काउं ॥ २५ ॥४० __ अर्थ:-अहिं (दाहिणुत्तरओ ) के० दक्षिण अंगीनो इन्द्र अने उत्तर अंगीना इन्द्र एम दरेक निकायना बने इन्द्रो कहेवा. तेमना अनुक्रमे करीने नाम कहे छे. पहेली असुरकुमार निकायनी दक्षिण दिशानो (चमरे ) के० चमरेन्द्र (य) के० अने उत्तर दिशानो (बली ) के० बळीन्द्र, बीजी नागकुमार निकायनी दक्षिण दिशानो ( धरणे ) के० धरणेन्द्र ( य ) के० अने उत्तर दिशानो (भूयाणंदे ) के० भूतानंद्र. ( य ) के० वळी त्रीजी सुवर्ण कुमार निकायनी दक्षिण दिशानो (वेणुदेवे ) के० वेणुदेवेन्द्र अने उत्तर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशानो (देणुदाली ) के. वेणुदालिन्द्र. ( तत्तो) के० मारपछी चोथी विद्युत्कुमार निकायनी दक्षिण दिशाने पे वि( हरिकते ) के० हरिकंतेन्द्र अने उत्तर दिशाने विषे ( हरिस्सह ) के० हरिसहेन्द्र (चेव ) के० निश्चयथी जाणवा. ॥ २३ ॥ पांचमी अग्नि कुमार निकायनी दक्षिण दिशाने विषे ( अग्गिसिह ) के० अग्निशिखेन्द्र अने उत्तर दिशाने विषे ( अग्गिमाणव ) के० अग्निमानवेंद्र. छठी द्वीपकुमार निकायनी दक्षिण दिशाने विषे (पुग्न ) के० पूर्णेन्द्र अने उत्तर दिशाने विष (विसिट्टे ) के० विशिष्टेन्द्र. ( तहेव ) के० तेमज सातमी उदधिकुमार निकायनी दक्षिण दिशाने विषे (जलकंते ) के० जलकंतेन्द्र अने उत्तर दिशाने विषे ( जलपह) के० जलप्रमेन्द्र ( तह) के० तेमज आठमी दिशिकुमार निकायनी दक्षिण दिशाने विषे ( अमिअगई ) के० अमितगतीन्द्र अने उत्तर दिशाने विषे ( अमियवाहण ) के० अमितवाहनेन्द्र-॥२४॥ (य) के. वली नवमी वायुकुमार निकायनी दक्षिण दिशाने विषे ( लंबे ) के० लंबेन्द्र अने उत्तर दिशाने विषे (पभजण) के० प्रभंजनेन्द्र. दशमी स्तनितकुमार निकायनी दक्षिण दिशाने विषे ( घोस ) के० घोपेंद्र अने उत्तर दिशाने विषे ( महाघोस ) के० महाघोषेन्द्र. ( एसिं ) के० ए वीश इंद्रमांथी ( अन्नयरो) के० कोइ इंद्र जो पोतानी शक्ति फोरवे तो ते (जंबुद्दीव) के० जंबुद्वीपने (छत्तं ) के० छत्राकार करवाने तथा ( मेरुं ) के० मेरुपवतने ( दंडं काउं) के० दंड करवाने ( पहु) के० समर्थ थाय छे. अर्थात् ते इन्द्र पृथ्वीनुं छत्र करी अने मेरुपर्वतनो दंड करी डाबा हाथे धारण करे तो पण तेना शरीरने कांई प्रयास जणाय नहीं. छतां कोइ वखत एवी शक्ति फोरवी जंबुद्धीपने छत्राकार कर्यु नथी, करता नथी ने करशे पण नहिं. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ हवे असुर कुमारादिक निकायोनी दक्षिण श्रेणोनी भुवन संख्या कहे छे: चतीसा चचत्ता, अठ्ठत्तीसाय चत्त पंचन्हं ॥ पन्ना चत्ता कमसो, लक्खा भवणाण दाहिणओ ||२५|| ३ अर्थ:- असुर कुमारनां (चउतीसा ) के० चोत्रीश लाख, नाग कुमारनां ( चउचत्ता ) के० चुमालीश लाख, सुवर्ण कुमारनां ( अतीसाय) के० आडत्रीश लाख, वली विद्युत्कुमार अग्निकुमार दीपकुमार, उदधिकुमार अने दिशिकुमार ए ( पंचहे ) के० पांचे निकायनां ( चत्त) के० चालीश चालीस लाख भुवन के. तथा पवनकुमारनi (पन्ना) के० पचास लाख अने स्तनितकुमारनां ( चत्ता ) के० चालीश लाख भुवन छे, ए ( कमसो) के० अनुक्रमे करीने (दाहिणओ ) के० दक्षिण श्रेणीना ( भवणाण ) के० भुवनोना ( लक्खा ) के० लाखोनी संख्या कही. ॥ २६ ॥ हवे उत्तर श्रेणीना भुवननी संख्या कहे छे: च च लक्ख विहूणा, तावइया चैव उत्तर दिसाए || सव्वेवि सत्त कोडी, बावत्तरि हुति लक्खा य ||२७|| ३ अर्थः-दशे निकायनी दक्षिण भेगीर जे भुवन संख्या कही छे. तेमां एक एकमांथी ( चउ चड लक्ख विहूणा ) के० चार चार लाख ओछां कर्या थकां शेष जे जे निकायनां जेटली जेटली भुवन रहे ( तावइया) के० तेटलां तेटलां (उत्तर दिसाए ) के० उत्तर दिशानी निकायने विषे ( चैव ) के० निश्वे होय छे. ते आ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणे असुरकुमारनां त्रीश लाख, नागकुमारनां चालीश लाख, सुवर्णकुमारनां चोत्रीश लाख, पछो विद्यत्कुमार अग्निकुमार द्विपकुमार उदधिकुमार अने दिशिकुमार ए पांचेनां छत्रीस छत्रीस लाख, पवनकुमारनां छतालीस लाख, अने स्तनितकुमारनां छत्रीसलाख भुवन उत्तर दिशाए छे, ( सव्वेवि ) के० ए दक्षिण तथा उत्तरे बन्ने श्रेणिना मळी ने ( सत्तकोडी) के० सात क्रोड यके० अने (बावत्तरी लक्खा) के० बहोंतेर लाख भुवन हुंति के० होय छे ॥२७॥ हवे एज दश निकायनी दक्षिण तथा उत्तर श्रेणीनी जुदी जुदी भुवन संख्या कहे छः- . चत्तारिय कोडीओ, लक्खा छचेव दाहिणे भवणा, तिन्नेव य कोडीओ, लक्खा छावठी उत्तरओ ॥२८॥ अर्थः-(चत्तारि कोडीओ) के० चार क्रोड, यके० अने (छ लक्खा) के० छ लाख, (दाहिणे) के० दक्षिण दिशामां, (भवण) के० भुवनो, (चेव) के० निश्चे थाय छे, तथा (तिन्नेव कोडीओ) के० त्रण क्रोड, यके० (छावही लक्खा) के० छासठलाख भुवनो, (उत्तरओ) के० उत्तर दिशा तरफ होय छे ॥२८॥ हवे ए पूर्वोक्त भुवन क्या छ ? ते स्थानक कहे छे:रयणाए हिठुवरिं, जोयण सहस्सं विमुत्त ते भवणा ॥ जंबुद्दीप समा तह, संखमसंखिज्जवित्थारा ॥ २९ ॥ ___ अर्थः-रयणाए के० रत्नप्रभा पृथ्वीनो पींड एक लाख अने ऐसीहजार योजन जाडपणे छे, तेमांथी, (हिठुवरि) के० हेठे ने उपर, (जोयण सहस्सं विमु-तु) के० एक एक हजार योजन Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुकीने वचमांना एक लाख अठोतेर हजार योजनांहे, ते के ते भुवनाति देवोना, (भवणा) के० भुवनो छे. तेमां नाना भुवनो (जंबुद्दीव समा) के० जंबुद्धिा सरखा छे. (तह) के० तथा मध्यम भुवनो ते, (संख) के० संख्यात कोटी योजन प्रमाण छे, तथा उत्कृष्टाते (असंखिज) के० असंख्याता कोटा कोटी योजन प्रमाण, (वित्थारा) के० विस्तारवंत होय छे ॥२९॥ हवे धणा देवोमां पोतयोतानी निकाय जाणी शकाय माटे असुरादिक दश निकायना देवोनां मुकुनदिक आभूषणने विषे चिन्हो होय छे ते कहे छे:चूडामणि फणि गरुडे, वज्जे तह कलस सीह अस्सेय, ॥ गय मगर वद्धमाणे असुराइगं मुणसु चिण्हं ॥ ३० ॥3 ___ अर्थः-असुरकुमारना मुकुटने विषे, (चूडामणि) के० चूडामणिर्नु चिन्ह छे. नागकुमारना आभूषगने विधे, (फणि] के० सपर्नु चिन्ह छे सूवर्णकुमारना आभूषणने विषे, (गरुड) के० गरुडर्नु चिन्ह छे. विद्युत्कुमारना मुकुटमां, (वज्जे) के० वज्रनु चिन्ह छे. (तह) के० तथा अग्निकुमारना आभूषणमां, (कलस) के० कलसर्नु चिन्ह छे द्विमकुमारना आभूषणमां (सोह) के० सिहर्नु चिन्ह छे, उदधिकुमारना मुकटने विषे के० (अस्सेय०) अश्वनु चिन्ह छे, दिशिकुमारनां मुकुट विषे, (गय) के० हाथीनु चिन्ह छे, वायुकुमारना आभूषणने विषे, (मगर) के० मगरनु चिन्ह छे स्तनितकुमारना आभूषणने विवे, (बद्धमाणे०) के०सराव संपूटर्नु चिन्ह छे. ए प्रमाणे (अमराईणं) के० असुरादिक दश भुवन पतिनां (चिण्डं) के० चिन्ह (मुगसु) के० जाणवा. ॥ ३० ॥ ___ हवे एज असुरादिक दश प्रकारना भुवनपति देवोना शरीरनो वर्ण कह छे: Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ असुरा काला नागु, दहिपंडुरा तह सुवन्न दिसि थणियाकणगाभ विज्जु सिहि दीव, अरुणा वाउ पिरंगु निभा ॥ ३१ ॥४४ अर्थः- अमुराकाला के० असुरकुमारनां शरीर काला वर्णे होय छे, (नागुदहि ) के० नागकुमार अने उदधिकुमार (ए बन्नेनां शरीर, (पंडुरा) के० गौर वर्णे छे तह के० तेमज, सुवन के० सुवर्णकुमार (दस) के० दिशिकुमार तथा (थणिया) के० स्तनितकुमार ए त्रणनां शरीर ( कणगाभ) के० सुवर्णकांति समान होय छे. (विज्जु) के० विद्युत्कुमार (सिहि) के० अग्निकुमार (दीव) के० दीपकुमार ए त्रणनां शरीर ( उवरुणा ) के० राता वर्णे छे तथा (वाउ) के० वायुकुमारना शरीरनी कांति (पियंगु ) निभा के० प्रियंगु वृक्षना वर्ण समान होय के नील होय छे. ॥ ३१ ॥ हवे असुरकुमारादिकनां वस्त्रोनो वर्ग कहे छे:असुराण वत्थरत्ता, नागोदहि विज्जु दीव सिहि नीला ॥ दिसि थणिय सुवन्नागं, धवला वाउग संझरुइ ।। ३२ ।। ४५ अर्थः – असुराण के० असुरकुमारनां वत्थ के० वस्त्र, (रत्ता) के० रातां होय छे, (नागोदहि) के० नागकुमार अने उदधिकुमार तथा (विज्जु) के० विद्युत्कुमार (दीव ) के० द्विपकुमार (सिहि ) के० अग्निकुमार ए पांचेनां वस्त्रो निला के० नील वर्णे होय छे, दिसि के० दिशिकुमार (थणिय) के ० स्तनितकुमार अने (सुवन्नाणं) के ० (सुवर्ण) कुमार ए adri aat (धवला) के० उज्वल होय छे. तथा (वाउण) के० वायुकुमारनां वस्र (संझरुइ) के० संध्याना रंग सरखा छे. हवे भुवनपति विगेरे दशे निकायना इंद्रोना सामानिक देवोनी तथा आत्मरक्षक देवोनी संख्या कहे छे: Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चासठि सहि असुरे, छच्चसहस्सा धरइंण माइणं ।। सामागिया इमेसि, चउग्गुणा आय रक्खाय ॥ ३३॥८ ___ अर्थः-असुरे के असुरकुमार निकायना बे इन्द्र छे तेमां पहेला चमरेन्द्रने (चउसहि)के० चोसठ हजार अने बलिद्रने(सहि)के० साठ हजार तथा (घरणमाई) के० धरगेन्द्र विगेरे अढारहजार इन्द्रने (छच्च सहस्साई) के० छ हजार (सामाणिया) के० सामानिक देवता छे, (य) के० अने ( इसिं) के० ए सामानिक देवोथी (चउग्गुणा ) के० चार गुणा (आयरक्खा ) के० आत्मरक्षक देवो होय छे. ॥ ३३ ॥ एम भुवनपतिनी दशे निकायनां नाम, इन्द्र, भुवनसंख्या, चिन्ह, वर्ण, वस्त्र, सामानिक देव अने आत्मरक्षक विगेरेनी वक्तव्यता कही. हने व्यंतरदेवोनी वक्तव्यता कहेता थका प्रथम व्यंतर देवोनां भुवन कहे छ:रयणाए पढम जोयण-सहसे हिवरि सय सय विहूणे।। वंतरियाणं रम्मा, भोमा नगरा असंखिज्जा ॥ ३४ ॥५१ ___ अर्थः-( रयणाए ) के० रत्नप्रभा पृथ्वीना पिंडना (पढम) के० प्रथम उपरना जोयण ( सहसे ) के० जे एक हजार योजन मुक्या छे, तेमांथी ( हिद्वरि सय सय विहूणे ) के० हेठे अने उपर सो सो योजन मूकीए. वचमां आठसो योजन रह्या, तेमां (वंतरियाणं) के० व्यंतर देवोनां ( भोमा) के० पृथ्वोकाय संबंधी (रम्मा) के० रमणिक (असंखिज्जा) के० असंख्याता (नगरा) के० नगरो छे. ॥ ३४ ॥ हवे व्यंतर देवोना घरना आकार कहे छ: Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहिं वट्टा अंतो, चउरंस अहो अकण्णियायारा ॥ भवणवईगं तह वंतराण, इंद भवणाओ नायव्वा ॥३५॥ अर्थः-व्यंतरदेवोनां घरो (बाहिं ) के० बाहेरना भागे ( वट्टा) के० वृत्त एटले गोल आकारवाला छे, अने (ो ) के० मांहेला भागे ( चउरंस ) के० चोखूणा छे. (अ) के० वली ( अहो ) के० अधोभागे एटले नीचेना भागे (कण्णियायारा) के० कमलनी कर्णिकाना आकार छे. ए उपर कहेली आकृतीवाला (भवणवईणं ) के० भवनपतिनां ( तह) के० तथा (वंतराण) के० व्यंतरदेखोना ( ईदभवणाओ ) के० इन्द्रना भुवनो (नायबा) के० जाणवा. ॥ ३५॥ तहिं देवा वंतरिया, वरतरुणीगीयवाइयरवेणं ॥ ५५० निचं सुहिया पमुइया, गयंपि कालं न यागंति ॥३६॥५ ___अर्थः- (तहिं ) के० ते भुवनोमां (देवा तरिया) के० व्यतरिक देवताओ (वरतरुणी) के० अति सुन्दर देवांगनाओना (गीयवाइयर वेणं) के० मधुर गीत अने बत्रीशबद्ध नाटक सहित मृदंगादिक वाजिंत्रना शब्दथी (निच्चं) के० नित्य (सुहिया) के० सुखी छता अने (पमुइया) के० हर्षवंत छता ( गयंपि कालं) के० गयेला कालने (न याणंति ) के० नथी जाणता ॥ ३५ ॥ हवे ते व्यतर देवोनां नगरोनुं प्रमाण तथा निकायनां नाम कहे छे:ते जंबुदीव भारह-विदेह सम गुरु जहन्न मज्झिमगा। वंतर पुण अठविहा, पिसाय भूया तहा जक्खा ॥३॥ पर Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खस किंनर किंपुरिसा, महोरगा अष्ठमा य गंधवा॥ दाहिण उत्तर भेया, सोलस तेर्सि इमे इंदा ॥३८॥५८ __ अर्थः ते व्यंतर देवोनां (नगरो) जे (गुरु) के० महोटां छे ते (जंबुदीव) के. जंबुद्वीप जेवडां एक लाख योजन प्रमाण गोल आकारवालां छे. तथा जे ( जहन्न) के० जघन्य नगरो छे ते ( भारह ) के० भरतक्षेत्र जेवडां एटले ५२६ योजन तथा एक योजनना ओगणीया छ भाग उपर छे, अने (मज्झिमगा) के० मध्यम भुवनो छे ते (विदेहसम) के० महाविदेह क्षेत्र समान एटले ३३६८४ योजन अने एक योजनना ओगणीया चार भाग उपर एवडां महोटां छे. (पुण) के० • वली ते नगरोमां रहेनारा (वंतर) के व्यंतर देवो ( अह.. विहा) के० आठ प्रकारना छे. तेमनां नाम कहे छे. १ (पिसाय) के० पिशाच, २ (भूया ) के० भूत, (तहा) के० तथा ३ ( जक्खा ) के० यक्ष. ॥ ३७॥ ४ ( रक्खस) के० राक्षस, ५ (किंनर ) के० किन्नर, ६ (किंपुरिसा) के० किंपुरुष, ७ (महोरंगा) के० महोरग, (य) के० अने ८ (अट्टमा) के० आठमा (गंधव्वा) के० गंधर्व. (दाहिण उत्तर भेया) के० दक्षिण अने उत्तर एवा बबे भेदथी (तेसिं ) के० तेमना (इमे ) के० आगली गाथामां कहेवाशे ते नामना सोलस इंदा के० शोल इन्द्रो छे. ॥ ३८ ॥ अहिं ए आठेना प्रतिभेद कहे छे: सुन्दर आकृतिवाला, जोनारने आनंद उपजावनारा, हाथ तथा कंठमां रत्ननां आभूषणोने धारण करनारा कुष्मांड, पटक, जोष, आन्हिक, काल, महाकाल, चोक्ष, अचोक्ष, तालपिशाच, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखरपिशाच, अधस्तारक, देह, महादेह, तूदश्नीक अने वनपि• शाच ए पंदर प्रकारना पिशाच देवो छे. ॥१॥ रूपवंत, सुन्दर मुखवाला अने विविध लेपनने धारण करनारा स्वरूप, प्रतिरूप, अतिरूप, भूतोत्तम, स्कंदिक, महास्कदिक, महावेग, प्रतिछत्रा काशगा ए नव प्रकारना भूतदेवो छे. ॥२॥ गंभीर स्वभाववाला, देखाववाला, शरीरनां मानोन्मान प्रमाणवाला, हाथपगना तलीया, नख, तालु, जीभ, होठ ए जेमना रातां छे एवा, सुन्दर मुकुट तथा विचित्र आभूषणोने धारण करनारा एवा पूर्णभद्र, माणिभद्र, श्वेतभद्र, हरिभद्र, सुमनोभद्र, व्यतिपाकभद्र, सुभद्र, सर्वतोभद्र, मनुष्ययक्ष, धनाधिप, धनाहार, रूपयक्ष अने यक्षोत्तम ए तेर भेद यक्ष देवोना छे. ॥३॥ भयंकर स्वभाववाला, भयंकर देखाववाला, विकराल राता लांबा होठवाला, झलहलतां आभूषणवाला, नाना प्रकारना विलेपनवाला एवा भीम, महाभीम, विघ्न, विनायक, जलराक्षस, यक्षराक्षस अने ब्रह्मराक्षस ए सात प्रकारना राक्षस देवो छे. ॥४॥ ___ शांत आकृतिवाला, सुन्दर मुखवाला अने मस्तक उपर मुकुटने धारण करनारा एवा किंनर, किंपुरुष, किंपुरुषोतम, हृदयंगम, रूपशालिन, अनिंदित, किंनरोत्तम, मनोरम, रतिप्रिय अने रतिश्रेष्ट ए दश प्रकारना किंनर देवो छे. ॥५॥ जेमना साथल अने भुजाओ रूपवंत छ, सुन्दर मुख शोभावाला तथा नाना प्रकारना आभूषणोने धारण करनारा एवा पुरुष, सत्पुरुष, महापुरुष, पुरुषवृषभ, पुरुषोत्तम, अतिपुरुष, महादेव, मरुत, मेरुप्रभ अने यशस्वंत ए दश प्रकारना किं पुरुष छे. ॥६॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अति वेगवाला, सुन्दर आकृतिवाला, महोटा शरीरवाला, पुष्ट विस्तारवंत स्कंध ग्रीवावाला अने विचित्र आभूषणोने धारण करनारा एवा भुजंग, भोगशालिन, महाकाय, अतिकाय, स्कंध साखिन, मनोरम, महादेग, महेश्वक्ष, मेरुकांत अने भारवंत ए दश प्रकारना महोरंग देवो छे. ॥ ७ ॥ सुन्दर आकृतिवाला, श्रेष्ठ मुखवाला, प्रीय शब्दवाला, मस्तविषे मुकुट अने कंठने विषे हारने धारण करनार एवा हाहा, हूहू, बरु, नारद, रुषिवादक, भूतवादक, कादंब, महाकादंब, रेवत विश्वावसु, गीतरति अने गीतयश ए बार प्रकारना गंधर्व देवो छे, ए व्यंतरदेवोना प्रतिभेद कथा. हवे व्यंतर देवोना शोल इन्द्रोनां नाम वे गाथावडे कहे छे:काले य महाकाले, सुरू पडिरूव पुन्नभद्दे य ॥ तह चैव माणिभद्दे, भीमे य तहा महाभीमे ॥ ३९ ॥ ४८ किंनर किंपुरिसे सप्पु - रिसा महपुरिस तहय अइकाए || महकाए गीयरई, गीयज से दुन्नि दुन्नि कमा ॥ ४० ॥ ५० अर्थः- पिशाच निकायमां दक्षिण दिशाए ( काले ) के० कालेंद्र अने (य) के० वळी उत्तर दिशाए ( महाकाले ) के० महाकालेन्द्र, भूतनिकायमां दक्षिण दिशाए ( सुरूव ) के० स्वरूपेंद्र अने उत्तर दिशाए ( पडिव ) के० प्रतिरूपेन्द्र (य) के० अने यक्षनिकायमा दक्षिण दिशाए ( पुन्नभद्दे ) के० पूर्णभद्र अने उत्तर दिशाए ( तह चैव ) के० तेवीज रीते निश्चे ( माणिभद्दे ) के० माणिभद्र, य के० वली तहा के० ( तथा ) राक्षस निकायमा दक्षिण दिशाए ( भी ) के० भीमेन्द्र अने उत्तर दिशाए ( महाभीमे ) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के० महाभीमेन्द्र. ॥ ३९ ॥ किंनर निकायमां दक्षिण दिशाए ( किंनर ) के० किंनरेन्द्र अने उत्तर दिशाए (किंपुरिसे ) के० किंपुरुषेन्द्र, तथा किंपुरिव निकायमां दक्षिण दिशाए ( सप्पुरिसा) के० सत्पुरुषेन्द्र अने उत्तर दिशाए ( महपुरिस ) के० महापुरुषेन्द्र, ( तहय ) के० तेमज महोरग निकायमां दक्षिण दिशाने विषे ( अइकाए ) के० अतिकायेन्द्र अने उत्तर दिशाने विषे (महकाए) के० महाकायेन्द्र, गंधर्व निकायमा दक्षिण दिशाने विषे (गीयरई ) के० गीतरतींद्र अने उत्तर दिशाने विष (गीयजसे ) के० गीतयशेंद्र. ए प्रमाणे आठ निकायमां (कमा ) के० अनुक्रमे करीने ( दुन्नि दुनि) के० बबे इंद्रो होय छे. ॥ ४० ॥ ___ हवे ए पिशाचादिक आठ निकायना व्यंतर देवोनी ध्वजामां चिन्ह होय ते कहे छे:चिंधं कलंब सुलसे, वड खटुंगे असोग चंपयए। नागे तुंबरु अझए, खट्रंगविवज्जिया रुक्खा ॥४१॥ ६१ __ अर्थ:-पिशाचन (कलंब ) के० कदंब वृक्षनु चिन्ह, भूतने ( सुलसे) के० सुलस वृक्षतुं चिन्ह, यक्षने ( वड ) के० वडवृक्षy चिन्ह राक्षसने (खटुंगे.) के० तापसना पात्रनुं चिन्ह, किंनरने ( असोग ) के० अशोक वृक्षy चिन्ह, किंपुरुषने (चंपयए) के चंपक वृक्षतुं चिन्ह, महोरगने (नागे) के० नाग वृक्षy चिन्ह, गंधर्वने (तुंबरु अ ) के० वळी तुंबराना वृक्षनु चिन्ह होय छे. ए सर्वे (चिंध) के० चिन्ह ( झए) के० ध्वजामां होय छे. तेमां (खटुंगविवज्जिया) के० खदांगने वर्जीने बाकीना सर्वे चिन्हो रुक्खा के० वृक्षो छे. अने खटवांग ए तापसर्नु उपकरण है. ॥४१॥ हवे ए व्यंतर देवोना शरीरनो वर्ण कहे छ: Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जक्ख पिसाय महोरग, गंधव्वा साम किनरा नीला || रक्खस किंपुरिसा वि य, धवला भूया पुणो काला ॥४२॥ . अर्थः-(जक्ख ) के० यक्ष, ( पिसाय ) के० पिशाच, ( महोरग) के० महोरग, (गंधव्या ) के० गंधर्व ए चारनो वर्ण ( साम ) के श्याम एटल किंचित् कृष्णवर्ण जाणवो. ( किंनरा) के० किंनरो (नीला ) के० श्याम पण किंचित् नील वर्णवाला जाणवा. ( रक्खस) के० राक्षस अने (किंपुरिसाविय) के० किंपुरुष पण (धवला) के उज्वल वर्णवाला होय छे. (पुगो) के० वली (भूया ) के० भूतदेवो ( काला) के० कृष्णवर्णवाला होय छे. ॥ ४२ ॥ ___ हवे बीना आठ जातिना व्यंतर देवो छे, ते कहे छ:रयणाए जोयणसए, हिवरि दस दस ठाइए चेव ॥ वंतरियाण निकाया, भवणासंखा सुए भणिया॥४३ ॥ .. अर्थ:-( रयणाए.) के० रत्नप्रभा पृथ्वीना पिंड मांहेला (जोयणसए) के० पहेला सो योजनमां (हिछुवरि ) के० नीचे अने उपर ( दस दस ठाइए चेव ) के० निश्चय दश दश योजन मृकीये. वाकीना एसी योजनमां वतरियाण ( निकाया) के० व्यंतर देवतानी आठ निकायो छे. तेमां (भवणासंखा) के० व्यंतर देवोना असंख्य भुवनो (सुए भणिया) के० सूत्रमा कयां छे' ॥ ४ ॥ अणपन्नी पणपन्नी, इसिवाई भूयवाइए चेव ॥ कंदी य महाकंदी, कोहंडे चेव पयए. य ॥४४॥ अर्थः-१ ( अणपन्नी) के० अणपन्नी निकाय, २ (पण Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ पन्नी ) के० पणपन्नी निकाय, ३ ( इसिवाई) के० ऋषिवादी निकाय, ४ ( भूयवाइए ) के० भूतवादी निकाय, ( चैव ) के० निवे, ५ ( कंदीय) के० वळी कंदित निकाय, ६ ( महाकंदी ) के० महाकंदित निकाय. ७ ( कोहंडे ) के० कोइंडिक निकाय, ( चैव ) के० निश्चय ८ ( पयए य ) के० बळी पतंग निकाय ए व्यंतर देवोनी आठ निकाय जाणवी ॥ ४४ ॥ इय पढमजोयणसए, रयणाए अठ्ठ वंतरा अवरे || तेसु इह सोलसिंदा, रुअगअहो दाहिगुत्तरओ ॥ ४५ ॥ अर्थः- ( इय) के० ए आठ निकाय ते ( रयणाए ) के० रत्नप्रभा पृथ्वीना ( पढमजोयणसए) के० पहेला सो योजन मालां वचला एसी योजनमां वसनारा ( अह वंतरा ) के० आठ जातिना व्यंतर ते पूर्वी कहेला व्यंतहोथी ( अवरे ) के० बीजा अर्थात् वाणव्यंतर देवो जाणवा. ( इह ) के० अहिं ( तेसु ) के० ते व्यंतर देवताने विषे आठ निकायना (सोलसिंहा ) के० शोल इंद्रो ( रुअगअहो ) के० रुचक प्रदेशथी दश योजन नीचे ऐसी योजनमा दाहिणुत्तरओ के० दक्षिण अने उत्तर दिशाना भेदे करीने जाणवा. ॥ ४५ ॥ व्यंतर हवे वे गाथावडे शोल इंद्रोना नाम कहे छे:सन्निहिए सामाणे, धाइ विहाए इसी य इसिवाले ॥ ईसर महेसरे विय, हवइ सुवत्थे विसाले य ॥ ४६ ॥ हा हासरई विय, सेय भवे तहा महासेए ॥ पयगे पयगवई विय, सोलस इंदाण नामाणि ॥ ४७ ॥ अर्थ: - १ ( सन्निहिए ) के० संनिहितेंद्र, २ ( सामाणे ) Ye Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के० सामानेंद्र, ३ (धाइ) के० धाता इंद्र, ४ (विहाए ) के० विधाता इंद्र, ५ ( इसी य ) के० वळी ऋषि इंद्र, ६ (इसिवाले) के० ऋषिपालेंद्र, ७ ( ईसर ) के० ईश्वरेन्द्र, ८ ( महेसरे) के० महेश्वरेन्द्र, (वि य) के० निश्चय ( हवइ ) के० होय. ९ (सुबत्ये) के० सुबत्सेंद्र, (य) के० अने १० (विसाले) के० विशालेन्द्र. ॥ ४६ ॥ ११ ( हासे ) के० हास्य इंद्र, १२ (हासरई ) के० हास्यरति इंद्र, (वि य ) के० वळी १३ (सेर ) के० श्वेतइंद्र, ( भवे ) के० होय. (तहा ) के० तेमन १४ ( महासेए) के० महाश्वेत इंद्र, १५ ( पयगे ) के पतंग इंद्र, १६ ( पयगवइ ) के पतंगपति इंद्र. ए वि य के० निधय (सोलसइंदाण) के० सोल इंद्रोनां ( नामाणि ) के नाम कयां. ॥ ४७ ॥ ___ आ वाणव्यंतर देवोना सोल इंद्र कया. तेनी पहेला व्यंतर देवोना पण सोल इंद्रो कया छे. सर्व मली बत्रीस इन्द्र थया. तेमनी साये भुवनातिना वीश, सूर्य चंद्रना बे अने वैमानिकन। दश मली चोसठ इंद्रो गणाय छे. ____ हवे व्यंतर तथा ज्योतिषि देवोना सामानिक अने आत्मरक्षक देवो सरखा छे, माटे साथे संख्या कहे छे:सामाणियाण चउरो, सहस्स सोलस य आयरक्खाणं ॥ पत्तेयं सव्वेसि, वंतखइ ससिखीणं च ॥ ४८ ॥ ५२, ___ अर्थः-(सव्वेसि ) के० सर्व एटले बत्रीश (वंतरवइ ) के० व्यंतर इन्द्रोने (च) के० अने (ससिरवीणं) के० सूर्य अने चंद्रने ते ( पत्तेयं ) के० दरेकने ( सामाणियाण) के० सामानिक देवो ( चउहोसहस्स ) के चार हजार अने ( आयरक्खाणं ) के० अंगरक्षक देवो ते ( सोलसय ) के० शोल हजार होय छे. ॥४८॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ - हवे दरेक इन्द्रनी पासे केटली जातना देवो होय छे ? ते कहे छे:इंदसामाणियाण ता-यतीसा परिसा य अंगरक्खा य॥ लोगपाला अणिका, पइन्न अभिओग किब्बि सीया ॥ ४९|| 4 ___अर्थ:-( इंद ) के० इन्द्र, ( सामाणियाग ) के० सामानिक देवो, ( तायतीसा ) के० त्रायत्रिंशक देवो, (पहिसा) के० पर्षदाना देवो, ( अंगररका ) के० अंगरक्षक देवो, (लोगपाला) के० लोकाल देवो, ( अणिका) के० अनिक ते कटकना देवो, ( पइन्न ) के० प्रकीर्ण एटले प्रजारूप देवो, ( अभिओग) के० आभियोगिक ते चाकर देवो, ( किब्बिसीया ) के० किल्बिषिक देवो. ए दश जातिना देवो होय छे. ॥ ४९ ॥ ____ हवे कटकना सात प्रकार कहे छे:गंधव नट्ट हय गय, रह भड अणियाणि सव्वइंदाणं ॥ वेमाणियाण वसहा, महिसा य अहोनिवासाणं ॥ ५० ॥ ____ अर्थः-(गंधव्व ) के० मृदंगधर गंधर्वनु, ( नट्ट ) के० नत्य करनार नाटकीयानु, ( हय ) के० घोडानु, ( गय ) के हाथीनु, . ( रह ) के० रथर्नु अने ( भड ) के० सुभटनु. ए छ प्रकरनां ( अणियाणि ) के० कटको ( सबइंदाणं ) के० सर्वे इन्द्रोने होय छे, परंतु (वेमाणियाण ) के० वैमाधिक इन्द्रोने सातमु कटक (वसहा ) के० वृषभर्नु होय छे. (य) के० अने (अहोनिवासीणं) के० भुवनाति तथा व्यंतर इन्द्रोने सातमुं कटक (महिसा) के० महिष एटले पाडानुं होय छे. ॥५०॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे प्रत्येक इन्द्रने त्रायत्रिंशकादिक देवोनी संख्या कहे छ:तित्तिस तायतीसा, परिसतिया लोगपाल चत्तारि ॥ अणियाणि सत्त सत्त य, अणियाहिब सव्वइंदाणं ॥५१॥ ___ अर्थः-( तित्तिस तायतिसा) के० तेत्रीस त्रायत्रिशक एटले गुरुस्थानीया सलाह पूछवा योग्य देवो. (पइिसतिया ) के० बाह्यमध्य अने अभ्यंतर एवी त्रण पर्षदा, ( लोगपाल चत्ताहि) के० सोम यम वरुण अने कुबेर ए नामना चार लोकपाल, ( अणियाणि सत्त सत्त य) के० वळी सात सात प्रकारचें कटक, अने ( अणियाहिव) के० कटकना अधिपति, ए सव्वइंदाणं) के० सर्वे इन्द्रोने होय छे. ॥५१॥ नवरं वंतर.जोइस, इंदाण न हुँति लोगपालाओ॥ तायत्तीसभिहाणा, तियसाविय तेर्सि नहु हुंति ॥५२॥५४ ___ अर्थः-परंतु ( नवरं ) के० एटलं विशेष छे के-(वंतर) के० व्यंतर देवोना बत्रीश इंद्रोने तथा ( जोइस) के० ज्योतिषीना बे इंद्रोने ( लोगपालाओ) के० चार लोगपाल (न हुँति ) के० न होय. तेमज (तायत्तीसमिहाणा) के० त्रायत्रिंशक नामना (तिय साविय ) के० ते देवता पण ( तेसि ) के० व्यंतर तथा ज्योतिषीना इन्द्रोने (नहु हुंति ) के० न होय. ॥ ५२॥ हवे ज्योतिषी देवोना विमानोनी वक्तव्यता कहे छे. ज्योतिषी तिर्यक् लोकमां छे. अने तिर्यक् लोक मेरु मध्यरुचकथी नवसो योजन उपर अने नवसो योजन नीचे एम अढारसो योजन प्रमाण छे, तेमां उपरना जे तिर्यक् लोकना नवसो योजन छे. तेमां ज्योतिषीना विमान केटला उंचा छ ? ते कहे छ: Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभूतलाओ अहिं, दसूण जोयणसएहिं आरम्भ ॥ उवरि दसूतर जोयण-सयंमि चिठंति जोइसिया ॥५३॥ १ अर्थः-मेरूपवतना मध्य भागमा जे आठ रुचकप्रदेश छे, ते समभूतला कहेवाय. ते (समभूतलाओ) के० समभूतला थकी ( दसूण) के० दश योजन ओछा एवा ( अट्टहीं जोयणसएहीं) के० आठसो योजन अर्थात् सातसो ने नेवु योजन, त्यांची ( आरभ्म ) के० आरंभीने (अरि ) के० उपरना भागने विषे (दसूत्तर जोयणसयंमि) के० एकसो दश योजनमांहे (जोइसिया) के० ज्योतिषी देवो (चिठंति ) के० रहे छे ॥ ५३॥ हवे एकसो दश योजनमा ज्योतिषि देवो केवी हीत रह्या छ ? ते कहे छे:तत्थ रखी दसजोयण, असीइ तदुवरि ससी य रिक्खेसु॥ अह भरणि साइ उवरि, बहि मूलो भिंतरे अभिई ॥५४॥१०१ ___ अर्थः- (तत्य ) के० त्यां एटले एकसो दश योजनमां ( दस जोयण) के० प्रथम दश योजननी उपर ( रवी) के० सूर्य छे. (तदुवरि ) के० तेना उपर ( असीइ) के० एसी योजन ( ससी) के० चंद्रमा छे. (य) के० वली ते थकी चार योजन उंचा (रिक्खेसु) के० अठ्ठावीश नक्षत्रो छे तेमां (भरणि) के० भरणी नक्षत्र सर्व नक्षत्रोथी ( अह ) के नीचे चाले छे, तथा (साइ) के० स्वाति नक्षत्र सर्व नक्षत्रोथी ( उवहि ) के० उपर चाले छे. वली ( मूलो ) के० मूल नक्षत्र सर्व नक्षत्रोथी ( बहि ) के० बहारना मंडले चाले छे अने ( अभिइ ) के० अभिजित् नक्षत्र सर्व नक्षत्रोनी (भिंतरे ) के० अंदर चाले छे. ॥५४॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० तार रवि चंद रिक्खा, बुह सुक्का जीव मंगल सणिया | सग सय नय दस असिइ, चउ चउ कमसो तिया चउसु ।। ५५ ।। अर्थः – समभूतला पृथ्वीथी सातसो ने नेतुं योजन सुधीज ज्योतिषि विनानुं केवळ आकाश छे. ( सग सय नउय ) के० ते सातसो ने नेवुं योजन उपर (तार) के० तारा मंडल छे, ते उपर (दस) के० दश योजन उंचो (रवि) के० सूर्य छे, ते थकी (असिइ) के० एंशी योजन उपर (चंद) के० चंद्रमा छे, ते थकी ( चउ ) के० चार योजन उपर ( रिक्खा ) के० नक्षत्र छे, ते थकी ( चउ) के० चार योजन उंचो ( बुह ) के० बुध छे, ते थकी ( कमसो) के० अनुक्रमे (तिया) के० त्रण त्रण योजनने अंतरे ( शुक्का) के० शुक्र, (जीव ) के० बृहस्पति, (मंगल) के मंगल अने (सणिया) के० शनी ए ( चउसु ) के० चार ग्रह छे. ए प्रमाणे समभूतला पृथ्वीथी सातसो नेवुं योजन उपर एकसो दश योजनमां सर्व ज्योतिष चक्र चाले छे. समभूतला पृथ्वीथी नवसो योजन सर्वथी उंचो शनीश्वर छे. अहिं योजननुं प्रमाण प्रमाणांगुले कराने जाणवु. ॥ ५५ ॥ हवे मनुष्यक्षेत्रमां चर ज्योतिषी मेरुपर्वतथी केटला योजन दूर चाले ? तथा अलोकथी अंदर केटली अबाधाए ज्योतिषी रहे छे ? ते कहे छे: ww ܘ इकारस जोयण सय, इगवीसिक्कार साहिया कमसो ॥ मेरु अलोगावाहिं, जोइसचकं च ॥ ५६ ॥ १०५ ठाइ अर्थः- (इकारस जोयण सय) के० अगीयारसो योजन अने ते उपर ( इगवीस ) के० एकवीस योजन. वली ( इक्कारस जोयण Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सय) के० अगीयारसो योजन अने ते उपर ( इक्कारसाहिया) के० अगीयार योजन अधिक. एम (कमसो) के अनुक्रमे करीने (मेरु अलो गाबाहिं) के० मेरुपर्वतथी अलोकने अबाधा करतुं (जोइसचकं ) के० ज्योतिषचक्र (चरइ) के० चाले छे. अने (हाइ) के० स्थिर रहे छे. अर्थात् बेरुपर्वतथी अगीयारसो ने एकवीस योजन दूर ज्योतिषचक्र मनुष्य क्षेत्रमा चाले छे अने लोकना छेडाथकी अगीयारसो ने अगीयार योजन चार दिशामा मांहेली कोरे लोकनी अबाधाए एटले अंतरे ज्योतिष चक्र स्थीर छे. तात्पय मनुष्यक्षेत्रमा चर ज्योतिषी अने बहारमा क्षेत्रमा स्थीर ज्योतिषी छे. ॥५६॥ अद्धकविठ्ठागारा, फलिहमया रम्न जोइसविमाणा 16 वंतरनयरेहितो, संखिज्जगुणा इमे हुंति ।। ५७ ॥ ____ अर्थः- ( अद्धकविद्यागारा) के० अर्द्धा कोठ फलना आकारखाला, ( फलिहमया.) के० स्फटिकरत्नमय अने ( रम्म ) के० रमणिक एवा ( जोइसविमाणा) के ज्योतिपि देवोना विमानो छे. अने ( इमे ) के० ए विमानो (वैतरनयहिंतो) के० पूर्वे कहेला व्यतरना नगरोथकी (संखिजगुणा) के० संख्यातगुणा मोटां (हूंति ) के० होय छे ॥ ५७ ॥ जोइसियविभागाई, सवाई हुँति फालिहयाई । दगफालिहमया पुण, लवणे जे जोइसविमाणा ॥५०॥' अर्थः-( सवाई ) के पूर्व कहेला सर्वे (जोइसियविमाणाई) के० ज्योतिषि विमानो (फालिहमयाई) के० स्फटिकरत्न मय (हुति ) के० छे. पुण के० ( वली लवणे ) के० लवणसमुद्रने विषे (जे जोइसविमाणा) के० जे ज्योतिषिना विमानो छे ते सर्वे Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ( दगफालिहमया ) के० उदकस्फटिकरत्नमय छे. लवण समुद्रनी शिखा दश हजार योजन पहोली अने सोळ हजार योजन उंची छे, अने ज्योतिषि विमानो तो नवसो योजन उंचाइमां छे, तेथी ते विमानो पाणीनी शिखामां चाले छे, परंतु स्फटिकरत्नना प्रभावथी पाणी फाटीने मोकलं थइ जाय छे, तेथी विमानाने वाघा थती नथी. तेम विमानोमां पाणी भरातुं नथी. आवा कारणोथी सूर्यप्रज्ञप्ति विगेरेमां ज्योतिषि विमानो स्फटिकमय, पण लवण समुद्रमां फरता ज्योतिषि विमानो उदकस्फटिकमय कां छे. वली ते विमानोना तेजनी पाणीथी कांड हानी थती नथी ॥ ५८ ॥ हवे चंद्रादिक ज्योतिषि देवोना विमानोनुं प्रमाण कहे छे:जोयणिगसठ्ठि भागा, छप्पन्नऽडयाल गाउ दु इग द्धं ॥ चंदाइविमाणायाम, वित्थडा अद्धमुचतं ॥ ५९ ॥ ক अर्थः- ( जोयणिगसद्वि भागा ) के० एक योजनना एकसठ भाग करीये, तेवा (छप्पन्न ) के० छप्पन्न भागर्नु चन्द्र विमान लांबु छे अने ( अडयाल ) के० अडतालीश भागनु सूर्य विमान लांबु छे. वली (गाउ दु ) के० बे गाउन ग्रह विमानो लांबा छे, तथा ( इग ) के० एक गाउन नक्षत्र विमानो लांबा छे, अने (अर्द्ध) के० अर्द्धा गाउना ताराना विमानो लांबा छे. ए ( चंदाइ विमाणायाम ) के० चन्द्र विगेरेना विमानोनी लंबाई कही, वली ( वित्थडा ) के० विस्तार एटले पहोलाइ पण तेटली जाणवी. अने जेटला लांबां पहोलां कहां. तेथी (अर्द्ध उच्चतं ) के० अर्द्धां उंचपणे जाणवां ॥ ५९ ॥ हने मनुष्यलोकनु प्रमाण तथा मनुष्यलोकथी बाहेरना स्थिर चन्द्रादि पांचे ज्योतिषिओना विमानोनुं स्वरूप कहे छे: Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणयाल लक्ख जोयण, नरखितं तत्थिमे सया भमिरा ॥ नरखित्ताओ बहि पुण, अद्धपमाणा ठिया निचं ॥६०॥' ____ अर्थः-(पणयाल लक्ख जोयण ) के० पिस्तालीश लाख योजन- ( नरक्खित्तं ) के० मनुष्यक्षेत्र छे. ( तत्थ ) के० ते मनुष्य क्षेत्रमा ( इमे ) के० ए चर ज्योतिषि (सया) के निरंतर (भमिरा ) के फरे छे. (पुण) के० बली ( नरखित्ताओ बहि) के० मनुष्य क्षेत्रनी वाहेर ( अद्धपमाणा) के० जे चर ज्योतिषिना विमानोनुं प्रमाण कथु छे, तेथी अर्दा प्रमाणवाला ज्योतिषि विमानो (निचं ) के० निरंतर (ठिया ) के० स्थिर रह्या छे. अर्थात् चर ज्योतिषिना विमानोथी स्थिर ज्योतिषिना विमानोर्नु प्रमाण लंबाइ पहोलाइ अने उंचाइमां अधुं छे. ॥६० ॥ ____ अहिं पिस्तालोश लाख योजन- मनुष्य क्षेत्रनुं प्रमाण कहे छ के-जंबुद्रीपथी पूर्व दिशामां बे लाख योजननो लवण समुद्र, चारलाख योजननो धातकी खण्ड, आठ लाख योजननो कोलोदधि समुद्र, अने आठ लाख योजननो पुष्कराई. ए सर्वे मली बावीश लाख योजन थया. तेवाज बावीश लाख योजन पश्चिम दिशामां थाय. बन्ने मली चुमालीश लाख योजन थाय, तेनी साथे एक लाख योजननो जंबूदीप मेलवतां पिस्तालीस लाख योजन थाय, तेज प्रमाणे उत्तर दक्षिणमां गणतां पण पिस्तालीश लाख योजन थाय छे, ए पिस्तालीश लाख योजनना मनुष्य क्षेत्रने वींटीने सत्तरसो एकवीस योजन उंचो मानुषोत्तर पर्वत रह्यो छे. तेनी अंदरज मनुष्योना जन्म मरण थवाथी ते. मनुष्य क्षेत्र कहेवाय छे. ए मनुष्य क्षेत्रमा चर ज्योतिपिनां विमानो मेरु पर्वतने प्रदक्षिणा देतां निरंतर फरे छे. ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ हने मनुष्य क्षेत्रमा चन्द्र विगेरे ज्योतिषि देवतानी गति तथा तेमना विमानने वहन करनारा देवतानी संख्या विगेरे कहे छ:ससि रवि गह नक्खता, ताराओ हुँति जहुत्तरं सिग्धा ॥ विवरीया उ महटिअ, विमानवहता कमेणेसिं ॥ ६१ ॥ ____ अर्थः-(ससि ) के० चन्द्र, ( रवि ) के सूर्य, (गह ) के० ग्रह, ( नरवत्ता ) के नक्षत्र अने ( ताराओ) के तारा तेमनी गति ( जहुत्तरं ) के० यथोतरपणाये करीने (सिग्धा ) के० उतावली ( हूंति ) के० होय छे. (उ) के० वली (महडिअ) के० महद्धिके करोने (विवरीया) के० पूर्व कहेला अनुक्रमथी विपरीत क्रम जाणवो. अने ( कमेणेसिं) के० अनुक्रमे करीने ( विमाणवहगा ) के० विमाने वहन करनारा देवता ए सर्व आगली गाथाओथी कहे छे. ॥ ६१॥ चंदेहिं खी सिग्घा, रविणो भवे उ गहा य सिग्घयरा॥ तत्तो नक्खत्ताओ, नक्खत्ते इंति ताराओ ॥ ६२ ॥ ११० अर्थः-(चंदेहिं ) के० चन्द्रथी (रवी ) के० सूर्य (सिग्या) के० उतावली गतिवालो छे. (उ) के० वली ( रविगो के० सूर्यथी (गहा य ) के० ग्रहो (सिग्धयरा ) के० उतावली गतिवाला ( भवे ) के० होय छे. ( तत्तो ) के० ग्रहोथी ( नक्वत्ताओ) के० नक्षत्रो, अने ( नक्वत्ते) के० नक्षत्रोथी ( ताराओ) के० तारा उतावली गतिवाला ( हूंति ) के० होय छे. ॥ ६२ ॥ अप्पट्ठीयाओ तारा, नक्खत्ता खलु तओ महढीया ॥ नक्खत्ते हुँति गहा, गहेहिं सूरा तओ चन्दा ॥ ६३ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ:-सर्वथी ( अप्पढीयाओ) के० थोडी रूद्धिवाला (तारा) के० ताराओ छे, (तेओ) के० तेथी ( महड्डीया) के० वधारे रूद्धिवाला ( नक्खता ) के० नक्षत्रो (खलु ) के० निश्चे होय छे. अने ( नक्वत्ते ) के० नक्षत्रोथी (गहा ) के० ग्रहो वधारे रूद्धिवाला (हुति ) के० होय छे. वली (गहेहिं ) के० ग्रहोथी वधारे रूद्धिवाला (सूरा ) के० सूर्य होय छे, अने (तओ ) के० सूर्यथी वधारे रूद्धिवाला ( चंदा ) के० चन्द्र होय छे. तारा पांच वर्णना होय छे अने बीजा सर्वे ज्योतिषि देवो अग्नितप्त सुवर्ण समान छे. पांचे ज्योतिषि देवोने पोत पोतानी नामाकृति सरखां मुकुटमां चिन्ह होय छे. ॥ ६३ ॥ सोलस सोलस अड चउ, दो सुरसहस्सा पुरो य दाहिणओ॥१ पच्छिम उत्तर सोहा, हत्थी वसहा हया कमसो॥६४ ॥ अर्थः-( सोलस सुर सहस्सा) के० सोल हजार देवो चन्द्र विमानने वहन करनारा अने (सोलस ) के० सोल हजार देवो सूर्यना विमानने वहन करनारा होय छे. वली ( अड) के० आठ हजार देवो ग्रहना विमानने वहन करनारा, ( चउ ) के० चार हजार देवो नक्षना विमानने वहन करनारा, तथा (दो ) के बे हजार देवो ताराना विमानने वहन करनारा होय छे. जो के चन्द्रादिकना विमानो स्वाभाविक रीते आकाशमां आलंबन रहित 'फर्या करे छे. परंतु आज्ञाकारी देवो भक्ति देखाडवाने माटे बिमाननी नीचे सिंहादिकनां रूप धारण करी रह्या छे. तेथी तेओ पण विमाननी साथे भ्रमण कर्या करे छे. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ए पांचे ज्योतिषि विमानोने चलावनारा देवो चार दिशामां सरखे भागे रह्या छे ते कहे छे. ( पुरो) के० पूर्वदिशा ( सीहा ) के० सिंहनां रूपे, (दाहिणओ ) के० दक्षिण दिशाये ( हत्थी) के० हाथीनां रूपे, (पच्छिम ) के० पश्चिम दिशाये ( वसहा ) के० वृषभने सो अने (उत्तर) के० उत्तर दिशाये ( हया) के० घोडाने रूपे ( कमसो) के० अनुक्रमे करोने जागवा. ॥ ६४ ॥ तेज वात दृढ करवाने बीजी गाथाथी कहे छे:पुरो य हुंति सिंहा, दाहिणे कुंजरो महाकाए ॥ पच्छिमेण य वसहा, तुरगा पुण उत्तरे पासे ॥ ६५ ॥ ___अर्थः-चन्द्रना विमानने वहन करनारा सोल हजार देवो छे. तेमां (पुरो) के० पूर्व दिशामां (सिंहा ) के० सिंहनां रूपने धारण करनारा चार हजार देवो होय छे, (दाहिणे ) के० दक्षिण दिशामां कुंजरो ( महाकाए ) के० मोटा शरीरवाला हाथीनां रूपने धारण करनारा चार हजार देवो होय छे, (पच्छिमेण ५) के० पश्चिम दिशामां (वसहा ) के० वृषभनां रूपने धारण करनारा चार हजार देवो होय छे, (पुण ) के० वली ( उत्तरे पासे) के० उत्तर दिशामां (तुरगा) के० घोडानां रूपने धारण करनारा चार हजार देवो होय छे. एज प्रमाणे सूर्य विगेरेना विमानोने वहन करनारा देवोनी जे संख्या कही होय तेना चोथे भागे दरेक दिशामां सिंहादि रूपने धारण करनारा देवो होय छे एम जाणवू. ॥ ६५ ॥ __ सर्व ज्योतिषि देवोमां चन्द्र अधिक ऋद्धिवंत छे, माटे चंद्रनो परिवार कहे छे: Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ गह अठासी नक्खत्त, अडवीसं तार कोडि कोडीणं ॥ छासहि सहस्स नव सय, पणहत्तरि एगससिसिन्नं ॥६६।। ____ अर्थः-( गह ) के० मंगल विगेरे ग्रहो ते ( अट्ठासी) के० अठ्यासी छे, अने ( नक्खत्त) के० अभिजित् विगेरे नक्षत्रो ( अडवीसं ) के० अठाधीश छे, वली (छासष्ठि सहस्स) के० छासठ हजार, ( नव सय ) के० नवसो अने (पणहत्तरि ) के० पंचोतेर एटली ( कोडि कोडीणं) के० कोडा कोडी-अर्थात् छासठ हजार कोडा कोडी अने पंचोतेर कोडा कोडी एटला ( तार ) के० तारा ए सर्व ( एगससिसिन्नं ) के० एक चन्द्रनुं सैन्य एटले परिवार छे. ॥ ६६ ॥ __अहिं कोइने शंका थाय के-मनुष्यक्षेत्र पिस्तालीश लाख योजन छे अने तारानी संख्या वधारे छे तो तेटला क्षेत्रमा समावेश थाय नही. आ शंकानी आगली गाथाथी निति करे छःकोडाकोडी सन्नं-तरं तु मन्त्रंति खित्तथोवतया ॥ केइ अन्ने उस्से-हंगुलमाणेण ताराणं ॥ ६७ ॥ __अर्थः-अहिं बे मत छे. (केइ ) के० कोईक आचार्य (कोडा कोडी) के० कोडा कोडीनी संख्याने (सन्नतरं) के० नामांतर ( मन्नंति ) के० माने छे. जेम वीशने कोडी कहेवाय छे तेम कोडाकोडी पण तेवुज भीन्न नाम छे. कारण के (खित्तयोरतया ) के० मनुष्यक्षेत्रन थोडापणुं छे माटे. वली ( अन्ने) के० बीजा केटलाक आचार्य ( ताराणं ) के० ताराना विमाननु प्रमाण (उस्सेहंगुलमाणेण ) के० उत्सेवांगुलप्रमाणे करीने माने छे. अहिं केटलाक ग्रन्थोमां चारसो उत्सेधांगुले एक प्रमाणांगुल कयुं छे अने केटलाक ग्रन्थोमा एक हजार उत्सेघांगुले एक प्रमाणांगुल कयु छे. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेथी क्षेत्रन अल्पत्व होवा छतां उत्सेवांगुलना मानथी तारानां विमाननुं प्रमाण करी शकाय छे. ॥ ६७ ॥ ___ हवे राहुनु स्वरुप अने तेनी गति कहे छे:आयाम विरभं, जोयणमेगं तु तिगुणओ परिही ॥ अढाइज्ज धणुसया, राहुविमाणाण बाहलं ॥ ६८॥॥ ___ अर्थः-(राहु विमाणाण ) के० राहुना विमाननी (आयाम विरकंभं) के० लंबाइ तथा पहोलाइ (जोयणग) के० एक योजननी होय छे. तु के० वली (परिही) के० परिधि ते (तिगुणओ) के० त्रण गुणो एटले त्रण योजनथी अधिक छे. अने (बाहल्लं ) के० जाडाइ ते ( अड्डाइज्जधणुसया ) के० अढीसो धनुष्यनी छे. ॥ ६८॥ कण्हं राहु विमाणं, निचं चन्देण होइ अविरहियं ॥ चतुरंगुलमप्पत्तं, हिछा चन्दस्स तं चरइ ॥ ६९ ॥ ११९ __ अर्थः- (कण्हं ) के० काला वर्णवाल (राहुविमाणं) के० राहुनुं विमान (निच्च ) के० निरंतर (चन्देण) के० चन्द्रना विमानथी ( अविरहियं होइ ) के० अभिन्न होय छे. अर्थात् दूर थातुं नथी. (तं ) के० ते राहुनु विमान (चंदस्स ) के० चन्द्रना विमानथी (चतुरंगुलमप्पत्तं ) के० चार अंगुल दूर (हिष्ठा ) के० नीचे ( चरइ) के० चाले छे. ॥ ६९ ॥ __ राहु वे प्रकारना छे. एक नित्यराहु बीजो पर्वराहु. पर्वराहु जधन्यथी छ मासे चन्द्रने अने सूर्यने ग्रहण करे छ अर्थात् पोताना विमानथी ढांके छे. तथा उत्कृष्टथी चन्द्रने बेंतालीश मासे अने सूर्यने अडतालीश वर्षे ग्रहण करे छे. नित्यराहुनुं विमान काला Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ वर्णनुं छे. ते सर्वदा चन्द्रनी साधे पण चन्द्रना विमानथी चार अंगुल नीचुं चाले छे. तेमां कृष्णपक्षभां चन्द्रमंडलना पंदर भाग करीये तेवा एक एक भागने वधारे ढांके छे. अने शुक्लपक्षमां एक एक भागने के छे. जेथी लोकमां चन्द्रमंडलना तेजनी हानी वृद्धि देखाय छे. हवे जंबूद्वीपमा तथा बीजा पण मनुष्यक्षेत्रमां एक ताराथी वीजा ताराना विमानोनुं पर्वतादिकना व्याघाते ( आंतरे ) अथवा व्याघात विना ( आंतरा विना ) जघन्योत्कृष्ट अंतर केटलं होय ? ते कहे छे: Burud तारस्स य तारस्स य, जंबुद्दीवंमि अंतरं गुरूयं ॥ बारस जोयण सहस्सा, दुन्निसया चेव बायाला ॥७०॥ १ अर्थः - ( जंबुद्दीवंमि ) के० जंबूद्वीपने विषे ( तारस्स य तारस्य ) के० एक ताराथी बोजा तारानुं (गुरुयं अंतरं) के० उत्कृष्ट अंतर ( बारस जोयण सहस्सा ) के० बार हजार योजन, ( दुनिया ) के० बसो योजन अने ( बायाला ) के० बेंतालीश योजन अर्थात ( १२२४२) योजन ( चैव ) के० निश्चे होय छे. आ अंतर मेरु पर्वतना व्यायातथी एटले आंतराथी जाणवुं. कारण मेरु पर्वत समभूतलानी नीचे दश हजार योजन जाडो छे, तथा मेरुने अने एक बाजुना ताराने अगीयारसो एकवीश योजननुं अंतर छे. अने बीजी बाजुए पण मेरुने अने ताराने तेटलुंज अंतर छे, ए त्रण अंतरनी संख्याने एकठी करीये ता एक ताराथी बीजा वारानुं उत्कृष्ट अंतर ( १२२४२ ) योजन थाय छे. ॥ ७० ॥ ed मेरु पर्वत विना बीजा पर्वतोनां आंतरे अथवा आंतरा विना तारा तथा नक्षत्रोनुं जघन्य तथा उत्कृष्ट अंतर कहे छे: Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसढो य नीलवंतो, चत्तारिस उच्च पंच सय कूडा ॥ . अद्धं उवरि रिक्खा, चरंति उभय ठ बाहाए । ७१ ॥ ११७ ____ अर्थ:-( निसढो य नीलवतो ) के० निषध अने नीलवंत ए बन्ने पर्वत (चत्तारि सय उच्च ) के० भूमिथी चारसो योजन उंचा छे अने ते पर्वतनां (पंच सय ) के० पांचसो योजन उंचा (कूडा ) के० नव नव कूट एटले शिखरो छे. ते कूटो ( उवरि) के० उपरना भागे ( अद्ध ) के अहीसो योजन पहोला छे. पर्वत अने शिखरनु मली नवसो योजन उच्चपणुं थयुं. ते कूटना (उभय ) के० बन्ने बाजुए ( अ ) के० आठ योजननी ( अबाहाए) के० अवाधाए (रिक्खा ) के० नक्षत्रो (चरंति ) के० फरे छे. एटले के-अढीसो योजन शिखरनी पहोलाइ तथा बन्ने बाजुए आठ योजननी अबाधा मलीने-॥७१ ॥ छावठ्ठा दुनिसया, जहन्नमेयं तु होइ वाघाए॥ निवाधाए गुरुलहु, दो गाउ,य धगुसया पंच ॥ ७२ ।। अर्थः-(छावहा दुन्निसया ) के० बसो ने छासठ योजन (ए) के० ए (जहन्न) के० जवन्यथी तारा ताराने तथा नक्षत्र नक्षत्रने ( वाघाए) के० पवतादिकना व्याधाते एटले आंतरे अंतर छे. अने (निव्वाधाए ) के० पर्वतादिकना आंतरा विना तो (गुरु) के० उत्कृष्ट अंतर ( दो गाउ ) के० बे गाउनु छ, (य ) के० अने ( लहु ) के० जयन्य अंतर (धणुसया पंच) के० पांचसो धनुष्यनुं छे ॥ ७२ ॥ . हवे मनुष्य क्षेत्रनी बहार घंटाकारे स्थिर रहेला चन्द्र भूर्यनुं मांहोमांहे अंतरप्रमाण कहे छे: Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणुसनगाओ बाहिं, चंदा सूरस्ते सुदाम वार्ड जोयण सहस्स पन्नास, गूणगा अंतरं दिठ्ठे ॥ ७॥ अर्थः- ( माणुस नगाओ ) के० मनुष्यक्षेत्रनी मर्यादा रूप मानुषोत्तर पर्वतथी (बाहिं ) के० बहार ( चंदा ) के० चन्द्रथी ( सूरस्स) के० सूर्यनुं अने ( सूर ) के० सूर्यथी ( चंदस्स ) के० चन्द्रनुं ( जोयण सहस्स पन्नास ) के० पचाश हजार योजननुं ( अणूणगा) के० परिपूर्ण ( अंतरं ) के० अंतर ( दिउँ ) के० तीर्थकरोए कहुं छे. ॥ ७३ ॥ उपरनी गाथामां सूर्यथी चन्द्रनुं अने चन्द्रथी सूर्यनुं अंतर कं हवे सूर्यथी सूर्यनुं अने चन्द्रथी चन्द्रनुं अंतर कहे छे:ससि ससि रवि रवि साहिय, जोयण लक्खेण अंतरं होई || रवि अंतरिया ससिणो, ससि अंतरिया खी दित्ता ॥७४॥११ अर्थः- ( ससि ससि ) के० एक चन्द्रथी बीजा चन्द्रनुं अने P ( रवि रवि ) के एक सूर्यथी बीजा सूर्यनुं ( साहिय जोयण लरकेण ) के० एक लाख योजन अधिक अंतरं ( होइ ) के ० अंतर होय छे. कारण के ( रवि अंतरिया ससिणो ) के० सूर्य सूर्यने आंतरे चन्द्र छे. अने ( ससि अंतरिया रवी ) के० चंद्र चंद्रने आंतरे सूर्य ( दित्ता ) के० प्रकाशे छे. अर्थात् एक चन्द्रथी बीजा चन्द्रनुं अंतर एक लाख योजन उपर सूर्यना मंडल जेटलं एटले एक योजना एकसठीया अडतालीश भाग जेटलुं छे अने एक सूर्यथी बीजा सूर्यनुं अंतर एक लाख योजन तथा एक योजना एकसठीया छप्पन्न भाग जेटलं के. ॥ ७४ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ बहिया मणुसुत्तरओ, चंदा सूरा अवउिज्जोया || चन्दा अभिइजुत्ता, सूरा पुण हुंति पुस्सेहिं ॥ ७५ ॥ ५ अर्थ : - ( मणुमुत्तरओ) के० मानुषोत्तर पर्वतथकी (बहिया ) के० बहार ( चन्दा सूरा) के० चंद्र अने सूर्य ( अवधिउज्जीया ) के० निवल रह्या छता प्रकाश करे छे. तेमां ( चंदा ) के० चंद्र ( अभिजुत्ता ) अभिजित् नक्षत्र युक्त छे. पुण के० वली (मूरा ) के० सूर्य ( पुस्सेहिं ) के० पुष्प नक्षत्र युक्त (हुति ) के० होय छे. अहिं सूर्य सूर्यनी बच्चे चंद्र, अने चंद्र चंद्रनी वच्च सूर्य होवाथी चंद्र बहु शीतलता करता नथी अने सूर्य बहु तपता नथी. ॥ ७५ ॥ सूक्ष्म अने बादर एवा भेदथी उद्धार सागरोनम वे प्रकारनो छे. जं जोयणविच्छिन्नं तं तीउणं परिरयणसविसेसं ॥ तावइयं उच्चि, पल्लि पलिओनं नाम ॥ ७६ ॥ ५८अर्थः—( जं जोयणविच्छिन्नं ) के० जे एक योजन विस्ताखालो, (तंती परिरयणसविसेसं ) के० ते त्रणगुणाथी अधिक परिधि सहित, ( तावइयं उच्चि ) के० तेटली एटले एक योजन उंडो ते (पल्लि ) के० पालो अर्थात कूवो तेनुं (पलिओवमं ) नाम के० पल्योपम नाम कहेवाय. कारण एथी पल्योपमनुं प्रमाण थाय छे माटे. ॥ ७६ ॥ गाहिय बेहया, तेहीयाण उक्कोस सत्तरत्ताणं ॥ समग्गं स निचियं, भरियं वालाग्गकोडिगं ॥ ७७ ॥ अर्थ : - ( गाहिय) के० एक दिवसना, ( बेहीया ) के० दिवसना, (तेहीयाण) के० त्रण दिवसना, एम उक्कोस (सत्तरत्ताणं ) के० उत्कृष्टथी सात दिवस सुधीना घेटाना ( वालाग्ग Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोडिणं) के० एक उत्सेधांगुल प्रमाण वालना (२०९७१५२ ककडा थाय, एवा ककडाथी (स ) के० ते पालो ( समग्गं के० सघलो (निचिय) के० ठांसी ठांसीने (भरियं ) के० भरवो. ॥ ७७॥ तत्तो समए सपए, इकिके अवहिमि जो कालो। संखिज्जा खलु समया, बायर उद्धार पलियंमि ॥७८॥ ___ अर्थः– ( तत्तो) के० त्यार पछी ते कूवामांथी ( समए समए ) के० एक एक समये ( इकिके ) एक एक वालाग्र ( अवहियमि) के० काढवो. एम करतां ( जो कालो ) के० जेटलो काल कूवी खाली करतां थाय. तेमां ( संखिज्जा समया ) के० संख्याता समय ( खलु) के० निश्चे थाय छे. ते ( बायर उद्धारपलियंमि ) के० बादर उद्धार पल्योपम कहेवाय. ॥ ७८ ॥ इक्कीकमओ लोमं, कट्टमसंखिज्जखंडमदीस ।। समच्छेयाणतयए, सियागपलं भरिज्जाहिं ॥७९॥५॥ ___ अर्थः-( अओ) के० त्यासछी ( इकिक लोभं ) के० पूर्व कहेला (२०९७१५२) लोमखंड मांहेला एकेक लोमखंडना ( अद्दीस ) के० मनकल्पीत अदृश्य ( असंखिज्जरखंड कटु ) के० असंख्याता ककडा करीने (समच्छेयाणतयए) के० शिखाग्र सहित ( सियाणपल्लं ) के शिलाकपल्यने (भरिजाहिं ) के० भरवो. ॥ ७९ ॥ तत्तो समए समए, इक्किके अवहियंमि जो कालो॥ संखिज्जवासकोडी सुहुमे उद्धारपलीयंभि ॥०॥ ५. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थः- (तत्तो ) के० त्यार पछी ( समए समए) के० एक एक समये (इकिके ) के० एक एक रोमखंड काढतां (जो कालो) के० जेटले काले ( अवहियमि ) के० ते पल्स खाली थाय. तेमां (संखिजवासकोडी ) के० संख्याता वर्षकोटि थाय. ते ( सुहुमे उद्धारसलियंमि) के० सूक्ष्म उद्धार पल्योयम कहेवाय. ॥ ८०॥ जावइया उद्धार, अढाइज्जाण सागराण भवे तावइया खलू लोए, एवं दिवा समुदाय ॥१॥ ____ अर्थः-( अड्डाइजाण ) के० अढी ( उद्धार सागराण) के० उद्धार सागरोपमना ( जावइया ) के० जेटला समय ( भवे ) के० थाय. ( तावइया ) के० तेटला ( लोए ) के० लोकने विषे ( एवं ) के० ए प्रमाणे (दीवा ) के द्वीप ( य ) के० अने ( समुद्दा ) के० समुद्र (खलु ) के० निश्चे जाणवा. ॥ ८१ ॥ उद्धारसागर दुगे सढे समएहिं तुलदीवुदहि दुगुणादुगण पवित्थर, वलयागारा पढमवज्जं ॥२॥८ ____ अर्थः- ( उद्धारसागर ) के० उद्धार सागरोपम ते (दुगे सहे ) के० अढी एटले अढी उद्धारसागरोपमना जेटला (समरहिं) के० समय थाय तेहने (तुल्ल ) के० बराबर अर्थात् तेटला (दीवुदहि ) के० डीप अने समुद्र छे. तेमां (पढमवज्ज) के० पहेला जंबुद्धीपने वर्जीने बाकीना सर्वे ( दुगुणादुगुपयवित्थर ) के० एक बीजाथी बमणा विस्तारवाला अने ( वलयागारा) के० वलय एटले चूडीना आकारे छे. अने प्रथमना जंबूद्वीप वृत्ताकारे छे. ॥ ८२॥ __अहीं प्रस्तावे छ प्रकारना पल्योपम अने ६ प्रकारना सागरोपमर्नु स्वरुप जणावे छे ते आ प्रमाणेः Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? सात बार आठ आठ खण्ड करीने भरेला वनवृत कुवामांयी एकेक समये एकेक स्थूल वालाग्र काढता जेटलो काळ लागे तेटलो काळ बादर उद्धार पल्योपम. अने एवा १० कोडाकोडि पल्योगमे एक बादर उद्धार सागरोपम थाय. - २ प्रथम भरेला संख्यात रोम खण्डमांथी दरेक रोमखण्डना पुनः असख्य असंख्य रोमखण्ड करीए ते सूक्ष्म रोमखण्ड कहेवाय एवा सम रोम खण्डथी भरेला ते घनवृत कूवामांयी एकेक समये एकेक वालाग्र काढतां जेटले काळे ते कूयो खाली थाय तेटलो काळ सूक्ष्म उद्धार पल्योपम, अने एवा १० कोडाकोडि पल्योपमे एक सूक्ष्म उद्धार सागरोपम थाय. ३ स्थूल वालाग्रथी भरेला कूवामांथी दर सो सो वर्षे एकेक स्थूल वालाग्र काढतां जेटलो काळ लागे तेटलो काळ बादर अद्धा पल्योपम अने एवा १० कोडाकोडि पल्योपमे एक बादर अद्धा सागरोपम. . ४ सूक्ष्म वालाग्रथी भरला कूवामांथी दर सो सो वर्षे एकेक मूक्ष्म वालाग्र काहतां जेटलो काळ लागे जेटलो काळ सूक्ष्म अद्धा पल्योपम अने एवा १० कोडाकोडि पल्योपमे १ सूक्ष्म अद्धा सागरोपम. ५ स्थूल वालाग्रथी भरेला कूवामां जेटला आकाश प्रदेशो स्थूल वालाग्रोने स्पर्शेला छे तेमांथी दरेक स्पर्शेला आकाश प्रशने एकेक समये काढतां जेटलो काळ लागे तेटलो काळ वादर क्षेत्र पल्योपम, अने एवा १० कोडाकोडि पल्योपमे १ बादर क्षेत्र सागरोपम. ६ सूक्षम रोमखण्डथी भरला कूवामांथी ते सूक्षम रोम वण्डोने स्पर्शला अने नहि सर्शला आकाश प्रदेशोने एकेक समये काढतां Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जेटलो काळ लागे तेटलो काळ सूक्षम क्षेत्र पस्योपम, अने एवा १० कोडाकोडि पल्योपमे १ सूक्षम क्षेत्र सागरोपम. A 'पढमो जोयणलक्खं, बट्टो तं वेदिउं ठिया सेसा पढमो जंबुदीवो, सयंभूरमणोदही चरमो || ३ || अर्थः- ( पढमो) के० पहेलो जंबुद्वीप (बट्टो ) के० थाळीनी पेठे गोळ आकारे ( जोयणलक्खं ) के० एक लाख योजननो छे. अने ( तं ) के० ते जंबुद्वीपने ( वेटिंडं ) के० वींटीने ( सेसा ) के० बीजा सर्व द्वीपो ( ठिया ) के० रह्या छे. (पढमो) के० सर्वेथी पहेलो (जंबूदीवा ) के० जंबुवृक्षथी प्रसिद्ध थयेलो जंबुद्वीप छे, अने ( चरमो ) के० सर्वेथी छेलो ( सयंभूरमणोदही ) के० स्वयंभूरमण नामनो समुद्र छे. ॥ ८३ ॥ —- हवे. केटलाक द्वीप अने समुद्रनां नाम कहे छे:जंबु घायइपुक्खर, वारुणिवर खीर धय खोय नंदिसरा ॥ अरुण रुणवाय कुंडल, संख रुपग भुयग कुस कुंचा ॥ ८४॥ अर्थः- १ (जंबु ) के० जंबुद्वीप, २ धायइ ) के० धातकी - खंड द्वीप, ३ ( पुक्खर ) के० पुष्करवर द्वीप, ४ ( वारुणिवर ) के० वारुणिवर द्वीप, ५ (खीर) के० क्षीरवर द्वीप, ६ (घ) के० घृतवर द्वीप, ७ ( खोय) के० इक्षुवर द्वीप, ८ ( नंदिसरा ) ho नन्दीश्वर द्वीप, ९ ( अरुण ) के० अरुण द्वीप, १० ( अरुणवाय) के० ( अरुणोपपात ) द्वीप, ११ ( कुंडल ) के० कुंडल द्वीप, १२ ( संख) के० शंख द्वीप, १३ ( रुयग ) के० रुचक १५ ( कुस ) के० कुस - द्वीप, १४ ( भुयग ) के० भुयंग द्वीप, द्वीप, १६ ( कुंचा ) के० क्रौंच द्वीप. ॥ ८४ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___हवे सब दी। एकेक समुद्रथी वीटया छे ते समुद्रोनां नाम कहे छे:पढमे लवणो जलहि. बीए कालो य पुक्खराइसु ।। दीवेसु हुँति जलहि, दीव समाणेहिं नामेहिं ।।८५||८० ___अर्थः- (पहमे ) के० पहेलो ( लवणो जलहि ) के० लवण नामनो समुइछे, (बीर ) के० बीजो कालो के कालोदधि नामनो समुद्र छे. (य) के० अने (पुक्खराइसु ) के० त्रीजा पुष्करवर समुद्रथी मांडीने (दी.सु .) के० सर्व द्वी ने विषे ( दीवसमाणेहि नाहिं ) के० द्वीना सरखा नामवाला ( जलही) के० समुदो (हुति ) के० होय छे. जेम वारुणिवर द्वी अने वारुणिवर समुद्र. ए प्रमागे वीजा पग जाणवा. ।। ८५ ॥ . ए सर्वे डीप समुद्र वज्रमय जगतीथी वीटायला छे. जगती आठ योजन उंची छे. मूलमां बार योजन पहोली, छो प्रदेशे प्रदेशे हीन थतां उपर चार योजन पहोली छे. ते उपर बे गाउ अने पांचसो धनुष्य उंची पद्मवर बेदिका छे. ते उपर वन छे. ___ हवे लवण समुद्रना चार द्वारर्नु परस्पर अंसर कहे छे. दुन्नि सया य असिया, पणनउइ सहस्स तिन्निं लक्खा य ।। कोसा अंतर लवणे, दारस्स दाराणी विनेया ॥८६॥ अर्थः-( तिनि लक्खा य ) के० वळी त्रण लाख, ( पणनउइ सहस्स) के० पंचाणु हजार, ( दुन्नि सया) के० बसो, (य) के० अने ( असिया) के० एशी एटला योजन, तथा ( कोसो) के एक गाउ उपर, एटलं ( लवणे ) के० लवणसमुद्रमा (दारस्स Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ दाराणी ) के० एक द्वारथी बीजा द्वार सुधीनु ( अंतर) के० अंतर ( विनेया ) के० जाणवुं ॥ लवण समुद्रनो परिधि ( १५८११३९ ) योजनमां कांइक ओछो छे. अने लवण समुद्रनी चार दिशामां चार दरवाजा छे. ते दरेक दरवाजो चार चार योजन पहोलो छे. तेथी चार दरवाजाना सोल योजन थाय. अने दरेक दरवाजानी बन्ने वाजुए एक एक गाउना विस्तारवाली द्वारशाख प्रदेशनी भींत छे. तेथी चार दरवाजाना आठ द्वारशाख प्रदेशना बे योजन मेलवतां अहार योजन थाय, ते अढार योजन काढी नाखीने बाकीनी लवण समुहनी परिधिना चार भाग करतां ( ३९५२८० ) योजन अने एक गाउ एटलं द्वार द्वारनुं अंतर थाय ॥ ८६ ॥ वे मोटा पाताल कलशानुं स्वरूप अने तेनी संख्या कहे छे:जोयण सहस्स दसगं, मूले उवरि य होंति विच्छीण्णा || मझे य सय सहस्सं, तीत्तियमित्तं च उगाढा ॥ ८७ ॥ अर्थः - लवण समुद्रनी चारे दिशामां पूर्व दिशाथी आरंभीने १ वडवाव, २ केयूप, ३ यूप, अने ४ ईश्वर ए नामना अने एक हजार योजननी जाडी ठीकरीवाला चार मोटा पातालकलशा छे. ते कलशा (मूले ) के० नीचे मूलमां (य) के० अने ( उवरि ) के० उपर मुख आगल ( जोयण सहस्स दसगं ) के० दश हजार योजन ( बिच्छीणा ) के० विस्तारवाला होंति के० छे. (य) के० अने (मज्झ ) के० मध्यभागने विवे ( सय सहस्सं ) के० एक लाख योजन विस्तारवाला छे. (च) के० वली तित्तियमित्तं के० तेटलाज एटले एक लाख योजन ( उगाढा ) के० पृथ्वीमां उंडा छे. ॥ ८७ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो नाना पाताल कलशानुं स्वरूप अने तेनी संख्या कहे छे:जोयण सयविच्छिण्णा, मूले उवरि दससयाण मज्झमिं । उगाडा य सहस्से, दसजोयण वायसि तुंडा ॥ ८८ ॥ अन्ने लहुपायाला, खुड्डालिं जर संठिया लवणे असया चूलसीया, सत्त सहस्ताय सवेषि ॥ ८२ ॥ अर्थः- ( मुले) के० मूलमां नीचे अने ( उवरि ) के० उपर ( जोयणसय विच्छिण्णा ) के० सो योजन विस्तारवाला, ( मज्झमि ) के० मध्य भागमां ( दससयाण ) के० दश हजार योजना, (य) के० अने ( सहस्से ) के० एक हजार योजन ( उगाड्डा ) के० उंडा, तथा ( दस जोयण ) के० दस योजन ( वायसि तुंडा ) के० जाडी ठीकरीवाला ॥ ८८ ॥ एवा (अन्ने लहु पायाला ) के० बीजा नाना पाताल कलशा तेनी ( खुड्डालि ) के० नानी नव पंक्ति ते ( जरग संठिया ) के० गर वाने आकारे ( लवणे ) के० लवण समुद्रमां रही छे मोटा चार पाताल कलशानी वचमां वचमां नाना पाताल कलशानी नव पंक्तिओ छे. पहेली पंक्तिमा ( २१५ ) कलशा छे, वीजी पंक्तिमां ( २१६ ) कलशा के. एम ववतां ववतां नवमी पंक्तिमा (२२३ ) कलशा छे. एक भागना सर्व मलीने ( १९७१ ) कलशा छे. चारे भागना एका गणतi ( ७८८४ ) कलशा थाय छे. ॥ ८९ ॥ पायाला लवण विभागे, सव्वाण वि तिन्नि भाग विन्नेया ॥ हेमभागे वाऊ, मज्झे वाऊ य उदगं च ॥ ९० ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थः-( लवण ) के० लवण समुद्रमा (पायाला ) के० पाताल कलशाना नाना अने मोटा एवा ( विभागे ) के० बे भाग छे. ते ( सव्वाणावि ) के० सर्व कलशाना एक एकना ( तिनि भाग ) के त्रग भाग ( विन्नेया) के० जाणवा. तेमा (हेठीभागे ) के० नीचेना भागमां ( वाऊ ) के० वायु छे. (मज्ञ ) के० मध्यना भागमां ( वाऊं ) के० वायु (य) के० अने ( उदगं) के० पाणी भेगुं छे. तथा उपरना भागमां पाणीज छे. ॥९॥ हवे बीजा दीप समुद्रोनां केां केवां नाम छे ? ते कहें छे:आभरण वत्थ गंधे, उप्पल तिलए य पउम निहि रयगे वासहर दह नईओ, विजय। वक्खार कपिंदा ॥ ९१ ॥ कुरु मंदर आाप्ता, कुडा नक्खत चन्द सुरा य अन्नेवि एपनाई, पसत्थवत्थूग जे नामा ॥९२ ।। ___ अर्थः- (आभरण ) के० हार विगेरे आभूषग, (वथ ) के० वस्त्र, (गंध ) के कस्तुरो कोरे सुगंधिप्रस्तु, ( उप्पल ) के० चन्द्रविकाशी कमल, (तिलए य) के० वृत्त तिला अथवा तिलकवृक्ष, (पउम ) के० शापत्र पुंडरिकादिक सूविकाशी कमल, (निहि ) के० महासमाहि नर निधि, ( रयगे ) के० कानादि रत्न. ( वासहर ) के हिमवंतादिक वर्षधर पर्वत, (दह ) के पनादिक द्रह, ( नइओ ) के० गंगा विगेरे नदोओ, (विजया ) के० कच्छादिक विजय, ( वक्वार ) के० मालयवंत विगेरे वक्षस्कार पर्वत, (कप ) के सौधर्मादिक देश्लोक, (इंदा) के० शद विगेरे इंद्रो ॥ ९१ ॥ (कुरु ) के० देवकुरु उत्तरकुरु ( मंदर ) के० मेरु पर्वत, ( आवाप्ता ) के० इन्द्रादिकना निवासभुवन, (कूडा) के० कूटपर्वत, ( नक्खत्त ) के कृतिकादि नक्षत्र, (चन्द ) के० Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र, जने सूरा य के सूर्य, (एवमाई ) के० ए विगेरे (अन्नेवि) के० बीजो पण ( पसत्यवत्यूग ) के० श्रेष्ट वस्तुनां (जै नामा) के० जे नामो छे. ॥ ९२ ॥ तन्नामा दीवुदही, तिपडायायार हुंति अरुणाई (१५ जंबुलवणाइया, पत्तयं ते असंखिज्जा ॥९३ ॥६ तागंतिप सूरवरा-बभासजलहा परंतु इकिका देवे नागे जक्खे. भए य सयंभरमणे य ॥ ९४॥८ ___ अर्थः-( तन्नामा ) के० ते नामना (दीवुदही) के० द्वीप अने समुह छे, नेमां ( अरुणाई ) के० अरुण द्वीपथी आरंभीने सर्वे द्वीप समुद्र (तिपडायायार ) के० त्रिप्रत्यावतार एटले त्रण द्वीपसमुदना एक सरखा नाम (हूति ) के० छे. तेमज आभरणादिक वस्तुनां नामबाला सर्वे द्वीपसमुद्र त्रिप्रत्ययावतार होय छे. जेमके अरुण द्वीप, अरुणसमुह, अरुणवरद्वीप, अरुणवरसमुद्र, अरुणवरावभास द्वीप, अरुगवरावभास समुह. हार द्वीप, हार समुद्र, हारवर द्वीत, हार र समुह, हाररावभास द्वीप, हारवरावभास समुद विगेरे. वली ( जंबू लपणाईया ) के० जंबूदीप अने लवण समुद विगेरे जे (पत्तेय . के० दरक द्वीप समुद छे. (ते ) के० ते नामना बोला ( असविजा ) के० असंख्याता डीप समुद्रो छे. ॥ ९३ ।। ( ताणेतिम । क० तेमां छेलो (सूरवरावभास ) के० सूर्यवरावभास नामना समुद्र छे, त्यांसुधी त्रिप्रत्ययावतार जाणवा. (परं तु ) के० अने त्यांथा आगळ तो छेला ( देवे ) के० देव दीर अने देव समुह, ( नागे ) के० नाग दीप अने नाग समुद्र, ( जक्खे ) के० यक्ष दीप अने यक्ष समुद्र, (भूर य ) के० वळी भूा दोर अने भूा समुद्र, तथा (सयंभूरमणे य) के० स्वयंभूरमण दीप Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने स्वयंभूरमग समुद्र ए पांच दीपसमुद्रो ( इक्किका ) के० एक एक छे. ते त्रिप्रत्ययावतार नयी ॥९४ ॥ हवे सर्वे समुद्रोनां पाणी विगेरेनुं विशेष स्वरूप कहेछे. वारुणिवर खीर वरो, घयवर लवणो य हुंति भिन्नरसा॥ कालो य पुक्खरोदहि, सयंभूरमगो य उदगरसाः।।९५॥ इकखुरस सेसजलही, लवणे कालोय चरिम बहुमच्छा। पण सग दस जोयण सय,तणु कमा थोव सेसेसु।।९।। - अर्थः-(वारुणिवर) के० वारुणिवर समुद्रनु पाणी मदिरासरखं, (खीरवरो) के० क्षीर समुद्रनुं पाणी दुध सरखं, (घयवर) के० घृतवर समुद्रनुं पाणी गायना घी सरखं, (य) के० अने (लवणो) के० लवण समुद्रनुं पाणी खालं. एम ए चारे समुद्रो (भिन्नरसा) के० जूदा जूदा रसवाला ( हुंति ) के. छे. अर्थात् नाम सरखा पाणीना स्वादवाला छे. तेमज (कालो) य के० कालोदधि, (पुक्खर) के० (पुष्करवर य) के० अने (संयंभूरमणो) के० स्वयंभूरमण. ए त्रण (उदहि ) के० समुद्रो (उदगरसा) के० वर्षादना पाणी जेवा स्वादवाला छे. ॥ ९५ ॥ (सेस जलहि) के० बाकीना नंदीश्वर समुद्रथी आरंभी भूतसमुह पर्यंतना सर्व समुद्रना पाणी(इखुरस) के० शेरडीना रस समान मोष्ट पाणीवाला छे. वली ( लवण) के० लवगसमुद्र, (कालो) के० कालोदधि समुद्र, (य) के० अने (चरिम) के० स्वयंभूरमण समुह ए त्रण समुद्रमा (बहुमच्छा) के० घणा माछलांनी जाती छे. अने ते माछलां (पण सग दश योजणसयतणु के० पांच सो, सात सो अने हजार योजनना शरीरवाला (कमा) के० अनुक्रमे करीने जाणवा. अर्थात् लवण समुद्रमा उत्कृष्टा पांचसो योजना, कालोदधिमां सात सो योज Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ नना अने स्वयंभुरमणमां एक हजार योजनना शरीरवाला मच्छ *. (थो सेसेमु ) के० वाकीना समुद्रोमां थोडा अने न्हाना मच्छ है. ॥ ९६ ॥ ये दरेक द्वीपे अने समुद्रे चंद्र भूर्यनी संख्या कहे छे. दो ससि दो रवि पढमे, दुगुणा लवणंमि धायईसंडे | बारस ससि बारस रवि, तप्पभिइ निदिठ्ठ ससिरविणो ॥ ९७॥ तिगुगा पुव्विलजुया, अगंतरानंतरंमि खितंमि ॥ ९५ कालोए बायाला, बिसत्तरी पुख्खरर्द्धमि ॥ ९८ ॥ १६ अर्थः- ( पढमे ) के० पहेला जंबुद्वीपने विषे ( दो ससि दो रवि ) के० वे चंद्र अने वे सूर्य छे. ( लवणंमि ) के० लवण समुद्रने तेथी (दुगुणा ) के० बमणा एटले चार चंद्र अने चार सूर्य छं तथा ( घायसंडे ) के० धातको खंडने विषे ( वारस ससि बारस रा ) के० बार चंद्र अने बार सूर्य छे. वली (तप्पभिइ ) के ते धातकी खंड प्रमुखने विषे ( निदिट्ठ ससिरविणो ) के० चंद्र सूर्यनी जे संख्या कही छे तेने ॥ ९७ ॥ ( तिगुणा ) के० त्रण गुणी करोपे अने लिया ) के० प्रथमना द्वीप समुद्रना चंद्र सूर्यनी संख्या तेमां एटले (अनंतरानंतरंभि खित्तमि) के० पाछल 3 ( पालनादान समुदना क्षेत्रने विव चंद्र सूर्यनी संख्या थाय. जेमके धातकी खं ना बार चंद्र अने बार सूर्य छे तेने त्रण गुणा करीये त्यारे छत्री सूर्य अने छत्रीश चंद्र थाय, तेमां जंबुद्धीपना अने लवण समुना मली छ चंद्र अने छ सूर्य मेलवीये त्यारे (कालो) ho कालो विषे ( बायाला ) के० बेतालीश चंद्र अने बतालीश सूर्य थाय. आगलना द्वीप समुहने विषे पण एज प्रमाणे करण करवायो चंद्र सूर्यनी संख्याथाय छे. जेमके कालोदधिना वेताली Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शने त्रण गुणा करता एक सो छवीश थाय, तेमां धातकी वंदना बार, लवण समुद्रना चार, अने जंबुद्वोपना बे. एअढार मेलवतां एकसो चुमालीश थाय, परंतु पुष्करबरद्वीपमां अर्धं मनुष्य क्षेत्र छे माटे (पुक्खरद्धंमि) के० अर्या पुष्करवर द्वीपमां (विसत्तरो) के० बहोतेर बहोतेर चंद्र मूर्य छे, बाकीना बहोतेइ चंद्र सुर्य समश्रेणीर. नथी अने स्थीर छ माटे गण्या नथी. वली पुषफरवर द्वीपना एक सो चुमालीशने त्रण गुणा करतां चार सो बत्रीश थाय, तेमां जंबुद्वीपना बे, लवण समुद्रना चार, धातकी खंडना वार, अने. कालोदधीना बेतालीश मेलवतां पुष्करवर समुद्रं चारसो बाणु चंद्र अने चारसो वाणु सूर्य थाय छे. एज प्रमाणे आगलना दी। समुद्रने विधे पण 'जाणवू. ॥ ९८ ॥ ___हवे मनुष्य लोकमां पंक्तिने विवे चंद्र सुर्यनी संख्या कहे छे. दो ससि दो रवि पंती, एगंतरिया छसहि संखाया ।। मेरु पयाहिगंता, माणुसखित्ते परिभमंति ॥ ९९ ॥ ___अर्थ-जंबुद्वीपमा ( दो ससि) के० बे चंद्र अने (दो वि) के० बे सूर्य तेमनी (पंती ) के० पंक्ति एटले श्रेणि छे. ते पंक्ति (एगंतरिया ) के० एक एकने आंतरे छे. एटले सूर्यनी पंक्तिने आंतरे चंद्रपंक्ति अने चंद्रपंक्तिने आंतरे सूयपंक्ति छे. अही द्वी:रूप मनुष्य क्षेत्रमा एक पंक्तिने विवे छसठिसंखाया के० छासठ छासठ चंद्र सूर्य होय छे. तेवी ते चार पंक्ति छे. ते चारे पक्तिओ (माणुसखित्ते ) के० मनुष्य क्षेत्रने विवे ( मेरु पयाहिणंता ) के० १ ए संबंधमां मतांतर घणो छे, ते मोटा ग्रंथाथो जागवो आ चालु प्रकरणनीज १०६-१०७ ने १०८ मी गाथा देखवाथी आ करणनो मतांतर समजाय छे, तेोपण व्यामोह करवा योग्य नथी. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ मेरुपर्वत प्रदक्षिणा देतो छतो (परिभमंति) के फरे छे. एटले जंबुद्वीपमां ज्यारे एक सूर्य मेरुपर्वतथी दक्षिण दिशाए फरतो होय त्यारे बीजो सूर्य उत्तर दिशाए फरतो होय छे, तेवीज रीते लवण समुद्रमां एक एक दिशाए बचे सूर्य, धातकी खंडमां एक एक दिशाए छ छ सूर्य, कालोदधियां एक एक दिशाए एकवीश एकवीश सूर्य, अने पुष्करार्द्धमां एक एक दिशाए छत्रीश छत्रीश सूर्य. एम सर्व मली, छासठ सूर्य दक्षिण दिशाए अने छासठ सूर्य उत्तर दिशाए ए वे समश्रेणिना सर्व मली एकसो वत्रीश सूर्य अने तेवीज रीते एकसो वत्रीश चंद्र मनुष्यक्षेत्रमां फरे छे. ॥ ९९ ॥ हवे मनुष्यक्षेत्रमां ग्रहनी पंक्ति कहे छे. एवं गहाइणोवि हु, नवरं धुवपोसवत्तिगो तारा ॥ तं चिय पयाहिगंता, तत्थेव सया परिभमंति ॥१००॥ अर्थ - ( एवं ) के० ए पूर्व कहेली चंद्र सूर्यनी पंक्तिनी पेठे ( गहाइणोवि हु ) के० ग्रह तथा नक्षत्रनी पंक्तिओ पण जाणवी. ते आ प्रमाणे एक एक चंद्रनी पाछल अठावीश नक्षत्रनी एक पंक्ति एवी छासठ छाउनी वे पंक्ति मली एक सो वत्रीश पंक्ति चंद्रनी पाछल जाणवी. तेमज अठाशी ग्रहनी एक पंक्ति, एवी छासठ छाउनी वे पंक्ति जाणवी. तेमां (नवरं ) के० एटलं विशेष छे के ( धुवपासवत्तिणो तारा ) के० ध्रुवना तारानी पासे रहेला ताराओ ( तंचिय पया हिता) के० प्रवना तारानेज प्रदक्षिणा करता (तत्व) के० त्यांज (सया ) के० निरंतर ( परिभमंति ) के० भ्रमण करे छे. ॥ १०० ॥ बत्तीससयं चंदा, बत्तीससयं च सूरिया सययं ॥ समसेणीए सव्वे, माणुसखित्ते परिभमंति ।। १०१ ।। १०४ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(वत्तीससय) के० एकसो बत्रीश (चंदा) के० चंद्र, (च) के० अने (बत्तिससयं) के एक सो बरोश (सूरिया ) के० सूर्य ( सबे ) के० ते सर्वे ( समसेणीए ) के० समश्रेणिर रया छता ( सययं ) के निरंतर ( माणुसवित्त ) के. मनुष्ष क्षेत्रने विवे (परिभमंति ) के० फर छे ॥ १० ॥ चतारि य पंतीओ, चंदाइबाग मणुयलोगंमि ॥ हाड़ी कावडी यु. होइ इकिकया पंती॥ १०२ ॥ छप्पन्न पंतीओ, नक्खत्तागं च मणुयलोगंमि ॥ छावठी छावठी य, होइ इकिकया पंती ।। १०३ ॥ ८८ ___अर्थ-(मणुयलोगंमि ) के० मनुष्य लोकमां ( नक्खताणं) के० नक्षत्रोनी (छप्पन्न पंतीओ ) के० छप्पन पंक्ति छ. वली छप्पन पतासीन केस बने. अगिना छुासठ छासट चंद्र सूर्यछावठी छावठी य, होइ इकिकया पंती ॥ १०३ ॥ ८८ ___ अर्थ-(मणुयलोगंमि ) के० मनुष्य लोकमां ( नक्खताणं) के नक्षत्रोनी (छप्पन्न पंतीओ ) के० छप्पन पंक्ति छ. वली (छावट्ठी छावठी य) के वने अगिना छासठ छासठ चंद्र सूर्य. . अथानी हाल, (. रकिकया पंती ) के० अठावीश . छावठाँ छावठा य, हाइ ककया । ।। . ' ' अर्थ-( गहाणं ) के० ग्रहोनी ( छावत्तरी पंतीसयं ) के Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसी ने छोंतेर पंक्ति (मणुअलोयंमि) के० मनुष्य लोकमां (होइ ) के० होय छे. (छावट्ठी छावही य) के० बन्ने श्रेणिना छासठ छास चंद्र सूर्यमाना दरेक चंद्र सूर्यनी पाछल ( इक्किकया पंती ) के० अठाशी ग्रहोनी एक एक पंक्ति ( होइ ) के० होय छे. १०४ ते मेरुपरिअडता, पयाहिगा वत मंडला सव्वे ॥ अगवडियजोगे गं, चंदा सूरा गगणा य ॥ १०५ ॥ २ अथ - ( ते सच्चे ) के० ते सर्व (चंदा सूरा गह गणाय) के० चंद्र सूर्य अने ग्रहगो ( अणवद्वियजोगेणं) के० अनवस्थितयोगे करीने (मेरुपरिअडता) के० मेरु पर्वतनी समीपे ( वत्तमंडला ) के० गोल मंडले करीने ( पयाहिणा ) के० प्रदक्षिणा करे छे. ॥ १०५ ॥ चउपालसयं पढम-भूया पंतिए चंदसूरागं ॥ तेणं परितीओ, चउरुत्तरिया बुढी ॥ १०६ ॥ अर्थ - अढी द्वीपनी बहारना अर्द्धा पुष्करवर दीनमां ( पहमभूयापंती ) के० मालानी पेठे गोल रहेली प्रथम पंक्तिने विवे ( चंद्रसुराणं) के० एक बीजाने आंतरे रहेला बहोंतेर चंद्र तथा बहतर सूर्य मलीने (चउयाल सयं ) के० एक सो चुमालीश चंद्र सूर्य होय छे. ( तेणं) के० त्यार पछी क्षेत्रवृद्धिना कारणे असंख्याता द्वीप समुद्र मुधी (परिपंतीओ) के० दरेक पंक्तिमां (चउरुत्तरियार बुट्टीए) के० वे चंद्र अने वे सूर्य मली चार चारनी वृद्धि करवी ॥ १०६ ॥ बाव तरि चंदागं, बावत्तरि सूरियाण पंत्तिए || पढमाए अंतरं पुण, चंदा चंदस्म लक्खदुगं ॥ १०७॥ ৩ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ अर्थ - ( पढमार पंत्तिए) के० पहेली पंक्तिमां (बावत्तरि चंदा) के० बहोंतेर चंद्र अने ( बाबत्तरि सूरियाण) के० बहोंनेर सूर्य होय छे. (पुण) के० वली (चंदा चंदस्स) के० चंद्र चंद्रनुं ( अंतर ) के० अंतर ( लक्खदुगं) के० वे लाख योजननुं जाण ॥ १०७ ॥ जो जावई लक्खाइ, वित्थारो सागरो य दीवो वा ॥ तावइआओ य तहिं, चंदासूराण पतीओ ॥ १०८ ॥ अर्थ - ( जो ) के० जे ( सागरो ) के० समुद्र (वा) के० अथवा ( दीवो) के० द्वीप ( जावइ लक्खाई) के० जेटला लाख योजननो ( वित्थारो ) के० विस्तारवालो होय, ( तर्हि ) के० त्यां ( तावइआओ ) के० तेटली ( चंदासूराण) के० चंद्र सूर्यनी ( पंतीओ) के० पंक्तिओ जाणवी. एटले जेम बाह्य पुष्करार्द्ध आठ लाख योजननो छे तो तेमां लाख लाख योजनने अंतरे चंद्र सूर्यनी आठ पंक्ति छे. एम बोजा बहारना सर्व द्वीप समुद्रोने विषे जाणवु. ॥ १०८ ॥ हदे जंबुद्वीपने विषे चंद्रसूर्यनां मांडलां कहे छे. पन्नरस चूलसीइसयं, इह ससिरविमंडलाई तक्खितं ॥ जोयण पणसयद सहिय, भागा अडयाल इगसट्रा ||१०९ ॥ अर्थ - ( इह ) के ० आ जंबुद्वीपमां (ससि) के० चंद्रना ( पन्नरस ) पंदर मांडला छे, अने (रविमंडलाई ) के० सूर्यना मांडला चूलसीइसयं) के० एकसो चोरासी छे. तथा (तक्खितं ) के० ते मांडलं क्षेत्र ( जोयणपणसयदसहिय ) के० पांच सो दश Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योजन अने ( भागा अडयाल इग सहा) के० एक योजनना एकसउ भाग करो तेवा अडतालोश भाग जाणवा. ॥ १०९॥ ___ हवे गगतोथी एनु परिमाण कहे छे. तिसि इगसाठा चउरो, इससस सत्त भइयस्स ॥ पगतीतं च दुजोषण, ससि रविगो मंडलंतर ॥११०॥ ___ अर्थ-एक योजनना (इगसहा ) के० एकसठ भाग करोये, तेवा (सि) के त्रीश भाग, अने (इग) के० एक एवा (इगसहस्स) के० एकसठीया भागना ( सत्त भइयस्स) के सात भाग करीये तेवा (चउरो) के० चार भाग, तथा (पणीसं जोयग) के० पांत्रीश योजन एटलं (ससि) के० चंद्रना मांडलानु अंतर छे. अने (दुनोयण) के० बे योजन- (रविणो) के सूर्यना मांडलानुं अंतर छे, ॥ ११०॥ __ एज वात आगलनी गाथावडे कहे छे. दो जोयणाणि सूरस्त, मडलाणि होति इयरस्स ॥ पणहीस जोपगीगस-हितीस चउ भाग सत्तहिया॥१११।। ___ अर्थ-(सूरस्स) के० सूयनां (मांडलाणि) के मांडला (दो जोयणाणि ) के० बेबे योजनने आंतरे ( हवंति) के० होय छे. अने (इयरस्स ) के० चंद्रनां मांडला मांडलानुं अंतर (पणतीस जोयण) के० पांत्रीश योजन, तथा (इगसही ) के० एक योजनना एकसठ भाग करीये तेवा (तीस) के० त्रीश भाग अने (सत्तहिया) के ते एकसठी एक भागना सात भाग करीये तेवा ( चउ भागा ) के चार भाग उपर एटलं अंतर चंद्रना मांडलान .जाणवू ॥ १११ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेनी गणती आ प्रमाणे-सूर्यना एक सो चोराशी मांडलाना एक सौ त्र्याशी आंतरा थाय. ते एक एक आंतगर्नु परिमाण बे योजन छे. माटे एकसो त्याशीने वमणा. करिये एटले सर्व मली त्रण सों छासठ योजन थाय. हवे मूर्यना एक एक विमाननुं जाडपणुं योजनना एकसठीया अडतालीश भागनुं छे. ते अडतालीश भागने एक सो चोराशी मांडले गुणीये त्यारे ( ८८३२ ) भाग थाय. ते भागनो एकसठे भागाकार करीये त्यारे एक सो चुमालाश योजन, अने उपर एक योजनना एकसठीया अडतालीश भाग वधे, ते पूर्व कहेला आंतराना त्रण सो छासठ योजनमा मेलवीये त्यारे सर्व मली पांच सो दश योजन अने एक योजनना एकसठीया अडतालीश भाग एटलं सूर्यने विचरवानुं क्षेत्र होय । हवे चंद्रना मांडला पंदर छे अने तेना आंतरा चउद छे. ते एक मांडलाथी बीजा मांडला सुधी- अंतर पांत्रीश योजन, ते उपर एक योजनना एकसठीया त्रीश भाग, तथा एक एकसठीया भागना सात भाग करीये तेवा चार भाग एटलं अंतर छे.तेवा आंतरा चउद छे माटे आंतराना योजनने चउद गुणा करीये त्यारे चारसो सत्ताणुं योजन. अने ते उपर एकसठीयो एक भाग वधे. हने चंद्रना एक एक मंडलनु जाडपणुं एक योजनना एक सठीया छप्पन भागर्नु छे. तेने पंदर गुणा करतां तेर योजन अने एक सठीया सुडजालीश भाग आवे. तेने चार सो सत्ताणुं योजन साथे मेलवीये त्यारे पांच सो दश योजन अने एक योजनना एक सठींया अडतालीश भाग उपर थाय. एटलं चंद्रना मंडलने विचरवानुं क्षेत्र जाणवू. हवे सूर्य चंद्रनां केटलां मांडला जंबुद्धीपमां अने केटलां लवण समुद्रमा छे ? ते कहे छे. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडलदसग लवगे, पणगं निसटमि होइ चंदस्स ॥ मंडलअंतरमाणं, जाणपमाणं पुरा कहियं ॥ ११२ ॥ ___ अर्थ-( चंदस्म ) के० चंद्रनां (मंडलदसगं ) के० दश मांडलां ( लवणे ) के० लवण समुद्रमांछे. अने (पणगं) के० पांच मांडला ( निसहमि ) के० निषधपर्वत उपर ( होइ ) के० छे. वली ( मंडल अंतरमाणं ) के० मंडलना आंतरानुं प्रगाण "पांत्रीश योजन, एक योजनना एक सठीया त्रीशभाग अने एक सठीया एक भागना सात भाग करीये तेवा चार भाग ए अरनी गाथामां कडंछे ते, " तथा ( जाण पमाणं ) के० विमाननुं प्रमाण "एक योजनना छपन्न भाग-" ते ( पुरा कहियं ) के० प्रथम कर्तुं छे नेम जाणवू । ११२ ॥ पणसी निसटुमि य, दुनिय बाहा दुजोय गंतरिया ॥ ईगुणपीसंतु सरं, सूरस्स य मंडला लवणे ॥ ११३ ॥ ५ अर्थ-(य) के० वली ( सूरस्स) के० सूर्यनां (पणसही) के० पौंसठ मांडलां (निसहमि ) के० निषध पर्वत उपर छे. पण तेमांनां (दुनि य बाहा) के० वे मांडलां निषधयवतनी बाहेर इरिवष पर्वतनी जिहाना अग्रभागउपर छे. अने (इगुंगवीसं तु सयं) के० एकसो ओगणीस मांडला ( लवणे ) के० लवण समुद्रमा छे. तथा ते मांडला ( दुजोयणंतरिया ) के० बवे योजनने आंतरे रहेला छे. ११३ ॥ हवे जंबुद्रीपमां तथा लवगसमुहमां चंद्रमूर्यने फरवार्नु क्षेत्र के टला योजन छे ? ते कहे छे. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨ ससिरविणो लवणंत्रिय, जोय गतिनि तीस अहियाई || असियं, तु जोयणसयं, जंबुद्दीमि पविसंति ||११४|| अर्थ - ( लवणंमि) के० लवणसमुद्रमाँ (ससिरविणो ) के० चंद्र अने सूर्यनुं चारक्षेत्र एटले फरवानुं क्षेत्र ( जोयणसयतिन्नि) के० त्रण सो योजन अने (तोस अहियाई ) के ० त्रीश अधिक अर्थात् त्रण सो त्रीश योजन अने एकसठीया asarata भाग अधिक छे. अने त्यांथी पाछो फरतां (असियं तु जोयणसयं ) के० एक सो एंशी योजन जंबुद्दी मि ) के० जंबुद्वीपमा ( पविसंति) के० प्रवेश करे छे ।। ११४ ॥ ग्रह, नक्षत्र अने ताराओने एक एकज मांडलं होय छे, तेथी ओ पोत पोताने मांडलेज फरे छे, पण दक्षिण उत्तर तरफ जता नथी. चंद्रने तथा वे सूर्यने सर्वथी अंदरना मांडले अने बहारना मांडले अंतर केटलं होय ? ते कहे छे. ससिससि रविरवि अतर, मज्झे इग लक्ख तिसयसहिमाउणो ॥ साहिय दुसयरिचय, बहि लक्खो छसय सट्रिहिओ ॥११५॥ अर्थ - ( मज्झे ) के० सवथी अंदरना मांडलाने विषे एटले एक चंद्र निषध पर्वत उपरना अभ्यंतर मांडले आवे अने बीजो चंद्र नीलवंत पर्वत उपरनाअभ्यंतर मांडले आवे त्यारे (ससि - ससि) ० चंद्र चंद्रने तथा रवि रवि) के सूर्य सूर्यने (अंतर) के० आंतरं ते Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ (इगलक्ख ) के० एक लाख योजननी मध्ये ( तिसयसहिमाउणो) के० त्रण सो साठ योजन ओर्छ अर्थात् ( ९९६४० ) योजनहोय छे. केमके एक सूर्य निषध पर्वा उपर एक सो एंशी योजन जंबुद्धीपमां आवे त्यारे वीजो सूर्य नीलवंत पर्वत उपर एक सो एंशी योजन जंबुद्धीपमां आने त्यारे बन्ने मलीने त्रण सो साठ योजन थाय.ते त्रणसो साठ योजन जंबुद्दीपना एक लाख योजनना आयाम विष्कभमांथी बाद करीये त्यारे (९९६४०)योजन रहे.एटलं अंदरना मंडले आंतरं जाणवू. त्यार पछी (साहियदु) के० सूर्य सूर्यने दरेक मांडले बे योजन वधारयु अने चंद्र चंद्रने ( सयरिचय ) के० दरेक मांडले सीत्तेर योजन वधार. जेथी (बहि ) के० सर्वथी बहारना मंडले ( लक्खो ) के० एक लाख, ( छसय ) के० छ सो अने (सहिहिओ) के० साउ अधिक एटला योजन आंतरंथाय.॥११५॥ तिन्नेव सयसहस्सा, पन्नरस हांति जोयण सहस्सा॥ एगुणनउया परिही, अभितर मंडले तेसिं ॥ ११६ ॥ ___ अर्थ-तिन्नेव य सयसहस्सा) के० त्रण लाख, (पन्नरस जोयण सहस्सा ) के० पंदर हजार, अने ( एगुणनउया ) के० नेव्याशी योजननी ( परिही ) के० परिधी ( तेर्सि ) के० स - यना ( अभितर मंडले ) के० अंदरना मांडलानी ( हवंति ) के० होय छे ॥ ११६ ॥ लक्ष तिगं अठारस.सहसा तिन्नि सय पंचदस अहिया।। परिही य जोयणाई, बाहिरए मंडले हुंति ॥ ११७ ।। ___ अर्थ-( लक्ख तिगं) के० त्रण लाख, ( अट्ठारस सहस्सा) के० अढार हजार, ( तिन्नि सय ) के० त्रण सो, अने (पंचदस Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अहिया) के० पंदर अर एटला ( जोयणाई ) के० योजननी (परिही.) के परिधि ते ( बाहिरए मंडले ) के. सूर्यना सवयी बाहेरना मंडले ( हुंति ) के० होय छे. ॥ ११७ ॥ हो दी। समुदने विशे ग्रह नक्षत्र तथा तारानी संख्या जाणवानो आय कहे छे. गहरिक्खतारसंवं, जत्येच्छसि नाउ मुदहि दीवे वा॥ तस्तसिहि एगलतिगो, गुग संखं होइ सवगं ।।११८॥ - अर्थ-(जत्थ) के० जे (उदहि) के समुदने विो (वा) के० अथवा (दीबे ) के० द्वीपने विषे ( गहरिक्वतारसंख) के० ग्रह नक्षत्र अने तारानी संख्याने (नाउं) के० जाणवाने (इच्छसि) के० इच्छा करे छे, तो (तस्ससि हि) के० ते द्वीप समुद्रना चंद्रनी संख्याने मांडीने ( एगससिगो) के० एक चंद्रना ग्रह नक्षत्र अने ताराना परिवार साथे ( गुण ) के० गुणाकार कर-के जेथी ( सव्वग्गं संख हाइ ) के० सर्व संख्या थाय छे. दृष्टांत-जेम लवण समुद्रमा चार चंद्र छे, अने एक एक चंद्रने अट्ठाशी ग्रहनो परिवार होवाथी अठाशीने चार गुणा करतांत्रणसो बार ग्रह थाय. तेवीज रीते अट्ठावीश नक्षत्रने चार गुणा करीये तो एकसो बार नक्षत्र थाय, तथा तारानी संख्या कोडा कोडी जेटली जे प्रथम कंही छे तेने चार गुणी करीये त्यारे बे लाख कोडाकोडी, सडसर हजार कोडाकोडी अने नव सो कोडा कोडी थाय. एवी रीते सर्व हीप समुदने विषे जाणवू. ॥ ११८ ॥ एज वात बे गाथाथी कडे छे. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ चनारि चेव चंदा, चतारि य सूरिया लवणतोए ॥ बारस नक्खत्तसयं, गहाण तिन्नेत्र बावन्ना ॥ ११९ ।। दो चेव सय सहस्सा, सतवी खलु भवे सहसा य ॥ नवयसपा लबणजले, तारागं कोडिकोडीणं ।। १२० ॥ __ अर्थ-( लवणतोए ) के० लवण समुद्रने विषे (चतारि चंदा) के० चार चंद्र, (चत्तारि भूरिया) के० चार सूर्य, ( वारस नक्खतसयं ) के० एकसो वार नक्षत्र, अने ( गहाण तिन्नेव बाना) के० त्रण सो वावन ग्रह ( चेप) के० निश्चे होय छे. ॥ ११९ ॥ ___(य) के० वली ( दो चेव सयसहस्सा) के० बे ला व.( सतही सहरसा ) के० सहसठ हजार अने (नवय सया) के० नव सो ए. ली (ताराणं कोडिकोडीणं ) के० ताराओनी कोडाकोडी (लक्षणजले ) के० लवग समुद्रने विषे ( खलु ) के० निश्चे ( भवे ) के० होय छे. ॥ १२० ॥ ___हवे वैमानिक देवोनां विमाननी संख्या कहे छे. बत्तीस हावांसा, बारस अड चउ विमाण लक्खाई॥ पन्नास चत छ सहस्त, कमेण सोहम्माईसु ॥ १२१ ॥ दुसु सय चउ,दुसु सय तिग,मिगारसहियं सयं तिगेहिष्ठा। मज्झे सतत्तर सय, मुवरितिगे सय मुवरि पंच ॥१२२|| ___अर्थ-सौधम देवलोके (बत्तीस ) के० वत्रीश लाख, ईशान देवलोके ( अट्ठावीसा) के० अठाधीश लाख, सनत्कुमारे (बारस ) के० बार लाख, माहेंद्रे (अड) के० आठ लाख, ब्रह्मदेवलोके (चउ) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ के चार लाख (विवाण) के विमान छे. ए सर्वे (लकवाई ) के० ला वनी संख्याये करोने जाणवा. लांतके ( पन्नास ) के पचास हजार, शुक्र (चत्त ) के० चालीश हजार, सहस्रारे ( छ ) के छ हजार, ए स (सहस्स) के० हजारनी संख्याये जाणवा. ए (कमेण) के० अनुक्रमे करीने ( सोहम्माईसु ) के सौधर्मादिक देवलोकना विमाननी संख्या जागी ॥ १२१ ॥ तथा आना अने प्राणत ए (दुसु ) के० बे लोकने विषे ( सय चउ) के० चार सो विमान, तथा आरण अने अच्युत ए (दुमु) के० वे देवलोकने विष (सयतिग) के० ग सो विमान जाणवा. (निगेहिट्ठा) के नीचेना त्रण गोयके ( इगारसहियं ) के. गोयार सहित ( सयं ) के० सो अथात् एक सो अगियार विमान छे. (मज्झे ) के० वचला त्रण ग्रैवय । (. सत्तुत्तरसयं) के० एक सो सात विमान छे, अने ( उवरितिगे ) के० उपरना त्रण ग्रैश्य के ( सय ) के० एक सो विमान छे. वली ( उवीर ) के० उपरना पांच अनुत्तर श्मिाने (पंच) के० पांच विमान छे. ॥ १२२ ॥ हवे एर्प कहेला विमानोनी सर्व संख्या तथा विमानादिकनुं स्वरूप कहे छे. चुलसीइ लक्ख सत्ताण, वइसहस्सा विमाण तेवीस ॥ सब्बग्गमुट्ठालागंमि, इंदय बिसटि पयरेसु ॥ १२३ ॥ अर्थ-(सबगं ) के० सर्व संख्याये (चुलसीइ लक्ख ) के० चोरासी लाख, ( सत्ताणवइ सहस्सा) के सत्ताणु हजार, अने ( तेवीसं ) के० तेवोश उपर एटला (उठलोगमि ) के० उर्वलोकने विध (विमाण) के० विमानो छे. अने ते बार देवलोकना ( बिसहि Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ पयरेसु) के० बासठे प्रतरने वे मध्य भागमां (इंदय) के० एक एक इंद्रक विमान छे. सब मलीने इंद्रक विमान बासठ छे. ॥ १२३ ॥ चउदिसि चउपंतीआ, बास विमाणया पढनपयरे ॥ उवरि इक्किकहीणा, अगुत्तरे जाव इक्विकं ॥ १२४ ॥ 2 अथ - ( पमपयरे ) के० पहेला प्रतरने बिवे मध्यना इंद्रक विमानयकी ( चउदिसि ) के० चारे दिशाए ( वासवित्रिमाणिया ) के० वास वास विमाननो ( चउत्तीओ) के चार पंक्तिओ छे, तेना ( उवरि ) के उपर दरेक प्रतरे (इकिकहीणा ) के० एक एक विमान चारे दिशाया ओछु कर, जेथी ( अणुत्तरे ) के० अनुत्तर विमाने जाव (इकर्क) के० यावत् एक एक विमान चारे दिशाए रहे ।। १२४ | इंदय वा पंनिसु, तो कमसो तंस चउरसा वट्ट | | विवहा पुककिन्ना, तयंतरे मुलं पुत्रदिसिं ॥ १२५ ॥ 2 अथ - सर्वनौ वचमां (इंदय ) के० इंद्रक विमान (बट्टा) के० वाटलं एले गोलाकृतिवालुं छे. (तो) के० त्यार पछी ( पंतिसु ) ० पंक्ति (मसो) के० अनुक्रमे करीने प्रथम ( स ) के० त्रीखू गावाला, पछा (चउरसा ) के० चार खूणावाला, अने छेला ( बट्टा ) के० गोलाकृतिवाला विमानो छे. अने ( तयंत रे ) के ते चारे पंक्तिओनी वचमां एक ( पुव्वदिसिं सुतुं ) के० पूर्वदिशा मूकीने बाकीनी सर्वदिशामां (विविहा ) के० विविधप्रकारना ( पुन्ना ) ० भिन्न भिन्न पुष्पावकीर्ण विमानो छे. ॥ १२५ ॥ हवे पहेला प्रतरनी एक एक पंक्तिना वासठ बासठ विमान कये कये स्थानके छे ? ते कहे छे. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ एगं देवे दीवे, दुवे य नागोदहीसु बोधव्वे ॥ चत्तारि जक्खदीवे, भूयसमुद्देसु अठेव ॥ १२६ ॥ 40 सोलस सयंभुरमणे, दीवेसु पइठिया य सुरभवगा ॥ इगतीसं च विमाणा, सयंभुरमणे समुद्दे य ॥ १२७ ।।। __ अर्थ-हेला प्रतरनी चारे दिशानुं (एगं ) के० पहेलं एक एक विमान ( देवे दीवे ) के० देवद्वीपमां छे, (य) के० अने (दु.) के बे बे विमान ( नागोदहोसु ) के० नागसमुदमा (वायव्ये) के० जाणवां. त्यार पछानां (चत्तारि)ो चार चार विमान (जनवदी) के० या द्रोपमा छे. अने (भूपसमुदे तु ) के भुतसमुहमा( अठेव ) के० आठ आउ विमानो छे. ॥ १२६ ॥ वली (सयंभुरमगे दीवेसु) के० सयंभूरमग द्वीपने वि। ( सोलस ) के० शोल ( सुरभाणा ) के० विमानो ( पइडिया ) के रह्यां छे (च) के० अने ( इससे विनागा) के एकवी विमानो ( सयंभुरमगे समुद) के • स्वयेभूरमण समुद्रमा छे. ॥ १२७ ॥ ___हवे बीजा प्रतरमा चारे दिशाये एकसठ विमानोनो पंक्ति शी रीते छे, ते कहे छे. वटुं वट्टस्सुवरिं, तंसं तंसस्त उपरि होइ । चउरंसे चउरंस, उद्वं तु विभागसेडीए ॥ १२८॥ अर्थ:-(वस्सुवरिं) के० वाटला एटले गोलपिमाननी उपर (वर्ट) के० गोल विमान छे. ( तंसस्स ) अरिमं) के० त्रण खुणानी उपर ( तंसं ) के० त्रिखूणी विमान (होइ ) के० होय छे. (तु) के० वली (चउरसे ) के० चार खूणा विमाननी उपर Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૯ ( चउरसं ) के० चार खूणां विमान होय छे. एम (उढ ) के० उअर (विमाणठी ) के० विमानोनी पंक्ति जाणवी. सर्वे प्रतरमां मध्यभागे ईक विमान वाटलुं छे. त्यार पछी चारे दिशाएं चारे पंक्ति अनुक्रमे एक एक विमान त्रिखुणावालां. पछी चार खूणांवालां, पछी वाटली एम अनुक्रमे पंक्ति पूरी थाय त्यां सुबी जाrai. दरेक प्रतरे छेनुं एक एक विमान ओछु करवुं जेथी सर्वासिद्धे एक एक विमान त्रिखूं रहे || १२८ ॥ सव्वे विभागा, एगवारा हांति नायव्वा ॥ तिण्ग य तंसत्रिमाणे, चत्तारि य हुति चउरंसे ॥ १२९ ॥ अथः - ( सच्चे वट्टत्रिमाणा ) के० सर्व वाटलां विमानो (एग - दुवारा ) के० एक वारणावालां ( हवंति ) के० होय छे. एम (नायव्त्रा ) के० जाणवां. ( तंसविमाणे ) के० त्रिखूणां विमानने विषे ( तिणिय ) के० त्रण वारणा होय छे: (य) के० अने ( चउरंसे) के० चार खूगा विमानने विषे ( चत्तारि ) के० चार बारणा ( हुँति ) के० होय छे ॥ १२९ ॥ पागारपरिक्खित्ता, वट्टविमाणा हांति सव्वेवि ॥ चउरंस विभागागं, चउद्दिसिं वेइपा होई ॥ १३० ॥ ५०:५ अर्थः - ( सव्देवि ) के० चारे दिशामा रहेला सर्व ( वट्टवि माणा ) के० वाटलi एटले गोलविमानो ( पागार परिक्खिता) के० गडी विटलायला ( हवंति ) के० होय छे. अने ( चउरंस वि माणा ) के० चार खुणावाला रिमानने ( चउद्दिसिं ) के० चारे दिशाए ( वेइया होई ) के० वेदिका होय छे, कांगरा विनाना Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० गढने वेदिका जागवी, अर्थात् वा विमान कांगरावालो गढ अने चोखूणा विमान कांगरा विनानो गढ छे. ॥ १३० ॥ जत्तो वट्टविमाणा, तत्तो तंसस्स वेइया होई || पागारो बोधव्वो, अवसेसेण विमाणाणं ।। १३१ ।। ९ अर्थः- ( जत्तो ) के० जे दिशाए ( वट्टविमाणा ) के० गोल विमानो (तत्तो ) के ते दिवार (सहस ) के० त्रिखूणिया विमानने ( वेइया) के० देदिका एग्ले कांगरा विनानो गढ ( होइ) के० छे, अने ( अवसे ण ) के० वा होनी दिशाये ( विमाणानं ) कं० विमानोने (पागारो ) के० कागरावालो गढ ( बोधव्वो ) के० जाणत्रां. ॥ १३१ ॥ सव्वेसु पयडे, मज्झं वट्टं अगंतरं तसं ॥ तयणंतर चउरंसं, पुणोवि वद्धुं तसं ॥ १३२ ॥ अर्थः- ( सव्वेसु पयडेसु ) के० देवलोकना सर्व एटले बासठे प्रतरोमां (मज्झं ) के० मध्यनुं इंद्रक विमान (बई ) के० गोलाकार छे. अने ( अनंतरं ) के० त्यार पछी चारे दिशाये एक एक विमान (तंसं ) के० त्रण खूणावालुं छे, ( तयणंतरं ) के० त्यार पछी चारे दिशाये एक एक विमान ( चउरंसं ) के० चार खूणा - वालुं छे, एम (पुणोवि ) के० फरीने पण (वट्ट) के० गोलविमान अने (तओ ) के० त्यार पछी (तंसं ) के० त्रण खुणावालुं. एम छेला वासटमा विमान सुधी जाणवु, अने दरेक प्रतरे एक एक विमान ओ कर ।। १३२ ॥ हवे विमानोनुं अंतर कहे छे. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवलियविप्राणाणं, अंतरं नियमसो असंखिज्जं ॥ संखिज्जमसंखिज्ज भणियं पुष्फावकिन्नाणं ॥ १३३ ॥ ____ अर्थ-( आवलियविमाणाणं) के० चारे दिशानी पंक्तिमा रहेला विमानोनुं ( अंतरं ) के० अंतर ( नियमसो) के०) निश्चयथी ( असंखिजं) के० असंख्याता योजन- होय छे. अने (पु. 'फावकिन्नाणं) के० चारे दिशानी वचमा रहेला पुष्पावकीर्ण विमानोर्नु अंतर ( संखिज्जमसंखिज्जं) के० संख्याता अथवा असंख्याता योजनy ( भणियं) के० कयुं छे. ॥ १३३ ॥ हवे विमानोनी आकृति दृष्टांतथी कहे छे. वट्टं तु वलगंपिव, तंसं सिंघाडगंपिव विमागं ॥ चउरंस विमाणं पुण, अरकाडगसंठियं भणियं ॥१३॥ ____ अर्थ-(वढे ) के० जे वाटलां विमान छे ते ( वलगंपिव) के० वलयाकार होय छे, अने ( तंसं विमाणं ) के० त्रिखूणां विमान (सिंघाडगंपिव ) के. सिंघोडाना आकारे होय छे. (पुण) के० वली ( चतुरंस बिमाणं ) के० चोखूणां बिमान ( अखाडगसंठियं ) के० नाटकना अखाडाना आकारे चोखूणा ( भणियं) के० कह्यां छे. ॥ १३४ ॥ हवे निमानोना गंध अने स्पर्श वर्णवे छे. अच्चंतसुरहिगंधा, फासे नवणीयमउयसुहफासा ॥ १२ निच्चुज्जोया रम्मा, संयंपहा ते विरायंति ॥ १३५॥ अर्थ-ते विमान ( अञ्चतसुरहिगंधा ) के० अत्यन्त सुगंध Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला, तेमज ( फासे ) के० स्पसमां (नवणीयमउयसुहफासा) के. माखण सरखा कोमल अने सुखकारी स्पर्शवाला, (निच्चुज्जोया) के० नित्य प्रकाशाला, ( रम्मा ) के० रमणिक अने ( सयंहा ) के० पोतानी मैले प्रकाशीत एवा (ते) के० ते विमानो ( विरायंति ) के० शोभे छे. ॥ १३५ ॥ जे दक्विणेग इंदा, दाहिगओ आवली मुयना ॥ जे पुण उत्तर इंदा,उत्तरओ आवली मुणे तेसिं ॥१३६॥५॥ अर्थ-(जे दक्षिणेण इंदा ) के० जे दक्षिण दिशाए सौधमैंद्र तथा सनत्कुमाद्र छे, तेमना ( दाहिणओ ) के दक्षिण दिशानी ( आवली ) के० पंक्तिमा रहेलां विमानो (मुणेयव्या ) के जाणवां. पुण के० वली (जे उत्तरइंश ) के० जे उत्तरदिशाए इशामें। तथा माहेंद्र छे. (तेसिं ) के० तेमनां ( उत्तरओ ) के० उत्तरदिशानी ( आवली) के० पंक्तिमा रहेलां विमानो ( मुणे ) के० जाणवां ॥ १३६ ॥ पुव्वेण पच्छिमेण य, सामण्णा आवली मुणेयबा ॥ जे पुग वट्टविमाणा, मझिल्ला दाहिणिल्लागं ॥१३७॥" - अर्थ-( पुरेण पच्छिमेण य ) के पूर्व दिशा अने पश्चिम दिशानी ( आवली) के० विमानोनी पंक्ति ते सौधर्मेद तथा ईशानंद्र बन्ने इंद्रोनी ( सामण्णा ) के० साधारण सामान्यपणे जाणवी. (पुण) के० वली जे ( मज्झिल्ला) के० जे मध्यभागना ( वट्टविमाणा) के० वाटलां विमान छे, ते (दाहिगिल्लाग ) के० दक्षिण दिशाना साधभद्रनां जाणवां. ॥ १३७ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुब्वेण पच्छिमेण य, जे वट्टा तेवि दाहिणिलस्स ॥ तंस चउरंसगा पुण, सामन्ना हुंति दुण्हंपि ॥ १३८॥ ५ ___ अर्थ-( पुब्वेण पच्छिमेण य ) के० पूर्वदिशा अने पश्चिमदिशाना किमाननी पंक्तिने विषे (जे वट्टा) के० जे वाटलां विमान छे. ( तेवि) के० ते विमानो पण ( दाहिणिल्लस्स ) के० दक्षिणदिशाना सौधर्मेंद्रनां छे. (पुण ) के० वली तंस के० त्रण खूणवाला अने ( चउरंसगा ) के० चार खूणवाला जे विमान छे. ते (सामन्ना के० सामान्यपणाथी ( दुहपि ) के० सौधर्मेंद्र तथा. ईशानेंद्र ए बन्नेना ( हुंति ) के० छे. एटले बन्ने इंद्रो ते विमानोना अौंअर्द्ध मालीक छे. 1 १३८ ॥ पढमपयरंमि पढमे, कप्पे उडुनाम इंदयविमाणं ॥ पणयाललक्खजोयण, लक्खं सव्वुवरि सबढें ॥१३९॥ अर्थ-(पढमे कप्पे ) के० पहेला देवलोकना ( पढमपयरंमि) के० पहेला प्रनरने विवे ( उडुनाम ) के० उडुनामनुं ( इंदयविमाणं ) के० इंद्रक विमान छे. ते ( पणयाललक्खजोयण) के० मालाकारे पिस्तालीश लाख योजनना प्रमाणवालं छे. अने ( सब्बु रि) के० सर्वना ऊपर वासठमा प्रतरे ( सबढ) के० सर्वार्थसिद्ध नामर्नु विमान ( लक्ख ) के० एक लाख योजन- गोलाकार छे. ॥ १३९॥ हले बासठ प्रतरना मध्यभागमा रहेला इंद्रक विमानना नाम कहे छे. उडु चंद रयण वग्गु, वीरिय वरुणे तहय आणंदे ॥ बंभे कंचग रुइभे, बंबे अरुणे य वरुणे य ॥१४॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ अर्थ-१ (उडु) के० उडु विमान, २ (चंद) चंद्रक विमान, ३ ( रयण) के० रजत विमान, ४ ( वग्गु ) के० वल्गुविमान, ५ (वीरिय) के० वीर्य विमान, ६ (वरुणे ) के० वरुण विमान ( तहेव) के० तेमज, ७ (आणंदे) के० आनन्द विमान, ८ (वभे) के० ब्रह्म विमान, ९ ( कंचण ) के० कांचन विमान, १० (रुइभे) के० रुविषभ विमान, ११ (बी) के मंत्र विमान, १२ ( अरुण य) के० अरुण विमान, १३ (वरुणे य) के० वरुण विमान, ए वेर विमान. ए तेर विमान पहेला तथा बीजा देवलोके छे. ॥१४०॥ वेरुलिय स्यग रुइरे, अंके फलिहे तहेव तवणिज्जे ॥ मेहे अग्ध हलिदे, नलिणे तह लोहियक्खे य ॥१४॥ - अर्थ-१४ (वेरुलिय ) के० वैडुय विमान, १५ ( रुयग ) के० रुचक विमान, १६ ( रुइरे) के० रुचिर विमान, १७ (अंके) के० अंकविमान, १८ ( फलिहे ) के० स्फटिक विमान, (तहेब ) के० तेमज १९ ( तवणिज्जे ) के० तपनीय विमान, २० ( मेहे ) के० मेघविमान २१ ( अग्ध ) के० अर्घ विमान, २२ ( हलिद्दे ) के० हलिद्र विमान, २३ ( नलिणे) के० नलिन विमान, ( तह) के० तेमज २४ ) लोहियकखे य ) के० लोहिताक्ष विमान ॥१४॥ वइरे अंजग वरपाल, रिठ्ठ देवे य सोम मंगलए ॥ बलभद्दे चक्क गया, सोवच्छिय णंदियावते ॥ १४२ ॥ अर्थ-२५ ( वइरे ) के० वज्र. ए बार विमान त्राजे तथा चोथे देवलोके छ ॥२६ ( अंजन ) के० अंजन विमान, २७ ( वरमाल ) के० वरमाल विमान, २८ ( रिठ) के० रिष्ट विमान, २९ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( देवेय ) के० देव विमान, ३० ( सोम ) के० सौम्य विमान, ३१ (मंगलए ) के० मंगल विमान ॥ ए छ विमान पांचमा देवलोक छ. ३२ ( बलभो ) के० बलभद्र विमान, ३३ ( चक्क ) के० नक विमान, ३४ (गमा) के० गग विमान, ३५ ( सोवच्छिय) के० स्वस्तिक विमान, ३६ ( गंदियावत्ते ) नंदावर्त. ए पांच विमान छठा देवलो छे. ॥ १४१ ॥ आभंकरे य गिद्धी, केऊ गरुले य होइ बोधब्बे ॥ बंभे महिए पुण, बंभुत्तर लं.ए देव ॥ १४३ ॥ ___ अर्थ–७ ( आभंकरे ) य. आभंकर विमान. ३८ (गिद्री ) के गृथा विवान, ३९ ( केऊ ) के केतु विमान, ४० (गरले य ) ० गरु सिमान. ए चार विमान सातमा देवलो (होइ ) के० छे ने (वोधब्बे ) के० जाणवा, ४१ ( ब ) के० ब्रम विमान, ४२ (बंभहिए ) के० ब्रह्महित विमान. (पुण) के चली ४३ (बंभुत्तर) के० ब्रह्मोत्तर विमान, ४४ (लंतए) के० ल क बिमान. ए चार विमान आठमा देवलोकना (चेव) के० निश्चे जाणवा. ॥ १४३ ॥ महाक सहरसारे, आणय तह पाण् एय बोधब्धे ॥ पुरोलंकार आर ग, तहाविय अच्चुए चेव ॥ १४४ ॥५ ___ अथ-४५ ( महामुक के महाशुक्र विमान, ४६. ( सहस्सारे) के० सहस्त्रार विमान, ४७ (आणय) के० आनत विमान, ( तह ) के तेमज ४८ ( पाणए य) के० प्राणत विमान, ए चार विमान नवमे तथा दशमे देवलोके ( बोधव्ये ) के० जाणवां. ४९ (पुप्फे ) के० पुप विमान, ५० ( अलंकार ) के० अलकार कि Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान, ५१ ( आरण ) के० आरण विमान, (तहाविय ) के० तेमज ५२ ( अच्चुए ) के० अच्युत विमान. ए चार विमान अगीयारमे तथा बाग्मे देवलोके ( चेव ) के० निश्चे जाणवा ॥ १४४ ॥ सुदंसण सुपडिबद्धे, मणोरमे चेव होइ पढमतिगे ॥ तत्तो य सबभद्दे, विसालए सुप्रणे चेव ॥ १४५ ॥ ___ अर्थ-५३ ( सुदंसणे ) के० सुदर्शन विमान, ५४ ( सुपडिवद्धे ) के० सुप्रतिबद्ध विमान, ५५ (मणोरमे ) के० मनोरम विमान, ए त्रण विमान नव ग्रैवेयकना ( पढमनिगे) के० प्रथम त्रिकने विषे ( चेव ) के० निश्चे ( होइ) के० छे. (तत्तो य ) के० अने त्यार पछी ५६ ( सधभदे ) के० सर्वभद्र, ५७ (विसालए) के० विशाल, ५८ (सुमणे ) के० सुमनस-ए त्रण विमान नव अदेयकना बीजा त्रिकने विषे ( चेव ) के निश्चे छे. ॥ १४५ ॥ सोमणसे पीइकरे, आइवे चेत्र होइ तइयतिगे ॥ सघट्टसिद्धिनामे, दया एव बासट्ठी ॥ १४६ ॥ 1% ___ अर्थ-५९ ( सोमणसे ) के० सोमनस विमान, ६० ( पीइकरे ) क० प्रीतिकर विमान, ६१ ( आइच्चे ) के० आदित्य विमान. ए त्रग विमान नव प्रवेयकना बोजा त्रीकने विषे ( चव ) के० निश्चे ( होइ ) के० छे. अने पांच अनुत्ता विमानने विषे ६२ (मवसिद्धिनामे ) के एक सर्वार्थ सिद्धि नामनुं विमान छे. (इंदया एव बासही)के० ए बासठ इंद्रक विमानना नाम कह्या. १४६ हवे दरेक देवलोके श्रेणीना विमाननी संख्या लाववा माटे उपाय कहे छे. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमंतिमपयरावली, विमागमुहभूमि तस्स गोसद्धं ॥ पयरगुगमिट्ठकप्पे, सबगं पुष्फकनियरे ॥ १४७ ॥१२॥ __ अर्थ-सौधर्म अने ईशान देवलोकना ( पढम ) क. पहेला ( पयरावलो विमाण ) के० प्रतरना विमाननी पंक्ति ते ( मुह ) क० मुख कहेवाय, अने ( अंतिम ) के० छेला प्रतरना श्मिाननी पंक्ति ते (भूति ) का भूमि कहवाय. ( तस्समासद्धं ) क० ते मुब अने भूमिना विमानोने एकठा करोने तेना अर्द्ध करवा. पछो ( इठपयरगुगं) के • वांछि। वलोकना प्रतर गुणवा. तेथो ( कप्पे ) के० वांछित देव ठोके ( पुप्फक नियरे ) के० आवलिकाना विमानोनी (सबग्गं ) के० सर्व संख्या आवे. ॥ १४७॥ . __ अहिं ते ात दृष्टांत सहित समजावे छे के-सौधर्म तथा ईशान, ए बने देवलोकने चित्र पहेला प्रतरना ( २४९ ) विमान ते मुख काय, अने छेल्ला गरमा प्रतरना (२०१) विमान ते भूमि कहेवाय. ए बन्न संख्याने एकठी करी त्यार ( ४५० ) थाय. एनुं अद्धे करी त्यार ( २२५ ) थाय. नेने ए बन्ने देवलोकनाज तेर प्रतरे गुणी त्यारे सौधर्म तथा ईशान देवलोकना विमाननी पक्तिना सर्व विमानोनी संख्या ( २९२५ ) थाय. ___ हवे ए बन्ने देवलोकना सर्व मली साठ लाख विमानो छे, तेमांथी (२९२५) श्रेणीना विमान काढीये त्यारे (५९९७०७५) ए ला पुषाकीणं हिमान बाकी रहे. ए रीते आगलना देवलोक पण जाणी लेवु. ॥ १५० ॥ तेज वात आगली गाथावडे कहे छे. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उर्ध देवलोके विमानोना मुख-भूमि विगेरे गगित- कोष्टक. प्रतर सं कया देवलोके |विमान. विनानसमा समास. समासन अर्ध. (गुणाकार Vथयेलां) पं-1 माटे) प्रतरना ख्याप गुण-पुप्पावकीण सर्व विमान संख्या वाथो लब्ध विमान. क्ति विमान. ૨૨૫ ४५० ૩૫૦ . १७५ २४८ ૧૯૭ १४८ ૧૨૫ २०1 ૧૫૩ ૧૨૯ ૧૦૮ २७८ . ૧૩૯ ૧૧૭ ૧૦૫ ८3 साधर्म-इशान सनत्-माहेन्द्र ब्रह्म लांतक . शुक्र सहस्रार आनत-प्राणत आरण-अच्युत अधः ग्रैवेयक ३ मध्य प्रवेधक ३ उर्ध्व ग्रैधेयक ३ अनुत्तर उर्व देवलोक ૨૩૪ ૧૯૮ १६६ ૧૩૪ ૧૦૨ ७४ ૨૨૫ २१०० ८३४ ૫૮૫ 368 ૩૩૨ २६८ २०४ ૧૧૧ ७५ ૩૯ ५८८७०७१/१०००००० १८८७८०० २०००००० 3८८१६६ ४००००० ४८४१५ ५०००० 3८१०४ ४०००० ५११८ ४०० ३०० ૧૧૧ ૧૦૯ ६१ १०० ૧૩૨ ७३ ૫૭ ४१ ૫૧ ३७ ૨૫ १3 N०7 २४८ ૨૫૪ १२७ ७८७४ ८४८८१४८८४८७०२३/ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठणण्ही सयसहस्सा, सत्ताणवई भवे सहस्साई ॥ पणहत्तरि य विमाणा, हवंति पुप्फावकिण्णाणं ॥१४॥ अर्थ-( अट्टणण्ही सयसहस्सा ) के० ओगणसाठ लाख, ( सत्ताणवई सहस्साई ) के० सत्ताणु हजार, ( य ) के० अने (पणहत्तरि ) के० पंचोत्तर एटला ( पुप्फावकीण्णाणं ) के० पुप्पा कीर्ण ( विमाणा ) के० विमानो (हवंति) के० होय छे. ॥१४॥ तेवण्णे चउवण्णे, पंचावण्णे तहेव बासट्टे ॥ एएसु पयरेसु अ, न हुंति पुप्फावकीण्णाइ॥ १४९. ॥ अर्थ-( तेवण्णे ) के० त्रेपनमुं, ( चउवण्णे ) के० चोपनमु. (पंचावण्णे ) के० पंचावनमुं ( तहेव ) के० तेमज (बासढे ) के० बासठमुं. ( एएसु पयरेसु) के० एटला प्रतरोने विषे (पुप्फावकीण्णाइ ) के० पुष्पावकीर्ण विमानो (न हुँति) के० नथी.॥१४९॥ हवे बासठे प्रतरमांनां कोइपण प्रतरने विष त्रिखूणा चोखूणा : अने वाटला विमाना जाणवाना उपोय कहे छे. इगदिसि पंतिविमाणा, तिविभत्ता तंस चउरंसा वट्टा॥ तंसेसु सेसमेगं, खिव सेस दुगस्स इक्विकं ॥ १५० ॥२ तंसेसु चउरंमेसु य, तो रासितिगंपि चउगुणं काउ ॥ वट्टेसु इंदयं खिव, पयरधणं मीलियं कप्पे ॥ १५१ ॥ ___अर्थ-(इगदिसि पंतिविमाणा) के० एक दिशाना पंक्तिना विमानाने (तिविभत्ता ) के० त्रण भागे वहेंचीये एटले अनुक्रमे (तंस चउरंसा वट्टा) के० त्रिखूणा चारखूणा अने वाटला एवा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० त्रण भाग थाय, अने एम करता (सेसमेगं ) के० जो एक शेप वधे तो ( तसेसु ) के० त्रिखूणामांहे (विव ) के० भेल. अने ( सेसदुगस्स ) के० शेष वे बधे तो ( इक्किकं ) के० एक एक मेलवj. ।। १५० ।। एटले ( तंसेसु य चउरंसेस ) के० एक त्रण खूणाम अने एक चार खूणामां भेलववुं. ( तो ) के० त्यार पछी ( रासितिगंधि) के० ए त्रणे राशोमांहेली एक एक राशाने पण ( चउगुणं काउ ) के० चारगुणा करने पछी (बट्टेसु) केला विमानमit (sai faa ) के० इंद्रक विमान भेलवावु पछी (पयरणं ) के प्रतरना चारे दिशाना विमाना एकठा करवाथी (कप्पे ) ० सौधर्मादिक देवलोके विमानानी सर्व संख्या थाय. १५१ अहिं एज वात दृष्टांत सहित समजाये के के सौधर्म तथा ईशान देवलोकना पहेला प्रतरमां एक दिशाए बासठ विमान छे, तेने त्रण भागे हेंची तो वीश वीशना एक एक भाग थाय. उपर वे विमान बधे. मांहेलं एक विमान त्रिखूणामां अने बीजुं विमान चोखणामां मेलवतां एकara विमान त्रिखूणावाला, एकवीश विमान चोखूणावाला अने वीश विमान वाटला थाय. पछी ए त्रणे राशीना विमानने चारगुणा करीने वाटलामांहे एक इंद्रक विमान मेलवीये एटले पहेला प्रतरनी चारे दिशानो चारे पंक्ति मलीने चोराशी त्रिखूणा, चोराशी चो खूणा अने एकाशी वाटली. एम सर्व मलीने बस ओगणपचास विमान थाय ॥ ए प्रमाणे बीजा प्रतरोने विषे पण जाणी लें. e सौधर्मादिक बार देवलोकना देवोनां चिन्ह कहे छे. कप्पे यमय महिसो, वराह सिंहा य छगल सालूरा | "हय गप भुवंग खग्गी, वसहा विडिमाई चिंधाई ॥१५२॥ 1 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-( कप्पेसु य ) के० बार देवलोक महिला पहेला सौधर्म देवलोकना देवोने ( मिय ) के० मृगर्नु चिन्ह, बीजा ईशान देवलोकना-देवोने (महिसो ) के० पाडानु चिन्ह, बाजा सनत्कुमार देवलोकना देवोने ( वराह ) के० भूअरनु चिन्ह. चोथा माहद्र देवलोकना देवोने ( सिंहा य) के. सिंहर्नु चिन्ह पांचमा ब्रह्म देवलोकना देवोने ( छगल) के० बोकडा, चिन्ह. छटा लांतक देवलोकना देवोने ( सालूरा) के० देडकार्नु चिन्ह, सांतमा शुक्र देवलोकना देवोने ( हय ) के० घाडा, चिन्ह, आठमा सहस्रार देवलोकना देवोने ( गय) के० हाथीनुं चिन्ह, नवमा आनत देवलोकना देवोने ( भुयंग ) के० सर्पचिन्ह दशमो प्राणत देवलोकना देवोने (खग्गी) के० गेंडानुं चिन्ह, अगीयारमा आरण देवलोकना देवोने (वसहा) के० वषभर्नु चिन्ह, अने वारमा अच्युत देवलोकना देवोने ( विडिमाई ) के० मृग विशेषनुं चिन्ह छे. ए ( चिधाइं) के० चिन्हो कह्यां ॥ १५२ ॥ ___ हवे दश वैमानिक इंद्रोना सामानिक देवता तथा आत्मरक्षक देवताओनी संख्या कहे छे. चुलसी असिइ बावत्तरि, सत्तरि सट्ठी य पन चत्ताला॥ 'तुलसुर)तीस वीसा, दससहस्स आयरक्ख चउगुणिया ॥ १५३ ॥ अर्थ-सौधर्मेंद्रना ( चुलसी) के चोराशी हजार, ईशानेद्रना ( असिइ) के० एंशी हजार, सनत्कुमारेंद्रना (बावत्तरि ) के० बहोंतेर हजार, माहेंद्रना ( सत्तरि) के० सीत्तेर हजार, ब्रह्मेदना ( सही य ) के० साठ हजार, लांतकेंद्रना ) पत्र ) के० प Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ चास हजार, शुकना ( चत्ताला ) के० चालीश हजार, सहस्रारेना (तीस) के० त्रीश हजार, आनतप्राणतेंद्रना ( वीसा ) के वीश हजार, आरणअच्युतेंद्रना ( दससहस्स ) के० दश हजार ( तुल्लसुर ) के० सामानिक देवता जाणवा, अने ( आयरक्ख ) to आत्मरक्षक देवो ( चउगुणिया ) के सामानिक देवताथी चार गुणां दरेक इंद्रोने जाणवां ॥ १५३ ॥ उपरना विमाना कोने आधारे रह्यां छे ? ते कहे छे. दुसु तिसु तिसु कप्पेसु, घगुदहि घणवाय तदुभयं सुर भवणपद्वाणं, आगासपट्टिया उवरिं ।। १५४ || चकमा ॥ १२ अर्थ - ( दुसु ) के० पहेला अने वीजा देवलोकने (दहि ) hor आधार छे. (तिसु ) के० त्रीजा चोथा अने पांचमा देवलोकने ( घणवाय) के० घनवातनेो आधार छे, (च) ho वली (तिसु कप्पे ) के० छट्ठा सातमा अने आठमा देवलो - कने (तदुन) के० घनवि अने घनवातने। आधार छे ते (कमा) के० अनुक्रमे जाणवु. ( उवरिं) के० तेना उपर (सुरभणपट्टा ) के० देवलोकने आधार ते ( आगासपइट्टिया ) के० आकाशने आधारे छे. ॥ १५४ ॥ वे विमानाना पृथ्वीपिंडनुं अने विमाननुं उचपणुं त्रण गाथाथी कहे छे. सत्तावीससयाई, पुढवीपिंडो विमाणउच्चत्तं ॥ पंचसया कप्पदुगे, पढमे तत्तो य इक्किकं ।। १५५ ।। १२/ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। हायइ पुढवीसु सयं, वढ्इ भवणेसु दुदुदु कप्पे ॥ चउगे नवगे पणगे, तहेव जा णुत्तरेसु भवे ॥ १५६ ॥ इगवीससया पुढवी, विमाणमिक्का र सेव य सयाई ॥ बत्तीस जोयणसया, मिलिया सवत्थ नायवा ।। १५७॥ अर्थ - ( पढमे ) के० पहेला (कप्पदुगे ) के० वे : देवलोकने विषे ( पुढवीपिंडो ) के० पृथ्वीना पिंडनुं जाडपणं प्रमाणांगुलना प्रमाणी ( सत्तावीससयाइं ) के० सत्तावीस सो योजननुं छे अने ( विमाणउच्चत्तं ) के० विमाननुं उचपणुं ( पंचसया ) के० पांच सो योजननुं छे. (तत्तो य) के० त्यार पछी (पुढवीसु) के० पृथ्वीrishi (इकिकं सयं ) के एक एक सो योजन ॥ १५५ ॥ ( हायइ ) के० ओछा करवा अने ( भवणेसु ) के० विधानने विषे ( बढइ ) के० एक एक सो योजन वधारवा. एबी रीते (दु ) के० त्रीजा ने चोथा देवलोकमां ( ) हे पांचमा अने छडा देवलोकमां (द कप्पे के० सातमा अने आठमां देवलोकमां, ( चउरे) के० नत्रमा दशना अगीयारमा अने वारसा देवलोकम, ( नवगे) के० नवत्रैवेयकमां, ( तहेव ) के ० तेमज (पगो) के० पांच अनुत्तर विमानमा ( जा णुत्तरेसु भ ) के० यावत् वांचमु अनुतर विमान होय त्यां सुधीयां ॥ १५६ ॥ ( इगनीस या ) के० एफसी योजन जाडपणे (पुढवी ) के० पृथ्वीविंड होय अने (मामिकार व य सयाई ३० विमाननुं उंचाणुं अगीवार सायोजन हो. पार पडना अने विमाननां उवणाने (विदेश) के एक दो (सत्य) के० स मत्रीने (वत जीवण सया बाश सो योजन ( नायजा ) के० > जाण ॥ १५७ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ते आ प्रमाणे - पहेला अने बीजा देवलोके पृथ्वीपिंड (२७००) याजन तथा विमान (५००) योजन ॥ त्रीजां अने चोथा देवलोके पृथ्वीपिंड [ २६०० ] योजन तथा विमान ( ६०० ) योजन || पांचमा अने छट्टा देवलोके पृथ्वीपिंड (२५००) योजन तथा विमान [ ७०० ] योजन || सातमा अने आठमा देवलोके पृथ्वीपिंड ( २४०० ) योजन तथा विमान (८०० ) याजन | नवमे दशमे अगियारमे अने बारमे देवलोके पृथ्वीपिंड ( २३०० ) योजन तथा विमान (९०० ) योजन || नव ग्रैवेयके पृथ्वीपिंड (२२००) योजन तथा विमान (१००० ) योजन || पांच अनुत्तर विमाने पृथ्वीपिंड ( २१०० ) योजन तथा विमान (११००) योजन ॥ नेने भेगा करीये त्यारे (३२०० ) योजन थाय ॥ सौधर्मादिक विमानाना वर्ण कहे छे. पण चउति दु वण्णविमाणा, सधय दुसु दुसु य जी सहस्सारो ॥ Jan उवरि सिय भवणवंतर - जोइसियाणं विविहवण्णा ॥ १५८॥ 23 अर्थ - पहेला देवलोकयी ( जा सहस्सारो ) के० आठमा सहबार देवलोक सुधीना ( दुसु दुसु य ) के० बबे बबे देवलोकना ( पण चउतिदुवण्ण विमाणा ) के० अनुक्रमे पांच चार ऋण अने वर्णना विमाना होय छे. तथा ( समय ) के० धजा सहित होय छे. ते आ प्रमाणे- पहेला तथा बीजा देवलोकना विमाना काला नीला राता पिला अने धोला होय छे, त्रीजा तथा चोथा देवलोकना विमाना नीला राता पिला अने धोला मोय छे. पांचमा तथा छठ्ठा देवलोके राता पीला अने धोला होय छे. सातमा तथा आमा देवलोके पीला अने घोला होय छे, उवरि के० तेना उपरना Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमानो (सिय) के० धोला हाय छे. तथा ( भवणवंतर जोइसियाण) के० भवनाति व्यंतर तथा ज्योतसी देवोना निनो (विहवण्णा ) के० विविधवर्णवाला होय छे. ॥१५८॥ ___ हवे दरेक देव लोकना त्रिखूणा चाखूणा अने वाटला विमानानी संख्या कहे छे. पन्नट्ठ अट्ठसीया, दुसत्तरिया य नव नव सयाओ। सोहम्नग इसागे, वट्टा तंसा य चउरंसा ।। १५९ ॥ ५॥ ___ अर्थ-(सोहम्मगइसाणे ) के० सौधर्म अने ईशान देवलोकमां ( वट्टा तंसा य चउरंसा) के० वाटला त्रिखूणा अने चउखूणा-विमानो साथे गणतां (नव नव सयाओ) के० नव सो नव सो उपर (पन्नह)के पांसठ,(अट्ठसीया)के० अट्ठयाशी अने (दुसत्तरिया य) के० बहातेर छे. अर्थात् सौधर्म अने ईशान देवलोकना साथे मली वाटला तिमान ९६५ त्रिखूणा विमान ९८८ अने चउखूण विमान ९७२ छे. ॥१५९ ॥ छच्च सया बाणउया, सत्तसया बारसुत्तरा हंति ॥ छच्च सया छन्नउया, वट्टाइ सगंकुमार माहिंदे ॥१६०॥ अर्थ-(सणंकुमार माहिदे ) के० सनत्कुमार अने :माहेंद्र ए बे देवलोकमां साथे गणतां (छच्च सया बाणउया ) के० छसो अने बाणु वाटला विमान, ( सत्तसया बारसुत्तरा) के० सात सो बार त्रिखूणा विमान अने (छच्च सया छन्नउया) के० छसो छन्नु चउखूणा एम ( वट्टाइ) के० वाटला विगेरेनी संख्या (इंति) के० होय छे. ॥ १६० ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ चोवत्तरि चुलसीया, छमुत्तरया, दुवेदुवीसयाओ ॥ कप्पंमि बंभलाए, वड्डा तंसा य च सा ।। १६१ || अर्थ — बंभलोए कप्पंमि ) के० ब्रह्म देवलोकने विषे ( वट्टा) के० वाटला विमान, (तसा ) के० त्रिखुणा विमान, (य) के ० अने ( चउरंला ) के० चारखूणा विमान ते ( दुवेदुवीसयाओ ) to बसो वसो उपर ( चोत्तरी) के० चुमोतर विमान, (चुलसीया) के० चोराशी विमान, अने [ छसुत्तरया ] के० छोतेर विमान छे. अर्थात् वाटला ( २७४ ) त्रिखूण [ २८४ ] अने चउखुणा [ २७६ ] विमान छे. ॥ १६९ ॥ des चैव सयं, दो चेव सया सयं च बाणउयं ॥ कप्पंमि लंतगंमि, वट्टा तंसा य चउरंसा ।। १६२ ।। ५५६ अर्थ - ( लतगंमि कप्पंमि ) के० लांतक देवलोकने विषे [ तेणउय चैव सयं ] के० एक सो त्राणु विमान [ वट्टा ] के० वाटला, ( दो चैव सया ) के० बसो विमान (तंसा ) के० त्रि'खुणा, अने [सयं च चाणजयं] क० एकसो वाणु विमान [चउरंसा ] के० चोखुणा अनुक्रमे जाणवा ॥ १६२ ॥ अट्ठावीसं च सयं, छत्तीससयं सयं च बत्तीसं ॥ कमि महासु, वट्टा तसा य चउरंसा ॥ १६३ ॥ ४९ अर्थ - ( महामुके कमि) के० शुक्र देवलोकने विषे (अट्ठावीसं च स ) के० एकसो अट्ठावीश ( वट्टा ) के० वाटला Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमान, ( छत्तीस सयं ) के. एक सो छत्रीश ( तंसा ) के० त्रिखुणा विमान (च) के० अने ( सयं च बत्तीसं ) के० एक सो बत्रीस (चउरंसा) के० चोखुणा विमान छे.॥ १६३ ॥ अट्टत्तरसय सोडस-सय पुण अठ्ठत्तरं सयं पुण्णं ॥ कमि सहस्सारे, वट्टा तंसा य चउरंसा ।। १६४ ॥ ५०५ ___ अर्थ-( सहस्सारे कप्पमि ) के० सहस्रार देवलोकने विषे ( अत्तर सय ) के० एकसो आठ ( वट्टा ) के० वाटला विमान, (सोडस सय ) के० एकसो सोल (तंसा) के० त्रिखूणा हिमान अने (पुण ) के० वली ( अतरं सयं पुण्णं ) के० बरोबर एकसो आठ विमान ( चउरंसा ) के० चोखूगा जाणवा. ॥ १६४ ॥ अडसीइ बाणउई, अट्ठालीइ य होइ बोधवा ॥ आणयपाणयकप्पे, वट्टा तंसा य चउरंसा ॥ १६५ ॥५४५ ___ अर्थ-( आणयपाणयकप्पे ) के० आनत अने प्राणत देवलोकमां ( अडसीइ) के० अठयासी ) वट्टा ) के० वाटला विमान, (बाणई ) के० बाणुं ( तंसा ) के० त्रिखूगा विमान, (य ) के० अने ( अठासीइ ) के अठयाशी ( चउरंसा) के चोखूणा विमान ( होइ ) के० छे ते ( बोधवा ) के० जाणवा ॥ १६५ ॥ चउसठ्ठी बावत्तरि, अडसही चेव होइ नायब्बा ॥ आरण अनुयं कप्पे, वट्टा तंसा य चउरंसा ॥ १६६ ॥५.५ अर्थ-( आरणअच्चुय कप्पे ) के० आरण अने अच्युत देवलोकमां ( चउसठी ) के० चोसठ ( वट्टा ) के० वाटला क्मिान, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ( वावत्तरि ) के० बहतर ( तंसा ) के० त्रिखूगा विमान, य के० अने ( अडसठ्ठी ) के० अडसठ ( चउरंसा ) के० चोणा विशन (चैत्र) के० निश्चे ( होइ) के छे ते (नायब्बा) के ० जाणवा ॥ १६६ ॥ ७ पणतीसा चत्ताला छत्तीसा हेमिंमि विज्जे || तेवीसा अट्ठासा, चोवीसा चेव मझिए || १६७॥ 4145 अर्थ - ( हेहिमंमि गेविज्जे) के० नीचेना त्रण कम ( पणतीसा ) के० पांत्रीश वाटला विमान, ( चत्ताला ) के० चालीश त्रिणा विमान, अने ( छत्तीसा ) के० छत्रीश चोखूगा विमान छे. तथा ( मज्झिमए) के० मध्यना त्रण ग्रैवेयकमां (ते सा के० वी वाटला विमान, (अट्ठाविसा) के० अय्यानाश त्रिग्वूणा विमान, अने ( चोवीसा ) के० चोवीश चो वृणा विमान (चेव ) के० निश्च छे. ॥ ९६७ ॥ इकारस सोलस बार - सेव गेविज्जे उवरि हुति || एकं वङ्कं तंसा, चउरो य अगुतरविमा || १६८ ॥ ५८ अर्थ – ( उवरिमे गेविज्जे ) के० उपरना त्रण ग्रैवेयके ( इकारस ) के० अगीयार वाटला विमान, ( सोलस ) के० सोल त्रिसूणा विमान अने (बारसेव) के० बार चोखणा विमान (हुति ) के० छे. तथा ( अणुत्तर विमाणे ) के० पांच अनुत्तर विमानने विषे ( एकं व ) के० एक वाटलं विमान (य) के० अने ( चउरो सा) के चार त्रिखूणा विमान छे. ॥। १६८ ।। पणवीसा वासीया, छवीसं चेव अट्ठवीया य ॥ छबीसं चउराहिया, वट्टाईयाण सवगं ।। १६९ ।। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-( पणवीसा घासाया ) के० पच्चीस सो अने ब्यासी वाटला विमान, (छविसं अट्ठसीया य) के. छवीश सो अने अठयाशी त्रिखूगा विमान, तथा (छबीसं चउरहिया) के. छवीश सो अने चार अधिक चोखणा विमान, ए उर्द्ध लोकमां (वट्टाईयाण ) के० वाटला विगेरे विमानानी ( सबग्गं) के० सर्व एकठी संख्या कही. ॥ १६९ ॥ हवे दरेक देवलोके त्रणे जातिना विमानानी सर्व संख्या कहे छे. सत्त सय सत्तवीसा, चत्तारि सया यहुति चउणउया॥ चत्तारिसय छासिया, सोहम्मे हुँति वट्टाई ॥ १७० ॥५८५ ___ अर्थ-( सोहम्मे ) के० सौधर्म देवलोके ( सत्त सय सत्तवीसा ) के० सात सा सत्तावीस विमान वाटलां (य ) के० अने ( चत्तारिसया चउणउया) के चार सो चोराणु विमान त्रिखूणावाला (हुति ) के० होय छे. वली (चत्तारि सय छासिया) के० चार सो छयासी विमान चोखूणावाला. एम ( वट्टाई ) के० वाटला विगेरे सर्वे मलीने सत्तर सो सात विमान चार पंक्तिना (हुति ) के० छे. ॥ १७० ॥ इगतोस सय सहस्सा, अट्ठागई मवे सहस्सा य ॥ दोयसया तेणउया, सोहम्मे पुप्फकिन्नाणं ॥ १७१ ॥४॥ __ अर्थ-( इगतीस सय सहस्सा) के० एकत्रीस लाख (अट्ठागउइ सहस्सा) के० अठाणुं हजार (दोयसया) के० वसो अने तेणउया) के. वाणु अधिक एटला ( सोहम्मे ) के० सौधर्म Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० देवलोकने विवे ( पुष्फकिन्नाणं) के० पुष्पाक्की गे निमानी छ. ए सर्वे मली बत्रीश लाख विमान सोंधर्म देवलोकमां जागवां ॥१७॥ एमेवय ईसाणे, नवरं वट्टाग होइ नाणत्तं ॥ दो सय अठ्ठत्तोसा, सेसा जहचेव सोहम्मे ॥१७२॥५ अर्थ-( ईसाणे ) के० ईशान देवलोकने विवे ( एमेश्य ) के एज प्रमाणे एटले सौधर्म देवलोकनी पेठे जाणवू, परंतु (नवरं) के० एटलं विशेष छे के-( वट्टाग) के० वारला विमाननी ( दो सय अढतीसा) के० बेसो आडत्रीश ( 'नाणत्तं होइ) के० ए जुदा प्रकारनी संख्या छे. ( सेसा ) के० बाकीना विमानानी संख्या (जहचेव सोहम्मे ) के० जेम सौधर्म देवलोकमां कही छे नेम जाणवी ॥ १७२ ॥ सत्तरसप्तया सत्तु-त्तरा य साहम्मि आवलिविपाणा॥ बारस अट्ठारहिया, ईसाणे आवलि विवाणा ॥१७३।५।। ___ अर्थ-(सोहम्मि ) के० सौधर्म देवलोकने विवे चारे दिशाना सब मलीने ( सत्तरससया सतुतरा य ) के० सत्तर सो अने सात ( आवलि विमाणा ) के० पंक्तिमा रहेलां विमानो छे. अने ( ईसाणे ) के० ईशान देवलोकने विषे चारे दिशाना चार पंक्तिना मलीने ( वारस अट्ठारहिया) के० बार सो अने अढार अधिक ( आवलि विमाणा ) के० पंक्तिमा रहेलां विमानो छ । ३७३ ॥ सत्तावीसं लक्खा, अठाणउइ भवे सहस्सा य ॥ सत्तसया बासीया, ईसागे पुष्फकिन्नाणं ॥ १७४।०५८ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-( सत्तावीस लक्खा ) के० सत्यावीश लाख, ( अट्ठाणउइ सहस्सा य ) के० अठाणुं हजार अने उपर ( सत्तसया बासीया ) के० सातसो ने ब्याशी एटलां (पुष्फकिनाणं) के० पुष्पावकीर्ण विमानो (ईसाणे) के० ईशान देवलोके छे. ॥ १७४ ॥ पंचसया बावीसा, तिन्नेव सया उ हुँति छप्पना ॥ तिनि सया अडयाला, सगंकुमारस्स बट्टाई ॥१७५॥ __अर्थ-(पंचसया बावीसा ) के० पांच सो बावीश वाटलां विमान, (तिन्नेव सया छप्पन्ना) के० त्रण सो छप्पन्न त्रिपूणा विमान, अने (तिनिसया अडयाला ) के० त्रग सो अडतालीश चोखू गा विमान, ए ( सणंकुमारस्स ) के० सनकुमार देवलोकना (वट्टाई) के० वाटला विगेरे विमानो (हुंति) के० होय छे. ॥१७५।। सत्तरिमयमणूगं, तिन्नेव सया हांति छप्पन्ना ॥ तिनि सया अडयाला, वट्टाइ महिंद सगस्स ॥१७६॥ ____ अर्थ- सत्तरिसयमगूणं ) के० पुरेपुरा एक सो सीत्तेर वाटला विमान, (तिन्नव सया छप्पन्ना) के० त्रण सो छप्पन त्रिखूणा रिमान, (तिनि सया अडयाला ) के० त्रण सो अडतालीस चोखूणा विमान ए प्रमाणे (महिंदसग्गस्स) के० माहेंद्र देवलोकना (बट्टाइ ) के० वाटला विगेरे विमानो ( हवंति ) के० होय छे. ॥ १७६ ॥ बारसया छञ्चीसा, कप्पंत्रि सगंकुशार आलिया। अहलया चोवत्तर, विमाण माहिद आवलि। ॥१७७॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अर्थ - ( सणकुमार कष्पंमि ) के० सनत्कुमार देवलोकमां (आलिया) के० पंक्तिमा रहेला सर्वे विमानो (बारसया छब्बीसा) के० ६० बार सो अने छत्रीस छे, अने ( माहिंद ) के० माहेंद्र देवलो - कमां ( आवलिया ) के० पंक्तिमा रहेला सर्वे ( विमाण) के० विमानो (असया चोत्तर) के० आठ सो अने चुमोतेर छे. ॥ १७७॥ एक्कारस लक्खाई, अट्ठाणउई भवे सहस्सा य ॥ सत्ता वित्तरां पुष्फावकिन्नाणं ।। १७८ ॥ Vifo अर्थ - ( एकारस लवखाई ) के० अगीयार लाख, ( अट्ठाणउई सहस्सा य) के० अठाणु हजार ( भवे ) के० होय. वली ते उपर ( सत्तसया चोवत्तर ) के० सात सो चुमोतेर अधिक एटला ( पुप्फावकिन्नाणं ) के० पुष्पावकीर्ण विमानो सनत्कुमार देवलोकमी (हवंति ) के० होय छे. ॥ १७८ ॥ सत्तेव सयसहस्सा, नवनवई खलु भवे सहस्साई || सयमेगं छवीसं, हांति पुप्फावकिन्नाणं ।। १७९ ।। महिंद ५० अर्थ — ( सत्तेव सयसहस्सा ) के० सात लाख, ( नवनवई ) के० नवाणुं हजार ( भवे ) के० होय, वली ( सयमेगं छब्बीसं ) के० एक सो छवीस उपर एटला (पुप्फावकिन्नाणं ) के० पुष्पावकीर्ण मानो महेंद्र देवलोकमां ( हवंति ) के० होय छे. ॥१७९॥ वे सौधर्मादिक विमाननुं लांबणु, पहोलपं, तथा दिमा aat अंदरनो परिधि अने बहारनो परिधि मापवानो उपाय कहेले. रविणो उदयत्थंतर, चउणवइ सहस्स छवीसा ॥ वायाल सठ्ठि भागा, कक्कड संकंति दियहमि ||१०|| B४-BY 23 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-( रविणो) के० सूर्यना (उदयत्थंतर ) के० उदय अने अस्तना क्षेत्रनुं अंतर ( चउणवइ सहस्स ) के० चोराणु हजार (पणसय ) के० पांच सो अने ( छत्रीसा ) के० छवीश योजन तथा ( वायाल सहि भागा ) के० एक योजनना साठ भाग करीये तेवा बेतालीश भाग एटलं ( कक्कडसंकंति दियहमि ) के० कर्क संक्रांतिना पहला दिवसने विषे सूर्य चाले छे. ॥ १८० ॥ एयंमि पुणो गुगए,ति पंच सग नवहि होइ कममाणं ॥ तिगुणमि य दोलक्खा,तेसीइ सहस्स पंच सया॥१८॥१ अर्थ-(पुगो ) के० वली ( एयंमि ) के० ए पूर्व कहेला उदय अस्तना आरना योजनने (ति पंच सग नवहि) के० त्रण पांच सात अने नाथी (गुणए) के० गुणीये अर्थात् उदय अस्तना अंतरने त्रण गुणा, पांच गुणा सात गुणा अने नव गुणा योजन करीये त्यारे ( कममाणं) के० अनुक्रमे जे प्रमागे (होइ ) के० याय छे. ते कहे छे. ज्यारे ( तिगुणमि य ) के० त्रणगणुं करीये त्यारे (दोलकवा के बे --7, (तेसोइ सहम्स) के० व्यासी हजार, (पंच) सया) के० पांच सो तथा-॥ १८१ ॥ अपिर छसट्ठि भागा, जोयग चउलक्ख विपत्तरि सहस्सा ॥ छच्च सया तेत्तीसा, तीस कला पंचगुणियंमि ॥१८२|| -( असिई ) के० एंशी योजन. अने ( छसढि भागा) के० साठीया छ भाग थाय, तथा ( पंचगुणियमि) के० पांच गुणा करिये त्यारे ( चउलक्ख ) के० चार लाख, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ( बिसरि सहस्सा ) के० एक योजनना साठीया त्रीस भाग उपर थाय ।। १८२ ॥ सत्तगुणे छलक्खा, इगसडि सहस्स छसय छातीया ॥ चउपन्नकला तह नव, गुणंमि अडलक्ख सढाओ।॥१८३॥ ० अर्थ - ( सत्तगुणे ) के अंतर प्रमाणने सात गणुं करतां ( छलक्खा ) के० छे लाख, ( इगसट्ठि सहस्स ) के० एकसठ हजार अने (छसय ) छासीया) के० छ सो ने छयासी योजन तथा ( चउपन्नकला ) के० एक योजनना साठीया चोपन भाग थाय. ( तह ) के० तेमज ( नव गुणंमि ) के० अंतर प्रमाणने नव गणुं करोये त्यारे ( अडलक्ख सढाओ ) के० साडा आठ लाख, तथा ॥ १८३ ॥ सत्तसया चत्ताला अट्ठारस कला य इय कमा चउरो ॥ चंडा चवला जयणा, वेगा य तहा गई चउरो || १८४ ॥ १३ अर्थ - - ( सत्तसया चत्ताला ) के० सातसो चालीश योजन अने ( अट्ठारस कला य) के० एक थोजनना साठीया अढार भाग. ( इय) के० ए प्रमाणे (कमा) के० चालवानी गतिनो क्रम ( चउरो ) के० चार प्रकारनो छे. कारण के - ( चंडा चवला जयणा ) के० चंडा चवला यवना ( तहाय ) के० अने तेमज (वेगा ) के० वेगा ए नामनी ( गई चउरो ) के० चार गति छे. ए चारे गति एक एकथी वधारे उतावली छे ॥ १८४ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थ य गई चाथि, जयणयरिं नाम केइ मन्नंति ॥ एहिं कमेहि मिमाहिं,गइहिं चउरो सुरा कमसे॥१८५॥ ... अर्थ-( इत्थ य ) के० अहिं (केइ ) के० कोइक ‘आचार्य ( चउत्थि मई ) के० चौथी देगा गतिने ( जयणयरिं नाम) के० यवनांतरा ए नामथी ( मन्नंति ) के० माने छे. ( एहिं को हिं ) के० ए पूर्वोक्त क्रमे करीने (चउरो सुरा) के० चार देवता (इमाहिं) गईहिं ) के० ए चंडादिक चार गतिये करीने ( कमसो ) के० अनुक्रमे विमानोने मापे, ते एवी रोते के-॥ १८५ ॥ विक्खंभं आयामं, परिहिं अप्मितरं च बाहिरियं ॥ जुग मिणंति छम्मास, जाव न लहंति ते पारं ॥१८६॥ ___ अर्थ-कोइ एक देवता त्रणगुणी चंडा गतिये की विमानना (विखंभं ) के० पहोलपणने माऐ. बीजो देवता पांच गुणी चपला गतिये करी विमानना ( आयाम ) के० लांबपणाने मापे. त्रीजो देवता सातगुणी यवनागतिये करी विमाननी ( अभितरं परिहिं) के० मांहेली परिधिने मापे. अने चोथो देवता नवगुणी ( वेगागतिये ) करीने विमाननी (बाहिरियं ) के बहारनी परिधिने माऐ. एम ए चारे देवताओ ( जाव ) के० यावत् (छमास ) के० छमाससुधी ( जुगवं ) के० एकी साथे ( मिणंति ) के० विमानने मापे, तो पण ( ते ) के० ते देवता केटलाक विमानाना (पारं ) के० पारने ( न लहंति ) के० न पामे. ॥ १८६ ।। जोयणलक्खपमागं, निमेसमित्तेण जाई जो देवो । छम्मासेण य गमगं, एवं रज्जं जिणा विति ॥१८७॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(जो देवो ) के० जे कोइ देवता (निमेसमित्तेण ) के. एक निमेष मात्रे करीने ('जोयण लक्खपमाणं ) के० एक लाख योजन प्रमाण ( जाई ) के० चाले तो ( छम्मासेण य गमणं ) के छमास सुधी चालतां जे प्रमाण थाय ( एवं ) के० ए प्रमाणने ( रज) के एक राज प्रमाण कहेवाय, एम (जिगा विति ) के० जिनेश्वरो कहे छे. ॥ १८७ ॥ पाति विभागाणं, कसिपि हु अहव तिगुणियाईए ।। कम चउगे पत्तेयं, चंडाई गई उ जोइ ज्जा ॥ १८८ ।। तिगुणेण कप्प चउगे,पंचगुणेणं तु अट्ठसु मुगिज्जा ।। गेविज्जे सत्तगुणेण, नवगुणेगुत्तरचउक्के ॥ १८९ ॥ ५-६ ___अर्थ-( अहव) के० अथवा (केसिपि विमाणाणं) के० कटलाक विमानोंना ( तिगुणियाईए) के त्रिगुणादिक गतिवडे पारने ( पावंति ) के० पामे छे. ते एवी रीते के ( कम चउगे ) के० त्रिगुणादि चार क्रमने विवे (पत्तेयं) के दरेक प्रत्ये (चंडाइ गइउ)के० (चंडादिक गति जोइज्जा) के० जोडवी.ते एवा गते के-कोइ देवता (कपचउमे) के० पहेला चार देवलोकमां (तिगुणेण) के० त्रिगुणी एवी चंडा चाला यवना अने वेगवती गतिवडे विमाननी पहोलाइ लंबाइ अभ्यंतसरिधि अने वाह्य परिधिने मापे तो पार पामे. बाकीना ( अट्ठ) के० उपरना आठ देवलोकने विवे (पंचगुगेगं) के० पांचगुणा चंडादिक गति वडे विमानोनी पहोलाइ विगेरेने मापे ता पार पामे. एम ( मुणिज्जा ) के० जाणवु. ( गेविजे ) के० नव ग्रैयकने विषे सात गुणी चंडादिक चारे गति वडे विमाननी पहोलाइ विगेरेने मापे अने ( अणुत्तरचउके ) के० सवार्थ सिद्ध विमान विना वाकीना चार विमा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ ननी पहोलाइ विगेरेने ( नवगुण) के० नवगुणी चंडादिक गतिथी मापे तो पार पाभे ॥ ८८ ॥ १८९ ॥ पणयालीसं लक्खा, सीमंतय माणुसं उडु सि च ॥ अपइठाणो सबट्ट, जंबुद्दीवा इमं लक्खं ॥ १९० ॥ ____ अर्थ-(सी तय ) के० सीमंत नामनो नरकावास, माणुस के० मनुष्यक्षेत्र, उडु के० उडु नाम, विमान, च के० अने सिवं के० सिद्धशिला ए चार पदार्थों प्रत्येक (पणयालीसं लकवा) के० पीस्तालीश लाख योजनना प्रमाणवाला छे, तथा (अपइटाणो) के० सातमा नरकना अपइट्ठाण नरकावास, (सबह ) के० सर्वार्थ सिद्ध विमान अने ( जंबुद्दीवा) के० जंबुद्धाप ( इमं ) के० ए त्रण पदार्थों प्रत्येक ( लक्खं ) के० एक लाख योजनना छे. ॥ १९० ॥ अह भागा सग पुढविसु, रज्जु इकिक तहय सेोहम्मे ।। माहिद लंत सहसार-अच्चुय गेविज्ज लागते ।।१९१।। ___ अर्थ-मेरुना मध्य भागे रहेला रुचक प्रदेशथकी ( अह ) के. नीचे ( पुढविसु ) के० पृथ्वीने विषे [ भागा सग ] के० सात भाग करीये तो [ रज्जु इकिक ] के० एक एक भागना एक एक राज प्रमाण थाय छे. [ तहय ] के० तेमज (सोहम्मे ) के० सौधर्म देवलोक, ( माहिद ) के० ( माहेंद्र देवलोक, ( लंत ) के० लांतक देवलोक, ( सहसार ) के० सहबार देवलोक, ( अच्चुय ) के० अच्युत देवलोक, (गेविज ) के नव ग्रैवेयक अने (लागते ) के० लोकांतने विषे एम अनुक्रमे साते राजलोक जाणवा. नीचेना अने उपरना मली चौद राजलोक थाय ॥ १९१॥ वइसाहठाणठियपय-कडिस्थकरजुग नरागिई लोगो॥ उप्पत्तिनासावगुण-धम्मादिछदवपडिपुण्णा ॥१९२।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अर्थ-(वइसाहठागठियपय) के बे पग पहोला करोने उभेला, [कडित्यकरजुग ] के० केड उअर के हाथ मूकेला रवा (नरागिई ) के० पुरुषनी आकृति समान ( लोगो ) के० चउद राजलोक छे. ते (उत्पत्तिनासधुवगुण) के० उत्पत्ति नाश अने ध्रुव ए गुणोथी तथा [धम्मादिछदछ ) के० धर्मास्तिकायादि छ द्रव्योथी ( पडिपुण्णो) के० भरपूर भरेलो छे. ॥ १९२ ॥ केणविन कओन धओ,गाहारोगहडिओ सतिद्वो॥ अहमुहमहमलगठिआ, लहुमल गसंपुडसरिखा ॥१९॥ ___ अर्थ-चली (कणवि न कओ ) के० कोइथी नहिं करायेलो, न (धओ) के० कोइथी नहिं धारण करायेलो, (अणाहारो) के. आधार विनाना, (णहठिओ के० आकाशमां रहेलो, (सयंसिद्धो) के० पोतानी मेलेज सिद्ध अने ( अहमुहमल्लगठिओ ) के० नीचा मुखवाला मोटा सराव सरखी आकृतिवालो तथा उपर (लहुमल्लगसंपुडसरिखो ) के० नाना सराव संपुट सरखो चौदराज लोक छे. ॥ १९३ ॥ . पयतलि सग मज्झेगो, पण कुष्परि सिरतलेगरज्जु पिहु।। सो चउदसरज्जुच्चो,माघवइतलाओ जा सिद्धि ।।१९४।। ____ अर्थ-(पयतलि) के. लोकना पगतलियानी नीचे अर्थात् सातमी नरक नीचे (सग) के० सात राज प्रमाण पहोलो (मज्झेगो के० मध्य भागे एक राज पहोळो, (कुप्परि ) के० कोणीना भागने विषे [पण ] के० पांच राज प्रमाण पहोलो, अने (सिरतलेगरज्जु ) के० मस्तकने विवे एकराज ( पिहु ) के० पहोलो, (सो) के० ते राजलोक (चउदस रज्जुच्चो ) के० चउद राजलोग उंची Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ छे. अने ते उंचाइ (माघवइतलाओ ) के० सातमी नरक पृथ्वीना लियाथी ( जा सिद्धि) के० सिद्धशीला सुधी जाणवी ॥ १९४॥ सगवण्ण रेह तिरियं, उवं पुण पंच रज्जु चउअंसे || इमरज्जु वित्रायय, चउदसरज्जुच्च तसनाडी || १९५॥ अर्थ - ( सगवण्ण रेह ) के० सत्तावन रेखा ( तिरियं ) के० तिछीं एटले आडी लखत्री ( पुणे ) के० अने (पंच) के० पांच रेखा (उच्च) के० उभी लखवी, तथा ( रज्जु ) के० एक राजना ( चउसे ) के० पा पा भागना चार विभाग एटले खांडवा करवा, चउरानी ( तस नाडी ) के० त्रनाडो एटले मध्यनाडी ( इगरज्जु वित्थरायय) के० एकराज लांबी पहोली छे. अने ( चउदस रज्जुच्च ) के० चउदराज प्रमाण उंची छे. ॥ तात्पर्य एछे के सत्तावन रेखा तिच्छीं करवी अने पांच रेखा उभी करी, एटले सत्तावन रेखाना चउदरोजना छप्पन्न खांडवा थाय, अने पांच रेखानी एक राज पहोली त्रसनाडी छे. तेना पा पा भाग करता चार खांडवा थाय, तेमज उचाइमां पण एक राजना चार खांडवाना प्रमाणे चउदराजना छप्पन्न खांडवा थाय. १९५ ये चउद राजलोकना खांडवा कहेवानी इच्छाथी प्रथम ऊर्ध्व लोकना सात राजना खांडवा कहे छे. उढे तिरियं चउरो, दुसु च्छ दुसु अट्ठ दस य इक्किके || वारस दोस सोलस, दोसु वीसा य चउसु पुणे। ॥। १९६ ॥ अर्थ - ( उढे ) के० अरना तीच्छ लोकने विषे वे पंक्तिमां ( तिरियं ) के० तीच्छ चउरो के चार खांडवां छे. तेनी उपर ० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ( दुसु ) क० वे पंक्तिमां (च्छ ) के० छ खांडवां छे, तेनी अर (दुसु ) के० बे पंक्ति मांहेली ( इक्किके ) के० एक पंक्तिमां [अट्ठ] के० आठ खांडवा छे अने बीजामां (दस य ) के० दश खांडवा छे. तेना उपरनी (दो) के० वे पंक्तिमा ( वारस ) के० बार बार खांडवा छे. तेनी उपर (दासु ) के वे पंक्तिमा ( सोलस ) के० शोल शोल खांडवा छे, (पुणो ) के० वली तेनी उपर (च) के० चार पं. मां ( वीसा य ) के० वाश वीश खांडवा छे, तेनी समजुती आ प्रमाणे छे के ताच्छ सत्तावन रेखा मांहेली ओगणत्रीशमी रेखाथी उपरना सात राजलोक शरु थाय छे, अने चउदराज लोकमां पापा राजनो एक एक खांडवो करेलो होवाथी एक राजना चार खांडवा थाय छे. एवा चउदे राज लोकना उपरा उपरी छप्पन्न खांडवा थाय छे, तेमां ओगणत्रीशमी रेखानी उपर पंक्ति विषे नाडीमांज चार चार खांडवा छे. पण बाहेर एके खांडवो नथी. ते उपर वे पंक्तिने विषे छ छ खांडवा छे तेमां चार चार त्रस नाडीमां छे अने एक एक खांडवो सनाडीनी बहार बन्ने बाजुए छे, तेनी उपर एक पंक्तिने विषे आठ खांडवा छे, तेमां चार खांडवा त्रसनाडीमां छे अने बजे खांडवा त्रसनाडीनी बहार वन्ने बाजुए छे, तेनी उपर एक पंक्तिने विषे दश खांडवा छे, मां चारा खांडवा सनाडीमां अने त्रण त्रण खांडवा त्रसनाडीथी बहार बन्ने बाजुए छे. तेनी उपर वे पंक्तिने विवे बार बार खांडवा छे, तेमां चार खांडवा त्रसनाडीमां अने चार चार खांडवा त्रसनाडीनी बहार बन्ने बाजुए छे, तेनी उपर वे पंक्तिने विषे शोल शोल खांडवा छे, मां चार चार त्रसनाडीमां अने छ छ खांडवा नाडीनी बहार बन्ने बाजुए छे, तेनी उपर चार पंक्तिने विषे ata वीस खांडवा छे, तेमां चार चार त्रसनाडीमां अने आठ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ आठ खांडवा त्रसनाडीनी बहार बन्ने बाजुए छे. ॥ १९६ ॥ पुणरवि दोसु सालप्त,बारस दोसु य तिसु दस तिसुट्ठ॥ छ दुसु दुसु चउ खंड्य,सवे चउरुत्तरा तिसया॥१९॥ __अर्थ --( पुगरवि ) के० वली पण उपरनी (दोसु ) के० वे पंक्तिो विष ( सोलस ) के शोल खांडवा छे, तेनी उपरनी (दासु) के० बे पंक्तिने विवे ( वारस) के० बार खांडवा छे. ( य ) के० अने तेनी उपर ( तिसु ) के० त्रण पंक्तिने विषे ( दस ) के० दश खांडवा छे, अने तेनी उपर (तिसु) के० त्रण पंक्तिने विषे [अट्ट] के० आठ खांडवा छे. तेनी उपर (दुसु) के वे पंक्तिने विष (छ) के० छ खांडवा छे अने तेनी उपर ( दुसु) के० बे पंक्तिने विषे (च) के० चार खांडवा छे, ( सो) के० सर्व मली (चलरुत्तरा तिसया ) के० त्रण सो चार (खडया) के० खांडवा थाय छे, तेनी समजुती र छे के-पूर्वनी गाथामां वीश खांडवानी चार पंक्ति कही गयां छे तेनी उपर बे पंक्तिने विषे शोल शोल खांडवा छे, तेमां चार चार खांडवा त्रसनाडीमां अने छ छ खांडवा त्रसनाडीनी वहार बन्ने वाजुए छे. तेनी उपर बे पंक्तिने विषे बार वार खांडवा छे, तेमां चार चार खांडवा त्रसनाडीमां अने चार चार खांडवा सनाडीनी बहार बन्ने बाजुए छे, तेनी उपर त्रग पंक्तिने विषे दश दश खांडवा छे. तेमां चार चार खांडवा त्रसनाडीमां छे, अने त्रण त्रग खांडवा त्रसनाडीनी बहार बन्ने वाजुर छे, तेनी उपर त्रण पंक्तिने विषे आठ आठ खांडवा छे, तेमां चार खांडवा सनाडीमां छे, अने वे बे खांडवा त्रसनाडीनी बहार बन्ने बाजुए छे, तेनी उपर बे पंक्तिने विषे छ छ खांडवा छे, तेमां चार चार खांडवा त्रसनाडीमा छे अने Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक एक खांडयो सनाडीना बहार वन्ने बाजुए छे, तेनी उपर बे पंक्तिने विवे चार चार खांडवा छे ते चारे त्रसनाडोमांज छे, एम उर्व लोकने विषे सात राज प्रमाणमां सर्व मलाने त्रण सो चार खांडवा थाय छे. ॥ १९७ ॥ ___ हवे नीचेना सात राजलोकना खांडवा कहे छे. उवरोव लोगमज्झा, चउट्ठाणे सत्तपुढविसु चउ दस ।। साल वोसा चवीस,छबीसा तहय अडबोसा ।।१९।। ____ अर्थ-( उपरिव ) के० उपरना सात राजनी पेठे ( सत्तपुढविसु ) के नाचेना साते नरक पृथ्वीने विषे ( लोगमज्झा ) के० त्रसनाडीमां एक राजलोकना ( चउठाणे ) के० चार चार खांडवा छे. रत्नप्रभादि साते नरकरूप सात राजलोकमां अनुक्रमे ( चउ ) के० चार चार, (दस ) के० दश दश, ( सोल ) के० शोल शोल, (वीसा) के वीस वीस, ( चवीस ) के० चोवीश चोवीश, ( छब्बीसा ) के० छवीश छवीश, (तहय ) के० तेमज (अडवीसा) के० अठ्ठावीस अट्ठावीश खांडवा छे. ___समजूती एम छे के-अधो लोकनी सात पृथ्वी सात राजप्रमाण उंची छे. एटले एक एक पृथ्वी एक एक राज प्रमाण उंची छे. अने तेमां पा पा राज प्रमाणनी चार चार पंक्ति छे. तथा साते पृथ्वीमां मध्यनाडी एक राज प्रमाण पहोली छे. रत्नप्रभा पृथ्वी एक राज प्रमाण पहोली होवाथी तेमां फक्त मध्य नाडीनी चारे लाइनमां पा पा राजना चार चार जे खांडवा छे. तेनी बहार एक पण खांडवो नथी. तेनी नीचे बीजी शर्करा प्रभा अढीराज प्रमाण पहोली होवोथी तेनी चारे पंक्तिने विषे दश दश खांडवा छे, तेमां चारा चार खांडवा त्रसनाडोमां छे, अने त्रण त्रण खांडवा त्रसना Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डीनी बहार बन्ने बाजुए छे, तेनी नीचे त्रीजी वालका प्रभा चार राज पहोली होवाथी तेनी चारे पंक्तिने विषे शोल शोल खांडवा छे, तेमां चार चार खांडवा त्रस नाडीमां छे, अने छ छ खांडवा स नाडीनी बहार बन्ने बाजुए छे. तेनी नीचे चोथी पंकप्रभा पांच राज प्रमाण पहाली होवाथी तेनी चारे पंक्तिने विषे वीश वीश खांडवा छे, तेमां चारचार खांडवा त्रसनाडीमा छे अने आठ आठ खांडवा सनाडीनी बहार बन्ने बाजुए छे. तेनी नीचे पांचमो घमप्रभा छ राज प्रमाण पहोली होवाथी तेनी चारे पंक्तिने विषे चोवीश चोवीश खांडवा छे, तेमां चार चार खांडवा सनाडीमां छे. अने दश दश खांडवा त्रस नाडीनी बहार बन्ने चाजुए छे. तेनी नीचे छट्ठी तमप्रभा साडा छ राज प्रमाण पहोली होवाथी तेनी चारे पंक्तिने विषे छवीश छवीश खांडवा छे, तेमां चार चार खांडवा सनाडीमां छे, अने अगीयार अगीयार खांडवा सनाडीनी बहार बन्ने बाजुए छे. नेनी नीचे सातमी तमस्तमप्रभा सात राजप्रमाण पहोली होवाथी तेनी चारे पंक्तिने विषे अट्ठावीश अट्ठावीश खांडवा छे, तेमां चार चार खांडवा त्रसनाडीमां छे, अने बार वार खांडवा त्रसनाडोनी बहार बन्ने बाजुए छे, ॥ १९८ ॥ अह पणसय बारुत्तर, खंडय सोलहिय अट्ठसय सम्वे॥ वम्माइ लोगमज्झं, जोयण असंखकोडीहि ॥ १९९ ॥ ___ अर्थ-( अह.) के० हवे (पणसय बारुत्तर ) के० पांच सो अने बार नीचेनी सात पृथ्वीरूप सातराजना (खंडय) के. खांडवा थया. तथा उपरनां सातराजना त्रण सो अने चार खांडवा पहेला कया छे. ते सब्वे के० सर्व मली ( सोलहिय अट्ठसय ) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के० आठ सो अने सोल थाय. (घम्माइ ) के० रत्नप्रभा पृथ्वीमां ( लोगमज्झं) के० चौद राजलोकनो मध्य भाग (जायण असंख कोडीहिं ) के० असंख्याता काडी योजन नीचे छे. ___ भावार्थ ए छे के–रत्नप्रभा नामनी पहेली पृथ्वीने विवे चौ. दराज लोकना मध्यभाग.छे. पण ते कये ठेकाणे छ ? ते कहे छे. रुचक समभूतलयको नीचे असंख्याता कोडी योजन जइये त्यां चउद राजलोकना मध्यभाग छे. एटले त्यांथी लोक सात राज उंचो अने सात राज नोचो छ. . ___उक्तं च पंचमांगे त्रयोदशशतचतुर्थोदेशके ॥ प्रश्नः । कह प भंते लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्तं । हे भगवन् । लोकना मध्यभाग़ क्यां छे ? उत्तरः-गोयमा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवासंतरस्स खेजतिभागं ओगाहित्ता, एत्य णं लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ॥ भावार्थ ए छे के-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वीना पींड एक लाख एंशीहजार योजना छे तेनो नीचे वीश हजार योजननो घनादधिना पींड छे. तेनी नीचे असंख्याता योजनना घनवातना पीड छे. तेनी नीचे असंख्याता योजननो तनवातना पींड छे. ए सर्व अवगाहीने नीचे जइये त्यां असंख्याता योजननो आकाश प्रदेश छे. पण ते आकाश प्रदेश घनवात तथा तनवातंना पीडथकी असंख्यात गुणो छे. ते आकाश प्रदेशना असंख्यातमो भाग अवगाहीने नीचे जइये त्यां चउद राजलोकना मध्यभाग छे तेनी नीचे सात राज प्रमाण अधोलोक छे अने पर सात राजप्रमाण उर्द्धलोक छे. प्रश्नः ॥ कह णं भंते अहेलोगस्स आयाममञ्झे पण्णत्ते ? हे भगवन् ! अबोलोकना सात राजना मध्यभाग क्यां छे. उत्तरः ।। गोयमा ! चउत्थीए पंकप्पभाए पुढबीए उवासंतरस्स साइरेगं अद्धं ओगाहित्ता तत्व णं अहोलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ॥ भावार्थ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ ए छे के ― हे गौतम! चोथी पंकप्रभा पृथ्वीनो पींड एक बीस हजार योजननो छे, तेनी नीचे वीश हजार योजननो घनोदधि पींड छे, तेनी नीचे असंख्याता योजना बनवात पींड छे, तेनी नीचे असंख्याता योजनना तनवात पींड छे. ए सर्व अवगा - हीने नीचे जइये त्यां असंख्याता योजन प्रमाण आकाश प्रदेश के. ret आकाश प्रदेश घनवात तनवातकी असंख्यांत गुणो छे. ते आकाश प्रदेशने अर्द्धथी झाझेरा भाग अवगाहीने नीचे जइये त्यां नीचेना सात राजलोकना मध्य भाग छे एटले ते स्थानथी नीचे अने उंचे साडा त्रण साडा त्रण राजलोक अधोलोकना छे. ॥ तथा चोक्तं पंचमांगे ॥ प्रश्नः कह णं भंते उढलोगस्स आयाममझे पण्णत्ते ? ॥ हे भगवन् ! उर्द्धलोक सात राज प्रमाण छे तेनेा मध्यभाग क्यां छे ? ॥ उत्तरः गोयमा ! उधिं सणकुमार माहिंदाणं कप्पाणं बंभलोए कप्पे रिविमाणपत्थडे एत्थ णं उडलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते || भावार्थ एछे के रुचक प्रदेशनी उपर नव सो योजनमां ज्योतीषचत्र छे, ते ज्योतीषचक्रने उल्लंघन करी उपरना भाग उद्धलोक कहेवाय छे, ते उपर लोकांतिक सुधी सात राज कांइक उणा छे, अने ओगणत्रीशमी रेखा उपर सात राज पुरा छे. ते अरना सात राजनेा मध्यभाग ते चार देवलोकने उल्लंगी पांचमा ब्रह्मलोकना रिष्टनामा त्रीजा प्रतरनी पासे लोकांतिक देवतानां विमान छे, तेनी पासे उर्द्धलोकना मध्यभाग छे. त्यांथी साडा त्रण राज नीचे तथा सोडा त्रण राज उपर उर्द्धलोक छे. ए प्रमाणे सर्व लोकना मध्यभाग तथा अधोलोक अने उर्द्धलोकना मध्य भाग कया. १९९ ॥ ? मगरज्जु जोयणसया, अट्ठार ऊण सगरज्जुमाणाइ ॥ अहतिरियउड्डलोया, निरयनरसुराइ भाविला ||२०० || Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अर्थ-( अहतिरियउट्टलोया ) के० नोचेना सात राजलोक, मध्यनो तिर्यंचलोक अने उपरना सोत राजलोक ए त्रणे लोक अनुक्रमे ( सगरज्जु ) के० सात गज प्रमाण (जायण सया अट्ठार) के० अठारसो योजन, अने (ऊगसगरज्जूमाणाइ) के० काइक ओछा सातराज प्रमाणवाला छे. एटले नीचेनो अधोलोक सातराज प्रमाणथी कांइक झाझेरो ऊंचो के. मध्यलोक अद्वार सो योजननो ऊंचो छे; अने उपरना लोक सात राज प्रमाणथी कांइक ओछो एटले असंख्याता योजन ओछो उंचो छे. वली ते त्रण लोक (निरयनरसुराइ भाविल्ला ) के नारकी मनुष्य अने देवता विगेरेथी भरेला छे. ॥२०॥ इक्किक्करज्जु इकिक-निरय सग पुढवी असुर पढमे ॥ तह वंतर तदुवरि नर-तिरियाइय जोइसा गयणे॥२०१।। ___ अर्थ (इकिकरज्जु ) के० एक एक राजप्रमाण (इकिकनिरय ) के० एक एक नरक पृथ्वी छे, तेवी ( सग पुढवी) के० सात नरक पृथ्वीना सात राजलोक छे. तेमां (असुर ) के० असुर कुमारादिक भुवनपति देवो (पढमे) के०पहेली रत्नप्रभा नरकपृथ्वीने विषे रहेछे,एटले पहेली रत्नप्रभा नरक पृथ्वीना पींड एक लाख एंशी हजार योजननो छे, तेमांथी एक हजार योजन नीचेना मूकी देवा अने एक हजार योजन अरना मूकी देवा. बाकीना एक लाख अठोतेर हजार योजनमां भुवनपति देवो रहे छे. नह के० तथा वंतर के० व्यंतर देवो तेना उपर रहे छे एटले रत्नप्रभा पृथ्वीना जे उपरना एक हजार योजन मूक्या छे तेमांथी एक सो योजन उपर मूकी देवा अने एक सो योजन नीचे मूकी देवा, वाकीना बच्चेना आठ सो योजनमां व्यंतर देवो रहे छे. अने ( तदुवरि ) के० ते Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नप्रभाना उपरना भागने विषे ( नरतिरियाइय ) के० मनुष्य तिर्यंच विगेरे रहे छे. तथा तेनी उपरना (गयणे ) के० आकाशमां (जोइसा ) के० ज्योतसी देवता रहे छे ॥ २०१॥ हवे उपरना सात राजलोकना अट्ठावीश खांडवाना विभाग कहे छे अने जेटला खांडवे जेटला देवलोक थाय छे ते कहे छे. छसु खंडगेसु य दुगं,चउसु दुगं छसुय कप्प चत्तारि॥ चउसु चउ सेसेसु य,गिविज्जणुत्तर य सिद्धं ते।।२०२॥ ____ अर्थ-ओगणत्रीशमी रेखा उपरना ( छसु खंडगेसु) के० छ खांडवाने विषे ( दुर्ग) के० सौधर्म अने ईशान ए बे देवलोक छे, तेना उपरना ( चउसु ) के० चार खांडवाने विषे (दुगं) के. सनत्कुमार अने माहेंद्र ए बे देवलोक छे. तेना उपरना (छसु ) के० छ खांडवाने विषे ( कप्पचत्तारि) के० ब्रह्म लांतक शुक्र अने सहसार ए चार देवलोक छे, तेना उपर ( चउसु ) के० चार खांडवाने विष ( चउ) के० आनत पाणत आरण अने अच्युत ए चार देवलोक छे. ए वीश खांडवा थया. अने पांच राजप्रमाण उर्द्धलोक थयो. तेना उपर (सेसेसु) के० बाकीना आठ खांडवा रहा छ तेमां नीचेना चार खांडवाने विषे ( गिविज्ज ) के० नव ग्रैवेयक छे अने उपरना चार खांडवाने विषे ( अणुत्तर ) के० पांच अनुत्तर छे. अने तेना (अंते ) के० उपर एटले चौद राजना उपर (सिद्ध) के० सिद्ध भगवंत सहित सिद्धशिला छे. अहिं सूचिरज्जु प्रतररज्जु अने धनरज्जु ए त्रण राज छे. तेनी संख्या ग्रंथांतरयी अथवा लोकनालथी जाणवी ॥ २०२ ॥ हवे लोकांतिक देवता कया देवलोके अने कया विमाने रहे छे ? ते अहिं प्रसंगथी कहे छे के-आ जंबुद्धीपथी तीर्छा असं Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ख्याता द्वीप समुद्र जइये त्यारे अरुणवर नामनो द्वीप आवे छे, ते द्वीपनी वेदिकाना छेडाथी अरुणवर नामना समुद्रमा आगल बेंतालोश हजार योज जइये त्यां पाणाना उपरनां तलीयाथी उंचो अप्कायमय महांधकाररूप तमस्काय नीकलयो छे, ते अगीयार सो योजन सुधी भीन सरखो थइने पछीं तीछौँ विस्तार पामतो पामतो सौधर्म ईशान सनत्कुमार अने माहंद्र ए चार देवलोकने आवरी उचो ब्रह्म देवलोकना अरिष्ट नामना त्रीजे प्रतरे जई रह्यो. ए तमस्काय नीचे भोंतने आकारे, शरावलाना तलोयाने आकारे अने उपर कूकडाना पांजराना आकारे. ए, एनुं संस्थान छे. ते धुरथी संख्याता योजन उंचो छे अने नीचेना विस्तारे संख्याता योजन छे, त्यांची आगलना विस्तारे असंख्याता योजन प्रमाण छे. अहिंथी ए तमस्काय असंख्यातमे द्वीप समुद्रे उठयो छे माटे ए तमस्कायनो परिधि असंख्याता योजन प्रमाण जाणयो. . ए तमस्कायना महत्वपणाने माटे पूर्वना गीतार्थ पुरुषोए एम कडं छे के कोई महर्दिक देवता त्रण चपटी वगाडीये तेटला वखतमां एकवीश वार जंबुद्दीपने प्रदक्षिणा करी आवे तेज देवता छमहिने तमस्कायना योजन विस्तारने उल्लंघे, परंतु उपर असंख्याता योजनना विस्तारवाली तमस्कायनी जगति उल्लंघे नहीं. ॥२०२॥ पंचमकप्पे रिट्ठमि, पत्थडे अट्ठ कण्हराइओ॥ सम चउरंसक्खाडय,ट्ठिइओ दोदो दिसि चउक्के ॥२०३।। ... अर्थ-(पंचमकप्पे ) के० पांचमा देवलोकने कि (रिलुमि पत्थडे ) के० वीजा रिष्ट नामना प्रतरने विवे ( अटकण्हराइओ) के० आठ कृष्णराजीओ छे. ते कृष्णराजी ( समचउरंसक्खाडयदिइओ ) के० समचतुरस्त्र नाटकनी रंगभूमि सरखी छे, तथा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (दिसि चउके ) के० चारे दिशामां ( दो दो) के० वे बे कृष्णराजी छे. ॥ २०३ ॥ ए कृष्ण राजीनी समजुती एम छे के-पांचमा देवलोकना त्रीजा अरिष्ट नामना प्रतरने विषे अरिष्ट विमाननी चारे दिशाये सचित्त अचित्त पृथ्वीमय वे बे कृष्णराजी छे. तेमां उत्तर दिशानी बे कृष्णराजी पूर्व पश्चिम दिशाये लांबी छे, अने दक्षिण दिशानी बे कृष्णराजी पण पूर्व पश्चिम दिशाये लांची छे. त्यां बने कृष्णराजीपांहे पहेली पूर्व दिशानी अभ्यंतर कृष्णराजी ते दक्षिण दिशानी बाहेरनी कृष्णराजीने फरसे छे, तेज वीजी दक्षिण दिशानी अभ्यंतर कृष्णराजी ते पश्चिम दिशानी बाहेरनी कृष्णराजी ने फरसे छे, तथा त्रोजी पश्चिम दिशानी अभ्यंतर कृष्णराजी ते उत्तर दिशानी बाह्य कृष्णराजीने फरसे छे, अने चोथी उत्तर दिशानी अभ्यंतर कृष्णराजो ते पूर्व दिशानी बाह्य कृष्णराजीने फरसे छे. ए प्रमाणे चारे दिशानी सर्व मली आठ कृष्णराजी छे. तेज अर्थने कहेनारी नीचेनी गाथा छे. पुवावर उत्तर दा-हिणा हि मज्झल्लियाहि पुवाओ ॥ दाहिणउत्तर पुवा, वराओ बहि कण्हराईओ ॥२०४॥ ____ अर्थ-( दाहिणउत्तरपुवावराओ) के० दक्षिण उत्तर पूर्व अने पश्चिम दिशा तरफनी ( बहिकण्हराईओ) के० बाहेरनी कृष्णराजीओं ( पलाओ ) के० पूर्वथी ( पूछावरउत्तरदाहिणाहि ) के० पूर्व पत्रिम उत्तर- अने दक्षिण दिशा तरफनी ( मज्झल्लियाहि ) के० अंदरनी कम जोओनी साथे जोडायली छे. ॥ २०४ ॥ पुबारा टलंगा, तंसा पुण दाहिगुत्तरा बज्झा ॥ . अभि पर उमा, सव्वावि य कण्हराईओ ॥ २०५॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अर्थ-(पुन्वावरा ) के० पूर्व अने पश्चिम दिशामी (बझा) के० बाहेरनी बे कृष्णराजी ( छलसा) के छ खूणावाली छे. (पुण ) के० वली ( दाहिणुत्तरा) के०' दक्षिग अने उत्तर दिशानी बाहेरनी बे कृष्णराजी ( तसा) के त्रण खुणावाली छे. तथा (अभितर ) के० अंदरनी (सव्वाबि य कण्हराईओ) के० चारे कृष्णराजीओ चउरंसा के० चार खूणावाली छे. ॥ २०५ ॥ आयामपरिक्खेहि, ताण असंक्खजायण सहस्सा ।। संखेज्जसहस्सा पुण, विक्खमे कण्हराईणं ॥ २०६ ।। अर्थ-ताण कण्हराईणं ) ३० ते आठे कृष्णराजी (आयामपरिक्खेहिं ) के० लंबोई अने परिधिये करीने ( असंक्खजोयणसहस्सा ) के० असंख्याता हजारो योजन छे ( पुण) के० वली (विक्खंभे ) के० जाडाइए करीने (संखेज सहस्सा) के० संख्याता हजारो योजन छे. ॥ २०६ ॥ ईसाणदिसाईसु, एयाणं अंतरेसु अट्ठसुवि ।। अट्ठविमाणाइ तहा, तम्मज्झे इक्कगविमाणं ॥ २०७ ।। अर्थ-(ईसाणदिसाईसु) के० ईशानादिक दिशाने बिये . ( एयाणं) के० ए कृष्णराजीना ( अंतरेसु असुबि ) के० आठ आंतराने विषे ( अट्ठविमाणाइ) के० आठ विमान तथा ते विमा नना अधिपति देवो तथा तेमनो परिवार छे. ( तहा ) के० तथा ( तम्मज्झे) के० ते विमानोना मध्यभागने विषे ( इक्कगविमाणं ) के० एक विमान छे. ॥ २०७ ॥ ते विमानोनां नाम कहे छे. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ अचि तहच्चिमाली, वइरोयण पभंकर य चंदामं ॥ सूराभं सुक्कामं, सुपइट्ठाभं च रिट्ठाभं ॥ २०८ ॥ ___ अर्थ-ईशान खूणामां ( अघि ) के अचि नामर्नु विमान छे, ( तह ) के० तथा पूर्व दिशामां ( अच्चिमाली) के० अर्चिमाली नामनुं विमान छे, अग्नि खूणामां ( वइरोयण ) के० वैरोचन नामनुं विमान छे, दक्षिण दिशामां (पभंकर ) के० प्रभंकर नामर्नु विमान छे,(य) के० अने नैरुत्य खूणाने विषे (चंदाभ)के चंद्राम नामर्नु विमान छे, पश्चिम दिशाने विषे (भूराभं ) के० मूर्याभ नामनुं विमान छे, वाव्य खूणाने विषे ( सुक्काभं) के० शुक्राम नामर्नु विमान छे, उत्तर दिशाने विषे ( सुपइट्टाभं ) के० सुप्रतिष्ठाभ नामनुं विमान छे, (च) के. अने मध्यभागने विषे (रिहार्भ) के० रिष्टाभ नामनुं विमान छे. ॥२०८॥ हवे ते विमानोमां बसनारा अधिष्ठायक देवोनां पूर्व कहेला - अनुक्रम प्रमाणे नाम कहे छे. सारस्सय माइ-चा, वन्ही वरुणा य गहतोया य ॥ तुसिया अव्वाबाहा, अगि तह चेव रिट्ठा य॥२०९॥ ___ अर्थ-अर्चि विमानमां (सारस्सय ) के० सारस्वत देवता वसे छे, अचिमालि विमानमां ( आइच्चा ) के० आदित्य देवता वसे छे, वैरोचन विमानमां ( वन्ही ) के० चन्हि देवता वसे छे, प्रभंकर विमानमां ( वरुणा य) के० वरुण देवता बसे छे, चंद्राम विमानमां (गद्द तोया य ) के० गर्दतोय देवता वसे छे, सूर्याभ वि. मानमा ( तुसिया ) के० तुषित नामना देवता वसे छे, शुक्राम विमानमां ( अब्वाबाहा ) के० अव्याबाध देवता वसे छे, सुप्रतिष्ठाम Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०॥ १२२ विमानमा ( अग्गि ) के० अग्निदेवता वसे छे, [ तह चेव ] के० तेमज रिष्टाभ विमानमा (रिहा य) के०रिष्टाभ देवता वसे छे.॥२०९॥ हवे ते देवताओनो अनुक्रमे परिवार कहे छे. पढमजुअलंमि सतओ-सयाणि बीयंमि चउदह सहस्सा ॥ तइए सत्त सहस्सा, नव चेव सयाणि सेसे ___ अर्थ-(पढमजुअलंमि के पहेला युगल ते सारस्वत तथा आदित्य देवताने ( सत्तओ सयाणि ) के० सात सो सात सो देवताना परिवार छे, अने (बीयंमि ) के० बीजा युगल ते वन्हि तथा वरुण देवताने ( चउदह सहस्सा ) के० चउद चउद हजार देवताना परिवार छे. तेमज ( तइए ) के० त्रीजा युगल ते गर्दतोय तथा तुषित देवताने ( सत्तसहस्सा) के० सात सात हजार देवताना परिवार छे, अने ( सेसेसु ) के० बाकीना देवताना (नव सयाणि) के० ना सो नत्र सो देवतानो परिवार (चेव ) के० निश्चे होय छे, ॥२१०॥ ए देवतानुं बीजुं भवनद्वार संपूर्ण थयु. हवे त्रीजु देवताना शरीरनी अवगाहनानुं द्वार कहे छे. भवणवणजोइसोह-मोसाणे सत्त हत्थ तगुमागं ॥ दुदुदु चउक्क गेवि-ज्जणुत्तरे हाणि इक्विकं ॥ २११ ॥ ____ अर्थ-(भवणवणजोइसोहम्मीसाणे के भवनपति, व्यंतर, ज्योतषी तथा सौधर्म अने ईशान देवलोक त्यां सुधीना देवताओर्नु ( सत्त हत्थ तणुमाणं) के शरीर प्रमाण सात हाथर्नु उत्कृष्टथी जाणवू. त्यार पछी (दु) के० त्रीजो अने चोथो देवलोक, (दु) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ के पांचमा अने छट्टो देवलोक. (दु ) के० सातमो अने आठमो देवलोक, ( चउक ) के० नवमो, दशमो अगीयारमो बारमो देवलोक, तथा (गेविज ) के० नव ग्रैवेयक अने ( अणुत्तरे ) के० पांच अनुत्तर ए छ ठेकाणे अनुक्रमे [ हाणि इक्विकं ] के० एक एक हाथनी हानी करवा. एटले त्रीजा चोथा देवलोके छ हाथर्नु, पांचमा छटे देवलोके पांच हाथर्नु, सातमां आठमा देवलोके चार हाथर्नु, नवमा दशमा अगीयारमा वारमा देवलोके त्रण हाथY. नव ग्रैवेयके बे हाथy अने पांच अनुत्तर विमाने एक हाथर्नु शरीर जाणवू. ॥ २११ ॥ ___ हवे विशेष सागरोपमना आयुष्यनी वृद्धिये करी सनत्कुमारादिकने विषे शरीरनुं मान कहे छे. कप्प दुगदुदुदु चउगे, नवगे पणगे य जिठिइ अयरा॥ दो सत्त चउद द्वारस, बावीसिगतीसतित्तीसा ॥२१२॥१ विवरे ताणिक्कुणे, इक्कारसगा उ पाडिए सेसा ॥ हत्थिकारस भागा, अयरे अयरे समहियंमि ॥ २१३)॥१ चय पुवसराराओ, कमेण ईगुत्तराइ वुद्वीए ॥ एवं ठिई विसेसा, सगंकुमाराइ तणुमाणं ॥ २१४ ॥ ___ अर्थ-(कप्पदुग ) के० पहेला अने बोजा देवलोकमां, (द) के० त्रीजा अने चोथा देवलोकमां (दु ) के० पांचमां अने छट्ठा देवलोकमां (दु) के० सातमा अने आठमा देवलोकमां, (चउगे) के० नवमा दशमा अगीयारमा अने बारमा देवलोकमां, (नवगे) के० नव ग्रैवेयकमां ( य ) के० अने (पणगे ) के० पांच अनुत्तर Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ विमानमां, ( जिठिइ ) के० उत्कृष्ट स्थिति आ प्रमागे-पहेला वे देवलोके, (दो अयरा) के० बे सागरोपमनी, बीजा वे देव लोके ( सत्त) के सात सागरोपमनी, त्रीजा बे देवलोके ( चउद ) के० चउद सागरोपमनी, चोथा बे देवलोके ( अट्ठारस ) के० अढार सागरोपमनी, नवमाथी बारमा सुधीना चार देवलोके ( बावीस ) के० बावीस सागरोपमनी, नव ग्रैयके ( इगतीस ) के० एकत्रीश सागरोपमनी, अने पांच अनुत्तर विमानने विषे ( तित्तीसा ) के० तेत्रीश सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति छे. ॥२१२ ॥ [ विवरे ] के. अधिक स्थितिमाहेथी ओछी स्थिति काही नाखीये. पछी बाकी रहे तेमाथी ( ताणिणे ) के० एकरूप ओछो करीये, वली (इक्कारसगा उ पाडिए ) के एक हाथ ना पाडेला अगीयारीया भागने स्थानके जे ( सेसा ) के० बाकी रहेला ( हस्थिकारसभागा) के. एक हाथना अगीयारीया भाग तेने देवताना आयुष्यमां ( अयरे अयरे समहियंमि) के० एक एक सागरोपम अधिक थयु थकुं ॥ २१३ ॥ (चय पुनसरीराओ) के० पूर्व पूर्वना शरीरमांथी एक एक भाग ओछो करवो अने ( कमेण ) के० अनुक्रमे करीने ( इगुत्तराइ वुट्ठीए) के० एक एक सागरोपम आयुष्य स्थितिमा वधारवो. ( एवं हिइ विसेसा) के० एवीरीते आयुष्यनी स्थितिना विशेषपणाये एटले सागरोपमनी वृद्धिये करी (सणंकुमोराइ तणुमाण) के० सनत्कुमारादिक देवलोकना देवतानुं शरीरप्रमाण थाय ॥ २१४ ॥ ..समजूती एम छे के पूर्वाचार्योए देवताना शरीरचं प्रमाण तेमना सागरोपमना आयुष्य प्रमाण उपरथी ओछु अधिकुं कर्तुं छे. जोके ईशान तथा माहेंद्र देवलोके जे कांइ अधिक आयुष्य कयुं छे ते अहिं न गणवू. सौधर्म तथा ईशान देवलोकना देवता- देहमान Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ सात हाथनुं कथुं छे. हवे सनत्कुमार देवलोकना देवतानुं देहमान कहे छे. त्यां, विवरे एटले विश्लेष करवो. अर्थात् अधिक आयुष्य स्थितिमांथी आछी स्थिति काठी नाखवी. वाकी जे रहे मांथी एक ओछो करवो. पछी एक हाथना अगीयार भाग करवा तेर्माथी विश्लेषकरी एक ओछो करतां जे आंक आवे ते प्रमाणे हाथना शेष वधेला भाग घटाडवा अने एक एक सागरोपमनुं आयुष्य वधारखं. एम करतां सनत्कुमारादिक देवतानुं शरीर प्रमाण थाय छे. अहिं एज वातने दृष्टांत सहित समजावे छे के जेम सौधर्म तथा ईशान देवलोके उत्कृष्ट स्थिति वे सागरोपमनी के अने सनत्कुमार तथा माहेंद्रे सात सागरोपमनी स्थिति छे, हवे सात सागरोपममांथी वे सागरोपम काढी नाखवा, केमके वे सागरो पमत्राला आयुष्यवाला देवताना शरीरनुं प्रमाण सात हाथ क छे, ते वे सागरोपम काढतां बाकी पांच सागरोपम रहे. तेमांथी एक ओछो करीये त्यारे चार रहे. हवे सौधर्म तथा ईशान देवलोकना देवतानुं सात हाथनुं शरीर प्रमाण छे. ते मांहेथी छ पुरा राखीये अने सातमा हाथना अगीयार भाग करवा, तेमांथी चार भाग काढी लेवा. बाकी सात भाग रहे ते पडता मूकवा. एले सनकुमार तथा महेंद्र देवलोकना त्रण सागरोपमना आयुव्यवाला देवतानुं शरीर प्रमाण छहाथ अने एक हाथनां अमीयार भाव करीये तेवा चार भाग उपर एटलं शरीर प्रमाण जाणवुं. एम ए एक सागरोपम वधारतां अने एक एक भाग घटाडतां जब चार सागरोपमना आयुष्यवाला देवतानुं शरीर प्रमाण को अगीयारया त्रण भागनु पांवसार रापमना आयुतनुं शरीर प्रमाण छ हाथ अने यारीया बे भा छह व्य Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्नु, छ सागरोपमना आयुष्यवाला देवता, शरीर प्रमाण छ हाथ अने अगीयारीया एक भागनुं, तथा सात सागरोपमना आयुष्यवाला देवता, शरीर प्रमाण बराबर छ हाथनु जाणवू. __ वली बोजुं दृष्टांत कही समजावे छे के जेम ब्रह्म तथा लांतक देवलोके चउद सागरोपमनी उत्कृष्ट आयुष्य स्थिति छ, तेमांथी सनत्कुमार तथा महेंद्र देवलोकना सात सागरोपमना सात आंक काढी नाखवा वाकी सात रहे तेमांथी एक ओछो करबो, बाकी छ रहे. पछी एक हाथना अगीयारीया भाग मांहेला पांच पडता मूको बाकी छ भाग रहे ते अने पांच हाथ. एटलं आठ सागरोपम आयुष्यवाला देवतार्नु शरीर प्रमाण जाणवू, एरीते एक एक सागरोपमनुं आयुष्य वधतां एक एक अगीयारीओ भाग शरीर ना प्रमाणमांथी घटाडवो, ए सर्व यंत्र उपरथी जाणी लेवू, ।। एज वात नीचेनी मायाथी कहे छे Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ कोष्टक नं. १ उर्ध्व देवलोके आयुष्यने अनुसारे देह प्रमाण- कोष्टक. 4 . . सागरो हाथ पमे हाथना अगीआरीआ भाग हाथ हाथना अगीआरीआ भाग . » به س ه ه ع ع ع 22Rone ka * * * * * * * * * ܐ ܚ ܚ ܚ ܚ ܚ ।। || ! | | । । । । । । । । No PMPage #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ देवताना शरीरनुं प्रमाण ( कम ) के० अनुक्रमे करीने ( क्खिकरेणं पुव्वंगे) के० पूर्वना भागमांयी ओर्छ करवाथी थाय छे. ॥२१५ ॥ कोष्टक नं. २ . उर्ध्व देवलोकमां दरेक प्रतरे आयुष्य- कोष्टक. सौधर्म इशाने. सनत्० माहेन्द्रे. प्रतरे. सागरो तेरीया पम... भाग. | पम, भाग. | प्रतरे, | सागरी वा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ सहस्रारे. ब्रह्म देवलोके प्रतरे | सागरो०-छठीया भाग आनत, प्राणते. - ० लांत के साग० पांचीया भाग. १२. - २ १३ - आरण अच्युते प्रतर. शुक्र देवलोके. साग० चारीया भाग. १४ - 3 لے » » Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० कोष्टक नं. ३ नव अवेयके. पांच अनुत्तरे. सागरोपम. प्रतरे भवधारणिज्ज एसा, उत्तरवेउवि जोयणा लक्खं ॥ गेविज्जगुत्तरेसु, उत्तर वेउब्बिया नस्थि ॥ २१६ ।।१४ अर्थ-(एसा) के० ए पूर्व कहेलं शरीरनुं प्रमाण ते (भवधारणिज्ज ) के० भा धारणीय शरीर संबंधा जाणवू. ( देवता जीवे त्यां सुधी जे शरीर धारण करे ते भवधारणीय शरीर कहेवाय छे.) वली ( उत्तरवेउवि) के० देवता उत्तर वैक्रिय शरीर करे ता (जायणा लकवं ) के एक लाख योजन- करे. परंतु (गेविज्ज Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णुत्तरेसु) के० नव ग्रैटेयक तथा पांच अनुत्तर निवासी देवाने ( उत्तरवेउन्चिया नस्थि ) के० उत्तर वैक्रिय शरीर नथी, परंतु भवधारणीय शरीर छे. ते देवताओने उत्तरवैक्रिय शरीर धारणकरवानी शक्ति छे, परंतु ते शरीर करवानुं कांइ काम पडतुं नथी, तेथी ते उत्तर वैक्रिय शीर करता नथी. ॥ २१६ ॥ हवे भवधारणीय तथा उत्तर वैक्रिय शरीरनी जघन्य अवगाहना कहे छे, साहाविय वेउविय, तगू जहन्ना कमेण पारंभे ॥ अंगुल असंखभागो, अंगुलमंखिज्जभागो य ॥२१७॥१ ___अर्थ-(साहाविय ) के० स्वाभाविक ते भवधारणीय अने ( वेउबिय ) के० वैक्रिय ए वने ( तणू) के० शरीर ( जहन्ना) के० जघन्यथी ( कोण ) के० अनुक्रमे (पारंभे ) के० आरंभती वखते ( अंगुल असंख्वभागो) के० अंगुलना असंख्यातमा भागे ( य ) ० अने ( अंगुलसंखिजभागो ) के० अंगुलना संख्यातमा भागे एटले भवधारणीय शरीर अंगुलना असंख्यातमा भागे तथा वैक्रिय शरीर अंगुलना संख्यातमे भागे होय छे. ॥ २१७॥ ए देवताने विषे अवगाहना सबंधी त्रीजु द्वार संपूर्ण थयु.॥ हवे देवताने उत्पातविरहकालनु तथा चवन विरहकालनु ए बे द्वार साथे कहे छे. सामनेणं चउविह, सुरेसु बारस मुहुत्त उक्कोमा ॥ उपवायविरहकालो, अह भवणाईसु पत्तेयं ॥१८॥ ___अर्थ-( सामनेणं) के० सामान्यथी ( चउविह सुरेसु ) के० चार निकायना देवताने विषे ( उववायविरेहकालो ) के० उपज Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वानो विरहकाल ( उक्कोसा ) के० उत्कृष्टथी ( पारस मुहुत्त ) के० बार मुहूर्त्तनो जाणवो. त्यार पछी अवश्य उपजे. पंचसंग्रह ग्रन्थमां कयु छ के-गर्भज तिर्यंच मनुष्य देवता अने नारकी ए चारेने उत्कृष्टथी उपपात विरहकाल बार मुहर्तनो,(संमूच्छिम मनुष्यने चोवीश मुहूर्तनो भने विकलेंद्रिय तथा संमूर्छिम जीवोने अंतर मुहर्तना होय छे. ( अह) के० हवे भवणाईसु के० भवनाति विगैरे चारे निकायने विषे ( पतेयं ) के० प्रत्येकनुं विरहकालनु प्रमाण कहे छे. ॥ २१८ ॥ भवण वण जोइ सोहम्मी-साणेसु मुहुत्त चउवीसं ॥ ११ तो नव दिण वीस मुहू,बारस दिण दस मुहुत्ता य ।२१९॥ बावीस सढ दियहा,पणयाल असीइ दिण सयं तत्तो ॥ संखिज्जा दुसुमासा,दुसु वासा तिसु तिगेसु कमा॥२२०॥ वासाण सयसहस्सार,लक्ख तह चउसु विजयमाईसु॥ पलिया असंखभागो, सबढे संखभागो य ॥ २२१ ॥ . अर्थ-(भवण वण जोइ सोहम्मीसाणेमु ) के० भुवनपति, व्यंतर, ज्योतषी, सौधर्म अने ईशानवासी देवताने प्रत्येके (मुहुत्त चउ वीसं ) के० चोवीस मुहूत्तनो उत्कृष्टथी उपजवानो विरहकाल छे. (तो) के० त्यार पछी बीजो देवता उपजे. सनत्कुमार देवलोके (नव दिण वीस मुहू ) के० ना दिवस अने वीश मुहूर्त, माहेंद्र देवलोके ( वारस दिण दस मुहुत्ताय ) के० बार दिवस अने दश मुहूर्त ॥ २१९ ॥ ब्रह्म देवलोके [बावीस सढदियहा ] के० साडा वावीस दिवस. लांतक देवलोके (पणयाल ) के० पिस्तालीश दिवस. शुक्र देवलोके ( असीइ ) के० एंशी दिवस, सहस्रार देवलोके Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ ( स ) के० सा दिवस, ( तत्तो ) के० त्यार पछी ( दुसु ) के ० आनत अने प्राणा ए वे देवलोके प्रत्यके ( संखिज्जमासा) के ० संख्याता मास, ( दुनु ) के० आरण अने अच्युत ए वे देवलाके (वासा) के संख्याता वर्ष, हवे नव ग्रैवेयकना ( तिसु तिगेसु ) के० त्रण त्रिकने विषे (कमा) के० अनुक्रमे करीने उपजवानो विरहकाल कहे छे. ॥ २२० ॥ पहेला त्रीके ( वासाणसया ) के ० संख्यातवर्षशत, बीजा त्रीके ( सहस्सा ) के० संख्याता हजार वर्ष, अनेत्रीजा त्रीके (लक्ख ) के० संख्याता लाख वर्ष उपज - वानो काल जाणो. (तह ) के० तेमज (चतु विजयमाईसु के० पहेला चार विजय ते विजय विजयंत जयंत अने अपराजित ए चार विमानने वे (पलिया असंख भागो ) के० अद्धा पल्योपमनो असंख्यातमो भाग, अने ( सट्टे ) के० सर्वार्थ सिद्धने विषे ( संभागीय) के० अद्धा पल्यो मनो संख्यातमो भाग उपपात विरहकाल होय छे. ॥ २२१ ॥ د हरे देवताआनो जयन्य विरहकाल अने पछी चवन विरहकाल संक्षेपथी कहे छे. सव्वेसिंपि जहन्नो, समओ एमेव चवणविरहोऽवि ॥ १ इग दुति संखमसंखा, इग समए हुंति य चति ॥ २२२॥ Y अर्थ - ( सव्वेसिंपि ) के० भुवनपतिथी आरंभी सर्वार्थ सिद्ध सुधीना सर्व स्थानके ( जहन्नो ) के० जघन्यथी ( समओ) के ० एक समय उपजवानो विरहकाल होय. ( एमेव ) के० ए उपपात विरहनी पेठे (चवणविरहोऽवि ) के० चवनविरह पण उत्कृष्ट तथा जन्यथी जाणवो. ( इग) के० एक, (दु) के० बे, (ति) के त्रण एम यावत् (संवं) के० संख्याता अने (असंख्य ) के० असंख्याता देवता Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ( इग समए ) के० एक समयने विषे (हुंति ) के० उपजे छ, (य) के. अने ( चवंति ) के० चवे छे. तात्पर्य एछ के-भुवनपतिथी आरंभीने सहस्रार देवलोक :सुधी जघन्यथी एक समयमां जो उपजे तो एक बे अथवा त्रण उपजे तथा चरे. अने उत्कृष्टयी संख्याता अथवा असंख्याता उपजे तथा चवे. कारण के-सहस्रार देवलोक सुधी तो तिर्यच पण जाय छे माटे असंख्याता उपजे अने चवे. ए आठमा सहस्रार देवलोकथी उपरना देवता एक समये संख्याता उपजे अने संख्याता चरे. कारण के-त्यां मनुष्यज जाय छे, अने त्यांथी चवेलो देवता पण मनुष्यज थाय छे. माटे मनुष्य संख्याताज छे, तेथी आनतादि देवता संख्याता उपजे अने संख्याता चवे ॥२२२॥ ए उपपात तथा चवन संख्या द्वार कह्यु. ॥ - हवे देवगतिमां कइ कइ गतिना जीवो आवे छे ? ते आगति द्वार कहे छे. नर पंचिंदिय तिरिया, णुप्पत्ती सुरभवे पजत्ताणं ॥ अज्झवसाय विसेसा, तेसिं गइ तारतम्मं तु ॥२२३॥ १८ अर्थ-(पजत्ताणं ) के० पर्याप्ता एवा ( नर) के० मनुष्य तथा पर्याप्ता (पंचिंदियतिरियाण) के० पंचेंद्रिय तिर्यंच ए बे गतिना जीव (सुरभवे ) के० देवगतिमांहे ( उष्पत्ती ) के० उपजे छे. तेमां पण विशेष कारण कहे छे के-कोइ जीव भुवनपति, कोइ व्यंतर, कोइ ज्योतषी, कोइ वैमानिक थाय, तेमां पण कोइ ऋद्धिवंत, कोइ महर्द्धिक, कोइ अला ऋद्धिवंत, कोइ बहु आयुष्यवालो, कोइ थोडा आयुष्यवालो इत्यादिक विशेषपणानुं कारण पोताना ( अज्झवसायविसेसा ) के० अध्यवसायना विशेषपणाये करीने (तेसिं) के० ते देवतानी ( गइतारतम्म ) के० गतिर्नु Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ भिन्नभिन्नपणुं छे. अध्यवसाय ए मननो व्यापार छे, ते व्या पार तोत्र, तीव्रतर तीव्रतम एम जूदो जूदा होवाथी जूदी जूदी देवगति पाने छे ।। २२३ ॥ वली कयाकया जीवो देवगति पामे ते कहे छे. नरतिरि असंखजीवी, सव्वे नियमेण जंति देवेसु ॥ नियआउय समहीणा - उपसु ईसाण अंतेसु || २२४ || १ अर्थ - ( असंखजीवी) के० असंख्याता आयुष्यवाला ( नर तिरि ) के० युगलिया मनुष्य अने तिर्येच ( सव्वे ) के० ते सर्वे ( नियमेण ) के० निश्रेयी ( देवेसु जंति ) के० देवतामां जाय छे. ते ( नियआय) के० पोताना युगलिक भवमां जेट आयुष्य होय तेना ( सम ) के० तुल्य आयुष्ये अथवा ( हीणाउएस ) के० ओछा आये (ईसासु) के० एटला आयुष्यवाला ईशानदेवलोकीना देवतामा उपजे, पण अधिक आयुष्ये नहीं. कारण के युगलीया मनुष्यने उत्कृष्ट आयुष्य त्रण पल्योपमनु होयछे अने ते आयुष्य ईशानदेव लोक सुधी होय छे माटे ॥ २२४ ॥ अहिं विशेष समजवानुं एछे के पल्योपमने असंख्यातमे भागे असंख्याता आयुष्यवाला युगलिया, पंचिंद्रिय तिर्यंच, पंखी, छप्पन्न अंतर द्वीपवाला तिर्यंच, मनुष्य युगलिया ए सर्वे मरीने भुवनपति तथा व्यंतरने विषे उपजे, पण ज्योतसी प्रमुखने विषे उपजे नहीं. कारण के - ज्योतषीमांहे पल्योपमनो आठमो भागा आयुष्यछे माटे, अने बीजा युगलिया यथायोग्यपणे पोत पोताना आयुष्य प्रमाणे अथवा आछे आयुष्ये ईशान देवलोकी उपजे, तेथी उपरना देवलोकमां उपजवानो निषेध है. ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंति समुच्छिमतिरिया, भवणवणेमु न जोइमाईसु ।। जं तेसिं उववाओ, पलियासंखंसआऊसु ॥ २२५ ॥१५॥ ___अर्थ-( समुच्छिमतिरिया) के० समूच्छिमतिर्यंच मरीने (भवणवणेसु ) के० भवनपतिने विषे तथा व्यंतरने विो (जंति) के० जाय छे, पण (जोइमाईसु) के० ज्योतषी विगेरेमां (न) के० न जाय. ( जं) के० कारणके (तेसिं) के० ते समूच्छिमतिर्थच उत्कृष्टथी (पलियासंखंसआउसु) के० पल्योपमना असंख्यातमा भागना आयुष्यवाला देवतामांज ( उपवाओ) के० उपजे छे, पग तेथी वधारे आयुष्य वालामां उपजे नहीं. ॥ २२५ ॥ ___हवे अध्यवसाय विशेषे गतिर्नु तरतमपणुं कहे छे. बालतवे पडिबद्धा, उक्कडरोसा तवेण गारविया ॥ वेरेण य पडिबद्धा, मरि असुरेसु जायंति ॥२२६॥१६० __अर्थ-(वालतवे) के० अज्ञानतपने विषे (पडिबद्धा) के आसक्त थयेला, (उक्कडरोसा) के० उत्कृष्ट रोष धरनारा, (तबेण गारविया) के तपथी अहंकार करनारा, (य) के० अने (रेण पडिबद्धा) के० वैरथी प्रतिबंध करनारा एवा जीयो (मरिउं) के० मृत्यु पामीने (असुरेसु जायंति) के० असुरकुमारमा उपजे छे. ॥ २२६ ॥ रज्जुग्गह वीसभक्खण,जलजलणपवेस तण्हहदुहओ॥ गिरिसिरपडणाउ मुया, सुहभावा हुंति वंतरिया ॥२२७।१९१ ___ अर्थ-( रज्जुग्गह ) के० गले दोरडानो फांसो खाई मरनारा, (वीसभक्षण ) के० विष खोइ मरनारा, (जलजलणावेस) के० पाणि अथवा अग्निमां प्रवेशकरी मरनारा, ( तण्हछुहहओदु) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ के० तरस अथवा भूखना दुःखथी मरनारा, अने (गिरिसिरपडगाउ मुया) के० पर्वतना शिखरउपरथी पडीने मरनारा जीवो (सुहभावा) के० जो शूलपाणीनी पेठे शुभ भावथी मरे तो (वंतरिया हुंति ) के० व्यंतर देवता थाय छे. ॥ २२७ ॥ तावस जा जोइसिपा, चरगपरिवाय बंभलोगो जा॥ जा सहसारो पंचिंदि-तिरिय जो अनुओसट्टा ॥२२८ - १५ ___ अर्थ-( तावस ) के० कंदमूलनुं भक्षण करनारा वनवासी तपस्वीओ मरीने (जा जोइसिया ) के० भुवनपतिथी आरंभी ज्योतषी देवता सुधी जाय. तथा चरगपरिवाय) के० चार पांच भेगा थई भिक्षा मागे ते चरक अने कपिलमति परिव्राजक त्रिदंडिया ते मरीने (बंभलोगो जा) के० भुवनपतिथी आरंभी उत्कृष्टा ब्रह्मदेव लोक सुधी जाय. तथा (पंचिंदितिरिय ) के० गर्भज पर्याप्ता पंचेंद्रिय तिर्यंच ते हाथी बलद विगेरे जीवो कंबल सबलनी पेठे सम्यक्त्व देशावरति सहित मरीने उत्कृष्टथी ( जा सहसारो) के० सहस्रार देवलोक सुधी जाय अने ( सट्ठा ) के० श्रावक मनुष्य मरीने उत्कृष्टथी (जा अच्चुओ) के० बारमा अच्युत देवलोक सुधी जाय ॥ २२८ ॥ जइलिंग मिच्छदिट्ठी, गेविज्जा जाव जंति उक्कोसं ॥ १. पयमवि असदहतो, सुतत्थं मिच्छदिछीओ ॥ २२९ ॥ अर्थ (जइलिंग मिच्छदिट्ठी ) के० साधुना वेषने धारण करनारो मिथ्यादृष्टि जीव क्रियाना बलेकरी अंगारमर्दकाचार्यनी पेठे (उकोसं ) के० उत्कृष्टथी (गेविज्जा जाव जंति ) के० नवग्रेवेयक सुधी उत्पन्न थाय. वली ते मिथ्यादृष्टि कोने कहेवाय Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ तो के जे (सुतत्थं ) के० सुत्र तथा अर्थना ( पयमवि ) के एक पदने पण (असतो ) के० सद्दहे नहीं तो ते (मिच्छदिट्टीओ)। के० मिथ्या दृष्टि जाणवो. ॥ २२९ ॥ अहिं सूत्रनुं लक्षण कहे छ. . सुत गगहररइयं, तहेव पत्तेयबुद्धरइयं च ॥ मुयकेवलिणा रइयं, अभिन्नदसपुविणा रइयं ॥२३०।। १९८ ___ अर्थ-( गगहररइयं ) के० सौधर्म स्वामी प्रमुख गणधरनां रखेला आचारांगादिक, ( तठेव ) के० तेमज (पत्तेयबुद्धरइयं ) के० नेमिराजा विगेरे प्रत्येक बुद्धना रचेला नेमिप्रव्रज्यादिक, वली (मुक्केवलिणारइयं ) के० चउद पूर्वधर श्रुतकेवली शय्यंभवसरि प्रमुखनां रचेलां दश. कालिकादिक, अने ( अभिन्नदसपुविणा रइयं ) के० संपूर्ण दश पूर्वधरनां रचेलां ग्रंथा ते सर्व (मुत्तं ) के० मूत्र कहेवाय ॥ २३० ॥ अत्यं भासइ अरिहा, सुतं गुत्थंति गणहरा निउणा ॥ सासगस्स हियट्ठाए, तओ सुतं पवत्तइ ॥ २३१ ।। अर्थ-( अरिहा ) के० अरिहंत प्रभु ( अत्यं ) के० अर्थने कहे. ते अरथी (निउगा ) के चतुर एवा (गगहरा) के० गणघरो (सुत्तं ) के० मूत्रने (गुत्थंति ) के गुंथे छे. (तओ) के० त्यार पछी ( सासणस हियट्ठाए ) के० शासन हितार्थे ( सुत्तं पवत्तइ ) के० मूत्र प्रवर्ते ॥ २३१ ॥ ... पयमक्खरंपि एगं, जो नवि रोएइ मुत्तनिद्दिष्टुं ॥ सेसं रोयइ अब, मिच्छादिट्ठी मुणेय वो ॥२३२॥१६ अर्थ-जो के० जेने ( मुत्तनिहिट ) के० मूत्रमां कहेलु Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ ( यमक्खरंपि एगं) के० एक पद अथवा एक अक्षर ( नरोएर ) के० न रुचे. ( अ ) के० अने (सेसं ) के० ते शिवायनुं बीजुं (बहु रोयइ) के० बहु रुवे. ते (मिच्छादिट्ठि) के० मिथ्या दृष्टि जीव (मुणेयो ) के० जाणवो. ॥ २३२ ॥ छउमत्थसंजयाणं, उावाओ उक्कोस सट्टे ! आit. q सिं सड्डापि य, जनओ होइ सोहम् || २३३ || 2 अर्थ - (छउ-त्थ संजयाणं ) के छद्मस्थसाधुओनुं (उववाओ) के० उपजतुं (उकोस ) के० उत्कृष्टथी ( स ) के० सवार्थ - सिद्ध विमान सुधी होय छे. अने ( तेसिं) के० ते साधुओनुं तथा (सवाणं पिय) के० श्रावकनुं ( जहन्नओ) के० जत्रन्यथी ( सोहर मे ) के० सौवम देवलोकने विषे उपज ( होइ ) के० होय छे. ॥ २३३ ॥ 286 लंतंभि चउदपुविस्स, तावसाईण अंतरे तहा ॥ ११२ एमो उववायविहि, नियकिरियठियाण सव्वोवि ॥ २३४॥ अर्थ - ( उदपुविस्स) के चउड़ पूर्वधर साधुनुं (लंतंमि ) के० लांक देवलोक सुधी उपजत्रुं होय. ( तहा ) के तेमज (ताबसाईण) के ० तापस सन्यासी शाक्यादिकनुं जघन्यथी (वंतरेसु ) के० व्यंतर देवलोकने विषे उपज होय. ( एसो ) के० आ पूर्व कहेलो (सोवि ) के० सर्व पण ( उववायविहि ) के० उपजवानो विधि ते ( नियकिरियठियाण) के० पोतपोतानी क्रियाने वर्ष सावधान रहेलानो जाणवो अने प्रज्ञापना सूत्रमां तेा तापसने जबन्यथी भवनपतिमां उजवं कयुं छे. ॥ २३४ ॥ अणुवय महव्वएहि य, बालनवाकामनिज्जराए य ॥ देवाउयं निबंध, सम्मदिट्ठी य जो जीवो || २३५॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अर्थ-( अणुवय महत्वएहि य ) के० अणुव्रत अथवा महाव्रतने पालनारो, ( वालतवाकामनिज्जराए य ) के बालतप तथा अकाम निर्जरानो करनार, एवो (जो ) के० जे (सम्पदीही य ) जीवो के० सम्यक् दृष्टि जीव छे ते देवाउयं निबंधइ ) के० देवतानुं आयुष्य बांधे छे. ॥ २३६ ॥ उक्तम् ।। नाणस्स केवलाणं, धम्मायरियस्स सवसाहूणं ॥ माई अवण्णवाई, किबिसियभावगं कुणइ ॥ २३६ ॥ अर्थ- नाणस्स ) के० ज्ञानना, (केवलीण) के० केवलोना, (धम्मायरियस्स) के० धर्माचार्यना अने ( सव्वसाहूणं) के० सर्व साधुना (अवण्णवाई) अवर्णवादने बोलनारो अने (माई) के० कपट करनारो जीव (किब्बिसियभावणं) के० किलबीशिक एटले पापी भावनाने (कुणइ ) के० करे छे, एटले किल्विषिक देवपणे उत्पन्न थाय छे. ॥ २३६ ॥ कोऊय भूइकम्भे, पसिणापसिणे निमित्तमाजीवे ॥ इढिरससायगरुओ, अभिओगं भावणं कुणई ॥२३७॥ अर्थ-(कोउयभूइकम्भे) के० कौतुक अथवा स्नानादिक भूतिकर्म करनार, (पसिणापसिणे ) के० प्रश्नथी निमित्त कहेनार अथवा प्रश्न विना निमित्त कहेनार, ( निमित्तमाजीवे ) के निमि त्तियाना कर्मथी आजीविका करनार, तेमज ( इडिरससायगरुओ) के० ऋद्धिगारव. रसगारख अने शातागारव करनारी जीव ( अभि ओगं भावणं ) के० अभियोगिक भावनाने (कुणई ) के० करे छे. एंटले सेवक देवपणे उत्पन्न थाय छे. ॥ २३७ ॥ हवे अभियोगिक भावनानुं स्वरूप कहे छे. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुविहो खलु अभिओगो, दवे भावे य होइ नायबो॥ दव्वंमि होइ जोगा, विज्जा मंतो य भामि ॥२३८॥ _____ अर्थ-[ अभिओगो] के० अभियोग (दुविहो) के० वे प्रकारनो छे. ( खल्लु) के निश्चे, ते ( दव्वे भावे ) के० द्रव्य अभियोग अने भाव अभियोग ( नायबो) के० जाणवा योग्य [ होइ ] के० होय छे. तेमां (दव्बंमि ) के० द्रव्य अभियोगने विषे (जोगा होइ) के० मनादि निमित्त जोग होय छे (य) के० अने (भावंमि) के० भाव अभियोगने विषे ( विज्जा मंता ) के० आगमादि विद्या अने मंत्रो होय छे. ॥ २३८ ॥ इवे संघयणना विशेषपणाथी देवतानी गति विशेष होय छे, माटे संघयणर्नु स्वरूप कहे छे. वज्जरिसहनारायं, पढमं बीयं च रिसहनारायं ॥ नारायमद्धनाराय-कीलिया तहय छेवढे ॥ २३९ ॥१७ एए छ संघषणा, रिसहो पट्टो य कीलिया वज्जं ॥ उभआ मक्कडबंधो, नाराओ होइ विनेओ ॥२४०॥ अर्थ-जे शरीरनां हाडकानो अति मजबुत बंध ते संघयण . कहेवाय. तेना छ भेद छे, (पढमं ) के० पहेलो (वज्जरिसहनारायं) के० वऋषभ नाराच १, (बीयं ) के बीजो (रिसहनारायं) के० ऋषभ नाराच २, त्रीजो (नारायं ) के० नाराच ३, चोथो ( अद्धनाराय) के० अर्द्ध नाराचः ४, पांचमो (कीलिया) के० कीलिका ५, ( तहय ) के० तेमन छठा (छेवढ़) के० सेवात ॥६॥ २३९ ॥ (एए) के० ए पूर्व कहेला (छ संघयणा) के. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ संघयण जाणवा. तेमां (रिसहो) के० ऋषभ ते ( पट्टो) के० पाटो जाणवा. (य) के० अने (कीलिया) के० खीलो ते (वज्ज) के वज्र कहेवाय. तथा. ( उभओ मकडबंधो ) के० बन्ने बाजुए मकंटबंध एटले हाडकाना मकटाकारे बंध ( नाराओ ) के० ते नाराच ( विन्नेओ ) के० जाणवा योग्य ( होइ ) के होय छे. ॥२४॥ . कीलिका रहित ते बीजो ऋषभनाराच, फक्त मर्कटबंध ते त्रीजो नाराच, एक बाजुए मकटबंध अने एक बाजुए कीलिका ते अर्द्ध नाराच. जेमा हाडकानो सबध एकली खीली सरखा ते कीलिका, असे जेमां वे हाडकाना छेडा परस्पर फक्त अडेला पण खीली विगेरे काई न होय ते सेवात अथवा छेत्रहुं संघयण जैन शास्त्रमा कयं छे. हवे कया जीवोने केटला संघयण होय ? ते कहे छ. छ गम्भ तिरिनराणं, समुच्छिमपणिंदि विगल छेवटुं । मुरनेरइया एगि-दिया य मवे असंघयणा ॥ २४१ ॥१ ____ अर्थ-(गमभिरि नराणं) के गर्भज तिर्यंच तथा मनु पने (छ ) के० छ संघयग होय. वली ( समुच्छिमपणिदि ) के० समूछिम पंचेंद्रि निर्थच, तथा समूच्छिम मनुष्य अने (विगल के बे इंद्रिय तेइंद्रिय तथा चउरिन्द्रियहा बिालद्रियने एरु (छेबट्ट) के सेवात एरले छेवळं सायण होय. वलो (सुर) के० देवता, (नेरइया) के नारको अओ (सने एगिदिया ) के. सर्व एकेद्रिय जीवो ( अतंत्रयणा) के संघयग रहि न होय छे, कारण हाडकानी रचना ते संघणय कहेवाय. ते देवता नारकी तथा एकेंद्रियमां नथी, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३. तो पण देवतामां अस्थिरूप संवयण विना जे शक्ति छे तेने पण उपचारथी संघयण कहेवाय. कारण देवतामां चक्रधरथी पण अधिक शक्ति होय छे, तेथी देवतामां वज्रऋषभनाराच संघयण होय छे तेमज अल्पशक्ति एकेंद्रियमां पण होय छे, तेथी एकेंद्रियने छेव संवयण कहेवाय. परंतु मूल भांगे तो देवतामां संघयण नथी ।। २४९ ॥ हवे संवयणथकी गति कहे छे. छेवट्ठेण उ गम्मइ, चउरो जा कप्प कीलियाइ ॥ चउसु दुदुकम्प वुढी, पढमे गं जाव सिद्धीवि ॥ २४२ ॥ अर्थ - ( छेवट्टेण) के० छेत्रठ्ठे संघयणे करी अध्यवसायना विशेषपगाथको जीव ( चउरो जाकप्प ) के० भुवनपति व्यंतर ज्योतिषी अने वैमानिकना चोथा देवलोक सुधी ( उ गम्मइ ) के०जाय छे. त्यार पछी ( कीलियाईसु चउसु ) के० किलिकादिक चार संघयणने पाछलथी गणतां चारे संघयणे करी (दुदुकप्पबुड्ढी) के ० बेबे देवलोकनी चडती चडती उपजे. ते आ प्रमाणे - कोलिका संघयणवालो जीव पांचमा तथा छठ्ठा देवलाक सुधी जाय, अर्द्धनाराच संघणवाल शुक्र अने सहस्रार देवलोक जाय. नाराच संघयणवालो जीव आनत अने प्राणत देवलोक सुधी जाय. ऋषभनाराच संघयणवालो जीव आरण अने अच्युत देवलोक सुधी जाय, अने ( पढमेणं) के० वज्रऋषभनाराच संधयणवालो जीव ( जावसिद्धी वि) के० भुवनपतिथी आरम्भी मोक्ष सुधी जाय ॥ २४२ ॥ हवे शरीरनी आकृतिने संस्थान कहेवाय छे. ने संस्थान छ प्रकारना छे. तेनां नाम तथा लक्षण कहे छे. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ຈ समचउरंस नग्गोह, साई वामण य खुज्ज हुंडे य ॥ जीवाण छ संठाणा, सवत्थ सुलक्खणं पढमं || २४३॥ नाहीए उवरि बीयं, तइयमहों पिट्ठि उयर उखज्जं ॥ सिरगीव पाणि पाए, सुलक्खणं तं चउत्थं तु ॥ २४४ ॥ विवरीयं पंचमगं, सवत्थ अलक्खगं भवे छ । गम्भयनरतिरिष छहा, सुरा समा हुंडया सेसा ॥ २४५ ॥ अर्थ - १ ( समचउरंस ) के० समचतुरस्र, २ ( नगोह ) ho न्यग्रोधपरिमण्डल, ३ ( साइ ) के० सादि, ४ ( वामण ) के० वामन ५ (खुज्ज) के० कुब्ज, ६ ( हुंडे य ) के० हुंडक. ए (जीवाण) के० जीवोना ( छ संठाणा ) के० छ संस्थान जाणवा. मां ( सवत्थ ) के० ए छ संस्थानमा ( सुलक्खणं पढमं ) के० सारा लक्षणवालु पहेलुं संस्थान जाणवु, पद्मासने बेसवाथी चारे बाजुए सरखी आकृतिवालुं होय ते पहेलुं समचतुरस्र संस्थान कहेवाय. ॥ २४३ ॥ जे वडवृक्षनी पेठे ( नाहीए उवरि ) के० नाभिनी उपर सारा लक्षणत्रालु अने नीचे होन होय ते (बीयं ) के० बीजुं न्यग्रोधपरि मंडल संस्थान कहेवाय. (तइयं) के० त्रीजुं सादि संस्थान ते (अहो ) के० नाभिनी नीचे सारा लक्षणवालुं अने नाभिनी उपर होन लक्षवालुं जाणवु. (पिठि ) के० पृष्ठ, ( उयर) के० उदर अने ( उरवज्जं ) के० छाति तेने बर्जीने बाकीना ( सिर ) के० मस्तक, [गीव ] के० कंठ, ( पाणि) के० हाथ अने ( पाए ) के० पग एटला ( सुलक्खणं) के० सारालक्षणवाला होय ( तं ) के० ते ( चउत्थं ) के० चोथुं वामन संस्थान जाणवु ॥ २४४ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ ( विवरीयं ) के० चोथा संस्थान थकी विपरीत लक्षणवालुं एटले पृष्ट उदर हृदय ए सारा लक्षणवाला अने मस्तक कंठ हाथ पग लक्षण हीन होय ते ( पंचमर्ग ) के० पांचमुं कुब्ज संस्थान जाorg ने सत्य के सर्व प्रकारे ( अलक्खणं ) के० लक्षण रहित होय ते (छहं भवे ) के० छठु हुडक संस्थान जाणं. ( गप्भयनरतिरिय ) के० गर्भज मनुष्य अने गर्भज तिर्थच ( छहा ) के० छ संस्थानवाला होय . ( सुरा समा ) के० देवता समचतुरस्र संस्थानवाला होय छे, अने (सेसा ) के० वाकीना जीवो ( हुंडया ) के० हुंडक संस्थानवाला होय छे ।। २४५ ॥ हवे देवता चवीने कइ गतिमां अजे ? ते आगति कहे छे. जंति सुरा संखाज्य, गप्भय पज्जत्त मणुयतिरिएसु ॥ पज्जते य बायर, भूदगपत्तेयगवणेसु ॥ २४६ ॥ अर्थ — सामान्यथी चारे निकायना (सुरा) के० देवता चवीने युगलिया मनुष्य विना ( संखाउय ) के० संख्याता आयुष्यवाला ( गप्भय) के० गर्भज अने ( पज्जत्त ) के० पर्याप्ता एवा ( मणुयतिरिएस) के० मनुष्य अने तिर्यचने विषे तथा (पज्जतेसु) के० पर्याप्ता ( बायर ) के० बादर एवा (भृदगपत्तेयगवणेसु) के० पृथ्वीकाय अप्काय अने प्रत्येक वनस्पतिकायम ( जंति) के० जाय छे. अर्थात ए पांच गतिमां उपजे. बीजी एके गतिमां उपजे नहीं. ॥ २४६ ॥ तत्थवि कुमार - भिइ एगिदिएसु नो जंति | ओणयपमुहा चविरं, मणुएसु चैव गच्छंति || २४७|| अर्थ - ( तत्थवि ) के० तेमां पण ( सणकुमारप्पभिइ ) के० Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनत्कुमारथी आरंभी सहस्रार देवलोक सुधीना देवता चवीने ( एगि दिएसु ) के० एकेंदियने विषे (नो जंति) के० उपजे नहीं. वली ( आगयपमुहा) के० आनत देवलोकथी आरंभी पांच अनुतर विमान सुधीना देवता ( चविउँ ) के० चवीने (मणुएसु) के. संख्याता आयुष्याला पर्याप्ता मनुष्यमांहे (चेत्र ) के० निश्वे - च्छंति के० जाय छे. ।। २४७ ॥ हो जे देवताने जेवी रीते देवांगना साथे संभोग छे अने जे देवताने सर्वथा संभोग नथी ते कहे छे. कामवेदनाथी मनुष्यनी पेठे विषय सुख भोगवे. ते उपरना (दो) के० सनत्कुमार तथा माहेंद्र देवलोकना देवता देवांगनानां (करिस) के० स्तन भुज विगेरे अंगस्पर्शथी भोगसुख पामे छे. ते उपरना [दो] - अथे-(दोकप कायसेवी ) ० भुवनति व्यतर ज्यातषी तथा सौधर्म अने ईशान ए बे देवलोक सुयोना देवता अति उत्कृष्ट कामवेदनाथी मनुष्यनी पेठे विषय सुख भोगये. ते उपरना (दो) के० सनत्कुमार तथा माहेंद्र देवलोकना देवता देवांगनानां (फरिस) के० स्तन भुज विगेरे अंगस्पर्शथी भोगसुख पामे छे. ते उपरना [दो के० ब्रह्म अने लांतक देवलोकना देवता देवांगनानां (रूब) के० रूप देवीने विषय सुख पामे छे. ते उपरना (दो) के० शुक्र अने सहस्त्रार देवलोकना देवता देवांगनानां (सद्देहिं ) के० गीतहास्य विलासादिना शब्द सांभलवाथी संभोग सुखनी तृप्ति पामे छे. ते उपरना ( चउरो ) के० आनतादि चार देवलोकना देवताओ (मणेण) के० (अप्पवियार।) के० अल्पविकारोपणाने लीधे विषय सुखथी रहित होवाथी ( अणंतसुहा ) के. अनंत मुखवाला छे. ॥ २४८ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ -कथु छे केजं च कामसुहं लोए, जं च दिव्वं महासुहं ॥ वीयरायसुहस्सेय-णंतभागंपि नग्धइ ॥ २४९ ॥ १८७ .. अर्थ- (लोए ) के० लोकमां (जं कामसुहं ) के जे काममुख छे. (च) के० अने (ज) के जे (दिव्वं महासुह) के० देव संबंधी महासुख छे. ते सुख ( वोयरायसुहस्सेय ) के० वीतराग एटले रोगद्वेष रहित एवा प्रभुना सुखना (गंतभागंपि ) के० अनंता भागने पण ( नग्धइ ) के० पामता नथो. अर्थात् प्रभुने जे सुख छे तेना अनंतमा भागर्नु सुख देवताने पण नथी ॥ २४९. ॥ ___इवे देवोओनी उत्पत्तिनुं स्थान कहे छे.. उववाओ देवीणं, कप्पदुगं जा परो सहस्सारा ॥ गमणागमणं नत्थी, अ अपरओ सुरागपि ॥२५॥ अर्थ- ( देवीणं ) के. देवीओ- ( उववाओ) के उपजवु ते ( कप्पदुगं जा) के० भुवनपतिथी आरंभी ईशान देवलोक सुधा छे. तेथी उपरना देवलोकमां देवीओर्नु उपजवू नयी. परन्तु देवताना उपभेग माटे सौधर्म तथा ईशान देवलोकनी अपरिगृहित। देवीओ अरना देवलोकमां जाय तो ( परो सहस्सारा ) के० उपरना सहस्रार देवलोक सुधी जाय. त्यांथीः उपरना देक्लोकमां (गमणागमणं नत्थी ) के० देवीओ- जवु आवq नथी. अने ( अच्चुअप. रओ सुराणंपि) के० अच्युत देवलोकथी उपर तो देवताओर्नु पण जवु आवQ नथी. तेमज नव गैरेयक तथा पांच अनुत्तर विमानवासो देवताओने नीचे आवानु प्रयोजन नथी. तीर्थकरना कल्याणिक अवसरे पण पोताना स्थानके रह्या छता नमस्कारादिक करे छे. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ कदापि कोइ संदेह थाय तो मन वर्गणाथी प्रश्न करे. केवली केवलज्ञानथी जाणी तेनो उत्तर आपे-तेने ते देवता अवधिज्ञानथी जाणे परन्तु अंहिं आवे नही ॥ २५० ॥ ___ हवे किलबिषिया देवानां स्थानक कहेछे. तिपलिय तिसार तेरस,सारा कप्पदुग तइय लंत अहो॥ किबिसि नहुँति उवरिं,अच्चुअ परओऽभिआगाई।२५१।१८ अर्थ-देवताओमां पण अशुभ कर्मना उदयथी चंडाल सरखा कल बिषिया देवता थाय छे. ते (कप्पदुग ) के० पहेला बे देवलोकना तलीये ( तिपलिय ) के० त्रण पल्योपमना आयुष्यवाला वसे छे. तेमज ( तइय ) के० त्रीजा सनत्कुमारना तलिये [तिसार] के० त्रण सागरोपमना आयुष्ये वसे छे. वली (सेरस सारा ) के० तेर सागरोपमना आयुष्यवाला (लंत अहो ) के० लांतक देवलोकनी नीचे वसे छे. ( उवरिं) के० लांतक देवलोकथी उपरना देवलोकमां ( किब्बिसि ) के० किलबिषिया देवता (न हुतिः) के० नथी. वली ( अच्चुअपरओ) के० बारमा अच्युत देवलोकथी उपरना देवलोकमां ( अभिओगाइ) के० अभियोगिक तथा सामानिकादि देवो नथी. कारण ग्रेवेयक तथा अनुत्तरमा वसनारा सर्वे देवा स्वयोव इंद्र सरखा छे ॥ २५१ ॥ __हवे सौधर्म तथा ईशान देवलोकमां अपरिग्रहिता देवीओना विमाननी संख्या, तथा देवीओनुं आयुष्य, अने कया विमान वासी देवताओने कइ देवीओ भोग योग्य छे ? ते कहे छे. अपरिग्गहदेवीणं, विमाण लक्खा छ हुँति सोहम्मे ॥१४८ पलियाई समयाहिय,टिइ जासिं जाव दसपलिया॥२५२॥१७ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ ताओ सणंकुमारा-नेवं वटुंति पलियदसगेहिं ॥ १ . जा बंभ सुक्क आणय, आरण देवाण पन्नासा ॥२५३॥ ईसाणे चउ लक्खा,साहिय पलियाइ समय अहिअठिइ ।। जा पनर पलिय जासिं, ताओ माहिंद देवाण।।२५४॥ एएण कमेण भवे, समयाहिय पलिय दसगवुढोए ॥ लंतसहसारपाणय, अच्चुअ देवाण पणपन्ना ॥२५५॥१४ ___ अर्थ-( सोहम्मे ) के० सौधर्म देवलोकने विषे [ अपरिग्गह देवीणं ] के० अपरिग्रहिता देवीओना ( विमाण ) के० विमान ते (छ लक्खा) के० छ लाख (हुति ) के० छे. तेमां जे देवीओनुं एक पल्योपमर्नु पूर्ण आयुष्य छे. ते देवीओसौधर्म देवलोकवासी देवताने भोग योग्य जाणवी. अने ( जासिं ) के० जे देवी ओगें (ठिइ) 0 आयुष्य (पलियाई समयाहिय) के० एक पल्यापमथी आरंभी समय समय अधिक वधतां (जाव दसपलिया) के० दश पल्यावमनुं आयुष्य होय ॥२५२॥ (ताओ) क० ते देवीओ ( सणंकुमारा) के० सनत्कुमार देवताने भोग योग्य जाणवी, पण उपरना देवताने (न) के० भोग योग्य नथी. ( एवं ) के० वली एज... प्रमाणे ( पलियदसगेहिं ) के० दश पल्यापमथी एक एक समय (वट्ठति ) के० वधारतां (जा) के० जेटलामां वीशपल्यापमर्नु आयुष्य पूर्ण थाय तेटला आयुष्यवाली देवीओ (बंभ ) के० ब्रह्मदेव लोकना देवताने भाग योग्य जाणवी. त्यार पछी समय समय वधारता त्रीशपल्योपम थाय तेटला आयुष्यवाली देवीओ (शुक्र) के०शुक्र देवलोकना देवताने भोग योग्य जाणवी. त्यार पछी समय समय वधारता ज्यांसुधीमा चालीश पल्पोयम थाय. तेटला आयुष्य Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० वाली देवीओ (आणय) के आनत देवलोकना देवताने भाग योग्य जाणवी. त्यार पछी समय समय वधारता जेटलामां ( पन्नोसा) के० पचास पल्यापम थाय तेटला आयुष्यवाली देवीओ ( आरग देवाण) के० आरण देवलोकना देवताने भाग योग्य जाणवी ॥ २५३ ॥ ( ईसाणे ) के० ईशान देवलोकमां अपरिग्रहिता देवी ओना (चउ लकवा ) के० चार लाख विमान छे. तेमां ( साहिय पलियाइ ) के० जे देवीओनुं साधिक एक पल्यापमनुं आयुष्य छे ते ईशान देवलोकना देवतानेज भाग योग्य जाणवी. त्यार पछी (समय अहिय ) के० समय समय अधिक वधारतां (जासिं ) के०जे देवीओर्नु ( जा पनर पालय टिइ) के० ज्यां सुधी पनर पल्योपमनी आयुष्य स्थिति थाय, ( ताओ ) के० तेटला आयुष्यवाली देवीओ (माहिंद देवाणं ) के० माहेंद्र देवलोकना देवताओने भीग योग्य जाणवी ॥ २५४ ॥ ( एएण कमेण ) के० ए अनुक्रमे करीने ( समयाहियपलियदसगवुट्ठीए) के० एक एक समयथी आरंभीने दश दश पल्यापमनी वृद्धि ( भवे ) के० होय. जेथी पञ्चीस पल्योपम सुधीना आयुष्यवाली देवीओ ( लंत ) के० लांतक देवलो. कना देवताने भोग योग्य जाणवी. पांत्रीश पल्यापम सुधीना आयुष्यवाली देवीओ ( सहस्सार ) के० सहस्रार देवलोकना देवताओने भोग योग्य जाणवी. पोस्तालोश पल्यापम सुधीना आयुष्यवाली देवीओ (पाणय ) के० प्राणत देवलोकना देवताने भाग योग्य जाणवी. अने (पणपन्ना ) के० पंचावन पल्यापम सुधीना आयुष्यवाली देवीओ ( अच्चुअदेवाण ) के० अच्युत देवलोकना देवताने भाग योग्य जाणवी. ॥ २५५ ॥ हवे छ लेश्यानु स्वरूप तथा देवताने केटलो लेश्या होय ते कहछे. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ पंथाओ परिभठ्ठा, छ पुरिसा अडविमज्झयारंमि | जंबूतरुस्स हिठ्ठा, परोपरं ते विचिंतंति ॥ २५६ ॥ अर्थ - ( थाओ ) के० मार्गथी ( परिभट्ठा ) के० भूला पडेला ( छ पुरिसा) के० छ पुरुवा ( अडविमज्झयारंमि ) के० अरण्यना मध्ये (जंबूतरुस्स हिट्टा ) के० जंबुवृक्षनी नीचे उभा रह्या अने (ते) के० ते पुरुषो ( परोपरं ) के० परस्पर ( विचितंति ) के विचार करवा लाग्या. ।। २५६ । ७ निम्मूलखंधसालो-गुच्छेप के पडियसडियाई ॥ जह एएसं भावा, तह लेसाओ जायन्त्रा ।। २५७ ॥ अर्थ - तेमां एक पुरुष जांबुनां फलनी इच्छाथी जांबुना वृक्ष ( निम्मूल ) के० मूलमांधी उखाडी नाखवाने विचार करवा लाग्यो, चीजो पुरुष ( खंध ) के० थडने तोडी पाडवानी इच्छा करवा लाग्यो, त्रीजो पुरुष ( सालो ) के० नानी डालोने छेदी नाखवानी इच्छा करवा लाग्यो, चोथो पुरुष ( गुच्छे ) के० काचा पाका फल लागेला गुच्छाने छेदवानो विचार करवा लाग्थो, पांचमो पुरुष वृक्ष, उपर लागेला ( पक्के ) के० पाकां फलेानेज तोडवानी इछा करवा लाग्यो, अने छट्टो पुरुष तो ( पडिय सडियाई ) के ० नीचे खरी पडेलां फलाने लेवानी इच्छा करवा लाग्यो. (जह ) के० जेवी रीते (एएस) के० ए छ पुरुषना (भावा) के० कषाय भावो का . ( तह ) के० तेवा (लेसाओ) के० छ लेश्याना भावी ( नायवा ) के० जाणवा ॥ २५७ ॥ द्विजिमुतवण्णाभा, गवरयरोट्ठ समप्पभा ॥ खंजण वण्ण संकासा, लेसाओ कण्ह वण्णओ ॥ २५८॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अर्थ-(णिद्धजिमुतवण्णाभा ) के. स्निग्ध मेघसमान वर्णवाली, (गवरयरीट्ठसमप्पभा) के० भेंसना शींग अथवा अरिष्टरनना समान कांतिवाली, (खंजण वण्ण संकासा ) के० गाडाना पैंडानी मेसना वर्ण सरखी ( कण्हवण्णओ ) के० कृष्णवर्णनी पहेली (लेसाओ) के० कृष्ण लेश्या जाणवी ॥ २५८ ॥ पल्लवासोय संकासा, चासपिच्छसमप्पभा॥ वेरुलीयरयणाभा, वण्णाओ, नीललेसाओ॥ २५९ ।। अर्थ-(पल्लवासोयसंकासा ) के० अशोक वृक्षना :पल्लव समान कांतिवाली. ( चासपिच्छसमप्पभा ) के० चास पक्षीना पीजना समान वर्णवाली, अने (देरुलीयरयणाभा) के० वडुथरलेश्या समान कांतिवाली वर्णथी नीललेसाओ के वीजी नील लेश्या जाणवी ॥ २५९ ॥ अलसीकुसुमाइवण्णाभा,जारिसीकोइलतलपीच्छच्छदा॥ पारावयगीवसमा, वण्णाओ काउलेसाओ ॥ २६० ॥ अर्थ-( अलसीकुसुमाई वण्णाभा ) के अलसी पुष्प विगेरेना सरखी कांतिवाली, (जारिसीकोइलतुलपीच्छच्छदा) के० जरसी अथवा कोयलना पीच्छना समान वर्णवाली. वली (पारावयगीवसमा ) के० पारेवाना कंठ समान कांतिवाली वण्णाओ के० वर्णथी ( काउलेसाओ ) के० त्रीजी कापोत लेश्या जाणवी ॥२६०॥ तेउलेसा भवे वण्णा, हिंगुलरागसन्निभा ॥ तरुणाइचसमाकंती, दीवसमा होइ सुअतुंडा ॥२६१॥ ____ अर्थ-(हिंगुलरागसनिमा) के० हिंगलाना रंग सरखी, (तलणाइच समाकंति ) के० उगता भूर्यना सरखी कांतिवाली, (दीव Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ समा) के० दीवा सरखी, (मुअतुंडा ) के० पोपटनी चांच समान ( वण्णा ) के० वर्णथी ( तेउलेसा ) के चोथी तेजोलेश्या ( भवे) के० श्रेष्ठ ( होइ ) के० होय छे. ॥ २६९ ॥ ० हरियालमज्झरागा. हरिहायसमप्पभा ॥ सणासण कुसुम समा, वण्णाओ पालेमाओ ||२६|| अर्थ – (हरियाल मज्झरागा ) के० हरतालना मध्यरंग समान, ( हरिदाय समयभा ) के० हलदरना रंग समान कांतिवाली, (सणासण कुसुम समा ) के ० सरंगवाना फुल समान ( वण्णाओ ) के वर्णथी पांचमी (पद्मलेसाओ ) के० पद्मलेश्या जाणवी || २६२ ॥ ७ है सुकलेसा भवे वण्णा, संखकुंद समप्पा || खीवरदुधधवला, मुत्ताहलहारस्ययसमा ।। २६३ || अर्थ - ( संखकुन्दसमप्पभा) के० शंख अथवा मोगराना पुष्प समान उज्ज्वल, ( वीरवरदुधधवला ) के० क्षीर समुद्रना दुध स मान उज्ज्वल, तथा ( मुत्ताहलहाररययमसा ) के० मुक्ताफलना हार अथवा रुप्य समान ( वण्णा ) के० वर्णथी ( सुकलेसा ) के० छडी शुक्रलेश्या ( भवे ) के० होय छे. ॥ २६३ ॥ जह कडुओ तुंबरसे, निंबरसो कडुय रोहिणीयरसेा ॥ एत्तोव अनंतगुणो, रसो उ कण्हाए नायव || २६४ || अर्थ - ( जह ) के० जेवो ( कडुओतुंबरसो ) के० कडवी - बीना रस होय, (निवरसो) के० लींबडानेो रस होय, ( कडुयरोहिणी यरसो) के० कडवी गंलाना रस होय. ( एत्तोवि ) के० एनाथी पण ( अनंतगुणो ) के० अनंतगुणो ( रसो) के० कडवो Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ रस (कव्हाए) के० कृष्ण लेश्याना (नायवो) के० जाणो ॥ २६४ || जह तियगडस्स य रसो, तिक्खो जह हत्थिपीप्पलीए य ॥ एत्तोव य णंतगुणो, रसो उ नीललेस्साए ॥ २६५ ॥ अर्थ - ( जह ) के० जेवो ( नियगडस्स) रसो के० मुंड पोंपर अने मरीरूप त्रिकटुना ( तिक्खो ) के० तीखो रस होय, ( जह ) के० जेवो ( हत्थिपीप्पलीए ) के० गजपीपरनेा तीखो रस होय. एतोषि) के० एथी पण ( अनंतगुणो ) के अनंतगुणो ( रसो) के० तीखो ( नीललेस्साए ) के० नीललेश्याना जाणवो. ॥ २६५ ॥ कच्चस्स वावि जाव रसो | जह तरुण चूयरसो, कवि एतावि अनंतगुणो, रसो य काओय लेसाओ || २६६ || अर्थ - (जह ) के० ( तरुणचूयरसो) के० काचा आंबाना फलना रस होय, (वावि ) के० अथवा पण ( कवि कच्चास) के० ० काचा कोठ फलनो ( जाब रसो) के० जेवो रस होय, (एतोव) के० एनाथी पण ( अनंतगुणो ) के० अनंतगुणा ) के० अनं तगुणा ( रसो) के० कषायलेा रस ( काओय ) लेसाओ ) के० कापोत लेश्याना जाणवो. ॥ २६६ ॥ जह परिणयअंबरसो, पक्ककविट्ठस्स वावि जारिसओ | एत्तोवि अनंतगुणो, रसोय तेऊए नायवो ॥ २६७ ॥ अर्थ - ( जह ) के० जेवो ( परिणय अंबरसो ) के० पाकेला आंबाना फलना रस होय, (वावि ) के० अथवा ( पक्कक विट्ठस्स ) के० पाकेला क फलना ( जारिसओ) के ० जेवो रस होय. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ ( एत्तोवि ) के० एनाथी पण ( अांतगुणो ) के ० अनंतगुणो (रसो) के० मीष्टरस ( तेऊए ) के० तेजोलेश्यानो ( नामहो ) के० जाणवो ॥ २६७ ॥ पहाए एरिसरसो, वरवारुणि आसवाण जारिसओ ॥ महुमेरगस्सब रसो, तत्तोविय होइ पंतगुणो ॥ २६८ ॥ अर्थ - ( पहाए ) के० पद्मलेश्यानो (एरिसरसो) के० एवो रस छे. केव ? ते कहे छे. ( वरवारुणि) के० श्रेष्ठ मदिरानो तथा ( आसवाण ) के० विविध आसवानो ( जारिसओ) के० रस होय . वली (महुमेरगस्सव रसो) के० मघ तथा मैरेमदिरानो जेवो रस छे, (तत्तोत्रिय ) तेनाथी पण (पंतगुंगा) के० अनंतगुणो ( पद्मलेश्यानो रस होइ) के ० होय. ।। २६८ ।। खज्जूर मुदीयरसो, खीररसो खंडसकररसो वा ॥ एत्तोवि अनंतगुणो, रसो सुक्काओ नावो ॥ २६९ ॥ अर्थ - जेवो [ खज्जूरमुदीयरसो ] के० खजूर अने द्राखनो रसं होय, तेमज जेवो ( खीररसो के० दुधनो रस होय, वा के० अथवा जेवr (खंडसकररसो) के० खांड अने साकरनो रस होय, ( एत्तो वि ) के० एनाथी पण (अनंतगुण) के० अनंतगुणा (रसो) के० मीठो रस ( सुकाओ) के० शुक्कलेश्यानो ( नायन्त्रो ) के० जाणो ॥ २६९ ॥ हवे लेश्यानो स्पर्श केवो होय ? ते कहे छे. किण्हा न ला काऊ, तिन्निवि फासो य अप्पसत्थाओ || गोजिभकरवय तओ, तगुणा होइ फासो य ॥ २७० ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ अर्थ-(किण्हा नीला काऊ) के० कृष्णलेश्या, नीललेश्या अने कापोतलेश्या, (तिनिवि फासोय ) के० ए त्रणे लेश्यानो पण स्पर्श [ अप्पसस्थाओ के माठो जाणवो. जेवो( गोजिप्भ कावय ) के० गायनी जिभ अने करवत, ( तओ) के तेथी ( अणंनगुगो ) के० अनंतगुणो ( फासो ) के ए त्रणे लेश्यानो समर्श [ होइ ] के० होय छे. ॥ ॥ तेऊ पम्हा सुक्का पसत्थलेसाओ एरिसो फासो ॥ बुरनवणीयसिरीसो, णंतगुणो होइ तत्तोवि ॥ २७१ ॥ ___ अर्थ-(तेऊ पम्हा सुका ) के तेजोलेश्या, पद्मलेश्या अने शुक्ललेश्या, ए त्रण सारी लेश्या छे. तेनेा ( एरिसो फासो ) के० एवो स्पर्श होय छे. केवो होय छे! ता के० ( बुरनवणीयसो) के० बूग्नामनी वनस्पति तथा माखण अने शिरीषना फुल सरखी जे स्पर्श छे. ( तत्तोवि ) के० तेनाथी पण ए त्रण लेश्यानो ( अणंतगुणो ) के० अनंतगुणो श्रेष्ठ स्पर्श ('होइ.)क० छे. ॥२७॥ हवे देवताने कइ कइ लेश्या होय ? ते दोह गोथाथी कहे छे. किण्णा नीला काऊ, तेऊ पम्हा य सुकलेसाओ॥ भवणवण पढमचउलेस, जोइसकप्पदुगे तेऊ.॥२७२ ॥१॥ कष्पतिय पम्हलेसा, लंनाइसु सुक्कलेस हुँति सुरा ॥१४० ____ अर्थ-(किण्हा ) के० कृष्णलेश्या, (नीला ) के० नीललश्या, ( काऊ) के० कापोतलेश्या, ( तेऊ ) के तेजोलेश्या, (पम्हा ) के० पद्मलेश्या, य के० अने ( सुक्क) के० शुक्ललेश्या. ए छ (लेस्साओ) के० लेश्या जाणवी. जीव तथा कमनो जेणे करी संबंध थाय ते लेश्या कहेवाय छे. तेना द्रव्यलेश्या अने भाव Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ लेश्या एवा वे भेद छे. आत्माने कृष्ण पीत विगेरे द्रव्यपुद्गल संयोग ते द्रव्यलेश्या, तथा शुभाशुभ परिणाम ते भावलेश्या. ए अधिकार आगल नारकीना अधिकारमा कहेशे. (भवणवण) के० भवनपति तथा व्यंतर देवताने ( पढम चउलेस ) के० पहेली चार एटले कृष्ण नोल कापोत अने तेजो ए चार लेश्या होय छे. त्यां परमाधामीने एक कृष्णलेश्यो होय छे, अने ( जोइसकपदुगे) के० ज्योतपो तथा पहेला बे देवलोकने विषे (नेऊ) के० तेजोलेश्या होय छे. ॥ २७२ ॥ ते उपरना ( कपतिय ) के० सनत्कुमार माहेंद्र अने ब्रह्म ए त्रण देवलोकने विषे ( पम्ह लेसा ) के० एक पद्मलल्या होय छे. तथा (लंताइसु ) के० लांतक देवलोकथी आरंभी उसरना सर्व लोकने विषे ( सुरा) के० देवता ( सुकलेस ) के०. शुक्ललेश्यावाला (हुति ) के० होय छे. ___ भवनपति व्यंतर अने ज्योतषी देवोना शरीरनो वर्ण प्रथम देवोना अधिकारमा कया छे. अहिं वैमानिक देवोना शरीरनो वर्ण अझै गाथाथी कहे छे. कणगाभ पउमकेसर-चन्ना दुसुतिसु उवरि धाला॥२७३॥ अर्थ-सौधर्म अने ईशान ए ( दुसु ) के देवलोकमां देवतानां शरीर (कणगाभ) के० राता सुवर्ण समान कांतिवाला जाणवा. तथा सनत्कुमार माहेंद्र अने ब्रह्म ए (तिसु ) के० ग देवलोकना देवतानां शरीर ( पउमकेसर वन्ना ) के० कमलना केसाना जेवा वर्णवाला जागवा. अने ( उवरि ) के० ते उपरना सर्व देवलोकना देवतानां शरीर (घवला ) के० उज्वल वर्णवाला जाणवा. ॥ २७३ ॥ हो देवताना आहारनुं तथा श्वासोश्वासनुं स्वरूप कडे छे. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ दसवाससहस्साई, जहन्नमाउं धरति जे देवा || तेसिं उत्थाहारो, सत्तहिं थोवेहिं ऊसासो ॥ २७४ ॥ अर्थ - भवनपति तथा व्यंतर देवोमां ( जे देवा) के० जे देवता ( दसवाससहस्साई ) के० दश हजार वर्षानुं ( जहन्नमाउं ) के० जघन्य आयुष्य ( धरंति ) के० धारण करे छे. ( तेर्सि ) कं० ते देवताने ( उत्थाहारो ) के० चोथ पछी एटले एक अहोरात्रीनें आंतरे आहारनी इच्छा होय. अने ते इच्छा मनोहर पुद्गलोथी पूर्ण करे. तथा तेमने ( सत्तर्हि ) थोवेहिं ) के० सात स्तोके करीने (ऊसासी) के एक श्वासोश्वास होय. ॥ २७४ ॥ ० हवे पूर्वे कला स्तोकनुं प्रमाण कहे छे. आहिवाहिविमुक्कस्स, नीसासूस्सास एगगो ॥ पाणु सत्त इमो थोवो, सोवि सत्तगुणो लवो ॥ २७५॥ अर्थ - ( आहि ) के० आधि ते मननी पीडा अने ( वाहि ) के० व्याधि ते शरीरनी पीडा . ते बन्ने पीडाथी ( विमुकस्स ) के० मुक्त थयेला एवा पुरुषना ( एगगो) के० एक एवो ( नीसासूस्सास) के० श्वासोश्वास ते ( पाणु) के० एक प्राण कहीये. अने ( सत्त इमो ) के० एवा सात प्राणे ( थोवो ) के० एक स्तोक कहीये. ( सोवि सत्तगुणो ) के० तेवा सात स्तोके ( लवो ) के ० एक लव थाय ॥ २७५ ॥ 20° हट्ठस्स अणवगलस्स, निरुत्रकस्स जंतुणो ॥ मृगे उसासनिस्सासे, एसो पाणुत्ति वुच्चइ ॥ २७६ ॥ अर्थ - (हस्स) के० हर्षवंत, [ अणवगल्लस्स ] के० उद्वेग Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ : रहित अ ( निरुस्स ) के० राग रहित एवा (जंतुणो) के० प्राणीनो (एग उसासनिसासे ) के० एक श्वासोश्वास ( एसो ) के० ए (पाणुत्ति वुच्चर ) कहेवाय छे. ॥ २७६ ॥ एगा कोडि सतंसट्ठी, लक्खा सतहत्तरी सहस्सा य ॥ दोय सया सोलहिया, आवलिया इगमुहुत्तेण ॥ २७७॥ अर्थ - ( एगा ! कोडी ) के० एक क्रोड, ( सतसट्ठी लक्खा ) के ० ० सस लाख ( सतहत्तरी सहस्साय ) के सत्योतेर हजार, ( दोय सया ) के० अने ( सोलहिया ) के० शोल अधिक एटली ( आवलिया ) के० आवलिका ( इगमुहुत्तेण ) के० एकमुहूर्तमां थाय छे. ॥ २७७ ॥ लवसत्तहत्तरीए, होइ मुहुत्तो इमि ऊसासा ॥ २० 6; सगतीससयतिहुत्तर, तीसगुणा ते अहोरते ॥ २७८ ॥ अर्थ - बसो पंचोतेरमी गाथामां ओगणपचास श्वासोश्वासे एक लव को छे तेवा ( लवसतहत्तरीए ) के० सत्योतेर लवे (मुहुत्तो होइ ) के० एक मुहुर्त थाय छे. अने ( इमि ) के० एक मुहूर्तां [ सगंतीस तिहुत्तर ] के० सात्रीस सो अने तहोतेर ( ऊसासा) के० श्वासोश्वास थाय. हवे त्रीस मुहूर्ते अहोरात्री थाय छे माटे साडत्रीस सो अने तहोतेरने (तीसगुणा ) के० त्रीशगुणा करी त्यारे (अहोरते ) के० एक अहोरात्राम (ते) के० ते श्वासोश्वास केला थाय ! तो के- ॥ २७८ ॥ एवं च सयसहस्सं, ऊसासाणं तेर सहस्सा य ॥ नउयसरणं अहिया, दिवसनिसि हुँति विन्नेया ॥ २७९ ॥ | Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(एग सयसहस्सं ) के० एक लाख. (तेरसहसा) के० तेर हजार ( य ) के० अने (नउयसएणं आहया ) के० एक सो नेवू अधिक एटला ( उसासाणं) के० श्वासोश्वासनी संख्या ( दिवसनिसि ) के० रात्रि अने दिवस मलीने ( हुंति ) के० थाय छ, एम ( विन्नेया ) के० जाणवू. ॥ २७९ ॥ मासेवि य ऊसासा, लक्खा तितीस सहस पगनई ॥ सत्तसयाइं जाणह, कहियाइं पुवसूरीहिं ॥ २८० ॥२११ • अर्थ-(य) के० वली ( मासेवि ) के० एक मासने विषे (उसासा ) के० ते श्वासोश्वास (लक्खातित्तीस) के० तेत्रीश लाख (सहसपणनउइ ) के० पंचाणुं हजार, अने ( सत्त सयाइं ) के० सात सो थाय. एम (पूवमूरिहिं ) के० पूर्वना आचार्योए ( कहियाई ) के० कयु छे. ते ( जाणह) के० जाणवू. ॥ २८० ॥ चत्तारी य कोडिओ, लक्खा सत्तेव हुँति नायवा ।। अडयालीस सहस्स्या, चारिसया एग वरिसेणं ॥२८॥११ ___ अर्थ-(य के० वली (चत्तारी कोडिओ ) के० चार करोड (लक्खा सत्तेव ) के० सात लाख ( अडयालीस सहस्सा ) के० अडतालीस हजार अने ( चारिसया ) के० चार सो उपर एटला श्वासोश्वास ( एग वरिसेणं) के० एक वर्षे (हुति ) के० थाय छे. एम ( नायबा ) के० जाणवु. ॥ २८१ ॥ चत्तारी कोडिसया, कोडीओ सत्त लक्ख अडयाला ॥ चत्तालीस सहस्सा, वाससए हुंति नायब्बा ॥ २८२ ॥२॥ अर्थ-(चत्तारी कोडि सया) के चार सो क्रोड, (को Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डीओ सत्त) के सात क्रोड, (लक्ख अडयाला ) के० अर तालीस लाख, ( च तालीस सहस्सा ) के० चालीस हजार एटला श्वासोश्वास ( वाससए) के० सो वर्षे हुंति के० थाय छे. ते (नायत्वा ) के० जाणवा. ॥ २८२ ॥ लक्खं तेर सहस्सा, नउयसयं अयरसंखयादेवे॥ पक्खेहिं ऊसासो, वासनहस्सेहिं आहारो॥ २८३ ॥३। ___ अर्थ-मनुष्यने एक अहोरात्रिमा ( लक्खं ) के० एक लोख (तेर सहस्सा ) के० तेर हजार अने ( नउयसयं ) के० एक सो नेवं, एटला श्वासोश्वास होय, परंतु ( देवे ) के० देवताने विषे ( अयरसंखया के० सागरोपमनी संख्याये करीने एटले जे देवताने जेटला सागरोपमर्नु आयुष्य होय ते देवताने तेटला ( पक्खेहिं )के. पक्षवडे करीने ( ऊसासो) के० श्वासोश्वास होय छे. अने (वाससहस्सहिं ) के० तेटला हजार वर्षे ( आहारो ) के० आहार होय छे. दृष्टांत जेम सर्वार्थसिद्धिना देवताने तेत्रीश सागरोपमर्नु आयुष्य छ तो तेमने तेत्रीश पखवाडीये एक श्वासोश्वास थाय अने तेत्रीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा थाय छे ॥ २८३ ॥ .. जे देवतार्नु दश हजार वर्षथी उपर अने एक सागरोपमथी कांइक ओर्छ आयुषय होय ते देवताना आहार अने श्वासोश्वासनुं कालमान कहे छे. दसवास सहस्सुवरिं, समयाई जावसागरं ऊणं ॥ दिवस मुहत्तपहुत्ता, आहारूसास सेसाणं ॥ २८४॥३१ __अर्थ-जे देवतार्नु ( दसवास सहस्सुवरि ) के० दश हजार वर्ष उपरांत ( समयाई ) के एक समयथी वधारतां ( जावसागरं Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ऊणं ) के० यावत् एक सागरोपममां कांइक ओर्छ आयुष्य होय ते देवताने ( दिवस मुहुत्तपत्ता ) के० दिवस पृथक्त्वे अने मुहूर्तपृथक्ले ( आहारूसास ) के० आहार अने श्वासोश्वास होय छे. भावार्थ ए छे के-दश हजार वर्षथी उपरांत एक समयादिकनी वृद्धिये अनुक्रमे दिवस पृथक्त्वे आहार अने मुहूर्त पृथक्त्वे उश्वास वधारतां जq ते त्यांसुधा धारवु के-ज्यांसुधी पूर्ण सागरोपमायु प्रत्ये पक्षथी उश्वास अने एक हजार वर्षथी आहार थाय. (सेसाणं) के० बीजा देवतार्नु पण एज प्रमाणे जाणवू. ॥ २८४ ॥ ___ हवे आहारना त्रण भेद कहे छे. सरिरेणोयाहारो, तयाय फासेण लोमआहारो॥ पक्खेवाहारो पुण, कावलिओ होइ नायब्बो ॥२८५॥ ___ अर्थ-( सरिरेण ) के० फक्त शरीरथी जे आहार थाय ते ओयाहारो के० ओजाहार कहेवाय. जोके शरीर तो पांच जातना छे तोपण जीव तेजस अने कार्मण शरीरे करी उत्पत्ति प्रदेशे आवीने पूर्वना शरीरने त्यजी दे. विग्रह अथवा अविग्रह गतिवालो जीव प्रथम समये औदारिक शरीर योग्य पुद्गलाहार करे अने बीजा समयथी औरंभी कार्मण साथे ज्यांसुधी पूर्ण नीपजे त्यां औदारिक मिश्र आहार करे ते सर्व ओजसू केतां तेजमू शरीर तेगे करी आहार करे ते प्रथम ओजाहार कहेवाय. ( तयायफासेण ) के० त्वचा एटले चामडी द्वारा सजेंद्रिये करीने करातो आहोर जेमके शरीरे तेल चोपडवाथी चोकाश थाय, शरीरे पाणी छांटवाथो तृषा शांति थाय ते (लोम आहारो )के० लोमाहार कहेवाय. (पुण)के वली ( पक्खेवाहारो ) के० प्रक्षेपाहार ते (कावलिओ होइ)के०कोलोया मुवमा नाखवा रूप कालाहार (नायबो)के जागवो ॥२८५।। तेज वात आ नीचेनी गाथाथी कहे छे. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ जोएणकम्मएणं, आहारेई अणंतरं जीवो॥ तेण परं मौसेणं, जाव सरीरस्स निप्पत्ति ॥ २८६ ॥ ____ अर्य जीव (कम्मरणं जोएण ) के० कार्मण काययोग वडे ( अणंतरं ) के० प्रथम समये औदारिक शरीर योग्य पुद्गलने (आहारेई ) के० आहरे. (अणंतरं ) के. त्यार पछी वीजे समये (तेण परं मीसणं) के० ते औदारिकनी साथे मिश्र एटले औदारिक मिश्रना आहार करे, ते (जावसरीरस्स निपत्ति) के. ज्यां सुधीमां शरीरनी पूर्ण प्राप्ती थाय त्यां सुधी औदारिकमिश्र आहार करे ॥२८६ ॥ ___ हवे ते त्रणे आहार कइ कइ अवस्थामां होय ते कहे छे ओयाहारा सवे, अपजत्त पजत्त लोमआहारो॥ सुरनिरय इगिदि विणा, सेस भवत्था सपक्खेवा ॥२८णा ____ अर्थ-( सव्ये अपजत्त ) के० सर्वे एकेंद्रियथी आरंभी पंचेंद्रिय सुधीना अपर्याप्ता जीवो ( ओयाहारा ) के० ओजाहारी जाणवा. अने ( पजत्त ) के० पर्याप्ता जीवोने ( लोमआहारो) के० लोम आहार होय छे. वली (मुरनिरयइगिदि विणा ) के० देवता नारकी अने एकेन्द्रि ए त्रण विना (सेस) के० चाकीना ( भवत्था ) के० बेइंद्रि तेंइंद्रि चउरेंद्रि पंचेंद्रि तिर्यंच अने मनुष्य ए सर्वे जीवो ( सपक्खेवा) के० कवलाहारी पण जाणवा. ॥२८७ ॥ सचित्ताचित्तोभय-रूवो आहार सब्बतिरियाणं ॥ सव्वनराणं च तहा, सुरनेरइयाण अचित्तो ॥ २८८ ॥२० अर्थ-( सबतिरियाणं) के० सर्वे तिर्यचने ( सचित्ताचित्तो Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयरूवो ) के सचित्त अचित्त अने सचित्ताचित एटले मिश्र एम त्रण प्रकारनो ( आहार ) के० आहार होय छे. (तहा ) के० तेमज ( सबनराणं) के० सर्व-मनुष्योने पणे त्रण प्रकारनो आहार होय छे. ( च ) के० अने: ( सुरनेरइयाण ) के० देवता तथा नारकीने ( अचित्तो ) के० अचित्तः आहार होय छे. ॥ २८८ ॥ आभोगाणाभोगा. सव्वेसि होइ लोमआहारो ।। निरयाणं अमणुनो, परिणमइ सुराण समणुनो ॥२८९॥२० ____ अर्थ-जेम वर्षाकालमां शीतल पुद्गलनो स्पर्श थवाथी बहुमत्र प्रसवे. तेम सर्व जीवोने पर्याप्तावस्थामां तो अजाणपणे आहार परिणमे, परंतु पर्याप्तावस्थाये ( सव्वेसि ) के० सर्वे जीवोने कोइ वखते ( लोमआहारो ) के० लोमाहार ( आभोग ) के० जाणतां अने कोइ वखते ( अणाभोग ) के० अजाणतां (होइ ) के० होय छे. तेमां एकंद्रियने तथा समुच्छिम मनुष्यने मनरहितपणाने लीधे सर्वथा अजाणतांज आहार परिणमे छे. बली (निरयाणं) के० नारकीने अशुभकर्मना उदयथी (अणुनो) के० अमनोज्ञ एटले मनने सारो न लागे तेवो आहार (परिणमइ ) के० परिणमे छे अने (सुराणं) के देवताओने शुभकर्मोदयथी (समणुनो) के० मनोज्ञ एटले मनने सारो लागे तेवो आहार परिणमे छे. ॥ २८९ ॥ ___ हवे नारकी तिर्यंच तथा मनुष्यने आहार- काल मान एटले अंतर कहे छे. तह विगलनारयाणं, अंतमुहत्तो स होइ उक्कोसो॥ पंचिंदितिरिनराणं, साहाविय छठ अट्ठमओ ॥ २९० ॥२० अर्थ-(तह) के० तेमन (विगल ) के बेइंद्रि तेइंद्रि अने चउ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ रंद्रि तथा ( नारयाणं) के० नारकी एवं अंतर जीवोंने एक बार आहार लीधा पछी ( उक्कोसो ( के० उत्कृष्टथी ( अंतमुहुत्तो ) के० एक अंतमुहूर्त गया पछी ( स ) के० आहारनी इच्छा (होइ ) ० हाय छे. (पृथ्वीकायादि एकेंद्रिय जीवोने तो आहारनी इच्छा निरंतर सदा रहे छे. ) वली ( पंचिदितिरि) के० पंचेंद्रिय तिर्यचने - ( साहाविओ) के स्वाभाविक एटले रोगादिकना कारण विना उत्कृष्टथी (छट्ट) के० वे अहोरात्रिने अंतरे आहारनी इच्छा थाय अने ( नराणं ) के० मनुष्यने उत्कृष्टथी ( अट्टमआ ) के० त्रण अहोरात्रिने आंतरे आहारनी इच्छा थाय. आ आहारनुं अंतर देवकुरु उत्तरकुरु भरत अने एरवतमां भूषम मूसमाकाले त्रण पल्योपमना आपुष्यवाला तिर्येच अने मनुष्य आश्री जाणं. ॥ २९० ॥ ये आहारक तथा अनाहारक जीवो कया ? ते कहे छे. विग्गहगइमावन्ना, केवलिणो समुहया अजोगी य॥ सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा ।। २९९ ।। अर्थ - जे जीवो सम श्रेणीमृकीने विदिशाये उत्पन्न थाय ते ( विग्गहगहमावन्ना ) के० विग्रहगतिने पामेला जीवो चार समय सुत्री, अनाहारी होय. आठ समय प्रमाण केवली समुद्घात छे. तेमां त्रीजे चोथे अने पांचमे समये केवल कार्मण काययोगी होय तेवा ( केवलिणा समुहया ) के० केवल समुद्घात करता केवली भगवंतो ऋण समय सुश्री, तेमज ( अजोगी य) के० शौलेशी करण करतां अयोगी नामना चौदमे गुण ठाणे रहेला जीवो अंतर मुहूर्त सुधी, (य) के० अने ( सिद्धा ) के आठ कर्मनो क्षय करी सिद्ध थयेला जीवो अनंत काल सुधी ( अणाहारा ) के ० अनाहारक जोणवा. अने ( सेसा ) के० ते विना बीजा ( जीवा ) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ के० जीवो ( आहारगा ) के० आहारक जाणवा. ॥ २९१ ॥ ___ हवे देवताना स्वरूपनुं वर्णन करे छे. केसठि मंस नह रोम-रुहिर वस चम्म मुत्त पुरिसेहिं ॥ रहिया निम्मलदेहा, सुगंधनिस्सास गयलेवा ॥२९॥२॥ ___ अर्थ-सर्वे देवता पूर्व भवमां करेलां शुभकर्मना उदयथी (केस) के० केश, ( अहि ) के० हाडका. ( मंस ) के० मांस, (नह) के० नख, ( रोम) के० रुंबाडा, ( रुहिर ) के० रुधिर, ( वस) के० चरबी, (चम्म ) के० चामडी, ( मुत्त) के० मुत्र अने (पुरिसेहिं) के० विष्टा. एटली वस्तुये करीने ( रहिया ) के० रहित. तथा ( निम्मलदेहा ) के० निर्मल शरीरवाला, (सुगंध निस्सास ) के० कपूर तथा कस्तुरीना समान श्वासवाला अने (गयलेवा) के० रज परसेवादिकना लेपरहित होय छे. ॥ २९२ ॥ अंत मुहुत्तेणं चिय, पज्जत्ता तरुणपुरिससंकासा ।। सव्वंगभूसण धरा, अजरा निस्यों समा देवा ॥२९३।। ___ अर्थ-वली उत्पन्न थया पछी ( अंतमुहुत्तेणं ) के० एक अंतर मुहूर्तमा ( चिय ) के० निचे (पजता ) के० पूर्ण पर्याप्तिवाला थइने ( तरुणपुरिससंकासा ) के० युवान पुरुष सरखा, ( सव्वंग भूसणधरा) के० सर्वांगे आभूषणने धारण करनारा, (अजरा ) के० नित्य युवावस्थावाला, (निरुया ) के रोगरहित, अने ( समा ) के० समचतुरस्र संस्थान वाला ( देवा ) के० देवता छे, श्रीजीवाभिगमसूत्रना अभिप्रायथी कोइक एम कहे छे के-देवता आभरण तथा वस्त्र रहित छे, परंतु ते उत्पत्ति समयेज जाणवा. कारण उत्पत्ति समये उत्पन्न थया पछी अभिषेक सभाये स्नान Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ करे, अलंकार सभाये अलंकार पहेरे, व्यवसाय सभाये पुस्तक वांची धार्मिक उपगरण लहे, पछी सुधर्मा सभाये सिद्धायतनने विषे जिनप्रतिमाने पूजे छे, माटे देवता उत्पत्तिसमएज वस्त्राभूषण रहित होय छे. ॥ २९३ ॥ अणिमिसनयणा मण-कज्ज साहणा पुप्फदाम अमिलाणा॥ चउरंगुलेण भूमि,न छिबंति सुरा जिणा बिति ॥२९४॥२२ अर्थ-( अणिमिसनयणा ) के० देवशक्तिना कारणे अनिमेष नेत्रवाला, ( मणकजसाहणा ) के० मनथी सर्व कार्यने करनारा. ( पुप्फदामअमिलाणा ) के० कंठमां प्रफुल्लित पुष्पमाला जेमनी करमाय नहि एवा देवता कोइ कारणे मनुष्य लोकमां आव्या छतां (चउरंगुलेण ) के० चार अंगुलवडे (भूमि) के० पृथ्वीने (न छिबंति ) के० स्पर्श करता नथी, अर्थात् पृथ्वीथी चार आंगुल उंचा उभा रहे छे. एम (जिणा बिंति ) के० जिनेश्वर कहे छे. ॥ २९४ ॥ हवे देवता मनुष्यलोकमां कया कारणे आवे ते कहे छे. पंचसु जिणकल्लाणेसु, चेव महरिसितवाणुभावाओ॥ जम्मंतरनेहेण य, आगच्छंति सुरा इहयं ॥ २९५ ॥२२८ ____ अर्थ--(पंचसु जिणकल्लाणेसु) के तीर्थकरना जन्मादिक पांच कल्याणकने विषे, तथा (महारीसितवाणुभावाओ ) के० महोटा ऋषिओना तपना प्रभाक्थी, (य) के० वली ( जम्मंतर नेहेण ) के० जन्मांतरना स्नेहे करीने, (जेम स्नेहथी शालिभद्रना Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ पिता अथवा रीषथी संगम देवता आव्यो हतो तेम ) एवा कारणथी ( सुरा) के० देवता ( इहयं ) के० अहियां ( आगच्छंति ) के० आवे छे. ॥ २९५ ॥ - देवता कारण विना मनुष्यलोकमां केम न आवे ? ते कहे छे. संकंतदिवपेमो, विसयपसत्ता समत्तकत्तव्वा ॥ अणहाणमणुयकज्जा,नरभवमसुहं न इंति सुरा ।।२९६।।२ अर्थ-उत्पन्न थया पछी तुरत देवांगनानो जेमना हृदयमां ( संकेत दिव्य पेमा ) के० दिव्यप्रेम प्रसरी रहेलो छे एवा, तथा ( विसयपसत्ता ) के० देवांगनानी साथे स्पर्श गीतादिक विषयमां आसक्त थयेला, वली ( समत्तकत्तव्वा ) के० जेमना स्नान वनविहार नाटक विलोकन विगेरे देवकार्य पूरा थया नथी एवा, अने (अणहीणमणुयकज्जा ) के० देवताने मनुष्याधिन कांइ कार्य नथी एवा कारणने लीधे ( सुरा) के देवता ( असुहं ) के० दुर्गधमय एवा ( नरभवं ) के० मनुष्यलोकने विषे ( न इंति ) के० आवता नथी ॥ २९६॥ चत्तारि पंच जोयण, सयाइ गंधो य मणुयलोगस्स ॥ उ8 वच्चइ जेणं, न हु देवा तेण आवंति ॥ २९७ ॥२32. ___ अर्थ-जेणं के० कारणमाटे मणुयलोगस्स के० मनुष्यलोक संबंधी मृतकशरीर तथा मूत्र पुरिस विगेरेनो (गंधो य) के० दुर्गध ( चत्तारि पंच जोयण सयाइ ) के० चारसो पांचसो योजन (उ8 वच्चइ ) के० उंचे जाय छे (तेण ) के० तेकारणमाटे (देवा) के० देवता (हु ) के० निचे आ मनुष्य लोकमां न आवंति) के० आवता नथी. २९७ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ हवे देवताने भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान- क्षेत्र कहे छे. दोकप्प पढमपुढविं, दो दो दो बीय तइयगं चउथिं ॥ चउ उवरिम ओहीए, पासंति पंचमं पुढवि ॥ २९८ ॥ - अर्थ-( दोकप ) के० पेहेला बे देवलोकना उत्कृष्टआयुष्यचाला देवता अवधिज्ञानथीं ( पढमपुढवि ) के० पहेली नरकं पृथ्वी सुधी देखे छे. तेउपरना (दो) के० सनत्कुमार अने माहेंद्र देवलोकना उत्कृष्ट आयुष्यवाला देवता ( बीय के बीजी शर्करम भासुधी देखे. ते उपरना ब्रह्म अने लांतक ए वे देवलोकना उत्कृष्ट आयुष्यवाला देवता ( तइयगं) के० त्रीजी कालुकाप्रभासुधी देखे. ते उपरना शुक्र अने सहस्रार देवलोकना देवता (चउथिं ) के० चोथी पंकप्रभासुधी देखे. तेना ( उपरिम) के० उपरना (चउ) के० आनत माणत आरण अने अच्युत ए चार देवलोकना देवता (ओहिए ) के० अवधिज्ञानथी (पंचमं पुढवि ) के० पांचमी धूमप्रभा नरक पृथ्वी सुधी (पासंति) के० देखे छे. अहिं एटलं विशेष के आनत प्राणतना देवताथी आरण अच्युत देवलोकना देवता पांचमी पृथ्वीना प्रतरे अति विशुद्ध पर्यायवंत देखे. एवीरीते ज्यां ज्यां बेबे जोडला छे त्यां पहेलाथकी बीजो सुविशेष देखे एम जाणवू ॥ २९८ ॥ 30 छठिं छगेविज्जा, सत्तमिईयरे अणुत्तर सुरा उ ॥ किंचूगलोगनालिं, असंखदीवुदहि तिरियं तु ॥२९९॥ ० ___ अर्थ-त्रण नीचेना अने त्रणे मध्यना एम (छगेविजा) के० छ ग्रैवेयकना देवता अवधिज्ञानथी (छडिं) के० छठी तमाममा मुधी देखे अने (ईयरे) के० उपरना त्रण ग्रैवेयकना देवता (सत्तमि) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pati । के सातमी नरकपृथ्वी सुधी देखे. (उ) के० वली ( अणुत्तर मुरा के पांच अनुत्तर निवासी देवताओ ( किंचूणलोगनालिं) के कौइक ऊणी पंचाम्तिकायरूप चउदराजप्रमाण लोकनालने देखे अने उंचे पोताना विमाननी ध्वजा सुधी देखे. (तु ) के० वली ( तिग्यिं ) के० तिर्छ ( असंखदीवुदाहि ) के० असंख्याता द्वीप समुद्र सुधी देखे ॥ २९९ ॥ - वहुययरं उवरिमगा, उढं स विमाण चूलियधयाई ॥२ ऊणद्धसागरे संख-जोयणा तप्परमसंखा ।। ३०० ॥ २२ अर्थ-( उवरिमगा ) के उपर उपरना देवलोकना देवता तिर्छ ( बहुययरं) के० असंख्याता असंख्याता भेदेकरी अधिकुं अधिकुं देखे. अने ( उ8 ) के० उच्चु ( सविमाण चूलियघयाई ) के० पोताना विमाननी चूलिकानी ध्वजा सुधी देखे. अथवा ( ऊणद्धसागरे ) के० अर्द्धासागरोपमथी ओछा उत्कृष्टा आयुष्यवाला देवता (संख जोयणाः) के० तिर्छ संख्याता योजन सुधी देखे अने ( तत्परं ) के० अर्द्धा सागरोपमथी अधिक आयुष्यवाला देवता तिर्छ (असंक्खा)के० असंख्याता योजन सुधी देखे.॥३०॥ पगवीस जोयण लहु,नारय भवण वग जोइ कप्पाणं ।। गेविज्जणुत्तराण य, जहसंखं ओहि आगारा ॥३०॥२ .. अर्थ-दशहजार वर्षना आयुष्याला भुवनपति अने व्यंतर .... देवता ( लहु ) के० जघन्यथी (पणवीसं जोयण ) के० पचीस योजन सुधी देखे. अहिं तात्पर्य ए छे के-दशे भुवनपति जयन्यथी तो पचीस योजन देखे अने उत्कृष्टथी असुर कुमार निकायना देवता असंख्याता द्वीपसमुद्र देखे तथा नव निकायना देवता संख्याता Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ योजना अवधि क्षेत्रवाला होवाथी संख्याता द्वीपसमुद्र सुबी देखे. ज्योती देवता जन्य अने उत्कृष्ट संख्याता योजनना अवधिक्षेत्र होवाथी संख्याता द्वीपसमुद्र देखे, व्यंतरदेवता जवन्यथी पचीस योजन देखे अने उत्कृष्टथी संख्याता योजनना अवधिक्षेत्रवाला होवाथी संख्याता श्रीपसमुद्र देखे. हवे गाथाना पाछला ऋण पोथी नारकी देवता तिर्येच अने मनुष्यना अवधिज्ञाननुं संस्थान कहे छे. १ ( नास्य ) के० नारकी, २ ( भवण ) के० भवनपति, ३ ( वण) के० व्यंतर, ४ ( जोइ ) के० ज्योतषी, ५ ( कप्पाणं ) के० बार देवलोक, ६ (गेविज्ज) के० नवग्रैवेयक, ७ ( अणुत्तराणय) X के० पांच अनुत्तर ए सातना ( जहसंखं ) के० यथासंख्याये करीने ( ओहि आगारा ) के० अवधिज्ञानना आकार एटले संस्थान कहे छे. ॥ ३०९ ॥ तप्पागारे पलग, पडहग झलरि मुहंग पुष्फ जवे || तिरियमणुस ओही, नाणाविह संट्ठिओ भणिओ ॥३०२|| अर्थ - नारकीनुं अवधिज्ञान ( तप्पागारे ) के० पाणी उपर तरवाना त्रापाने आकारे, भुवनपतिनुं अवधिज्ञान (पल्लग) के० पालाने आकारे, व्यंतरनुं अवविज्ञान ( पडहग ) के० ढोलने आकार, ज्योतषीं अवधिज्ञान (झल्लरि) के० झल्लरीने आकारे, वार देवलोकना देवतानुं अवधिज्ञान ( मुहंग ) के० मृदंगने आकारे, ग्रैवेयका देवता अवधिज्ञान (पुप्फ) के पुष्पथी भरेली चंगेरीना आकारे, अने पांच अनुत्तर विमानवासी देवोनुं अवधिज्ञान ( जवे ) के० कुमारीकन्याना गलकंचुवाने आकारे होय छे. वली. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. १७२ (तिरियमणुसुए ) के० तिर्थच अने मनुष्यने विषे (ओही) के० अवविज्ञान (नाणाविह संटिओ) के० नानाप्रकारना संस्थानवालं ( भणिओ ) के० कथु छे. ॥ ३०२ ॥ ___ हवे उपर कहेला संस्थानोनुं स्वरूप कहे छे. तप्पेण समागारो, तप्पागारो, स चाइयंतमसो॥ उद्घाययओ पल्लो, उवरि रुदोहसंखित्तो ॥ ३०३ ॥२२॥ ____ अर्थ-(तप्पेण समागारो ) के० वहाणने आकारे जे अवविज्ञान ते (तप्पागारो) के० तापाकार अवधिज्ञान कहेवाय. (स) के० ते अवधिज्ञान (चाइयंतमसो) के० नारकीनु छे० (उद्धाययओ) के० उर्च लंबाइवाळो ( उवरि रुदो ) के० उपर विस्तार वालो अने अहसंखित्तो के० नीचे सांकडो एवो (पल्लो ) के० पल्य होय छे. ॥ ३०३ ॥ सवायओ समोविय, पडहो हिट्ठोवरि पइवासो ॥ चम्मावणद्ध विच्छन्न, वलयरूवा उ झल्लरिया ॥३०॥ अर्थ-(सबायो समाविय ) के० सर्व बाजुएथी सरखो छतां पण (हिट्ठोवरि पइवासो ) के० नोचे अने उपर थालीने आकारे पाघरो, वली (चम्मावणद्ध ) के० चामडाथी ढांकेलो एवो (पडहो) के० पडह होय छे. (उ) के० वली (वलयरूवा) के० गोल वलयने आकारे (झल्लरिया) के० झालर होय छे. ॥ ३०४ ॥ उद्घायओ मुयंगो, हिट्ठो रुद्दो तहोवरि तणुओ॥ पुष्फसिहावली रहिया, चंगेरी पुष्फचंगेरी ॥ ३०५ ॥ अर्थ-(उद्धायओ) के० उंची आकृतिबालो, (हिट्ठोरुद्दो) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के० नीचे विस्तारवालो, (तहोवरि तणुओ ) के० तेमज उपर सांकडो एवो (मुयंगो) के० मृदंग होय छे. (पुप्फसिहावली रहिया)के० पुष्प समूहथी रचेली (चंगेरी) के० एटले नीचेनी पडगी सहित छाबडी ते (पुप्फचंगेरी)के० पुष्पचंगेरी कहेवाय छे. ॥३०॥ जवनालउत्ति भन्नइ, उपभोसए कंचुओ कुमारीए ॥१५५ एए अबद्धाकारा, देवा जागंति जिणवुचा ॥ ३०६ ॥ ... अर्थ-(कुमारीए) के० कुमारिकाना (उपभोसए) के उंची करेली बे बाहुवाला (कंचुओ) के० कंचुवाने (जवनालउत्ति भन्नइ ) के० जवनाल एम कहेवाय छे. (एए अवद्धाकारा ) के० ए अवधिज्ञानना आकारने (देवा) के० देवता (जाणति ) के० जाणे छे अने ए अवधिज्ञानना आकारो (जिणवुच्चा) के० जिनेश्वरे कह्या छे. ॥ ३०६ ॥ हवे नारकी देवता मनुष्य अने तिर्यच ए चरिमां कोने का दिशाए अवधिज्ञान वधारे ? ते कहे छे. उ8 भवणवणाणं, बहुगो वेमाणियाण हो ओही ॥ नारय जोइस तिरियं, नरतिरियाग अणेगविहो ॥३०॥ __ अर्थ-(भवणवणाणं) के० भुवनपति तथा व्यंतर देवताओंने अवधिज्ञान (उ) के० उचु (बहुगो) के० घणुं होय छे. तिर्छ तथा नीचं थोडं होय छे. तेमज (वेमाणियाण) के० वैमानिक देवताने (ओही) के० अवधिज्ञान (अहो) के० नीचुं घणुं होय छे उंचु तथा तिई थोड़ें होय छे. वली (नारय जोइस ) के० नारकी अने ज्योतपाने अवधिज्ञान (तिरियं) के तिर्छ धगु होय छे. उंचं नचुं थोडं होय छे. तथा (नरतिरियाणं) के० मनुष्य अने तियेचने Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ (अणेगविहो ) के० अनेक प्रकारचें एटले कोइने उंचुं वधारे कोइने नीचुं धारे अने कोइने तिर्छ वधारे एम विचित्र प्रकारेहोयछे।।३०७॥ ___हवे देवतार्नु द्वार पूर्ण करी नारकीनुं द्वार कहे छ. . इय देवाणं भणियं, ठिइपमुहं नारयाण वुच्छामि ॥ २ इंग तिनि सत्तदस सतर,अयर बावीस तित्तासा ॥३०८॥ मत्तय पुढवीसु ठिई, जिट्ठोवरिमाइ हिट्ठपुढवीए । होइ कमेण कणिट्ठा, दस वास सहस्स पढमाए ॥३०९॥ ____ अर्थ-(इय) के० ए प्रकारे ( देवाणं) के० देवतानां (ठिइपमुहं) के० स्थितिप्रमुख एटले स्थिति, भुवन, शरीरप्रमाणरूप अवगाहना, उपपात विरहकाल, चवनविरहकाल, एक समय उपपात संख्या, एक समय चवनसंख्या, गति अने आगतिरूप नव द्वार (भणियं ) के० कह्यां. हवे ( नारयाणं) के० नारकीना एज नब द्वार ए पूर्वोक्त अनुक्रमे (वुच्छामि) के० कहीश. पहेली रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे उत्कृष्टि स्थिति (इग) के० एक सागरोपमनी, बीजी शर्कराप्रभाने विषे ( तिनि) के० त्रण सागरोपमनी,त्रीजी वालुकाप्रभाने विषे (सत्त) के० सात सागरोपमनी, चोथी पंकप्रभाने विषे (दस) क० दश सागरोपमनी, पांचमी धूमप्रभाने विषे (सत्तर) के० सत्तर सागरोपमनी, छठी तमप्रभाने विषे (बावीस) के० बावीश सागरोपमनी, अने सातमी तमतमप्रभाने विषे (तित्तीसा) के० ते त्रीश सागरोपमनी,ए सर्व (अयर) के० सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति जाणवी ॥३०८॥ र पूर्वे कहेली ( सत्तय पुढवीसु) के० साते नरक पृथ्वीने विवे (ठिइ) के० स्थिति कही. तेमां ( उवरिभाइ) के उपस्थी आरंभी जे (निट्टा) के० उत्कृष्ट स्थिति होय अर्थात् उपरनी नारकीनी जे उत्कृष्ट स्थिति होय ते ( हिट्ट पुढवीए) के० नीचेनी (पृथ्वीनी कणिट्ठा ) के० जघन्य स्थिति ( करण) के० अनुक्रमे Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करीने ( होइ ) के होय छे. जेम रत्नप्रभानी उत्कृष्टी एक सागरीपमनी स्थिति ते शर्करामभाए कनिष्ट एटले जयन्य स्थिति जाणवी. अने ( पढमाए) के० पहेली रत्नप्रभाने विष (दस बोस सहस्स) के० दश हजार वर्षनी जघन्य स्थिति जाणवी. ॥३०९॥ नवइ सम सहस्स लक्खा,पुवाणं कोडि अयर दप्त भागा ॥ इक्किकभोगबुढी, जा अयरं तेरसे पयरे ॥ ३१० ॥ ( इय जिट्ठ जहण्णा पुण,दस वास सहस्स लक्ख पयरगे।/ सेसेसु उवरिजिट्ठा, अहो कणिट्ठाओ पइं पुढवी ॥३१॥ अय-रत्नप्रभा पृथ्वीना पहेला प्रतरने विषे उत्कृष्टी स्थिति ( नवइ सम सहस्स ) के० नेवु हजार वर्षनी, वीजा प्रतरने विषे (लकावा ) के० नेवु लाख वर्षनी, बोजा प्रतरने विषे ( पुराणं काडी ) के० एक पूर्व कोडीनी, चोथा प्रतरने विवे (अयर दस भागा) के० एक सागरोपमना दशमा भागनी, त्यार पछी दरेक प्रतरे ( इक्विकभागवुड्डी ) के० एक एक भागनी वृद्धी करवी के (जा) के० ज्यां सुधीमां (तेरसे पयरे ) के० तेरमा प्रतरे (अयरं) के. एक सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति थाय ॥ ३१० ॥ (इय जिह) के० ए उत्कृष्टी स्थिति कही, (पुण) के. वली (जहण्णा) के० जवन्य स्थिति ते (पयरदुगे ) के० पहेला बे प्रतरने विषे अनुक्रमे (दस वास सहस्स ) के० पहेला प्रतरे दश हजार वर्षनी अने बीजा प्रतरे ( लक्ख ) के० दश लाख वर्षनी जाणवी. ( सेसेसु) के० त्रीजाथी आरंभीने वाकीना प्रतरोने विधे ( उपरि जिहा ) के० अरना प्रतरोने विो जे उत्कृटी स्थिति होय ते (अहो कणिवाओ) के० नीचेना प्रतरोने विवे जयन्य स्थिति जाणवी. एम (पई पुढवी) के० दरेक पृथ्वीने विषे समजवु. ॥ ३११ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ रत्न प्रभामां जघन्योत्कृष्ट आयुष्य. जघन्य. - १२ - १०००० वर्ष । ८०००० नेपुरयर्ष । १० लाख वर्ष ५० लाख वर्ष ... 31. ८० लाख वर्ष ... १ पूर्वक्रोड वर्ष गये | 2 पूर्वक्रोड ३ . सागरोपम 4. सागरो०२ सागरा० * * * as sho r : * * * * १ सागरो हवे बीजी नरकपृथ्वी आदिकमा उत्कृष्टी स्थिति कहेवाने अर्थ । करण कहे छे. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवरि खिइ ठिइ विसेसो,सगपयर विहत्तु इच्छ संगुणिओ॥ उवरिमखिइ ठिइ सहिओ,इच्छियपयरंमि उक्कोसा।।३१२॥ ___ अर्थ-(उवरि खिइ) के० उपरनी पृथ्वीनी (ठिइ) के० उत्कृष्टी स्थितिने (इत्थ) के० वांछित नरकपृथ्वीनी उत्कृष्टी स्थिति साथे (विस्सो)के० विश्लेव करवो एटलेअधिक स्थितिमांथो ओछीस्थिति काही नाखवी. पछी ते विश्लेष एटलेवधेला आंकने ( सगपयर) केव्वांछित पृथ्वीना प्रतरे (विहत्त)के०वेहेंचीए. ते व्हेंचतां जे आंक आवे तेने (इच्छ) के० ईष्ट प्रतरनी संख्याये (संगुणिओ) के० गुणीये. ते गुणतां जे आंक आवे ते (वरिमखिइ) के उपरनी पृथ्वीनी (ठिइस हिओ) के० उत्कृष्टी स्थितिए सहित करीए त्यारे (हच्छिय. पयरम्मि) उक्कोसा के० वांछित प्रतरे उत्कृष्टी स्थिति थाय. ॥३१२॥ तेज वात उदाहरण सहित समजावे छे के-वीजी शर्करा प्रभाने विषे उत्कृष्टी स्थिति त्रण सागरोपमनी छे अने पहेली रत्नप्रभानी उत्कृष्टी स्थिति एक सागरोपमनी छे ते त्रण सागरोपममांथी काढी नाखीये त्यारे बाकी बे रहे. ते बे सागरोपमने शर्करामभाना अगीयार प्रतरे भाग आपीये. त्यारे एक एक प्रतरे एक एक सागरोपमना अगीयारीया बबे भोग आवे. प्रथम प्रतरे फक्त बेज भाग क्थे तेने उपरनी रत्नप्रभानी एक सागरोपमनी स्थिति साथे जोडीये त्यारे शर्करामभाना प्रथम प्रतरे एक सागरोपम अने एक सागरोपमना अगीयारीया भाग उपर आबे, एटली शर्करामभाना प्रथम प्रतरे उत्कृष्टी स्थिति जाणवी. एरीते दरेक प्रतरे बेबे भाग वधारता अगीयारमे प्रतरे त्रण सागरोपम पूर्णायु थाय. अने पहेला प्रतरनी उत्कृष्टी स्थिति ने बीजे प्रतरे जघन्य स्थिति जाणवी. एज प्रमाणे त्रीजी चोथी पांचमी अने छठी नरक पृथ्वीनुं करण करवू. ए सर्व नरक पृथ्वीनुं आयुष्य प्रमाण यन्त्रमा छे. त्यांथी जाणीलेQ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ शर्करा प्रभामां जघन्योत्कृष्ट आयुष्य. प्रतरे, जघन्य. उत्कृष्ट. १ सागर. १३ सागर. - २६, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वालुका प्रभामां जघ- | पंक प्रभामां जघ न्योत्कृष्ट आयुष्य. न्योत्कृष्ट आयुष्य. प्रतरे | जघन्य उत्कृष्ट प्रतरे जघन्य उत्कृष्ठ 3 साग० ३४ साग० ४ , 8 , " " " Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० तमःप्रभामां धूम प्रभामां जघन्यो- | त्कृष्ट युष्य. ___१० ११३ ૧૨ ૧૨ १ से १७ १८ 37| २०१ १८३ २०३ २२ ใช้ १५ . तमस्तमप्रभामां १३ २२. 33 हवे नारकीनी वेदनान स्वरुप कहे छे. . सत्तसु खित्तजवेयणा,अण्गुण्णकयावि पहरणेहि विणा॥ पहरणकयावि पंचसु,तिसु परमाहम्मियकयावि ॥३१३||५४ ___ अर्थ-(सत्तसु) के० साते नरक पृथ्वीने विषे (खित्तज यणा) के० क्षेत्र वेदना छ, तथा (पहरणेहि विणा ) के० शस्त्र विना (अण्णुण्णकयावि) के० परस्पर मांहोमांहे करेली वेदना पण होय. अने (पंचसु) के० पहेली पांच नरक पथ्वीने विषे (पहरणकयावि) के० परस्पर शस्त्रथी करेली वेदना होय. वला (तिसु) के० पहेली त्रण नरक पृथ्वीने विषे (परमाहम्मियकयावि) के० परमावामिनी करेली वेदना होय छे ॥ ३१३ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकने विषे क्षेत्रस्वभावथीज दश प्रकारनो पुद्गलपरिणाम दुःख आपनारो छे, ते कहे छे. बंधण गइ संठाणो, भेया वण्णा य गंध रस फासा ॥ अगुरुलहु सद्द दसहा,असुहा विय पुग्गला निरए॥३१॥' अर्थ-१ (बंधण) के० क्षणे क्षणे आहारादिक नाना प्रकारना पुद्गलनुं बधन मदिप्त अग्निथकी पण अत्यन्त दारुण होय. २ (गइ) के० गति ते उंट सरखी होय. ३ (संठाण) के० अत्यंत तीब्र हुंडक संस्थान होय. ४ ( भेया ) के० भेदन थq ते जाणवु ५ (वष्णा) के० नरकावासानो वर्ण सर्वत्र अंधकारमय तथा अपवित्र वस्तुओथी भरेलो होय, ६ (गंध) के० श्वानादिकना मृत कलेवरोथी अत्यंत दुर्गंध होय. ७ (रस) के० रस ते कडवी तुंबडी करतां पण अत्यंत कडवो स्वाद होय, ८ (फासा) के० स्पश ते वींछीना कांटा सरखो अथवा कौचना रोम करतां पण खराब स्पर्श होय. ९ ( अगुरुलहु ) के० अगुरुलघु परिणाम अत्यंत दुःख आपनारो होय. १० (सद्द) के० शब्द ते विलापादिक अत्यंत भयकारी होय. एम (निरए) के० नारकीने विवे (दसहा) के० दश प्रकारना (असुहा पुग्गला ) के० अशुभ पुद्गलो (विय ) के० निश्चे होय छे. ॥ ३१४ ॥ निरया दसविह वेयणा,सी उसिगं खुह पिवास कंडुहि।। परवस्सं जर दाहं, भय सोगं चेव वेयंति ॥ ३१५ ॥५! अर्थ-(निरया) के नारकीना जीवोने (दसविह वेयणा) के० दस प्रकारनी वेदना छे. तेमां ? (सी) के० शीतवेदना ते पोष अथवा माघमहिने हिमाचलमां वस्त्ररहित माणसने जेवी शोत लागे तेथी अनंतगुणी शीत नारकीना जीवोने होय. २ (उसिणं) के० Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उष्णवेदना ते ग्रीष्मऋतुमां मध्याह वखते मेघ रहित आकाश छतां अति पित्तप्रकोपथी व्याकुल थयेला छत्ररहित पुरुषने जेवी उष्णवेदना होय तेथी अनंत गुणी वेदना नारकीना जीवोने होय. ३ (खुह) के० क्षुधो वेदना ते अढी द्वीपना सर्व अन्न घृतादि पदार्थों नारकीना जीवोने खावा आपीये तोपण तेमनी क्षुधा शांत थाय नहीं. ४ (पिवास) के० तृषावेदना ते नारकीना जीवोने सर्वे समुद्रना अने नदीओना पाणी पाइये तोपण तेमनी तृषा शांत थाय नहीं. ५ (कंडुहिं ) के० नारकीना जीवोने करवत अथवा छरीवती खणतां पण तेमनी खसनी खरज मटे नहीं. ६ (परवसं) के० नारकी जीव निरंतर परवश होय. ७ (जर) के. नारकीना जीवने अहिंना रहेनारा पुरुषो करता अनंत गुणो ज्वर एटले ताव होय. ८ (दाहं ) के० नारकीना जीवोने दाघज्वर होय, (९) भय के० नारकीना जीवोने भय अने १० (सोग) के० शोक मनुष्यो करतां अनंतगुणो होय. नारकीना जीवोने विभंग ज्ञानपण अति दुःख आपनारुं छे. परमाधामी देवोपण तरवार विगेरे शस्त्रो देखाडी महा दुःख आपे छे. तेथी नारकीजीवो सर्वदा शोक करता रहे छे. ए (यंति) के० नारकीनी क्षेत्रवेदना (चेव) के० निश्चे कही.॥३१५॥ नेरइयाणुप्पाओ, उक्कोसं पंचजोयणसयाई ॥ दुक्खेण भिन्नयाणं, वेयणसयपच्चमाणाणं ॥ ३१६ ॥ ५॥ अर्थ-( दुक्खेण भिन्नयाणं ) के० दुःखथी भेदाता अने ( वेयणसयपच्चमाणाणं ) के० शेकडो वेदनाथी पचाता एवा (नेरइयाण ) के० नारकी जीवोन ( उक्कोसं ) के० उत्कृष्टथी (पंचजोयणसयाई) के० पांच सो योजन उंचाइथी ( उप्पाओ) के० पडवु थाय छे. ॥ ३१६ ॥ ए नारकीनुं स्थितिद्वार कयु. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ हवे नारकीर्नु भवनद्वार कहे छे. तेमां प्रथम साते नरक पृथ्वीना गोत्र तथा नाम कहे छे, स्यणप्पह सकरपह, वालुयपह पंकपह य धूमपहा ।। तमपहा तमतमपहा, कमेण पुढवीण गोत्ताई ॥३१॥ __ अर्थ-पहेलो ( रयणप्पह ) के० घणां रत्नो होवाथी रत्नप्रभा, बीजी ( सक्करपह ) के० घणां कांकरा होवाथी शर्करामभा, त्रीजी (वालुयपह ) के० घणी रेती होवाथी वालुकाममा, चोथी ( पंकपहय ) के० घणो कादव होवाथी पंकप्रभा, पांचमी (धूमपहा ) के० घणो धूमाडो होवाथी धूमप्रभा, छट्ठी ( तमपहा ) के० अंधकार होवाथी तमप्रमा, सातमी ( तमतमपहा ) के० घणी गाढ अंधकार होवाथी तमातमप्रमा ए कमेण के० अनुक्रमे (पुढवीण) के० साते नरक पृथ्वीना (गोत्ताई) के० गोत्र एटले अर्थ सहित नाम कह्यां ॥ ३१७ ॥ हवे साते नरक पृथ्वीनां नाम तथा संस्थान कहे छे. घम्मा वंसा सेला, अंजण रिट्ठा मघा य माघबई ।। नामेहिं पुढवीओ, छत्ताईच्छत्तसंठाणा ॥ ३१८ ॥२३० ०अर्थ-१ (घम्मा ) के० घम्मा, २ (वंसा ) के० वंशा, ३ (सेला) के०शेला ४ (अंजण) के०अंजणा, ५ (रिटा) के०रिष्टा, छटी ( मघा) के० मघा, (य) के० अने, ७ (मायबई ) के. माघवती. ए उपर कहेलां (नामेहिं ) के० नामवाली (पुढवीओ) के० साते नरक पृथ्वी जाणवी. ते पृथ्वीओ (छत्ताईच्छत्तसंठाणा) के० छत्राति छत्र संस्थाना एटले उपरा उपरी छत्रने आकारे छे. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अर्थात् सौथी उपर नानुं, तेनी नीचे मोहुं, वली तेनी नीचे मोडं एवी आकृतिये छे. ॥ ३१८ तत्थ सहस्सा सोलस, खरकंडं पंकबहुलकंडं तु ॥ चुलसीइ सहस्साई, असीइ जलबहुलकंडं तु ॥ ३९९ ॥ ча 6 अर्थ - पहेली रत्नप्रभा पृथ्वीनो पींड एक लाख एंशी हजार योजननो जाडपणे छे. ( तत्थ ) के० तेमां पहेलो ( खरडं ) के० खरकांड (सहस्सा सोलस ) के० सोलहजार योजननो छे, (तु) के० अने बीजो ( पंकबहुलकडे ) के० पॅकबहुलकांड ( चुलसी सहस्साई ) के० चोराशी हजार योजननो छे. ( तु ) के० वली त्रीजी ( जलबहुलकंडे ) के० जलबहुलकांड ( असाइ ) के० एंशी हजार योजननो छे. ॥ ३१९ ॥ एवं असी उ लक्खा, खरकंडाइ हि धम्मढवी || सेसा पुढवी सरुवा, पुढविओ हुंति बाहुले || ३२०|| अर्थ - ( एवं ) के० ए प्रमाणे ( खरकंडाइ) के० खरकांड विगेरे ( धम्मपुढवीए) के० धर्मा पृथ्वीमां अनुक्रमे त्रणे पृथ्वीकांड एकठा करता (असी लक्खा) के० एक लाख ऐंशी हजार पृथ्वीपड थाय. (सेसा पुढवी सरुवा) के० बाकी शर्करा प्रभाथी आरंभीने पृथ्वीना स्वरूप (बाहुले) के० घणुकरीने (पुढविओ) के० गोत्र प्रमाणेज हुति के० होय छे. ॥ ३२० ॥ हवे पृथ्वीनो पींड तथा पृथ्वीनो आश्रय कहे छे. असीइ बत्तिस अडविस, वीसा अट्ठार सोल अडसहसा ॥ लक्खुवरि पुढविपिंडो, घणुदहि घणवाय तणुवाया || ३२१ || Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ गणं च पट्टा, वीस सहस्साई घणुदहीपिंडो ॥ २ घणतणुवायागासा, असंखजोयण जुया पिंडो || ३२२||२ अर्थ - प्रमाणांगुले करी (लक्खुवरि) के० एक लाख योजन उपर (असइ) के० ऐसी, (बत्तिस) के० बत्रीश, (अडविस) के० अट्ठावीस (वीसा ) के० बीस. ( अट्ठार) के० अढार, ( सोल ) के० सोल, अने (अड ) के० आठ ए सर्व योजनना ( सहसा ) के० सहस्र एटले हजार जोडवा. एटले रत्नप्रभानुं एक लाख एंशी हजार योजननुं, शर्करामभानुं एक लाख वीस हजार योजननुं, वालुका प्रभानुं एक लाख अट्ठावाश हजार योजननुं, पंकप्रभानुं एफ लाख वीस हजार योजननुं, धूमप्रभानुं एक लाख अढार हजार योजननुं, तमप्रभानुं एक लाख सोल हजार योजननुं, अने तमतमप्रभानुं एक लाख आठ हजार योजननुं पृथ्वी पींड जाणवु. वली (घणुहि घणवाय तणुवाया ) के० धनोदधि घनवात तनबात- ।। ३२१ ।। ( गयणं च ) के० अने आकाश ए चारे एक एक पृथ्वीना नीचे ( पहाणं ) के० आश्रय एटले आधाररूप जाणवा. एटले घर्म्मापृथ्वी घनोदधि उपर छे, घनोदधि घनवात उपर छे, घनवात तनुवात उपर छे अने तनुवात आकाश उपर प्रतिष्ठत छे, एम सर्व पृथ्वीना तलने विषे जाणवुं (परंतु एटलं विशेष ले के - सातमी नरक पृथ्वीना तले घनोदधिं घनवात तनुवात अने तेनी नीचे अलाकाकाश बहुल है ॥ ॥ हवे घनोदधि विगेरे चारेनुं मध्यभागे पींड स्थूलपणुं कहे छे || ( घणुदहीपिंडो ) के० घनोदfact fis मध्यभागे (वीस सहस्साई ) के० वीस हजार योजन जाडपणे छे अने ( घणतणुवायागासा ) के० घनवात तनुवात अने आकाश ( असंख्य जोयणजुया पिंडो ) के० ए त्रणेनो पिंड असं ख्याता योजननो छे. तेमां घनवातथी असंख्याता योजन तनुवात, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने तनुवातथी असंख्याता योजन आकाश जाणवु ॥ ३२२ ।। न फुसंति अलोगं चउ-दिसंपि पुढवी य वलयसंगहिया॥ __ अर्थ-(वलयसंगहिया ) के० घनोदधि घनवात अने तनुबात सम्बन्धी वलयवडे विंटलायेली (पुढवी ) के० रत्नप्रभादिक पृथ्वी ( चउदिसंपि ) के०. चारे दिशाये पण (अलोगं) के० लोकने (न फुसंति) फरेंस करती नथी. साते नरक पृथ्वाना तले मध्य भागमां घनोदधि वीशहजार योजन छे. अने घनवातादिक असंख्याता योजन छे.त्यार पछी प्रदेशे घटता घटता आप आपणी पृथ्वीने छेडे थोडा थया थका वलयाकारे पृथ्वीने वींटी रह्या छे. रयणाए वलयागं, छद्ध पंचम जोयण सढे ॥ ३२३ ॥२ ___अर्थ-( रयणाए) रत्नप्रभा पृथ्वीना ( वलयाणं ) के० : त्रणे वलयनो विष्कम एटले छेडे जाडपणुं अनुक्रमे कहे छे. तेमां घनोदधि (छ) के० छ योजन जाडो, घनवात ( अद्धपंचम) के० साडा चार योजन जाडो, अने तनुवात (जोयणसई) के० दोढ योजन जाडो छे. ॥ ३२३ ॥ विक्खंभो घणउदही, घणतणुवायाण होइ जहसंखं ॥ सतिभाग गाऊयं,गाऊयं च तह गाउय तिभागो॥३२४॥२ पढममहीवलयेसु, खिविज्ज एयंकमेण बीयाए । दुतिचउपंचछगुणं, तइयाइसु तंपि खिव कमसो ॥३२५॥ अर्थ-(विक्खंभो) के ए त्रणेने साथे जोडतां पहेली नरक पृथ्वीनी चारे दिशाए बार योजन दूर अलोक छे. (पढम महीवलयेसु) के० पहेली नरक पृथ्वीना त्रण वलयमा एटले (घण Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ उदही) के० घनोदधि, (घग) , घनवात अने ( तणुवायाण) के तनुवात ए त्रण वलयनी मध्ये (जहसंखं ) के० यथो संख्याये करीने ( सतिभाग गाऊयं ) के० घनोदधिमां एक गाउ, अने एक गानो त्रीजो भागधनात वलयमां (गाउयं) के एक गाउ, (च) के० अने (तह ) के० तेमज तनुवातमां (गाउय तिभागो) के० एक मानो त्रीजो भाग (खिविज ) के० नाखीये त्यारे बीजी शर्करामभानो वलयविष्कंभ ( होइ) के० होय छे, (एयं कोण) के• ए अनुक्रमे (बीयाए ) के० बाजी नरक पृथ्वोमां सर्वमली बार योजन, वे गाउ, अने एक गाउना। करोये तेव। ये भाग एटलो बोजी नरक पृथ्वीथी चारे दिशाये अलोक छ हो (तइयाइसु) के० वालुकाप्रभादि पांचे नरक पृथ्वीना वलयमां (तंपि) के० जे शर्करामभावलयमां नाखेलं तेने पण कमसो के० अनुक्रमे करीने (दुतिचउपचछंगुगं) के बे गुणु, त्रण गुणु, चार गुणु, पांच गुणु अने छ गुणु करीने (खिव) के० मेलववं एटले वालुकादिकना वलयनो विष्कंभ होय, ॥ ३२४ ॥ ३२५ ॥ छसतिभागा पउगाय-पंच वलयाण जोपणपमागं ॥ एगं बारसभागा, सत्त कमा बीय पुढवीए ॥ ३२६ ॥ ___ अर्थ-बाजी शर्कराप्रभाना (वलयाण ) के० वलयोनुं (जोयणपमाणं) के० योजनप्रमाण घनोदधिवलय (छ सति भागा) के० छ योजन अने एक योजननां त्रण भाग करीये तेवो एक भाग एटलं जाणवू, अने घनवातवलय (पउणा पंच ) के० पोणा पांच योजन- जाणवु. तथा तनुवातना वलयनुं प्रमाण (एगं) के० एक योजन अने (बारस भागा सत्त) के० एक योजनना बार भाग करीये तेवा सात भाग (कमा) के० अनुक्रमे करीने जाणवा. सर्व Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... १८८ एकठा करतां बार योजन बे गाउ अने एक योजनना त्रण भाग करीये तेवा बे भाग. एटलो बीजी नरकपृथ्वीथी चारे दिशाये अलोक छे ॥ ३२६ ॥ जोयण सत्ततिभागुण, पंच एवं च वलयपरिमाणं ॥ बारस भागा अट्ठओ, तइयाए जहकमं नेयं ॥३२७ अर्थ-(एवं) के० एवीरीते ( तइयाए ) के० त्रीजी वालुका प्रभाना (वलयपरिमाणं) के० वलयनुं परिमाण ते (जहकम) के० अनुक्रमे करीने (नेयं ) के० जाणवू. तेमां घनोदधिवलयनुं परिमाण जोयण (सत्ततिभागुण ) के० छ योजन बे गाउ अने एक गाउना त्रण भाग करीये तेवा बे भाग अधिक एटलं जाणवू. घनवातनुं वलय (पंच) के० पांच योजननुं जाणवू. अने तनुवातनुं वलय एक योजन अने (बारस भागा अट्टओ) के० एक योजनना बार भाग करीये तेवा आठ भागनुं जाणवू. ए सर्व मलीने तेर योजन एक गाउ अने एक गाउना त्रण भाग करीये तेवो एक भाग उपर एटलो वालुकाप्रभाथकी चारे दिशाये अलोक छे. ॥ ३२७ ॥ सत्त सवाया पंचओ, पउणादो जोयणा चउत्थीए॥ घणउदहिमाइयाणं, वलयाणं माणमेयं तु ॥ ३२८ ॥ ___ अर्थ-(चउत्थीए ) के० चोथी पंकप्रभाना (घणउदहिमाइयागं ) के० घनोदधि विगेरेना (वलयाण) के० वलयोनुं (माणं) के० प्रमाण ( एयं ) के० आ आगल कहे छे ते प्रमाणे जाणवू. घनादधिनुं प्रमाण ( सत्त ) के० सात योजनुं घनवातनुं प्रमाण ( सवाया पंचओ ) के० सवापांच योजननु, अने तनुवातनुं प्रमाण (पउणा दो जोयणा) के० पोणा बे योजननु. सर्वमली पंकप्रभाथकी चउद योजन चारे दिशाये अलोक छे. ॥ ३२८ ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ सतिभागसत्त तह अद्ध, छट्ठ वलयाणमाणमेयं तु ॥ जोयणमेगं बारस, भागा दस पंचमीई तहा ॥३२९॥२२ ___ अर्थ-( तहा ) के० तेमज (पंचमोई ) के० पांचमी धूमप्रभा पृथ्वीना (वलयाणमाणं) के० वलयोनुं प्रमाण ( एयं) के० आ प्रमाणे जाणवू. घनोदपिनुं प्रमाण ( सतिभागसत्त ) के० त्रीजा भागे सहित सात योजननु, ( तह ) के० तथा घनवातनुं प्रमाण (अद्व छह ) के० साडा पांच योजननु, अने तनुवातनुं प्रमाण (जोयणमेगं ) के० एक योजन अने एक योजनना ( बारस भागा दस ) के० एक योजनना बार भाग करीये तेवा दश भागर्नु, सर्व मली चौद योजन बे गाउ अने एक गाउना त्रण भाग करोये तेवा बे भाग एटलो धूमप्रभाथी चारे दिशाये अलोक छे. ॥३२९ ॥ अट्ठतिभागूणाई, पउणाई छच्च वलयपरिमाणं ॥ छट्ठीए जोयण तहा, बारस भागा य इक्कारा ॥३३०॥२४ ___ अर्थ-(सहा) के० तेमज (छठी ) के० छही तमप्रभा नरक पृथ्वीनां ( वलयपरिमाणं ) के० वलयोनुं प्रमाण आ प्रमाणे( अट्ठतिभागृणाई जोयण ) के० त्रीजे भागे ओछा आठ योजन एटले सात योजन बे गाउ तथा एक गाउना त्रण भाग करीये तेवा बे भाग एटलं घनोदधिनुं वलय प्रमाण जाणवू, तथा (पउणाई छच्च ) के० पोणा छ योजननुं धनवातनुं प्रमाण जाणवू. अने (बारस भागाय इक्कारा ) के० एक योजनना बार भाग करीये तेवा अगीयार भाग एटलं तनुपातन प्रमाण जाणवू. सर्व मला पंदर योजन एक गाउ अने एक गाउना त्रग भाग करीये तेवो एक भाग, एरलं तमममाथको चारे दिशाए अन्तर छे ॥ ३३०॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१९० अट्ठय छच्चिय दोत्रिय, घगोदहिमाइयाग माणं तु ॥ सत्तममहिए नेयं, जहसंखेणं च तिपि ।। ३३१ ।। २५१ अर्थ - ( सत्तममहिए ) के० सातमी तमतमप्रभा पृथ्वीना ( घणोद हिमाइयाणमाणं ) के० घनोदधिविगेरे वलयोनुं प्रमाण ओ प्रमाणे-नालियनुं प्रमाण ( अट्ठय ) के० आठ योनजनुं, घनवातनुं प्रमाण (छच्चिय के० छ योजननुं, अने तनुवातनुं प्रमाण ( दोत्रिय) के० वे योजननुं. एम (तिहंपि ) के० त्रण वलयनुं प्रमाण ( जहसं वं ) के० यथा संख्याये करीने जाणं. ए सर्व मली सोल योजननो तमतमप्रभाथी चारे दिशाये अलोक छे. ॥ ३३९ ॥ अहिं कोड़ने शंका याय के प्रथम तो " बोस सहस्साई घणुदहिपिंडो " एटले घनोदविनो पींड वीस हजार योजननो छे एम कधुं छे अने हवणां " ( छ अद्धपञ्चम जोयण सङ्घ)” एटले घनोदधिनुं वलय छ योजन, घनवातनुं साडा चार योजन अने तनुवातनुं दोढ योजन केम कहो छो? तो तेनुं ग्रंथकार समाधान करे छे ॥ मज्झेचिय पुढविअहे, घणुदहिपमुहाण पिंडपरिमाणं ॥ भणियं तओ कमेणं, हायइ जा वलय परिमाणं ||३३२|| अर्थ - जे " वीस सहस्साई घणुदहि पिंडो " ए पाठ को छे तेता ( पुढविअहे ) के ० नरक पृथ्वीनी नीचे (मज्झेचिय) के० free मध्यभागे ( हिपमुहाण) के० घनादधि विगेरेनुं (पिंडपरिमाणं ) के पिंड परिमाग ( भणियं ) के० कथुं छे. (तओ ) के० त्यारपछी (कमेण ) के० अनुक्रमे ( हायइ) के० घट जाय ते ( जावलयपरिमाणं ) के० जेटलं वलयनुं परिमाण छ योजन Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादिक कयु छे. तेटलं जाणवु एमां विरोध नथी ॥ ३३२ ॥ हवे प्रत्येक नरकपृथ्वीमां नरकावासानी संख्या कहे छे. तीस पणवीस पनरस, दस तिन्नि पणूण एगलक्खाई॥ पंच य नरया कमसो, चुलसी लक्खाइं सत्तसुवि ॥३३॥ - अर्थ-जे नारकी जीवोने उपजवाना स्थानको ते नरकावासा कहेवाय छे. ते पहेली नरकपृथ्वीमां (तीस) के० त्रीश लाख, बीजीमां (पणवीस) के० पचीश लाख, त्रीजीमां (पनरस ) के० पंदर लाख, चोथीमां. (दस) के० दश लाख, पांचमीमां (तिनि) के० त्रण लाख, छठीमां (पणूण एग लक्खाई) के० एक लाखमा पांच ओछा, अने सातमीमां (पंच य) के० फक्त पांच ( नरया) के० नरकाबासा (कमसो) के अनुक्रमें जाणवा. (सत्तसुवि) के० साते नरक पृथ्वीना एकठा करीये एटले (चुलसी लक्खाइं) के० चोरासी लाख नरकावासा थाय छे ॥ ३३३ ॥ ! ___ सातमी नरक पृथ्वीमां पांच नरकावासा क्या ? ते कहें छे. पुव्वेण होइ कालो,अवरेण अपइट्ठ ओ महाकालो ॥ रुदाहिगपासे, उत्तरपासे महारुरुं ।। ३३४ ॥२४ अर्थ-(अपइटिओ) के० मध्यमा रहेला अप्रतिष्ठान नोमना नरकावासथी (पुण) के० सातमी पृथ्वीमां पूर्व दिशाने विषे (कालो) के० कालनामनो नरकावास (होइ ) के० छे. (अवरेण) के० पश्चिम दिशामां (महकालो) के०. महाकाल नरकावास छे. (दाहिणपासे ) के० दक्षिण दिशामां (रुरो) के० रु रु नामनो नरकावास छे, अने (उत्तरपासे ) के उत्तर दिशामां (महारुरु) के० महारुरु नामनो नरकावास छे. ॥ ३३४ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे साते नरकना प्रतरोनी जूदी जूदी संख्या कहे छे. तेरिकारस नव सग, पण तिन्निग पयर सवि गुणवन्ना॥ सीमंताई अपइ-ठाणंता इंदया मञ्झे ॥ ३३५॥ २५० अर्थ-पहेली नरक पृथ्वीमां (तेर ) के० तेर प्रतर, बीजीमां ( इक्कारस ) के० अगीयार, त्रीजीमां ( नव) के० नव, चोथीमां (सग) के० सात, पांचमीमां (पण) के० पांच, छठ्ठीमां (तिनि) के० त्रण,अने सातमीमां (इग) के० एक. ए (सव्वि) के० सर्वमली (गुणवन्ना ) के० ओगण पचास (पयर ) के० प्रतर जाणवा. ए सर्वे प्रतरना ( मज्झे ) के०. मध्ये (सीमंताई) के. सीमंतथी आरंभी ( अप्पइट्ठाणंता) के० अप्रतिष्ठान सुधी एटले पहेला प्रतरना मध्यमां सीमन्त नामनो अने ओगणपचासमा प्रतरमां अप्रतिष्ठान नामनो ( इंदया ) के० इन्द्रका एटले मुख्य नरकावास छे. ॥ ३३५॥ हवे साते नरकपृथ्वीना मली ओगणपचास प्रतरना मध्यभा: गना इंद्रक नरकवासनां नाम कहे छे. सीमन्तओत्थ पढमो, बीओ पुण रोख्यत्ति नायब्बो॥ रंभो तत्थय तइओ, चउत्थो पुण होइ उज्झंतो॥३३६॥ संभंतमसंभंतो, विभंतो चेव सत्तमो नेओ॥ अट्ठमओ भत्तो पुण, नवमो सीउत्ति नायबो॥३३७॥ वकंतमवकतो, विकलो तह चेव रोरुओ निरओ॥ पढमाए पुढवीए, तेरस नीरींदया एए । ३३८ ॥ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-( अत्थ) के हो पढमो) के० पहेलो (सीमंतयो. के० सीमन्त, (पुग ) के० वलो (बीओ) के बीजो (रोख्यत्ति) . के रोरुओ ( नाययो ) के० जागयो० ( तत्थय ) के० ते पहेली नरकमां ( तइओ) के० त्रीजो (रंगे ) के० रंभ, (पुण) के चली (चउत्थो) के० चोथो ( उज्झता) के० उज्जतनामनो ( होइ ) के० होय छे-॥ ३३६ ॥ (संभंतमसंभंतो) के० पांचमो संभ्रांत अने छठो असंभ्रांत, वली (सत्तमो) के० सातमो (विप्भंतो) के० विभ्रांत (चेव) के० निश्वे (नेओ) के० जाणवो. (पुग) के० वली ( अहमओ) के आठमो ( भत्तो ) के. भक्त अने ( नवमो) के० नवमो (सीउत्ति) के० शीतनामनो (नायवो) के० जाणवो-॥ ३३७ ॥ (वकंन मरकंतो) के० दशमो वक्रांत अने अगीयारमो अवक्रांत, बारमो (विकलो) के० विकल, (नह) के० तथा तेरमो ( रोरुओ निरओ) - रोरुक नामनो नरकावास (चेव ) के० निश्चे जाणतो. ( पढमाए पुढवीए) के० पहेली नरकपृथ्वीना (एए) के० ए पूर्वे कहेला (तेरस) के० (तेर नीरीदया ) के० मध्यना इंद्रक नरकावास कह्या-|| ३३८ ॥ थणीए थणकेय तहा,मणए चणके य दोइ नायवे ॥ घट्टे तह संघट्टे, जिम्भे अवजिप्भीए चेव ॥ ३३९ ॥ लोले लोलाववत्ते, तहेब घणलोलुए य बोधव्वे ॥ बीयाए पुढबीए, इक्कारस इंदया एए ॥ ३४०॥ ॥ अर्थ-पहेलो (थणीए ) के० स्तनिक, (तहा) के तथा बोजो (थणकेय) के स्तनकेत, त्रीजी ( मणए ) के० मणक, (य) के० अने चोथो (चणके ) के० चणक, ए (दोइ) के० बे (नायमे) के० जाणवा पांचमो (बट्टे) के० घट्ट, अने ( तह) के० तथा छट्ठो Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (संघट्टे) के० संघट्ट, सातमो (जिम्भे) के० जिभ अने आठमों ( अवजिप्भीर) के० अवजिप्भ (चेव) के० निश्चे होय-॥ ३३९ ।। नवमो (लोले) के० लोल, दशमो (लोलावत्ते) के० लोलावत, ( तहेव) के० तेमज अगोयारमो (घणलोलु एय) क० घणलोलुक (बोधव्ये) के० जाणवो. (बीयाए पुढवीए) के० वीजी नरकपृथ्वीना (एए) के० ए पूर्व कहेला ( इक्कारस ) के० अगीयार (इंदया) के इंद्रक नरकावास छे० ।। ३४० ॥ तत्तो तविआ तवणो, तावणो पंचमो निदिट्ठोय ॥ छ8ो पुण पज्जलिओ, उज्जलिओ सत्तमो नीरओ ॥ ३४१ ॥ संजलिओ अट्ठमओ,संपज्जलिओयनवमओ भणि।। तइयाए पुढवीए, एए नव होति नीरइंदा ॥ ३४२ ॥ - अर्थ-पहेलो (तत्तो) के तप्त, बीजो (तविओ) के० तपिक, श्रीजो (तवणो) के० तपन, चोथो (तावणो) के० तापन, (य) के० अने (पंचमो ) के० पांचमो (निदिट्ठो) के. निदाघ, (पुण) के० वली (छट्ठो) के० छट्ठो (पज्जलिओ) के० प्रज्वलित, अने ( सत्तमो) के० सातमो (उज्जलिओ नीरओ) के० उज्वलित नरकावास. ॥ ३४१ ॥ (अट्ठमओ) के० आठमो (संजलिओ) के० संज्वलित, (य) के० अने (नवमओ) के० नवमो ( संपन्न लिओ) के० संप्रज्वलित (भणिो ) के० कयो छे. ( तइयाए पुढवीए ) के० त्रीजी नरक पृथ्वीना (एए) के० ए पूर्व कहेला (नव) के० नत्र (नोरइंदा) के० मोटा इन्द्रक नरकावास (होति) के छे. ॥ ३४२॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ आरे सारे मारे, कवे तपए य होइ नायवे ॥ खाडखडे खंडखडे, इंदयनिरया चउत्थीए ॥ ३४३ ॥ अर्थ-पहेलो (आरे) के० आर, बीजो (सारे ) के० सार, चीजो ( मारे) के० मार, चोथो (वो) के० वर्व, पांचमो (तमएय) के० तम, (होइ ) के छे. छठो (खाडखडे ) केखाडखड अने सातमो (खंडखडे ) के० (खण्ड खड) ए सात इंदयनिरया) के० इन्द्रक नरकावास ( चउत्थोए ) के० चोथी नरक पृथ्वीने विषे जाणवा. ॥ ३४३॥ खाए तमए य तहा, ऊसे अंधे य तहब तिमिसे य ॥ एए पंचमपुढयो, पंचयनीरइंदया हुंति ॥ ३४४ ॥ ५५ ___ अर्थ-हेलो (खाए) के० खात, वीजो (तमएय ) के० तमक, (तहा) के० तेमज त्रीजो (ऊसे) के० ऊस, चोथो (अंधेय) के० अन्ध, (तहय ) के० तेमज पांचमो (तिमिप्य ) के० तिमिस. (एए) के० ए नामना (पंचयनीरइंदया) के पांच इन्द्रक नरकावास (पंचमपुडयो) के. पांचमी नरकपृथ्वीने विषे (हुति) के० छे. १ ३४४ ॥ हिम वद्दल ललक्खे, तिनिउ नौरइंदया उ छट्ठीए॥ एको य सत्तमाए, अपइठाणा य बोधवो ॥ ३४५ ॥ ___ अर्थ-पहेलो ( हिम) के० हिम, बीजो ( बद्दल ) के० वदल, त्रीजो ( ललक्खे ) के० ललख, (तिनिउ) के० ए त्रण ( नीरइंदया ) के० इन्द्रक नरकावास (छठीए) के० छट्ठी नरकपृथ्वीने विषे छे. (य) के० अने (सतमाए ) के० सातमी नरकपृथ्वीने विषे Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एको) के एक (अपइट्ठाणो) के० अप्रतिष्ठान नामनो नरकावास (बोधचो) के० जाणको ।। ३४५ ॥ हवे दरेकप्रतरे ए मध्यना इंद्रक नरकासाथो केटली श्रणिओ निकले छे ? तथा ते दरेक श्रेणिमां केटला नरकावासा छ ते कहे छे. तेहितो दिसि विदिसि,विणिग्गया अट्ठ निस्यआवलीया।। पढमपयरे दिसि गुण-वन विदिसासु अडयाला ।।३४६॥ २॥ अर्थ-प्रत्येक प्रतरे ( तेहिता ) के० ते मध्यना इंद्रक नरकावासोथी (सि.) वे० चारे दिशामां अने बिदिसि ) के० विदिशामां (अट्ठ निरयावलीया ) के० आठ नरक पंक्तिओ (विणिग्गया ) के० निकलेली छे. तेमा ( पढमपयरे ) के० पहेला प्रतरने विषे ( दिसि ) के चारे दिशामां चारे पंक्तिने विषे (उणवन्न) के० ओगणपचास अने ( विदिसासु ) के० विदिशामां (अडयाला) के० अडतालीस नरकावासा होय छे. ॥ ३४६ ॥ बीयाइसु पयरेसु, इग इग हीणा उ हुंति पंतीओ ॥२४ जा सत्तमीयपयरे, दिसि इक्किको विदिसि नत्थिा॥३४॥ ___ अर्थ-(बीयाइसु पयरेसु) के० बीजाथी आरंभीने जे प्रतर छे तेमां ( इग इग हीणाउ पतीओ) के दरेक प्रतरे एक एक नरकावासे ओछी पंक्तिओ ( हुंति) के० होय छे. जेथी ( जासत्तमी५पयरे ) के० सातमी नरक पृथ्वीना छेल्ला ओगणपचासमा प्रतरने विषे (दिसि ) के चारे दिशामां ( इकिको) के० एक एक, अने (विदिसि ) के० विदिसामा (नत्थि) के० एक पण नथी. ॥३४७॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१९७ हरेक प्रत दिशा तथा विदिशानी आवलीना मल्या सर्वे नरकावासानी संख्या जाणवा माटे करण कहे छे. t इट्ठपयरेगदिसि संखा, अडगुणा चउविणा सद्गसंखा ॥ २५८ जह सीमंतयपयरे, एगुणनउया सया तिन्नि ॥ ३४८ ॥ २८ अपट्ठाणे पंच उ, पढमो मुहमंतिमो हवइ भूमि ॥ २५७मुहभूमिसमासद्धं, पयरगुणं होइ सबधणं ॥ ३४९ ॥ २६अर्थ - ( इहपयर ) के० वांछितप्रतरनी (एग दिसि ) के० एक दिशाने विषे ( संखा ) के० जे नरकावासानी संख्या छे ते आव लीनो अपेक्षाये छे. आवली आठ छे माटे ते संख्याने ( अडगुणा ) के० आठगुणी करीये, पण विदिशामां एक एक नरकावास ओछोहोवाथी (चडविणा ) के० चार ओछा करीये. पछी ( स ) के० एक इंद्रक नरकावास सहित करीये एटले ( इगसंखा ) के० एक प्रतरे नरका वासानी संख्या थाय. (जह ) के० जेम रत्नप्रभाना ( सीमंतयपयरे ) के० सीमंत नामना पहेला प्रतरमा एकदिशाना नरकावासानी संख्या ओगणपचास छे, तेने आठगुणा करीये त्यारे णसो बाणुं थाय. तेमांथी चार ओछा करता त्रण सो अयाशी रहे. मां एक इंद्रक मेलवीये त्यारे (एगुणनउया सया तिन्नि) के० त्रण सो ने नेव्याशी थाय. एवीजरीते वीजे प्रतरे एज प्रमाणे गणतां त्रण सो एक्याशी आवलिका गत नरकावासा होय. ॥ ३४८ ॥ एवीज रीते वेल्ला ओगणपचासमा (अहाणे ) के० अइठाण प्रतरे एक दिशाये एक नरकावासो छे, तेने आठ गुणो करता आठ थाय तेमांथी विदिशाना चार काढी नाखीये. बाकी चार रहे तेनी साथै एक इंद्र मेलवतां सातमो नरके आवलिका गत नरकावासा (पंच) के० पांच थाय ॥ * Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ हवे एक एक पृथ्वीने विषे आवलिकागत नरकावासा जाणवामाटे पाछली गाथाना पाछला त्रण पदेकरी करणांतर कहे छे, (पढमो) के० पहेला सीमंतक प्रतरना त्रणसो नेव्यासो आवलिकागत नरकावासाने (मुह) के० मुख कहीये अने (अंतिमी) के० छेल्ला ओगणपचासमा अपइठाण प्रतरना पांच नरकावासा ते (भूमि हवइ ) के भूमी कहेवाय. पछी ( मुहभूमि ) के मुखना त्रण सो अने नेव्यासी तथा भूमिना पांच तेने (समास ) के० एकठाकरीये त्यारे त्रण सो अने चोरोj थाय. तेनुं ( अद्धं ) के० अर्द्ध करतां एक सो अने सत्ताणुं थाय. तेने (पयरगुणं) के० ओगणपचास प्रतरे गुणतां (सबधणं होइ) के० सर्वे ओगणपचासे प्रतरना आवलिकामा रहेला नरकावासानी संख्या नव हजार छ सो अने त्रेपन थाय, एटला साते पृथ्वीना आवलिकागत नरकावासा जाणवा. बाकी व्यासी लाख नेQ हजार त्रण सो ने सडतालीश पुष्पावकीर्ण जाणवो. ॥ ३४९॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. २ नरकावासनु कोष्टक. bult कई नरके ? अध. समासन | मुखं | भूमि. समासः | समा | प्रतरः | पंक्तिवेधः । पुरा सर्व संख्या . कीणकः ५ ३८४ | ४८ | ८६५३ ८3८०३४७८४०००००० ૨૯૩ १३ | ४४३३ २४८५५९७ ३०००००० २८ • साते नरक : । ३८८ | रत्नप्रभायाः . 3८८ शर्करा प्रभायाः | वालुका प्रभायाः ૧૭ | पंक प्रभायाः २०५ २६८५ २४८७३०५ २५००००० ૧૩૩ ૧૪૮૫ १४८८५१५/ १५००००० १२५ ७७ ७०७ ८८८२४३ १०००००० | धूम प्रभायाः ३७ २१५ २८८७३५, ३००००० तमः प्रभायाः ૮૮૯૩૨ ૯૯૯૮૫ तमस्तमः प्रभायाः । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० अहिं एजवात ग्रंथकार कहे छेछण्णवइसय तिवण्णा, सत्तसु पुढवीसु आवलोनिरया ॥२ सेस तियासी लक्खा,तिसय सियाला नवइ सहस्सा।३५०/ ___ अर्थ-(सत्तसु पुढवीसु) के० साते नरक पृथ्वीमां ( आवली निरया) के० आवलिकामा रहेला नरकावासा (छण्णवइसय) के० छन्नु सो अने (तिवण्णा ) के० त्रेपन छे. अने (शेष) के० वाकी (तियासी लक्खा) के० व्यासी लाख, (नवइ सहस्सा) के० नेवू हजार, (तिसय) के० त्रण सो अने (सियाला) के० सडतालोश. एटला पुष्पाकीर्ण नरकावासा जाणवा. सर्वे मलोने चोरासी लाख नरकावासा छे. ॥ ३५० ॥ तिण्णि सया अउगनउया,दोतिणउया य हुंति पुढवीए । दोसय पंचासीया, पंचुत्तर दोत्ति बीयाए ॥ ३५१ ॥५५ ___ अर्थ-(पुढवीए) के० पहेली नरकपृथ्वीने विषे ( तिण्णि सया ) के० त्रण सो अने ( अउणनउया) के० नेव्यासी नरकावासार्नु मुख तथा (दोतिणउयाय ) के० बसो अने त्राणु नरका• वासानी भूमि (हुंति) के छे. (बोयाए) के० बीजी नरक पृथ्वीने विषे (दोसय पंचासीया) के• बसोने पंचासी नरकावासार्नु मुख अने ( पंचुत्तर दोत्ति ) के० बसोने पांच नरकावासानी भूमि छ. ॥ ३५१ ॥ सत्ताणुयं सयं च, तित्तीस सयं सयं च पणवीसं ।। सत्तुत्तरि अउणत्तरी, सत्तत्तिसा य गुणतीसा ।। तेरस मुह भूमिओ॥ ३५२ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ अर्थ-त्रीजी नरक पृथ्वीने विवे ( सत्ताणुयं सयं च ) के एक सो सत्ताणु नरकावासार्नु मुव अने ( तित्तीस सयं ) के एक सो तेत्रीश नरकावासानी भूमि छे. चोथी नरकपृथ्वीने विवे ( सय च पणवीसं) के० एक मो पच्चीस नरकावासानु मुख अने ( स तु. त्तरि) के सित्योतेर नरकावासानी भूमि छे. पांचमो नरकवीने विषे ( अउगत्तरी) के० ओग़गोचर नरकावासानु मुख अने (सत्त त्तिसा) के० साडबोस नरकावासानी भूमि छे. छट्ठी नरकपृथ्वीने विषे (गुणतीसा) के० ओगणीस नरकावासानु मुख अने (तेरस) के० तेर नरकावासानी भूमि छे. ए (मुहूभूमिओ) के० मुख अने भूमि ब्रह्या. परंतु सातमी नरकने वि प्रतरो नथी माटे मुख अने भूमि न थी ॥ ३५२॥ सत्तहि पणसय पण-जवइ सहस्स लक्ख गुणतीसं ॥ रयणाए सेदिगया,चउयाल सया य तित्तीसा ॥३५३॥ ___ अर्थ-( रयणाए) के० रत्नप्रभा पृथ्वीमा ( लक्ख गुणतीसं ) के ओगणत्रीस लाख, ( पण नवइ सहस्स ) के० पंचाणु हजार, (पणसय ) के० पांच अने ( सत्तहिः) के. सडसठ एटला पुष्पावकीर्ण नरकावासा छे. तथा (सेढिगया) के० श्रेणिमां रहेला ( चउयालसया य तित्तीसा) के० चुमालीस सो अने तेत्रीस नरकावासा छे. सर्व मळा त्रीस लाख नरकावासा रत्नप्रभा पृथ्वीमां जाणवा. ॥ ३५३ ॥ सत्ताणवइ सहस्सो, चउवीसं लक्ख तिसय पंचहिया॥ बीयाए सेढिगया, छब्बीससया य पणनउया ॥३५४॥५ अर्थ-( बीयाए ) के० बीजी नरकपृथ्वीमां (चवीम Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ लक्ख ) के० चोवीसलाख, ( सत्ताणवर सहस्सा ) के० सत्ताणु हजार, ( तिसय ) के० त्रण सो अने ( पंचहिया ) के० पांच अधिक एंटला पुष्पाकीर्ण नरकावासा है. तथा ( सेढिगया ) के० श्रेणिमा रहेला ( छवीस सया ) के० छवीस सो (य) के० अने ( पणनया ) के पंचाणु नरकावासा छे. सर्व मली पच्चीस लाख antaran art शर्कराप्रभा नरकपृथ्वीमां जाणवा. ॥ ३५४ ॥ पंचसया पन्नरसा, अडनउय सहस्स लक्ख चउदस य ॥ तझ्याए सेढीगया, पणसीयाओ चउदसया ।। ३५५ ।। अर्थ - ( तइयाए ) के० त्रीजी नरकपृथ्वीमां (चउदस लक्ख) के० चउद लाख, ( अडनउय सहस्स ) के० अठाणु हजार, ( पंचसया ) के० पांच सो अने ( पन्नरसा ) के० पनर एटला पुष्पावकीर्ण नरकावासा छे. अने ( सेढीगया ) के० श्रेणिमां रहेला ( चउदसया ) के चउद सो अने ( पणसीयाओ ) के० पंचाशी नरकावासा छे. सर्व सली पनर लाख नरकावासा त्रीजी वालुकाप्रभा नरकपृथ्वीमां जाणवा. ॥ ३५५ ॥ ते ज्या दोन्निसया, नवनवई सहस्स नव य लक्खा य ॥ पंकाए सेढीगया, सत्तसया हुंति सत्तहिया ।। ३५६ ।। | अर्थ - ( पंकाए ) के० चोथी पंकप्रभा नरकपृथ्वीमां (नव य लक्खा ) के० नव लाख, ( नवनवइ सहस्स ) के० नवगुं हजार, ( दोनिया ) ० बसो अने ( तेणडया ) के० त्राणु, reer gurranीर्ण नरकावासा छे, अने (सेहीगया) के० श्रेणिमां रहेला ( सत्तसया ) के० सात सो अने ( सतहिया ) के० सात अधिक एटला नरकावासा (हुति ) के० है. सर्व मलो दश लाख नरकावासा चोथी पंकप्रभा नरकपृथ्वीमां जाणवा. ॥ ३५६ ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ सत्तसया पणतीसा, नव नवई सहस्स दोन्नी लक्खा य॥ धूमाए सेढिगया, पणसट्ठी दोसया हुँति ॥ ३५७ ॥ अर्थ-( धूमाए) के० पांचमी धूमप्रभा नरकपृथ्वीमा (दोन्नी लावाय ) के बे लाख ( ना नई सहस्स) के० नवाणु हजार, (सत सया ) के सात सो अने (पण सोसा) के पांत्रीस एटला पुष्पावकीर्ण नरकावासा छे. तया (सेडिनया ) के श्रेणिमा रहेला ( दो सया) के० बसो अने (पगसट्टी) के पांसर एटला नरकावासा के. सर्व मली त्रण लाव नरकासा पांचमी धूमप्रभा नरकपृथ्वीमा छे. ॥ ३५७ ॥ नवनवइओ सहस्सा, नव चेव सया हाति बत्तीसा॥ पुढवीए छट्ठीए, सेढीगया हुंति तेसट्ठा ॥ ३५८ ॥ १ ____ अर्थ-( पुढवीए छट्ठीए) के छट्ठी तमप्रभा नरकपृथ्वीमा (नवनवइओ सहस्सा ) के नवाणुं हजार, ( नव सया) के नव सो अने ( बत्तीसा ) के बत्रीश. एटला पुष्पावकीर्ण नरकावासा ( चेव ) के० निट ( हति ) के छे. तथा [ सेहीगया ] के० श्रेणिमा रहेला [ तेसट्टा ] के त्रेसउ नरकासा ( हुंति ) के छे. सर्व मली नवाणु हजार नव सो पंचाणु नरकवासा छट्टी तमप्रभा नरकपृथ्वीमां छे. सातमी नरकपृथ्वीमां पांचज नरकावासा छे. पुष्पावकीर्ण नथी. ॥ ३५८ ॥ ते णं नरगावासा, अंतो वट्टा बहिं च चउरंसा ॥ हिट्ठा खूरप्पसंठाण-संठीया पर मदुगंधा ॥ ३५९.॥ अर्थ-[ नेणं नरगावासा ] के० ते पूर्व वर्णवेला सर्वे नरका. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ वासो [अंतो वट्टा] के० महिला भागमां गोलाकार, (वहिं चउरंसा) के० बहार चोरस अने (हिट्ठा ) के० नीचे ( खूरप्पसंठाणा ) के० खूसला एरले घास कापवान एक जातना हथीयार सरखा आकाखाला अने [ परमदुग्गंधा ] के. अत्यंत दुर्गधमय [ संठीया ] के रहेला छे. ते नरकावासा देवलोकना आवलिकागत विमाननो पेठे वृत्त त्रिखूणा अने चोखूणा अनुक्रमे जाणघा. अने पुष्पावकीर्ण नरकाबासा अनेकाकारना संस्थानवाला जाणवा. ॥ ३५९ ॥ हवे नरकावासानु लावाणु पहोलपणुं अने उंचपणु कहे छे. तिसहस्सुना सव्वे, संखमसंखिन्ज वित्थडायामा । पणयाललक्ख सी-तओय लक्खं अपाणो॥३६०॥ . अर्थ-साते नरकयोमा जेटला नरकावासा छे ते ( सन्के) #. सब नरकावासा [तिसहस्सुबा] के त्रग हजार योजन उंचा 2. तया (वित्थडायामा) के० पहोलाइझगे अने लम्बाइपणे [संवमसंखिज ] के कोइक संख्याता योजन अने कोइक असंख्याता योजन छे, पण तेमां [ सोभतो ] के. प्रथम सीमन्त नामनो इन्द्रक नरकावासो [पणयाललक व के० पीतालोश लाख योजन लांबो अने पहोलो छ. [ य ] के. अने [ आइट्ठाणो ] के० छेलो अपातष्ठान इन्द्रक नरकावास [ लक्वं ] के एक ; ला व योजन लांबो अने पहोलो के. ए अपइठाणाने फरता काल विगेरे चार नर कावासा छे ते लांबागे पहोलपगे अने फरता परीधिये असंख्याता कोडाकोडा योजन जाणवा. ॥ ३६०॥ हिलो घणो सहस्सं, उप्पिसे कुटुओ सहस्सं तु ॥ मज्झे सहस्स सुसिरा,तिनि सहस्सुच्चया निरया।।३६१|| Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ अर्थ-सर्वे नरकावासा (हिहो) के० नीचे (घणो सहस्स) के• एक हजार योजननी घाढ उंची पीठिकावाला, (तु) के० वली ( उप्पींसे ) के० उपरना भागमां (कुटुओ सहस्सं ) के० एक हजार योजनना शिखराकारे गोमटावाला अने (मज्झे) के० मध्यभागने विो ( सहस्स मुसिरा) के० एक हजार योजननी पोलाणवाला छे, एम सर्व मलीने (तिनि सहस्स ) के० त्रण हजार योजन ( उच्चया ) के० ऊंचा ( निरया ) के. नरकावासा छे. ॥ ३६१॥ छसु हिछुवरि जोयण, सहस्स बावन्नसह चरिमाए ॥ पुढवीनिरयरहियं, निरया सेसंभि सबासु ॥ ३६२ ।।२५ अर्थ-रत्नप्रभादि साते नरकपृथ्वीना जे एक लाख एंशी हजार योजन विगेरे पृथ्वीपिंड कह्या छे तेमां (छसु ) के० पहेली रत्नप्रभादिक छ पृथ्वीमां ( हिवरि ) के० नीचे अने उपर ( जोयण सहस्स ) के० एक एक हजार योजन क्षेत्र नरकावासाथी रहित जाणवू, अने ( चरिमाण ) के० सातमी नरकपृथ्वीने विषे नीचे अने उपर (बावन सट्ठ ) के० साडीबावन हजार साडिबा. वन हजार योजन (पुढवीनिरयरहितं ) के० क्षेत्र नरकावासाथी रहित जाणवु. ( सेसंमि सन्यासु) के० बीजो समस्त पृथ्वीने विषे ( निरया ) के० नरकावासा जाणवा. ॥ ३६२ ॥ हवे दरेक नरक पृथ्वीमां प्रतरे प्रतरे केटलं अंतर छे ? ते कहे छे. विसहस्सुणा पुढवी,तिसहस्स गुणिएहिं निययपयरेहि।। ऊगा निरुवूणयपयर, भाईया पत्थडंतरयं ॥ ३६३ ॥२ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ अर्थ - ( पुढवी ) के० पहेली नरक पृथ्वीना डिमांथी (विसहस्णा) के० एक हजार उपरथी अने एक हजार नीचेथी एम वे हजार योजन ओछा करीये. पछी दरेक प्रतर त्रण त्रण हजार योजन उंचा छे माटे ( तिसहस्स गुणिएहि ) के० त्रण हजारवडे गुणेला ( निययपयरे हि ) के० पोतपोताना प्रतरोनी जे संख्या थाय ते ( ऊणा ) के० ओछी करवी. पछो ( रूवूण ) के० एक रूप करीने ( नियपयरभाईया ) के० पोत पोताना प्रतरना जेटला आंतरा होय art भागाकार करat एटले (पत्थरयं) के० मतर प्रतरनुं अंतर प्रमाण थाय छे. ॥ ३६३ ॥ उदाहरणथी स्पष्ट समजावे के के रत्नप्रभा पृथ्वीनो पिंड एक लाख ऐंशी हजार योजननो छे, तेमांथी बे हजार योजन arora एटले बाकी एक लाख अट्ठोतेर हजार रहे. हवे ए पृथ्वीना तेर प्रतर छे ते दरेक ऋण ऋण हजार योजन उंचा छे माटे तेरने त्रण हजारे गुणीये त्यारे ओगणचालीस हजार थाय. एटला एक लाख अट्ठोतेर हजारमाथी काढीये बाकी एक लाख ओगणचालीश हजार रहे, तेने तेर प्रतरनी वचमां वार आंतरा छे, माटे बारे भाग आपीये एटले एक एक आंतरे अगीयार हजार पांचसो अने व्याशी योजन, अने ते उपर एक योजनना ऋण भाग करीये तेवो एक भाग एटलं रत्नप्रभाना प्रत प्रतर बच्चे अन्तर जाणवुं. एवीज रीते बीजी नरक पृथ्वीओने विषे पण पोतपोताना प्रतरे भाग दीधाथी जेक आवे ते प्रत्येके अन्तर जाणवुं. एज आगली गाथाथी कहे छे. तेसीया पंचसया, इकारस चेव जोयणसहस्सा ॥ रयणाए पत्थडंतर - मेगो चिय जोय गतिभागो ॥ ३६४|| अर्थ - ( रयणाए ) के० पहेली रत्नप्रभा पृथ्वीमां (इकारस 9 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ ० जोयणसहस्सा) के अगीयार हजार, (पंचसया ) के० पांचसो अने (तेसीया ) के० त्यासी एटला योजन, तथा ( एगो जोयणतिभागो) के० एक योजनना त्रण भाग करीये तेत्रो एक भाग. एटलं ( पत्थडेतरं ) के० प्रतरे प्रतरे अन्तर ( चिय ) के० निश्चे जाणवुं ॥ ३६४ ॥ सत्ताणवई सयाई, बीयाए पत्थडेतरं होइ ॥ पणहत्तरि तिष्णि सया, बारस सहस्स तइयाए | | ३६५॥५ अर्थ - ( बीयाए ) के० बीजी नरकपृथ्वीने विषे अगीयार प्रतरना दश आंतरामां ( सत्ताणवई सयाई ) के० नत्र हजार अने सात सो योजननुं ( पत्थतरं होइ ) के० प्रतरे प्रतरे आंतरुं होय. ( तइयाए ) के० त्रीजी नरकपृथ्वीने विषे नव प्रतरना आठ आंत - राम ( बारस सहस्स ) के बार हजार, ( तिण्णिसयां) के० त्रण सो अने (पणहत्तरि ) के० पंचोतेर योजननुं प्रतरे प्रतरे अंतर होय. ॥ ३६५ ॥ छावसिय सोलस, सहस्स एंगो य दा विभागाइ ॥ अढाइ सयाई, पणवीस सहस्स धूमाए || ३६६ ॥ C अर्थ — चोथी नरकपृथ्वीना सात प्रतरना छ आंतरामां ( सोलस सहस्स ) के० सोल हजार ( छावट्टिस ) के० एक सो ने छास योजन (य) के० अने ( एगो दो विभागाइ ) के० एक योजना त्रण भाग करीये तेवा वे भाग एटलं प्रतरे प्रतरे अंतर होय. पांचमी ( धूमाए ) के० धूमप्रभा नरकपृथ्वीने विषे पांच प्रतरना चार आंतरामां (पणवीस सहस्स) के० पच्चीस हजार अने ( अढाइ सयाई ) के० अढीसो अर्थात् वसो पचास योजननुं प्रतरे प्रतरे अंतर छे. ॥ ३६६ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००८ बावन्न सहस्साई, पंचेव हवंति जोयणसयाई । पत्थडमंतरमेयं, छट्ठीपुढबीए नेयव्वं । ३६७ ॥ अर्थ-(छठीपुढवीए ) के० छठी तमप्रभा नरकपृथ्वीने विवे त्रण प्रतरना बे आंतरामा (बावन्न सहस्साई) के० बावन हजार अने (पंचेव जायणसयाई) के० पांचसो योजन. ( एयं ) के० एटलं (पत्थडमंतरं ) के० प्रतरं प्रतरे अंतर ( नेयव्वं ) के० जाणवं. ॥ ३६७ ॥ ( सप्तस्यां त्वेक एव प्रतर इति तत्रांतरं न संभवति ॥ उक्तं नारकाणां प्रसंगवशाद्भवनद्वारम् ॥ अर्थ-वली सातमी तमतमप्रभा नरकपृथ्वीमा एकज प्रतर होवाथी तेमां आंतरा संभवे नहीं.एम ए प्रसंगने अनुसरी नारकी जीवोनुं भवनद्वार का. अथ नारकाणा भवगाहनाद्वारमारभ्यते । हवे ते नारकी जीवोर्नु अवगाहना द्वार एटले शरीरप्रमाणद्वार कहे छे. पउणठ्ठघणु छ अंगुल, रयणाए देहमाणमुक्कोसं ॥ २३ सेसासु दुगुणदु गुणं,पण धणुसय जाव चरिमाए॥३६॥ अर्थ-( रयणाए ) के० पहेली रत्नप्रभा नरकपृथ्वीमां नारकीओर्नु (उकोसं ) के० उत्कृष्टुं ( देहमाणं ) के० शरीर प्रमाण (पउणधणु ) के० पोणा आठ धनुष्य अने ( छ अंगुल ) के० छ अंगुलनु होय छे. अने (सेसासु ) के० वाकीनी छ पृथ्वीमां (दुगुणदुगुणं ) के० प्रथमनी नरक करतां बमणुं बमणु अनुक्रमे करवु. ते ( जाव चरिमाए ) के० जेटलामा छेल्ली नरकटः वीने विधे Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ (पण धणुसय) के० पांच सो धनुष्यनु उत्कृष्ट शरीर प्रमाण होय.॥ जेमकेएरत्नप्रभामा सात धनुष्य त्रणहाय छ आंगुल, शर्करप्रभामां पन्नर धनुष्य वे हाथ बार अंगुल, वालुका प्रभामां एकत्रीश धनुष्य एक हाथ. पंकमभामां बासठ धनुष्य बे हाथ, धूमपभामां एक सो पच्चीश धनुष्य, तमप्रभामा अढी सेो धनुष्य, अने तमतमप्रभामां पांच सो धनुष्यनु उत्कृष्ट शरीर प्रमाण होय. ॥ ३६८ ॥ ___ हवे रत्नप्रभाना प्रतरे प्रतरे जूतुं जूदुं देहमान कहे छे. रयणाएपढमपय रे, हत्थतियं देहमागमगुपयरं ॥ छप्पण्णंगुलसवा, वुट्ठी जा तेरसे पयरे ॥ ३६९ ॥२५१____ अर्थ-( रयणाएपढमपयरे ) के रत्नप्रभा पृथ्वीना पहेला प्रतरे ( हत्थतिय देहमाणं) के० त्रण हाथर्नु उत्कृष्ट शरीर प्रमाण छे. त्यार पछी ( अणुपयर ) के० प्रतरे प्रतरे (छप्पण्णंगुलसहा ) के० साडा छप्पन्न अंगुलनी (वुड्डी) के० वृद्धि करवी के-जेथी ( जा तेरसे पयरे ) के० तेरमा प्रतरे पोणा आठ धनुष्य अने छ अंगुलनु प्रमाण पूर्ण थाय. ॥ ३६९ ॥ . हवे शर्करादिकना पतरे प्रतरे उत्कृष्टुं देहमान कहे छे. (ins जं देहपमाणं उवरि-माए पुढवीए अंतिमे पयरे ॥ तं चिय हिछिमपुढवी-पढम पयरंमि बोधव्वं ॥ ३७०॥ .. अर्थ-(उपरिमाए पुढवीए ) के० उपर उपरनी पृथ्वीना ( अंतिमे पयरे ) के० छेल्ला प्रतरने विषे उत्कृष्टुं (जं देहपमाणं) के० जे शरीर प्रमाण होय (ते) के० ते प्रमाण (चिय) के० निश्चे (हिडिमपुढवीपढमपयरंमि) के० नीचेनी पृथ्वीना पहेला प्रतरे (बोधव्यं) के० जागQ ॥ ३७० ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० तं चेगूगगसगपयर, भइयं बीयाइ पयर वुट्ठिभवे ।। (तिकर तिअंगुल कस्सत्त,अंगुला सहि गुणवीस।।३७१।१२) पग धगु अंगुलवीतं, पनरसघगु दुन्नि हत्थ सहा य॥ ) बासठि धणुहसढा,पण पुढवी पयर वुद्धि इमा ॥३७२।। अर्थ-तं च ) के० ते शकरादिक पृथ्वीना पहेले प्रतरे से देहमान आये तेने ( एगूगा) के एक उगे (सर्गमयर ) के० पोत पाताने पारे ( भइयं) के. भाग आपको. तेम करता जे आंक आरे ते शर्करादिक पृथ्वीना (बोयाइ पयर) के. बीजा प्रारादिकने विरे (बुढिभवे ) के० वृद्धि होय, पण ते वृद्धि बोजी नरकपृथ्वीथी आरंभी छट्ठी पृथ्वी सुवी एटले पांच पृथ्वीना बोजा पारे अनुक्रमे जाणवी. हये शर्कराप्रभाना प्रथम पतरे सात धनुष्य त्रण हाथ अने छ अंगुल देहमान छे, तेमां (तिकर तिअंगुल ) के० त्रण हाय अने त्रग अंगुलनो वृद्धि करोये, तथा त्रीजा नरके प्रथम प्रतरे पन्नर धनुष्य बे हाथ अने वार अंशुलनुं देहमान छे तेमां (करसत अंगुला सढि गुगवीस ) के० सात हाथ ने साडो ओगणीश अंगुलनी वृद्धि करोये-॥ ३७१ ॥ चोया नरकना पहेले प्रतरे एकत्रीश धनुष्य अने एक हाथर्नु शरीर प्रमाग छे. तेमां (पग घणु अंगुलपीसं) के० पांच धनुष्य ने वीश अंगुलनो वृद्धि करोये. पांचमा नरकना पहेले पारे साडीबासठ धनुष्यनुं देहमान छे, तेमां (पनरस घणु दुन्नि हत्थ सहाय ) के० पन्नर धनुष्य ने अहीहाथनी वृद्धि करीये. छटा नरकना पहेले प्रतरे एक सो पच्चीस धनुष्यनुं देहमान छे, तेमां (बासहि धणुहसट्टा ) के० बासर धनुन्य अने बे हाथ नो वृद्धि करोये. एम (पण पुढवी पयर वुढि इमा ) के० पांच नरक पृथ्वीना प्रतरोने विषे ए प्रमाणे वृद्धि करवी. ॥ ३७२ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एज वात विस्तार सहित समजावे छे के-शर्करामभाना पहेला पतरे सात धनुष्य त्रण हाथ अने छ अंगुल देहमान छे. ते सात धनुष्यना अट्ठावीश हाथ थाय तेनी साथे उपरना त्रण हाथ मेलवतां एकत्रीश हाथ थाय. तेना अंगुल करवामाटे चोवीसे गुणीये तो सात सो चुमालोश अंगुल थाय, तेमां उपरना छ अंगुल मेलयतां सर्व मलो सात सौ पचास अंगुल थाय. तेने शर्करा प्रभाना अगीयार प्रतरने एके ऊणा करी दशे भाग आपीये तो एक एक भागे पंचोतेर अंगुल आवे. तेना त्रण हाथ अने त्रण अंगुल थाय. एटली शर्कराप्रभा पृथ्वीना पहेला प्रतरने विवे देहमाननी वृद्धि थाय. एम वीजा प्रतरथी आरंभी दरेक प्रतरे एवीज रोते वृद्धि करवी. ए प्रमाणे वीजीथी छट्ठी सुधी प्रत्येक नरक पृथ्वीने वि जाणवू. समजणमाटे यंत्र स्थापना जोवी. सातमी नरके एकज प्रतर छे माटे त्यां उत्कृष्ट पांचसो धनुष्यनुज देहमान छे. . हवे नारकी, उत्कृष्ट तथा जयन्य उत्तरवैक्रिय शरीर प्रमाण कहे छे. इय साहावियदेहा, उत्तरवेउविओ य तदुगुणो॥ २१ ? दुविहावि जहन्नकमा, अंगुल असंख संखंसो ॥३७॥४ ___ अर्थ-( इय ) के० ए पूर्वे साते नरकना नारकीओD (सा. हावियदेहो) के० स्वाभाविक एटले भवधारणीय शरीर प्रमाण क[. (तदुगुणो) के० तेनाथी बमणुं (उत्तरवेउविओय) के० उत्तर वैक्रियशरीर जाणवू. जेमके रत्नप्रभाने विवे पन्नर धनुष्य बे हाथ अने बार अंगुल उत्तर वैक्रिय शरीर होय. अने सातमीनरके एक हजार धनुष्य उत्तर वैक्रिय शरीर होय. ए भवधारणीय अने उत्तर वैक्रिय शरीरनुं प्रमाण कयु. हो (दुविहोवि जहन्न कमा ) के० अनुक्रमे बे प्रकारे जवन्य शरीर प्रमाण कहे छे. एक भवधारणीय बीजें Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ उत्तरवैक्रिय. ए बन्ने शरीर जयन्यथी साते नरकमां अनुक्रमे ( अंगुल असंख संखंसी ) के० अंगुलनो असंख्यातमो भाग तथा संख्यातमो भाग होय. अहिं भधारणीय शरीर उत्पत्ति वेलाये अंगुलने असंख्यातमे भागे अने उत्तरवैक्रिय शरीर प्रारंभती वखते अंगुलना संख्यातमे भागे होय एम जाणवु: नारकीर्नु अवगाहना द्वार पूर्ण थयुं ॥ हये नारकीना जीवोनु उत्पतिविरह तथा चवनविरहनुं द्वार दोढ गाथाथी कहे छे. सत्तसु चउवीस मुहू.सग पनर दिणेग दु चउ छमासा॥र उववाय चवणविरहो, ओहे वारस मुहुत्त गुरू ॥३७४॥ लहुओदुहावि समओ,संखा पुण सुरसमा मुणेयव्वा ।। ___ अर्थ-- ( सत्तसु ) के० साते नरकमां अनुक्रमे एटले पहेलीए (चवीस मुहु ) के चोवी मुहूर्त, बीजीए ( सग ) के० सात दिवस, त्रीजीए (पनर दिण) के० पन्नर दिवस, चोथीए (एग) के० एक मास, पांचमीए (दु) के० वे मास, छट्टीए ( चउ ) के० चार मास, अने सातमीए (छ मासा) के० छमास सुधी (उबवायचवणविरहो) के० उत्पात तथा चवननो विरहकाल जाणवो. जो के साते नरकमां मारकी जीवो घणुं करीने निरंतर उपजे छे अने चवे छे, परंतु (ओहे ) के सामान्यपणे सातेमां न उपजे अने न चवे तो (लहुओ ) के० जघन्यथी साते नरके (दुहाविसमओ) के साथे पण एक समय अने जूदो पण एक समय विरह पडे अने (गुरू) के० उत्कृष्टथी (बारस मुहुत्त) के० बार मुहूर्तनो विरहकाल जाणवो. (पुण) के० वली नारकीना जीवोनी उपजवानी तथा चववानी (संखा) के संख्या तो ( सुरसमा) के० Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ देवताना सरखी एटले एक समयमां एक वे त्रण छेवट संख्याता अने असंख्याता सुधीनी मुणेयवा के० जाणवी. ए नारकीनुंं उपपात विरहद्वार तथा चवनविरहद्वार क. हवे कयो जीव नरके जाय ते गतिद्वार कहे छे. संखाउ पजस पगिंदि–तिरिनरा जंति निरणम् ॥ ३७५ || २ अर्थ - ( संवाउ ) के० संख्याता आयुष्पवाला ( पजत्त ) के० पर्याप्ता (पणिदि तिरिनरा) के० पंचेंद्रिय तिर्येच अने मनुष्य नरका बांधे तो ( अंति निरएस) के० नरकमां जाय छे. ॥ ३७५ ॥ हवे कयो जीवो नरकायु बांधे ? ते कहे छे. मिच्छदिट्टि महारंभ, परिग्गहो तिब्वकोह निस्सीलो ॥ नरयाऊय निबंध, पावमई रुद्दपरिणामो ॥ ३७६ ॥ २८ अर्थ - (मिच्छदिट्टि) के० मिथ्यात्वी, ( महारंभ ) के० मोटा आरंभ करनारो, (परिगहो ) के० बहुपरिग्रहधारी, (तिब्ब कोह) के० आकरा क्रोधवालो, (निस्सीलो) के० शील रहित, (य) के० वली (पावमई) के० पापबुद्धिवालो अने ( रुद्द परिणामो) to रौद्रपरिणाम एवो जीव ( नरयाउ ) के० नरकनुं आयुष्य (निबंध) के० बांधे छे. ॥ ३७६ ॥ हवे विशेषपणाथी जूदी जूदी नरकगतिए जनारा जीवो कहे छे. असन्नि सरिसिव पक्खी, सीह उरगि त्थि जंति जाछट्ठि ॥ कमसो उक्कोसेणं, सत्तम पुढवी मणुयमच्छा ||३७७॥ / (m) अर्थ - ( असन्नि) के० असंज्ञी सम्मूच्छिम पंचेंद्रिय पर्याप्तो २ तिर्येच जो नरकायु बांधे तो पहेली नरके जाय, त्यां ते जघन्यथी Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ दश हजार वर्ष अने उत्कृष्टथी पल्योपमना असंख्यातमा भागना आयुष्ये उत्पन्न थाय तथा (सरिसिव) के० भूजपरिस ते नोलीया दिक जीवो बीजी नरक सुधी जाय, ( पक्खी ) के० गीध सीचाणादिक मांसाहारी पक्षीओ रौद्र अध्यवसायने लोधे त्रीजी नरकसुधी जाय, (सीह ) के० सिंह चितरा बीलाडा विगेरे हिंसक जीवो चोथी नरकसुधी जाय, ( उरगि) के० उरपरिसर्प ते दरेक जातिना सर्पों पांचमी नरकसुधी जाय, (त्थि ) के० स्त्रीदेदे नरकायुबंधनारा स्त्रीरत्न प्रमुख ते ( जाछट्ठि) के० छठ्ठी नरकसुधी जंति के० जाय छे. वली गर्भजपर्याप्ता ( मणुयमच्छा ) के० मनुष्य अने मच्छ ते (उक्कासेणं) के० उत्कृष्टथी ( सत्तमपुढवी के० सातमी नरकसुधी जाय. ए ( कमसो ) के० अनुक्रमे उत्कृष्टगति कही, अने जघन्यथी रत्नप्रभाना पहेला प्रतरसुधी जाय. बाकीनी सर्व मध्यमगति जाणवी ॥ ३७७ ॥ हवेला अतिक्रूर तिचनी प्राये करीने गति कहे छे. वाला दाढी पक्खी, जलयर नरगागया उ अकूरा || जंति पुणो नरएसु, बाहुलेणं न उण नियमा ||३७८|| २ अर्थ - ( वाला ) के० व्याल एटले सर्प विगेरे, दाढी ) ० दाढवाला ते सिंह विगेरे, ( पक्खी ) के० पक्षी ते गीध विगेरे अने (जलयर) के० जलचर ते मत्स्य विगेरे. एटली जातना जीवो ( नरगोगया ) के ० नरकथी आव्या होय तो पण (अक्रूरा) ho अति क्रूरपणाने लीये ( बाहूल्लेणं ) के० घणुंकरीने ( पुणो ) के० पण (नरएस) के० नरकने विषे ( जंति ) के० जाय छे. परन्तु ( नउण नियमो ) के० तेनो निश्चय नथी. कारण कोई जीव arrer आवी सम्यक्त्व पामी सारा संत्रयणने लीये मोक्षपण पामे ले. ॥ ३७८ ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ हो नारकीने संघयण अने लेश्या कहे छे. दो पढमपुढविगमगं, छेवढे कीलियाइ संघयणे ॥ इकिक्कपुढविवुढी, आइतिलेस्सा उ नरएसु ॥ ३७९ ॥२९ ___अर्थ-(छेवढे ) के छेवट्ठा संघयणवालो जीव (दो पढमपुढविगमणं ) के० पहेली बे नरकपृथ्वी सुधी जाय, अने (कीलियाइ संघयगे ) के० कीलिकादिक संघयणवालाजीवोनी (इविक्कपुढविवुड्डी ) के० एक एक नरकपृथ्वीनी वृद्धि करवी. जेम कीलिका संबयणवाला त्रीजी नरकपृथ्वी सुधी जाय. अर्द्धनाराचवाला चोथी सुधी, नाराचवाला पांचमी सुधी, ऋषभनाराचवाला छठी सुधी अने वज्रऋषभनाराचवाला सातमी नरकपृथ्वी सुधी जाय. ए उत्कृष्टी गति जाणवी. जघन्यथी तो सर्वे संघयणवाला जीवो रत्नप्रभाना पहेला प्रतर सुधी जाय. ॥ हवे नारकीने लेश्या कहें छे. ॥ (उ) के० वली (नरएसु) के नारकीने विषे (आइतिलेस्सा ) के० कृषण नील अने कापोत ए प्रथमनी त्रण लेस्या होय. ॥ ३७९॥ हवे ए लेश्याओने विशेषे विवरीने कहे छे. दुसु काऊ तइयाए, काऊ, नीला य नील पंकाए । धूपोए नीलकिण्हा,दुसु किण्हा हुंति लेस्साओ॥३८०॥ ___ अर्थ-(दुसु) के० पहेली बे नरकमां (काऊ) के० एक कापोतलेश्पा होय. परन्तु पहेली करतां बोजीमां अतिमलीन लेश्या होय. (तइयाए ) के० त्रीजी नरकमां (काऊनीला य) के० कापोत अने नील लेश्या होय. तेमां पल्योपमना असंख्यातमा भोगे अधिक एवा त्रण पल्योपमना आयुष्यवालाने कायोत अने तेथी अधिक आयुष्यवालाने नील लेश्या होय छे. अने (पंकाइ) के० पंकप्रभामां Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (नील) के० नील लेश्या एकज होय छे. (धूमाए) के० धूमप्रभामां (नीलकिला) के० नील अने कृष्ण लेश्या होय छे. तेमां जे जोवोर्नु पल्योपमना असंख्यातमा भागे अधिक दश पल्योपमर्नु उत्कृष्ट आयुष्य होय तेमने नील लेश्या अने एथी वधारे आयुष्यवालाने कृष्ण लेश्या होय छे. अने (दुसु ) के० छठी अने सातमी नरकने विषे (किण्हा ) के० कृष्णलेश्या छे. तेमां एटलं विशेष के के-प्रथमनी कृष्णलेश्या करता छेल्ली बे नारकीनी कृष्ण लेश्या विशेषे कृष्ण लेश्य होय छे. (लेस्साओ हुति ) के० साते नरकमां लेश्याओ होय छे ते कही. ॥ ३८०.॥ हो उपर कहेली नारकीनी लेश्या वर्णरूप छे ? अथवा भाव रुप छे ? ते मूत्रकार कहे छे. सुरनारयाण ताओ, दवलेस्सा अवट्ठिया भणिया ॥ भावपरावत्तीए, पुण एसि हुंति छल्लेस्सा ॥ ३८१ ॥ ___ अर्थ-(सुरनारयाण ) के० देवता तथा नारकीने (ताओ) के० ते कहेली (दवलेस्सा) के० द्रव्यलेश्यो (अवठिया) के क्षेत्रसंबंधी (भणिया ) के० कही छे. कांइ वर्णरूप न जाणवी. (पुण) के० वली द्रव्यक्षेत्रकालादिथी तेवी तेवी सामग्री पामीने ( भावपरावत्तीए) के० परिणामना विपर्यास एटले फेरफारे करीने (एसिं) के० ए देवता तथा नारकीने ( छल्लेस्सा ) के० छलेश्या ( इंति) के. होय छे. ॥ ३८१॥ हवे नरकथकी निकलेला जीवो कइ गतिमां जाय ? ते कहे छे. निरउवट्टा गम्भय, पजत्तसंखाउ लद्धि एएसि ॥ २५ चक्कि हरिजुअल अंरिहा, जिण जइ दिसि सम्म पुहविकमा ॥ ३८२ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ अर्थ-(निरउवट्टा ) के० नरकथकी निकलेला जोवो ( गप्भय ) के० गर्भज (पजत्त ) के० पर्याप्ता तथा ( संखाउ ) के० संख्याता आयुष्यवाला थाय. ( हमे ( एएसिं) के० ए साते नरकथी निकलेला जीवोने (लद्धि ) के० केवी केवी लब्धी एटले परी प्राप्त थाय ? ते कहे छे. पहेली नरकपृथ्वोथो निकलेलो जीव ( चक्कि ) के० चक्रवति थाय, बोजी पृथ्वी सुधीनो निकलेलो जीव ( हरिजुअल ) के. वासुदेव तथा बलदेव थाय. त्रीजी नरक पृथ्वीसुधीनो निकलेलो जीव (अरिहा) के अरिहंत थाय, चाथी नरक पृथ्वी सुधीनो निकलेलो जीक ( जिण ) के० सामान्य केवली थाय. पांचमी नरक पृथ्वी सुधीनो निकलेलो जीव (जइ) के० सर्व विरति साधु होय, छट्ठी नरक पृथ्वी सुधीनो निकलेलो जीव (दिसि ) के० देशविरति श्रावक होय अने सातमी नरक पृथ्वोथी निकलेलो जीव ( सम्म ) के० सम्यक्त्वधारी होय. ए ( पुहविकमा ) के० नरक पृथ्वीनी अनुक्रमे लब्धी कही. ॥३८२॥ हवे नारका जीवो अवधिज्ञानथा केटलं क्षेत्र जोइशके ? ते कहे छे. रयणाए ओहि गाउ अ, चत्तारि अद्भुट्ठ गुरु लहु कमेण॥ पइपुढवि गाउयद्धं, हायइ जा सत्तमि इगद्धं ॥३८३॥3 ___ अर्थ-( रयणाए ) के० रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे नारकी जीवोने ( ओहि ) के० अवधिज्ञान ( गाउअ चत्तारि) के० चार गाउनु होय छे ते गुरु के० उत्कृष्ट जाणवू. अने (अधुठ) के० साडात्रण गाउनु अवधिज्ञान ( लघु ) के० जघन्यथी होय छे. ए ( कमेण ) के० अनुक्रमे जाणवू. त्यार पछी (पइपुढवि) के० दरेक पृथ्वीए ( गाउयद्धं हायइ ) के० उत्कृष्टमांथा अने जघन्यमांथी Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3१५ २१८ अझै अझै माउ ओर्छ करवू, जेथी (जासत्तमि ) के० यावत् सातमी नरकने विषे ( इगद्धं ) के० उत्कृष्टथी एक गाउ अने जघन्यथी अझै गाउ अवधिज्ञान होय छे. ॥ ३८३ ॥ ए नरकद्वार - पूर्ण थयु.॥ हवे मनुष्यद्वार कहे छ । अहिं मनुष्यना भवन विना आठ 2 द्वार कहे छे, तेमां स्थितिद्वार अने अवगाहना द्वार प्रथम कहे छे. गम्भनर तिपलियाऊ, तिगाउ उकोस ते जहन्नेणं ॥ मुच्छिप दुहावि अंतमुहु,अंगुल असंखभाग तण।।३८४॥३१॥ अर्थ-गब्भनर ) के० गर्भज मनुष्य उन्कृष्टथी ( तिपलि याऊ ) के त्रण पल्योपमना आयुष्यवाला जाणवा. अने (ते) के० ते गर्भज मनुष्य (उकोस ) के० उत्कृष्टथी ( तिगाउ ) के० त्रण गाउना देहमानवाला जाणवा. तथा ( जहन्नेणं ) के. जबन्यथी गर्भज मनुष्यनुं अने (मुच्छिम ) के० समूीम मनुष्यनु (दुहावि ) के० जयन्य अने उत्कृष्टथी ( अंतमुहु ) के० अंतर्मुहूतेनुं आयुष्य होय छे. तथो गर्भज मनुप्यनु जयन्यथी ( अंगुल असंखभाग तणू) के० अंगुलना असंख्यातमा भागनुं शरीर होय छे. ३८४ ॥ हो उसपात उध्वर्तना विरहकाल कहे छे. • वारस मुहुत्त गमे, इयरे चउवीस विरह उक्कोसो॥37 जम्ममरणेसु समओ,जहण्ण/संखा सुरसमाणा ॥३८५॥ ___ अर्थ-(गब्भे ) के० गर्भज मनुष्यने जन्म आश्रओं तथा मरण आश्री विरहकाल उत्कृष्टथी (बारस मुहुत्त ) के० बार मुहतनो होय छे. एटले एक गर्भज मनुष्य उपन्या पछी बीजो उत्कृटथी बार मुहूर्तने आंतरे उपजे. मरण पण एज प्रमाणे जाणवू. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ अने ( इयरे ) के० समूर्छिम मनुष्यने ( उक्कोसो) के० उत्कृष्टथी जन्ममरणनो विरह ) के० विरहकाल (चउवीस ) के० चोवीस मुहूर्त्तनो जाणवो. वली गर्भज तथा समूर्छिम मनुष्यने ( जन्ममरणेसु ) के० जन्ममरणने विषे विरहकाल ( समओ) के एक समयनो जाणवो. तथा गर्भज अने समूच्छिम मनुष्यनी उपजवानी ( जहप्णसंखा) के० जघन्य संख्या ( सुरसमाणा) के० देवताना सरखी जाणवी. एटले एक समये एक बेत्रणथी आरंभी संख्याता असंख्याता उपजे तथा मरण पामे एम जाणवू. ॥ ३८५ ॥ हवे कयो जीव मरा मनुष्यगतिमां आवे ? ते गतिद्धार कहे छे. सत्तममहिनेईए, तेऊ वाऊ असंख नरतिरिए॥ मुनूण सेसजावा, उप्पज्जंति नरभवंमि ॥ ३८६ ॥ 300 ____ अर्थ-(सत्तममहिनेरईए) के० सातमी नरक पृथ्वीना नारकी, (तेऊ) के० तेउकायना जीवो, (वाऊ) के० वायुना जीवो तेमज ( अमंख नरतिरिए) के० असंख्याता आयुष्याला युगलीया मनुप्य अने तिर्यच. ए पांच जातीना जीवोने (मृत्तूण ) के० मूकीने (सेस जीवा) के० वाकीना सर्वे जीवा (नरभवंमि ) के० मनुष्य भवने विषे ( उप्पज्जति ) के० उपजे छे. ॥ ३८६ ॥ सुरनेरइएहिं चिय, हवंति हरि अरिह चक्कि बलदेवा॥ चउविहसुर चक्किबला,वेमाणिय हुंति हरि अरिहा ॥३८॥ ___अर्थ-(हरि) के० वासुदेव, (अरिह) के० अरिहंत, (चकि) के० चक्रवर्ती अने (बलदेवा ) के० बलदेव ए चार (सुरनेरइएहिं) के० देवता अने नारकीनी गतिथी आवेला (चिय ) के० निश्रे ( हवंति ) के० होय छे. वली ( चक्किबला ) के० चक्रवर्ती तथा Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० बलदेव ( चविहसुर ) के० चार निकायना देवतानी गतिथी आवेला होय छे. तेमज ( हरि अरिहा ) के० वासुदेव अने अरिहंत ( वैमाणिय) के० वैमानिक देवगतिना आवेला (हुति ) के० होय छे. ॥ ३८७ ॥ हरिणो मणुस्स रयणाई, हुति नाणुत्तरेहिं देवेहिं || जहसंभवमुवाओ, हयगयए गिंदिरयणाणं ॥ ३८८ ॥ अर्थ - वली ( हरिणा ) के० वासुदेव अने चक्रवतींना ( मणुस्स रयणाई ) के० मनुष्यरूप पांच रत्न ते ( अणुत्तरेहिं देवेहिं ) के० पांच अनुत्तरना चबेला देवो ( न हुँ त ) के० न होय. तात्पर्य एछे के - वासुदेव वैमानिक देवताथी तथा नरकथी आवेला होय छे. तेमां जा वैमानिकथी आव्या होय ता पांच अनुत्तर विना बीजा स्थानथी आवेला होय छे. वली चक्रवर्तीनां चौद रत्न छे, तेमां चत्रादि सात एकेंद्रिय छे अने पुरोहितादि सात पंचद्रिय छे. तेमां पण हस्ती अने अश्व ए बे तिर्यंच छे. बाकीना पांच मनुष्य छे. ते पांच रत्न सातमी नरक, ते काय, वाउकाय, तिथेच अने मनुष्यगतिथी आवेला न होय, परन्तु जो देवग तिमांथी आवेला होय तो पांच अनुत्तर विना बीजा देव स्थानकथी आवेला जाणवा. तथा (हयगयए गिंदिश्यणाणं) के० हस्ती, अश्व अने एकेंद्रिय सात रत्न ए सर्वनो ( जहसंभवमुववाओं) के० यथा संभवे उत्पत्ति जाणवी. एटले जे स्थानकथी आवेला तिच थता होय ते स्थानकथी आवेला अहिं रत्न पण होय. वली नारका संख्याता आयुष्यवाला तिच तथा मनुष्य अने सहस्रांत देवलाक सुधीना देवता एटला स्थानकथी आवेला जीवो हस्ती तथा अश्व रत्न होय. तेमज संख्याता आयुष्यवाला तिर्येच अने मनुष्य तथा 4 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ ईशान देवलोक सुधीना देवता एकेंद्रि रत्नो होय. ॥ ३८८ ॥ ए उपरना तात्पर्य अर्थवाली त्रण गाथा कहे छे. मंडलिय मणुअरयणं, अह सत्तम तेउवाउवज्जेहिं ॥ वासुदेव मणुअरयणा, अगुत्तरविमाणवज्जेहिं ॥३८९॥२॥ अर्थ-( अह सत्तम तेउवाउबजेहिं ) के० नीचेनी सातमी नरकपृथ्वी तथा तेउकाय अने वाउकायना जीवाने वर्जी वाकीनी जीवो (मंडलियमणुअरयणं) के० मंडलिक राजा तथा पांच मनुष्यरत्नपणे उत्पन्न थाय छे. वली (अणुत्तरविमाणवज्जेहिं ) के० पांच अनुत्तर विमानना जीबो वर्जीने बीजा जीवो वासुदेव ( मणुअरयणा ) के० वासुदेव अने पांच मनुष्यरत्नपणे उत्पन्न थाय छे. ॥ ३८९ ॥ तिरिस्थि मणु असंखाउ-एहिं कप्पाओ जासहस्सारो॥ हयगयरयणुववाओ, नेरइएहिं च सव्वेसिं ॥ ३९० ॥२० अर्थ-(तिरि) के० हस्ता अने अश्वरूप तिर्यंचरत्न तथा (त्थि) के० स्त्रीरत्न ते ( मणुअसंखाउएहिं ) के० संख्याता आयुष्यवाला मनुष्य अने ( कप्पाओ जासहस्सारो ) के० सहस्रार देवलोक सुधीना देवताओ थाय छे. ( च ) के० बला ( नेरइएहिं सव्वेसिं ) के० साते नारकोना जीवो ( हयगयरयणुववाभा) के अश्व अने हस्ती रत्नपणे उत्पन्न थाय छे. ॥ ३९० ॥ एगिदिय रयणाई, असुरकुमारेहिं जावईसाणे ॥ उववज्जति य नियमा, सेसट्ठाणेसु पडिसेहो ॥३९१॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ अर्थ-(य) के वली (एगिदियरयणाई ) के० सात एकेद्रिय रत्नो ते ( असुरकुमारेहिं जावईसाणे ) के० असुरकुमारथा आरंभी ईशान देवलोकना देवता सुधीना जीवो (नियमा ) के० निश्चेथी ( उववज्जति ) के० उपजे छे. ( सेसट्टाणेसु पडिसेहो ) के० वाकीना जीवो न उपजे. ॥ ३९१॥ हवे चौद रत्नानां नाम तथा प्रमाण बे गाथाथी कहे छे. वामपमाणं चकं, छत्तं दंडं दुहत्थयं चम्मं ॥ बत्तीसंगुलखग्गा,सुवण्णुकागिणि चउरंगुलिया ॥३९२।। 2 चउरंगुला दुअंगुल-पिठुलो अमणिपुरोहियगयतुरया॥3 "सेणावइ गाहावइ, वही थी चकिरयणाई ॥ ३९३ ॥3 un " अर्थ-(चकं ) के० चक्ररत्न (छत्तं ) के० छत्ररत्न तथा (दंड ) के दंडरत्न ए त्रण ( वामपमाणं ) के एक वाम एटले बेहाथने लांबा करवाथी जे प्रमाण थाय तेवडां होय छे. (चम्म ) के० चर्मरत्न (दुहत्ययं ) के० वे हाथप्रमाण होय छे. (बत्तीसंगुलखग्गो ) के० खड्गरत्न बत्रीश अंगुल प्रमाण लांबु होय छे. ( सुवण्णकागिणि चउरंगुलिया) के० सुवर्णमय कागिणिरत्न चार अंगुल प्रमाण लांबु होय छे. ॥ ३९२ ॥ ( चउरंगुला) के० चार अंगुल लांबु अने (दुअंगुलपिहलो ) के० बे अंगुल पहोलु (मणि) के० मणिरत्न होय छे. ए सात एकंद्रिरत्नो चक्रवर्तीना अंगुलथी जाणवा. अने (पुराहिय गय तुरया ) के० पुरोहित, हस्ता अश्व, तथा ( सेणावइ गाहावइ बढी त्थी) के० सेनापति, गाथापति, वार्द्धकी अने स्त्री ए सात पंचेद्रिरत्न. सर्व मलो ( चकिरयणाई) के० चक्रवर्तीनां चौद रत्न होय छे. ॥ ३९३ ॥ . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चकासिछत्तदंडा, आयुर्घसालाई हुंति चत्तारि॥ कागिणिचम्ममणिओ, सिरिगेहे चकिणो हंति ॥३९४|| अर्थ-( चक्किगो) के० चक्रवर्तीनी ( आयुधसालाइं) के० आयुधशालाने विषे ( चक्कासिछत्तदंडा ) के० चक्र खड्ग छत्र अने दंड ए ( चत्तारि ) के चार रत्नो (हुंति ) के० उत्पन्न थयेला होय छे. तथा ( कागिणि चम्ममणिओ ) के० कागिणि चर्म अने मणि ए त्रण रत्नो ( सिरिंगेहे हुति ) के० लक्ष्मीना घरने विषे अर्थात् भंडारने विवे उत्पन्न थयेलां होय छे. ॥ ३९४ ॥ सेणावइ गाहावइ, पुरोहिअ वढइ य नियनयरे ॥ त्थरियगं रायकुले, वियद्वतले उ करितुरया ॥ ३९५ ॥ ___ अर्थ-(सेगावइ ) के० सेनापति, (गाहावइ ) के० गाथापति, ( पुरोहिअ ) के० पुरोहित अने ( वढइय ) के० वाद्धकि र चार रत्नो ( नियनयरे) के० पोतानां नगरने विषे उत्पन्न थयेला होय छे. ( त्योरयणं ) के० स्त्रोरत्न (रोयकुले ) के० राजकुलमां उत्पन्न थपेलं होय छे अने (करितुरया ) के० हस्ती अने अश्व ए बे रत्न (वियड्डतले ) के० चैताढय पर्वतने विषे उत्पन्न थयेलां होय छे. ॥ ३९५ ॥ चक्किदुगं हरिपणगं, पणगं चकी य केसवो चक्की ॥ केसव चक्की केसव, दुचकी केसव चक्की य ॥३९६ ॥ ५ ___ अर्थ-पहेला (चकिदुगं) के बे चक्रवर्ती, त्यार पछी (हरिपणगं) के पांच वासुदेव, त्यार पछी ( पणगं चक्की ) के० पांच चक्रवर्ती, त्यार पछी (केसव) के० एक वासुदेव, त्यार पछी (चको) के० एक चक्रवर्ती, त्यार पछी ( केसव ) के० एक वासुदेव, त्यार Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ पछी (चक्की) के० एक चक्रवर्ती, त्यार पछी ( केसव ) के० एक वासुदेव, त्यार पछी (दुचक्की) के० वे चक्रवर्ती, त्यार पछी, ( केसव ) के० एक वासुदेव, त्यार पछी (चक्की) के० एक चक्र - वर्ती एम अनुक्रमे थया छे. तेनी विशेष समजुती यन्त्रमां जोवी ॥ ३९६ ॥ उस भरहो अजोए, सगरो मघवं सणकुमारो य ॥ धम्मस्स य संतिस्स य, जिणन्तरे चक्कवट्टीयुगं ॥ ३९७|| संतिकुंथु जिनवरो, अरिहंता चेव चकवडी य ॥ अस्मलिअंतरे पुण, होइ सुभुमो य कोरो ॥ ३९८ ॥ मुणिसुव्वयमिजिणे, हुंति दुवे परमनाम हरिसेणा || नमिनेमि य जयनामा, नेमिपासंतरे बंभो ॥ ३९९ ॥ अर्थ - ( उस ) के० ऋषभदेवना वखते (भरहो ) के० भरत चक्रवर्ती अने ( अजीए) के० अजितनाथना वखते ( सगरो ) के० सगर चक्रवर्ती थयेल छे. (य) के० वली (मघवं ) के० मघवा तथा (सकुमारो ) के० सनत्कुमार (चकवट्टीयुगं ) के० ए बे चक्रवर्ती (धम्मम्स य संतिस्स य जिणन्तरे ) के० धर्मनाथ अने शांतिनाथनी वचमां थया है. ॥ ३९७ ॥ वली ( संति ) के० शांतिनाथ, (कुंथु ) के० कुंथुनाथ तथा ( अरिहं ) के० अरनाथ (ता) के० ते त्रणे (जिनवरो ) के० जिनेश्वर तथा (चक्की) के० चक्रवर्ती (देव) के० निचे थया छे. (पुण) के० वली अरमल्लि अंतरे के० अरनाथ तथा मल्लीनाथना वचमां (सुभुमो कोरवो ) के० सुम चक्रवर्ती होइ के० थयो छे. ॥ ३९८ ॥ तेमज ( मुणिसुब्बयमिजिण) के० मुनिसुव्रत प्रभु नमिनाथ एमना वखते ( पडमनाम हरिसेणो ) के० महापद्म अने हरिषेण ए (दुवे) के० वे चक्र Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ . अनुक्रमे (हुति ) के० थया छे. तथा ( नमिनेमिय) के० नमिनाथ अने नेमनाथना वचमां ( जयनामा) के० जय नामनो चक्रवर्ती थयो छे. अने (नेमिपासंतरे ) के० नेमनाथ तथा पार्श्वनाथना वचमां (बंभो ) के० ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती थयो छे. ॥ ३९९॥ ___ हवे वासुदेवनां सात रत्न कहे छे. चकं धणुहं खग्गो, मणी गया तहय होइ वणमाला ॥ संखो सत्त इमाई, रयणाई वासुदेवस्स ॥ ४०० ॥ ३०? अर्थ-(चकं ) के० चक्र, (धणुहं ) के० धनुष्य, (खग्गो) के० खड्ग, (मणी) के० मणि, (गया) के० गदा, (तहय) के० तेमज (वणमाला) के वनमाला अने ( संखो) के० संख-(इमाई) के० ए (सत्तरयणाई) के० सात रत्न (वासुदेवस्स ) के० वासुदेवनां (होइ) के० होय छे. ॥ ४०० ॥ .... जंबुद्धीपमा उत्कृष्टथी अने जघन्यथी एक वखते केटलां रत्न होय ते कहे छे. जंबूदीवे चउरो, सयाई वीसुत्तराई उक्कोसं ॥ रयणाई जहन्नं पुण, हुंति विदेहमि छप्पन्ना ॥ ४०१॥ . अर्थ-(जंबूद्दीवे) के० जंबुद्धीपने विषे (उक्कोसं) के० उत्कृपृथी (चउरो सयाई) के पारसो अने (वीसुतराई ) के० वीश अधिक एटले चारसो वीश ( रयणाई ) के० रत्नो होय छे. (पुण) के० वली ( जहन) के० जघन्यथी (विदेहमि ) के० महाविदेह क्षेत्रमा (छप्पन्ना) के० छप्पनरत्न हुंति के होय छे.(उत्कृष्टा त्रीश चक्रवर्ती होय त्यारे चारसो वीश अने जघन्यथी चार होय त्यारे छप्पन रत्न होय छे. ॥ ४०१ ॥ मनुष्यनुं गतिद्वार पूर्ण थयु. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ हवे मनुष्य मरीने क्यां जाय ? ते आगति द्वार कहे है. संख नरा चउसु गईसु, जंति पंचसुवि पढमसंघयणे॥ इगदुति जा अट्ठसयं, इगतपए जति ते सिद्धिं ॥४०२॥ ____ अर्थ-संख) के• संख्याता आयुष्यवाला (नरा) के० मनुष्य ते (चउसु गईसु) के० चार गतिमां अंति) के० जाय छे. तेमां जे मनुष्य (पढमसंवयणे ) के० पहेला संवयणवाला होय ते (पंचमुवि) के मोक्ष सहित पांचे गतिने विषे पण जाय छे. मोक्षमा केटला जाय ? ते कहे छे. (ते) के० ते मनुष्य ( इगसमए )के एक समयमां जयन्यथी ( इगदुति ) के० एक बे त्रण अने उत्कृष्टथी (जाअट्ठसयं)के० यावत् एक सो आठ सुधी ( सिद्धिं )के० मोक्षप्रत्ये (जंति ) के०जाय छे. ॥ ४०२ ॥ हवे त्रण बेदआश्री सिद्धिगति कहे छे. वीसित्थि दस नपुंसग, पुरिसट्ठसयं तु एगसमएणं ॥ सिज्झइ गिहि अन्न सलिंग,चउदस अट्ठाहिय सयं च।४०३। ____ अर्थ-(इत्थि ) के० स्त्रीवेदे उत्कृष्टथी (वीस) के० वीस मोक्षे जाय. (नपुंसग ) के० नपुंसकवेदे (दस) के० दश मक्षि जाय. (तु) के० अने (पुरिस) के० पुरुषवेदे उत्कृष्थी (एगसमएणं) के० एक समये (अट्ठसयं ) के० एकसो आठ (सिज्झइ) के० मोक्षे जाय. वली (गिहि ) के० गृहस्थ लिंगे (चउ ) के० चार, (अन्न) के. तापसादिकलिंगे (दस) के० दश, (च) के०. अने (सलिंग ) के साधुलिंगे (अट्ठाहिय सयं के एकसो आठ मोक्षजाय छे.॥४०३॥ गुरुलहुमज्झिम दोचउ-अट्ठसयं उगृहो तिरियलोए । चउबावीसकृपयं, दुसमुद्दे तिनि सेसजले ॥ ४०४ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ - अर्थ-(गुरु ) के० उत्कृष्ट अवगाहनाथी एटले पांचसो धनुष प्रमाण शरीरवाला अने (लहु ) के० जयन्य अवगाहनाथी एटले बे हाथ प्रमाण शरीरबाला, तथा (मझिम) के० मध्यम आगाहनाथी एटले बे हाथथी उपर अने पांचसो धनुष्यथी ओछा शरीर प्रमाणवाला उत्कृष्टथी (दो चउ अट्ठसयं) के० चार अने एक सो आठ मोक्षने विवे जाय. वली (उट्ठहो तिरीयलोए) के • उर्द्धलोके अयोलोके अने तिर्छालोके (चउ बावीसट्ठसयं) के० चार बावीस अने एक सो आठ अनुक्रमे उत्कृष्टथी मोक्ष जाय. अहिं उर्द्धलोक मेरुचूलिका ते नदनवन जाणवु. अधोलोक ते अयोग्राम विगेरे जाणवा अने तिच्छौँ लोक प्रसिद्ध छे. वली (समुंद्दे ) के० समुदमां (दु के० बे तथा ( सेसजले ) के० गंगादिक नदीना तथा द्रहनां जल विगेरेमा ( तिन्नि) के० त्रण उत्कृष्टथी मोक्षे जाय छे. ॥ ४०४॥ अधोग्राम क्या छ ? ते कहे छे. जोयणसयदसगंते, समधरणीए अहे अहोगामा ॥ बायालीससहस्सेहिं, गंतु मेरुस्स पच्छिमओ ॥४०५॥ अर्थ-( मेरुस्स पच्छिमओ) के० मेरुपर्वतनी पश्चिम दिशा तरफ (बायालीससहस्सेहिं गंतु) के० बैंतालीस हजार योजन जइये त्यारे ( समधरणीए अहे ) के० समभूतला पृथ्वीथी नीचे (जोयणसयदसगते ) के० एक हजार योजनने आंतरे ते ( अहोगामा ) के० अधोग्राम छे. ॥ ४५ ॥ हवे चारे गतिमाहेथी आवेला केला केटला जीवो मोक्ष जाय ते कहे छे. नरयतिरिया गया दस, नरदेव गईओ वीस अट्ठसयं ॥ दस रयणा सक्कर वा-लुयाओ चउ पंक भूदगओ॥४०६॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ अर्थ - ( नरयतिरियागया ) के० नरक अने तिर्येच गतिथी नीकलीने मनुष्यगति पामेला ( दस ) के० दस जीवो उत्कृष्टथी एक समये मोक्षे जाय, ( नरदेव ) के० मनुष्य मरीने फरी मनुष्य थयेला अथवा देवगतिथी चवीने मनुष्य थयेला जीवो (बीस असयं ) के० बीस अने एक सो आठ जीवो मोक्षे जाय. अर्थात् मनुष्य मरीने मनुष्य थयेला वीस, अने देवगतिथी चवीने मनुष्य येला एक सो आठ जीवो मोक्षे जाय छे. वली ( रयणा सक्करवायाओ ) के० रत्नप्रभा शर्कराप्रभा अने वालुकाप्रभा एत्रण नरकथी नीकलीने मनुष्य थयेला जीवो उत्कृष्टथी एक समये (दस) के० दश मोक्षे जाय, तथा ( पंकभूदगओ ) के० पंकप्रभा पृथ्वीकाय अने अकायथी नीकलीने मनुष्य थयेला जीवो ( चउ ) के० चार मोक्ष जाय छे. ॥ ४०६ ॥ छब व गस्सइ दस तिरि तिरित्थि दस मणुय वीस नारीओ असुराइ वंतरा दस, पण तद्देवी उ पत्तेयं ॥ ४०७ ॥ जोइ दस देवि वीसं, विमाणियद्वस्य वीस देवीओ ॥ ० अर्थ - ( वणस्सइ) के वनस्पतिकायथकी मनुष्य थयेला (छच्च) के० छ, ( तिरि ) के० पंचेंद्रिय तिर्थचथी मनुष्य थयेला (दस) के० दश, ( तिरित्थि ) के० तिर्यचनी खोथी मनुष्य गति पामेला जीवो पण दश मोक्ष जाय. ( मणुय दस ) के० मनुष्यगतिथी फरी मनुष्य थयेला दस के० दश अने ( नारीओ ) के ० मनुष्यनी स्त्रीथी फरी मनुष्य गति पामेला ( वीस ) के० वीश जीवो मोक्षे जाय छे. वली (असुराइ ) के० असुरादि दर्शनिकायथी अने (वंतरा) के व्यंतरनी सर्व जातिथी मनुष्य थयेला जीवा (दस) के० दश मोक्षे जाय, तेमज ( तद्देवीउ ) के० असुरादिक Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ दश निकायनी अने व्यंतरदेवोनी देवीओथी मनुष्य थयेला (पत्तेयं) के० दरेक (पण ) के० पांच पांच मोक्षे जाय. ॥ ४०७ ॥ (जोइ) के० ज्योतषी देवोथी मनुष्य थयेला जीवो ( दस ) के० दश माक्षे जाय, अने ( देवि ) के० ज्योतषिनी देवीओथी मनुष्य थयेला जीवो ( वीसं ) के वीश मोक्षे जाय. वली (वेमाणियट्ठसय) के० वैमानिक देवथकी मनुष्य थयेला जीवो एकसो आठ तथा (देवी ओ) के० वैमानिक देवीथी मनुष्य थयेला जीवो (वीस) के० वीश मोक्षे जाय ॥ ___हवे वेदआश्री सिद्धि कहे छे, तथा सिद्धिगतिनो उपपात विरहाकाल कहे छे. तह पुव्वेएहितो, पुरिसो होऊण अट्ठसयं ॥ ४०८ ॥ सेसट्ठभंगएसु, दस दस सिझंति समएणं ॥ विरहो छपास गुरुओ,लहु समओचवणमिह नत्थिा॥४०९॥ अर्थ-( तह ) के० तथा (पुव्वेएहिती ) के० पुरुषयी फरी ( पुरिसो) के० पुरुष ( होउण) के० थया होय तो एक समये उत्कृष्टथी ( अठसयं) के० एक सो आठ जीवो मोक्षे जाय. तात्पर्य ए छे जे-पुरुषवेदवालो देव मनुष्य अथवा तिर्यचथी नीकलेलो कोई जीव पुरुष थाय कोई स्त्री थाय अने कोइ नपुंसक पण थाय. एवीज रीते स्त्री वेदवाली देवी विगेरेथी नीकलेलो कोइ जीव स्त्री थाय कोई पुरुष थाय अने कोइ नपुंसक पण थाय. एमन नपुंसक वेदवाला नारकी विगेरेथी निकलेलो कोइ जीव नपुंसक थाय कोइ स्त्री थाय अने कोइ पुरुष पण थाय. एम ए नव भांगा. मांथी पहेला भांगावाला एटले पुरुष वेदथी पुरुषदेदे थयेला मनुष्यो Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक समये एक सो आठ मोक्षे जाय. ॥ ४०८ ॥ अने ( सेसट्टभंगएमु ) के० बाकीना आठ भांगामां तो ( समएणं ) के एक समयमां ( दस दस सिझंति ) के० दश दश जीवो मोक्ष पामे छे. हवे पाछली बे पदे करीने सिद्ध गतिनो उपपात विरहकाल कहे छे. मोक्ष जवानो (गुरुओ) के० उत्कृष्टो ( विरहो ) के० रिहकाल (छमास ) के० छमहिनानो जाणवो. अने ( लहु ) के० जघन्य विरहकाल ( समओ ) के० एक समयनो जाणवो, परन्तु ( इह ) के० ए मोक्षथकी ( चवण) के० चवq ( नत्थि ) के० नथी तुं. अर्थात् मोक्षे गयेलाने फरी संसारमा आवq नथी. ॥ ४०९ ॥ अड सग छ पंच चउ, तिन्नि दुन्नि इकोय सिज्झमाणेसु॥ बत्तीसाइसुसमया, निरंतरं अंतरं उवरि ॥ ४१० ॥५८ बत्तीसा अडयोला, सट्ठी बावत्तरी य बोधव्वा ॥ चुलसीई छन्नवइ, दुरहिय महुत्तरसयं च ॥ ४११ ॥४ ___ अर्थ-(बत्तीसाइसु सिज्झमाणेसु के० बत्रीशने आदि दइने मोक्षे जतां जीवोने ( अड सग छ पंच चउ तिन्नि दुनि इकोय ) के० अनुक्रमे आठ सोत छ पांच चार त्रण बे अने एक ( समया) के० समय (निरंतरं )के० आंतरा विना मोक्षे जाय. एथी (उवरि) के० उपर ( अंतरं ) के० अंतरपडे. भावार्थ ए छे के-एक समये एक बेथी आरंभी बत्रीश सुधी माक्षे जाय तो आठ समय सुधी मोक्षे जाय, पछी अंतर पडे. ॥ ४१० ॥ ते बत्रीश विगेरेनी संख्या कहे छे. ( बत्तीसा ) के० बत्रीश, ( अटयाला ) के. अडतालीश, ( सही ) के० साठ, (बावत्तरी ) के वहोंतेर, (चुलसीइ ] के० चोरोशी, (छन्नवइ ) के० छन्नु, (दुरहिय) के एक सो बे अने Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ ( अत्तरयं च ) के० एक सो आठ एम अनुक्रमे जाणवा. भा - वार्थ र छे के एकथी आरंभी वत्रीस जीवो सुधी समये समये मोक्षे जाय तो ओठ समय सुधी जाय. पछी एकादि समयनुं अंतर पडे. तेत्रीशथी आरंभी अडतालीस सुधी समये समये मोक्षे जाय तो सांत समय सुधी जाय. पछी अंतर पडे. ओगणपचासथी आरंभी साठ सुधी समये समये मोक्षे जाय तो छ समय सुधी जाय, पछी अंतर पडे. एकसठथी आरंभी बहोंतर सुधी समये समये मोक्षे जाय तो पांच समय सुधी जाय, पछी अंतर पडे. तहुतेरथी आरंभी चोरासी सुधी समये समये मोक्षे जाय तो चार समय सुधी पछी अंतर पडे पंचाशीथी आरंभी छन्नु सुधी समये सम मोक्षे जाय तो ऋण समय सुधी, पछी अंतर पडे. सत्ताget आरंभी एक सो वे सुधी समये समये मोक्षे जाय तो बे समय सुधी, अने एक सो त्रणथी आरंभी एक सो आठ सुधी मोक्षे जाय तो एक समये मोक्षे जाय. बीजे समये अंतर पडे. ॥ ४११ ॥ सिद्धक्षेत्र स्वरूप कहे छे. पणयाल लक्ख जोयण - विक्खंभा सिद्धिसिल फलिहविमला ॥ तदुवरिगजोयते, लोगंतो तत्थ सिद्धई || ४१२ ।। अर्थ — सर्वार्थसिद्ध विमानथ बार योजन उपर ( पणयाललक्ख जोयणविवखंभा ) के पीस्तालीश लाख योजन विस्तारवाली अने (फलिहविमला) के० स्फटिकरत्न समान निर्मल (सिद्धि सिल) के० सिद्धशीला छे. (तदुवरिगजायते ) के०ते सिद्धशीलाना उपर एक योजनने अंते (लोगंतो ) के० लोकांत छे. (तत्थ ) के० त्यां (सिद्धटिइ ) कं० सिद्धनो निवास . ॥ ४९२ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुमज्झदेसभाए, अठेव जोयणाई बाहुलं ॥ चरमंते सुइतणुइ, अंगुलसंखीज्जइ भागं ॥ ४१३ ॥ ___ अर्थ ते सिद्धशीला (बहुमज्झदेसभाए ) के० मध्यभागने विषे (अठेव जायणाई ) के० आठ योजन (बाहुल्लं) के० जाडी छे. अने (चरमंते ) के० छेडे ( सुइतणुइ) के० अतिपातली थतां ( अंगुलसंखीजइभाग) के• अंगुलना संख्यातमे भागे अर्थात् मोखीनी पांख समान पातली छे. ॥ ४१३ ॥ अंजण सुवण्णवण्णा, सा पुढवी निम्मला सहावेगं ॥ उत्ताणछत्तसंठाण-संठिय भणिया जिणवरेहि ॥ ४१४॥ ___ अर्थ-(अंजणसुवण्णवण्णा ) के० स्वेतांजन समान सुवर्ण-.. वाली (सा पुढवी) के० ते सिद्धशोला (सहावेणं ) के० स्वाभाविक रीते निम्मला) के० निर्मल छे. वली ते सिद्धशीला (उत्ताणछत्तसंहाणसंठिय) के० उंधा उघाडेला छत्रना सरखा संस्थाने रहेली (जिणवरेहिं ) के० जिनेश्वरोए ( भणिया ) के० कही छे. : ॥ ईसीपन्भाराए, उवरि खलु जोयणमि जो कोसो॥ कोसस्स य छब्भाए, सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥४१५॥ ___ अर्थ-(ईसीपभाराए) के० ए इषत्पाग्भार नामनी सिद्धशीलाना ( उवरि ) के० उपरना (जोयणंमि ) के० एक योजनना उपरनो ( जो कोसो ) के० जे एक गाउ छे. ( कोसस्स छन्माए ) के० ते गाउना उपरना छट्ठा भागमां (सिद्धाणोगाहणा) के० सिद्ध जीवोनी अवगाहना (भणिया) के० कही छे. ॥४१५॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ तिनीसया तित्तीसा, द्यगुहतिभागोय कोसछ भागो एसा खलु सिद्धाणं, मज्झिम ओगाहगा भणिया ||४१६॥ ॥, अर्थ - ( कोसभागा ) के० उपरनो एक गाउनो छट्टो भाग ते ( तिनसया तित्तीसा ) के० त्रण सो तेत्रीश धनुष्य अने उपर ( धणुतिभागो ) एक धनुष्यनो त्रीजेा भाग ( एसा ) के० एटलं प्रमाण क्षेत्र ( खलु ) के० निचे ( सिद्धाणं ) के० सिद्धोनी ( मज्झिमा ओगाहणा ) के० मध्यम अवगाहना (भणिया ) के० कही छे. ॥ ४९६ ॥ एग होई रयणी, अवय अंगुलाई साहिया ॥ न्छन्द एसा खलु सिद्धाणं, जहन्न ओगाहगा भणिया ||४१७॥ रा ( अर्थ - ( एगा रयणी ) के० एक हाथ अने ( अट्ठेवय अंगुलाई साहिया ) के० उपर आठ आंगुल अधिक. ( एसा ) के० ' एटली (सिद्धाणं ) के० सिद्धोनी ( जहन्न ओगाहणा ) के० ज घन्य अवगाहना (खलु) के० निवे (भणिया होई) के० कहीछे ॥४१७॥ सिद्धना आठ गुणो कहे छे. सम्मत्त नाण दंसण, विरियं सुहुम तहेव अवगाहणा || अगुरु अव्वाबाहं, अट्ठगुगा हुंति सिद्धाणं ।। ४९८ ।। अर्थ - ( सम्मत्त ) के० सम्यक्त्व, (नाण) के० ज्ञान, (दंसण ) के० दर्शन, विरियं के० वीर्य, (मुहुम) के० सूक्ष्मत्व, (तहेब) ० तेमज ( अवगाहणा ) के० अवगाहना, ( अगुरु ) के० अलघुगुरु, ( अव्वाबाहं ) के० अन्याबाधपणुं. ए ( अठ्ठ गुणा ) के० Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ गुगो ( सिद्धाणं ) के० सिद्धना (हुंति) के होय छे.॥४१॥ ए मनुष्यद्वार पूर्ण थयु. .. . हवे तिथचना भुवन विना आठ द्वार कहे छे.अहिं एकेंद्री बें इंद्री ते इंद्री अने चउरेंद्री अने पंचेंद्री ए पांच प्रकारना तिर्यंच जाणवा. तेमो पृथ्वीकाय अकाय तेउकाय वाउकाय अने वनस्पतिकाय ए पांच एकेंद्री जाणवा. सर्वे मली नव भेद थाय. तेमां पण पंचेंद्रीना समुछिम अने गर्भज मली अगीयार भेद थाय. परंतु अहिं सामान्यथी तिर्यचना नव भेदनुं स्थिति द्वार कहे छे. बावीस सग ति दस वास, सहस्स गणितिदिण बेदियाइसु ।। वारस वासुणु पणदिण,छम्मास तिपलिय ठिइ जिट्ठा।४१९।। अर्थ-पृथ्वीकायनी ( बावीस ) के० बावीश हजार वर्षनी, अफायनी ( सग ) के० सात हजार वर्षनी, वाउकायनी (ति) के० त्रण हजार वर्षनी, वनस्पतिकायनी (दस वासस हम्स) केन्दश हजार वर्षनी, ( अगणि) के० तेउकायनी ( तिदिण ) के० त्रण दिवसनी, (बेंदियाईसु) के० बे इंद्रिय विगेरेनी एटले बे इंद्रियनी ( बारस वास ) के० बार वर्षनी, तेइंद्रियनी ( उणुपणदिण ) के० ओगण पचास दिवसनी, चउरिद्रियनी (छम्मास ) के० छमासनी, अने पंचेंद्रियनी (तिपलिय) के० त्रण पल्योपमनी. ए (ठिइ जिहा) के० उत्कृष्ट स्थिति एटले आयुष्य जाणवू. ए सामान्यथी तिर्यचनी स्थिति कही. ॥ ४१९ ॥ हवे अहिं पृथ्वीकायना भेद अने आयुष्य कहे छे... Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ सहाय सुद्ध वालुय, मणोसिला सकरा य खरपुढवी॥ इम बार चउद सोलस,ट्ठारस बावीस सम सहस्सा।।४२०॥3ar अर्थ-( सहाय ) के० मारबाड देशनी सुकुमोल माटीनी ( इग) के एक हजार वर्षनी, ( सुद्ध) के० गोपीचंदनादिक सुकुमोल माटीनी (चार) के० वार हजार वर्षनी, (वालुय ) के० नदी प्रमुख वेलुनी (चउद) के० चउद हजार वर्षनी, (मणोसिला) के० मनसीलनी ( सोलस) के सोल हजार वर्षनी, ( सकराय ) के० शर्करा हरताल सुरमादिकनी ( अहारस.) के० अढार हजार वर्षनी, अने (खरपुढवी ) के० शीला . पाषाण तथा रत्न विगेरेनी ( बावीस समसहम्सा) के वावीश हजार वर्षनी उत्कृष्ट स्थिति जाणवी. ॥ ४२० ॥ हवे पंचेंद्रितिर्यचना जूदा जूदा भेदनी स्थिति कहे छे. गम्भ भुय जलयरोभय,गम्भोरग पुवकोडि उक्कोसा॥ गम्भचउप्पय पक्खिसु,तिपलिय पलिया असंखंसो।।४२१॥311 ___ अर्थ-(गम्भ ) के० गर्भज एवा ( भुय ) के० भुजपरिसर्प नोलीया विगेरे तथा ( जलयरोभय ) के० गर्भज अने समूर्छिम एवा जलचर, वली ( गम्भोरग ) के० गर्भज उरपरिसरा. ए सर्वेनी (उकोसा ) के० उत्कृष्ट आयुष्य स्थिति (पुवकोडि ) के० एक पूर्व कोडी वर्षनी जाणवी. तथा ( गम्भ चउप्पय ) के गर्भजचतुष्पद ते गाय भैस विगेरेनी (तिपलिय) के० त्रण पल्योपमनी, अने (पक्खिसु ) के० मोर सारस विगैरे पक्षिनी (पलिया असं खंसो ) के० पल्योपमना असंख्यातमा भागनी आयुष्य स्थिति जाणवी. ॥ ४२१ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे एक पूर्वनु प्रमाण कहे छे. पुवस्स उ परिमाणं,सय्यरिखलु वास कोडिलक्खाओ। छप्पनं च सहस्सो, बोधव्वा वासकोडीणं ॥ ४२२ ॥ 315 ___ अर्थ-चोरासी लाख वर्षनु एक पूर्वांग थाय अने ते पूर्वीगने बीजा पूर्वांग साथे गुणाकार करीये त्यारे (पुवस्स ) के एक पूर्व- (परिमाणं) के प्रमाण (बोधवा ) के० जाणवू. ते एक पूर्वमां केटला वर्ष थाय ? तो कहे छे के-( सय्यरिबास कोडिलक्खाओ) के० सीत्तेर लाख क्रोड वर्ष अने ( छप्पन्नं सहस्सा वासकोडीणं) के० छप्पन्न हजार कोड वर्ष ( ७०५६०००००००००००) एटली संख्याना वर्षे एक पूर्व प्रमाण थाय. ॥ ४२२ ॥ ____ हवे संमूच्छिम पंचेंद्रिय थलचर विगेरेनी उत्कृष्ट आयुस्थिति कहे छे. समुच्छिपणिंदिथलखयर,उरगभुयगाण जिट्ट छिइ कमसो।। वास सहस्सा चुलसी,विसत्तरि तिपण्ण बायाला ॥४२३॥ 3 अर्थ-( समुच्छि ) के० समूच्छिम एवा (पणिदिथल खयरउरगभुयगाण ) के० पंचेंद्रि थलचर ते गाय भैस, विगेरे, खेचर ते बगला चकला विगेरे, उरपरिसर्प ते अजगर विगेरे, अने भुजपरि सर्प ते नोलीया विगेरे. ते सर्व जीवोनी ( कमसो) के० अनुक्रमे करीने (जिट टिइ) के उकृष्टि आयुष्य स्थिति (वाससहस्सा चुलसी ) के० चोराशी हजार वर्ष, ( विसत्तरि ) के० बहोतेर हजार वर्ष, (तिपण्ण) के० ओपन हजार वर्ष अने ( बायाला ) के० में तालीश हजार वर्षनी, एटले संमूच्छिम पंचेंद्रिय गाय विगेरेनी Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ चोराशी हजार वर्षनी, संस्टिम पक्षीनी बहोतेर हजार वर्षनी, संमूच्छिम , विगेरेन त्रेपन हजार वर्षनी, अने संमृच्छिम नोलोया विगेरेनी बेंताली हजार वर्षनी उत्कृष्टी आयु स्थिति होय छे. ॥ ४२३ ॥ ____ हवे ए जीवोनो कायस्थिति कहे छे. एसा पुढवाईणं, भवटिई संपयं तु कायठिई ॥ चउएगिदिसु णेया, उसप्पिणीओ असंखिज्जा ॥४२४॥3 ___ अर्थ-( पुढवाईणं ) के० पृथ्वीकायादिक जीवोनी (एसा) के० ए पूर्व कहेली आयुष्यरूप ( भवंछिइ ) के० भवस्थिति कही. (तु ) के० वली एज जीवोनी (संपयं ) के. हरणां (कायटिई) के फरी फरी मरण पामी तेजकायामां उपजे ते कायस्थिति कहे. छे. ( चउ एगिदिसु) के० वनस्पति विना बाकीना पृथ्वीकायादि चार एके दिनीवोनी उत्कृष्टी कायस्थिति (असंखिजा उसप्पिणीओ) के. असख्याता उत्सर्पिणी अवसर्पिगी कालनी ( णेया ) के० जाणवी. ॥ दश कोडा कोडी सागरोपमे एक उत्साणी अने दश कोडा कोडी सागरोयमे एक अवसर्पिणो थाय छे. ए कालमोन भरत तथा एरवतनी अपेक्षाथो जाणवू. ए काल प्रमाणथी कायस्थिति कही, क्षेत्रथी तो जेटला चउदराजना : आकाश · प्रदेश छे तेटली संख्याए असंख्याता लोक कलीने ते लोकना एक एक प्रदेशे समय समय काढतां असंख्याती उर्पिगी अने अवसर्पिणी थाय छे. ॥ ४२४ ॥ ता उ वर्णमि अणंता,संखिज्जा वाससहस्स विगलेसु ॥ ना पंचिंदितिरिनरेसु, सत्तट्ठ भवा उ उक्कोसा ॥ ४२५ ॥ : Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अर्थ-(वणंमि ) के० वनस्पतिकायने विषे ( ताउ ) के० ते पूर्व कहेली उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी ( अणंता) के० अनंता कायस्थिति काले करी जाणवी. अने क्षेत्रथको अनंता लोकांकाश प्रदेश प्रमाण असंख्याता पुद्गल परावर्त होय.. ___ आ कायस्थिति व्यवहाररासी जीवने संभवे छे. कारण व्यवहाररासी जीव मरण पामी निगोदमां जाय तो अनंती उत्सार्पणी अवसर्पिणी काल रही पछी व्यवहार रासीमां आवे छे माटे. वलो ( विगलेलु ) के विकलेंद्रियने ( संखिज्जा वाससहस्स) के संख्याता वर्ष सहस्रनो कायस्थिति जाणवी. तथा (पचिंदितिरिनरेसु ) के० पंचेंद्रियतियेच अने मनुष्यने विषे (उक्कोसा) के० उत्कृष्टथी ( सत्तभवा ) के० सात अथवा आठ भव सुधी होय छे. एटले संख्याते आयुष्ये सात भव करे अने आठमे भवे युगलिक थाय तो आठ भवे त्रण पल्योपम तथा ,सात पूर्व कोटी उत्कृष्टी जाणवी. ॥ ४२५ ॥ ___ हवे अर्कीगाथा वडे जयन्यथी भवस्थिति अने कायस्थिति कहेछे. सव्वेसिपि जहन्ना, अंतमुहुत्तं भवेय काएय ॥ .. अर्थ-( सव्वेसि ) के० पूर्वे कहेला पृथ्वीकायादि सर्वे जी. वोनी ( जहन्ना) के० जघन्यथी ( भोय काएय ) के० भवस्थिति अने कायस्थिति ( अंतमुहुत्तं ) के० एक अंतमुहर्त प्रमाण होय. ।। - हवे तिर्यचनुं अवगाहना द्वार कहे छे... (जोयणसहस्समहियं, एगिदियदेहमुक्कोसं)॥ ४२६ ।।३०१ बितिचउरिंदिसरीरं, बारस जोयण तिकोस चउकोसं ॥3 जोयणसहस्स पणिदिय,ओहे वुच्छं विसेसं तु।।४२७।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अर्थ-(एगिदियदेहं ) के०. एके दियः जीवोनु शरीर ( उ. कोसं ) के० उत्कृष्टथी ( जायणसहस्समहियं ) के०एक हजार योजनथी अधिक होय छे. ॥ ४२६ ॥ वलि (बि) के० बेंद्रीय शंखा. दिक जीवोनुं शरीर (बारस जायण) के बार योजननु, (ति) के० तेंद्री कीडी कोडादिक जीवोनुं शरीर (.तिकोस) के० त्रण गाउनु, (चरिदिसरीरं ) के० चउरिंदिनीवोनुं शरीर (चउकोसं) के० चार गाउनु होय छे. अने (पणिदिय) के पंचेंद्रिय जोवोर्नु शरोर ( जोयणसहस्स) के० एक हजार योजन- उत्कृष्टथी होय छे, ए (ओहे वुच्छं ) के० सामान्यथी शरीरममाण कयु. ( विसेसं तु) के० विशेषयी शरीरप्रमाण आगलनी गाथाओथी कहेछे.॥४२७॥ अंगुलअसंखभागो, सुहमनिगोओ असंखगुण वाऊ ॥ तो अगणि तओ आऊ,तत्तो सुहमा भवे पुढवी ॥४२॥११ तो बायर वाउँगगी, आळे पुढवी निगोय: अगुकमसो॥ पत्तेयवणसरीरं, अहियं जोयणसहस्सं तु ॥ ४२९ ॥२०१० अर्थ-वनस्पतिकायना साधारणं अने प्रत्येक एवा बे भेद छे. तेमां साधारण शब्दथी निगाद अनंतकाय कहेवाय छे. ते (सुहमनिगोओ) के० सूक्ष्मनिगोदीयांनुं शरीर (अंगुलअसंखभागो) के० आंगुलना असंख्यातमां भागनुं होय छे, तेथी ( असं वगुणबाऊ ) के० असंख्यातगणु सूक्ष्म वायुकायर्नु जाणवु. (तो ) के. तेथी असंख्यातगणु ( अगणि) के० सूक्ष्म अग्निकायन शरीर जाणवू. ( तओ ) के० तेथी असंख्यातगणु (आऊ) के० सूक्ष्म अफायन जाणवू. अने (तत्तो) के० तेथी असंख्यातगणु (सुहमा पुटवी भवे ) के सूक्ष्म पृथ्वी काय, होय एम जागवू ॥ ४२८ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० (तो) के० तेथी असंख्यातगणु ( बायर वाउ ) के० बादर वायुकाय, होय, तेयी असंख्यातगणु (अगणी) के० बादर अग्निकायतुं शरीर जाणवू, तेथी असंख्यातगणु चादर ( आउ ) के० बादर अकोयन शरीर जाणवू, तेयो असंख्यातगणु (पुहवी) के बादर पृथ्वीकायनुं शरीर जाणवं, अने तेथी असंख्यातगणु ( निगोय ) के बादर निगोदनुं शरीर जागवू. एम ए दशे शरीर एक बीजाथी असंख्यगुणा छे. तो पग ते दरेक शरीर आंगुलना असंख्यातमा भागनुं जाणवु. (तु) के० वली (पत्तेयवणसरीरं) के० प्रत्येक वनस्पतिकायन शरीर ( अहियं जोयण सहस्सं ) के० एक हजार योजनथी अधिक होय छे. ॥ ४२९ ॥.. अहिं कोइने शंका थाय के-पूर्वे कहेला जीवोनां शरीर उत्सेधांगुलप्रमाणथी कयां छे अने समुद्र द्रह विगेरेनुं प्रमाण प्रमाणांगुलथी छे. तो एक हजार योजनना उंडा द्रहादिकमां पद्मनाल विगेरेनुं शरीर केम घटे ? त्यां ग्रंथकार उत्तर कहे छे केउस्सेहंगुलजायण-सहस्समाणे जलासए यं ।। तं वल्लिपउमपमुहं, अओ परं पुढविख्वं तु ॥ ४३० ।। ___अर्थ- ( उस्सेहगुल ) के० उत्सेवांगुलेकरी (जोयणसहस्समाणे ) के० एक हजार योजनना प्रमाणवालां (जलासए) के० जलाशय (नेयं) के० जाणवां. (तं ) के० ते (वल्लिपउमपमुहं ) के० वेल तथा कम प्रमुख एक हजार योजनथी अधिक होय छे. ( अओ परं) के० एयो अधिक उंडा जलाशयोमा घणां मोटां कमलो विगरे ने (पुढविरूवं ) के० पृथ्वीकायरूप जाणवां. ॥४३०॥ जोयणसहस्समहियं, वणस्सइदेहमागमुद्दिष्टुं ॥ तं च किल समुद्दगयं, जलरुहनालं हवइ ननं ॥४३१॥ ४४, १२ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(जोयणसहस्समहियं) के० एक हजार योजनथो अधिक (वणस्सइदेहमाणं) के प्रत्येक वनस्पतिकायनुं शरीरप्रमाण ( उदिह) के० कयु छे. ( तं) के० ते (किल) के० निश्चे (समुहगयं) के० समुइमा रहेला (जलरुहनालं) के० कमलनाल (हवइ) के० होय छे. (नने) के० ते विना बोनी वनातिनुं शरीर तेवू न होय. ॥ ४३१ ॥ हवे बेइंद्रियादिक जीवोना विशेष नामग्रहणपूर्वक उत्कृष्टथी शरीरममाण कहे छ. ॥ बारस जोयण संखो, तिकोस गुम्भी य जोयणं भमरो॥ मुच्छिम चउपय भय उरग.गाऊ घगु जोयण पहत्तं ४३२| ____अर्थ-(संखो ) के० शंखविगेरे बेन्द्रीयजीवोनुं शरीर (बारस जोयण) के० बार योजन- होय छे. ( गुम्मीय ) के० कानखजुरादिक तेइन्द्रियजीवोनुं शरीर (तिकोस) के० त्रण गाउनुं जाणवू (भमरो ) के भ्रमर विगेरे चरिन्द्रियजीवोनुं शरीर (जोयणं) के० एक योजन- होय छे. वली (मुच्छिमच उपय ) के. संमूछिम चार पगवाला गाय विगेरे जीवोनुं (गाऊपहुतं ) के० वे गाउयो नव गाऊसुधी,, (मुय) के० संमूच्छिम नोलीयादि भूजपरिसपर्नु (धणुपहुत्तं ) के. बे धनुष्यथी नवधनुष्य सुधीनु, अने ( उरग) के० उरपरिसपर्नु (जोयणपहुत्तं ) के० वे योजनथी नवयोजन सुधी, उत्कृष्टथी शरीर जाणवू. ॥ ४३२ ॥ गब्भचउप्पय छगाउ-याइ भुयगा उ गाउयपुहुत्तं ॥३०॥ (जोयणसहस्समुरगा, मच्छा ऊभयावि य सहस्सं ॥४३३॥३ पक्खिदुग धगुपुहुतं, सबागंगुल असंखभागलहु ॥ २.71 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ . अर्थ-( गम्भचउप्पय ) के० गर्भज चतुष्पद हाथी वगेरेर्नु शरीर (छगाउयाइ) के० छगाउनुं होय छे. (उ) के० वली ( भुयगा ) के० गर्भज भुजपरिसार्नु शरीर ( गाउयपहुत्तं ) के. बेगाउथी नव गाउ सुधी- होय छे. ( उरगा ) के० गर्भज उरपरिसर्प, शरीर ( जोयणसहस्सं ) के० एक हजार योजन- होय छे. नथा ( उभयावि ) के० गर्भज अने संमूच्छिम (मच्छा ) के० मत्सोनुं शरीर ( सहस्सं ) के० एक हजार योजन- होय छे. ॥ ४३३ ॥ वली (दुग) के० गर्भज अने समूच्छिम एवा (पक्वि) के० पक्षीओनुं शरीरप्रमाण (धणुप्पहुत्तं ) के० बे धनुष्यथी नव धनुष्य सुधी- होय छे. अने ( सव्वाणं) के० एकेंद्रियथी आरम्भी पंचेंद्रितिर्यंच सुधीना सर्वे जीवोन ( लहु ) के० जघन्य शरीर (अंगुलअसंखभाग) के० अंगुलना असंख्यातमा भागनु होयछे. ॥ ___ हवे बेन्द्री विगेरे जीवोनो उपपात चक्न विरहकाल कहे छे. विरहो विगलासन्नीण, जम्ममरणेसु अंतमू हु ॥४३४॥ गम्भे मुहुत्त बारसं, गुरुओ लहु समय संख सुरतुल्ला ॥ . अर्थ-(विंगल ) के वेंद्री तेंद्री अने चउरेंद्री तथा (असन्नीण ) के० सम्मुछिम पंचेंद्रितिर्यच ए दरेक जोवोनी (जम्म मरणेसु) के० जन्ममरण आश्री विरहकाल (अंतमूहु ) के० एक अन्तर्मुहूर्त्तनो (गुरूओ) के० उत्कृष्टथी जाणवो. ॥ ४३४ ॥ अने ( गम्भे ) के० गर्भज पंचेंद्रितिर्यंचनो उपपात चवन विरहकाल (गुरुओ) के० उत्कृष्टथी (मुहुत्तबारस) के० बारमुहूर्तनो जाणवो, तथा सर्वनो (लहु ) के. जयन्यथी विरहकाल ( समय ) के० एक समयनो जाणवो. वली ए बेन्द्री विगेरे जीवोनी एक समये उत्पत्ति ( सुरतुल्ला ) के० देतानी पेठे एक बे गयी संख्याता असंख्याता सुधीनी जाणवी. ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे एके द्रियने उसजवा तथा चवानी संख्या कहे छे. । अणुसमय प्रसंखिज्जा, एगिदिय हुँति य चति ॥४३५॥ वणकाइओ अणंता, इकिकाओवि जं निगोयाओ॥ निचमसंखो भागो, अणंतजीवो चयइ एइ ।। ४३६ ॥५८. . अर्थ-( एगिदिय ) के० एकेन्द्रिय जीवो (अणुसमयं ) के० समय समय प्रत्ये ( असंखिज्जा ) के० असंख्याता ( हुंति ) के० उपजे. य के० अने ( चवंति ) के० चरे. ॥ ४३५ ॥ वली (वणकाइओ) के. वनस्पतिकाय जीवो प्रतिसमये ( अणंता ) के० अनंता उपजे अने अनंना चहे. भावार्थ ए छे के वनस्पतिकायमांथी वनस्पतिकाय उपजे तो अनंता, अने बाकीना पृथ्व्यादि चार स्थावरमांयी वनसतिमां. उपजे तो असंख्याता उपजे एम जाणवु. (ज) के जे कारण माटे (इक्विकाओवि निगोयाओ) के० एक एक एवा निगोदमांथी (निच्च ) के० निरन्तर (असंखो भागो) के० असंख्यातमो भाग जे ( अगंतजीवो ) के० अनंत जीवात्मक ते (वयंइ ) के० चवे छे. अने (एइ) के० उपजे छे. अहिं निगोद ते अनंता जीवोनु एक साधारण औदारिक शरीर स्तिकाकार एटले पाणीना परपोटा सरखं ते निगोद जाणवू. ते निगोदीया अनेता जीवो साथे श्वासोश्वास लहे . अथवा आहार करे छे. तेवा असंख्याता निगोद समुदायने गोलो कहेवाय, तेवा गोला चउदराज लोक असंख्याता छ. ।। ४३६ ॥ गोला य असंखिज्जा, असंख निगोयओ हवइ गोलो॥ इकिमि निगोए, अगंतजीवा मुणेयव्वा ॥ ४३७॥५८ अर्थ संसारमा ( असंखिज्जा गोला) के० असंख्याता ले पाणीना मा श्वासोश्वास गोलो कहेवार Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ गोला है. वली ( असंखनिग्गोयओ) के० असंख्याता निंगोदे गोलो (हवइ ) के० एक गोलो थाय छे तथा (इकिकंमि निगोए) के ॐ एक एक निगोदने विषे ( अनंतजीवा मुणेयव्या ) के० अनंता जीवो जाणवा ॥ अहिं निगोदिया जीवोना वे भेद छे. एक संव्यवहारिया बीजा असंव्यवहारिया. तेमां जे अनादि निगोदथी freat पृथ्वीकायामां जाय ते संव्यवहारिया कहेवाय. कदापि ते जीव फरी पाछो निगोदमां जाय तो पण संव्यवहारीकज कठेवाय पण जे जीवो सूक्ष्म तथा बादर निगोदमांथी निकल्याज नथी ते असंव्यवहारिया कहेवाय छे. ॥ ४३७ ॥ अस्थि अगंता जीवा, जेहिं न पत्तो तसाइ परिणामो ॥ उप्पज्जंति चयंति य, पुणोवि तत्थेव तत्थेव ॥ ४३८ ॥ अर्थ - ( अनंता जीवा अस्थि ) के० तेवा अनंताजीवो के के ( जेहिं ) के० जे जीवो ( तसाइपरिणामो ) के० त्रस विगेरेना परिणामने ( न पत्ता ) के० पाम्या नथी, ते जोवो ( पुणोवि ) के० फरीफरीने ( तत्थेव तत्थेव ) के० त्यांने त्यांज (उपज्जति चयंति य) के० उपजे छे अने चवे छे || ४३८ ॥ सामग्गी अभावाओ. ववहाररासिम्म अपत्ताओ ॥ सव्वाव ते अनंता, जे मुत्तिसुहं न पविंति ॥ ४३९ ॥ अर्थ - (सामगी अभावाओ ) के० सकाम निर्जरा तथा अकामनिर्जरारूप सामग्रीना अभावथी ( ववहार रासिम्मि ) के० व्यवहारराशीमां ( अपत्ताओ ) के० न पामेला (सहावि ते अनंता) कं० तेवा सर्व जीवो पण अनंता छे के (जे) के० जे जीवो (मुत्तिसुहं न पार्वति ) के० मुक्तिसुखने पामता नथी ॥ ४३९ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ . सब्बोवि किसलओ खलु,उग्गममाणो अगंतओभणिओ सोचेव विवढ़तो, होइ परित्तो अणंतो वा ॥ ४४० ॥ , अर्थ-( सव्वोवि किसलओ) के सर्वे एवा पण किशलय जे कुंरलां (उग्गममाणो) के० उदयपामतां (अर्णतओ भणिओ) के० अनंतकाय कयां छे. परंतु (सोंचे विवतो) के तेज किसलय वृद्धि पामतां (परित्तो ) के० प्रत्येक वनस्पतिकायना किशलय प्रत्येक अने ( अणंता) के० साधारण वनस्पतिकायना किशलय अनंत वनसतिकाय ( होइ) के० होय छे. ॥ ४४० ) जं नरए नेरईया, दुख् पावंति गोयमा तिव्वं ॥ तं पुण निगोयपज्झे, अगंतगुगं मुणेयधं ॥ ४४१ ॥ ___अर्थ-श्रीवीर प्रभुए कह्यु छ के-(गोयमां) के० हे गौतम ! ( नरए ) के० नरकने विषे (नेरईया) के० नारकी जीवो (जं) के जेवा ( तिव्वं ) के० आकरा (दुरुकं ) के० दुःखने (पार्वति) के० पामे छे. (तं पुण) के० तेथी पण ( अणंतगुणं) के० अनंतगणु दुःख (निगोयमज्झे) के० निगोदनीमध्ये (मुणेयवं) के० जाणवू ॥ ४४१ ॥ हवे जीवने कया कर्मथी एकेंद्रियपणु प्राप्त थाय ते कहे थे. जया मोहोदओ तिव्वो, अन्नाणं खु महन्मयं पेलवं वेयणीयं तु, तया एगिंदियत्तणं ॥ ४४२ ।। 333 अर्थ-(जया) के. ज्यारे (तिबो) के० आकरो एवो ( मोहोदओ ) के० विषयाभिलाषरूप मोहनो उदय होय, (खु Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ के० निश्वे (महब्भयं ) के० महाभयकारी ( अन्नाणं ) के० अज्ञान होय, (तु) के० वली ( पेलवं ) के० असार एवं ( वेयणीयं ) के० असातावेदनीय कर्म उदय आव्युं होय, ( तया ) के० त्यारे जीवने ( एगिंदियत्तगं) के० एकेन्द्रियपणुं प्राप्त थाय छे. ॥ ४४२ ॥ हवे तिची गतिमां या जीवो आवे ? ते आगतिद्वार कछे. तिरिएसु जंति संखा - उतिरिनरा जादुकष्पदेवाओ ॥ पज्जत्तसंख गब्र्भय, बायर भूदगपरित्सु ॥ ४४३ ॥ तो सहसारंतसुरा, निरया पज्जत संख गन्भेसु ॥ ६ अर्थ - एकेंद्री बद्री तंद्री चउरिंद्री तथा ( संखाउतिरिनरा ) के० संख्याता आयुष्यवाला पंचद्री तिर्येच अने मनुष्य एटला जीवो मरण पामी ( तिरिएस) के० एकेंद्री बेंद्री तंद्री चउरिंद्री अने पंचेंद्री तिर्यचने विषे ( जंति) के० जाय ले. वली भुवनपति व्यंतर ज्योतषी अने ( जादुकष्पदेवाओ ) के० सौधर्म तथा ईशान एबे देवलोकना देवताओ मरण पामीने ( पज्जत्तसंखगन्भय ) के० पर्याप्ता संख्याता आयुष्यवाला गर्भज तिर्यचमां तथा ( बायर भृदगपरितेसु) के० पर्याप्ता बादर पृथ्वीकाय अष्काय अने प्रत्येकवनस्पतिकायम उपजे ॥ ४४३ ॥ वली ( तो सहसारंतसुरा) के० सनत्कुमारथी मांडीने सहस्रार देवलोक सुधीना देवता तथा (निरया) के० नारकी ए जीवो मृत्यु पामीने ( पज्जत्तसंखगभेसु) के० पर्याप्ता संख्याता आयुष्यवाला गर्भज तिर्यचमां जाय ॥ ए तिर्य चनु आगतिद्वार क. हवे तिर्यचना भवथी मरण पामी क्यां जाय ? ते गतिद्वार कहे छे. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ संखपगिदिय तिरिया, मरिउं चउसुवि गईसु जंति ॥४४४॥ थावर विगला नियमा, संखाउयतिरिनरेसु गच्छंति ॥ विगला लभिज्ज विरई,सम्मंपि न तेउवाउचुया॥४४५।। अर्थ-(संखपणिदियतिरिया ) के० संख्याता आयुष्यवाला पंचेंद्रिय तिर्यंच जीवो (मरिउं) के० मरण पामीने (चउसुवि गइसु ) के चारे गतिमां (जंति ) जाय छे. ॥ ४४४ ॥ वली ( थावर ) के. एकेंद्री जीवो अने (विगला ) के० विकलेंद्री जीवो (नियमा ) के निश्चथी (संखाउयतिरिनरेसु) के० संख्याता आयुष्याला तिर्यच अने मनुष्यने विषे (गच्छंति ) के० जाय छे. (विगला) के०. विकलेंद्री जीवो मरण पामी मनुष्य गतिने पामे तेम (लभिज्ज विरई ) के० सर्व सावधविरतिरुप चारित्र पामे, पग मोक्ष पामे नहीं. वली (तेउवाउचुया ) के० तेउकाय अने वाउफायना जीवो मरण पामी मनुष्य तो न थाय, परंतु तिर्यंच भव पामे तो पण ( सम्मपि न ) के समकीत पामे नहीं ॥ ४४५ ॥ . ... __हवे तिर्यंचने तथा मनुष्यने लेश्या कहे छे. पुढवि दग परित्तवणा, बायरपज्जत हुँति चउलेसा ॥ गब्भयतिरियनराणं, छल्लेस्सा तिनि सेसाणं ॥४४६॥3 अर्थ-(वायरपज्जत्त) के० बादर अने पर्याप्ता एवा (पुढविदगपरित्तवणा ) के० पृथ्वीकाय अकाय अने प्रत्येक वनस्पतिकाय जीवाने ( चउलेसा) के० कृष्ण नील कापोत अने तेजो ए चार लेश्या (हुति ) के० होय छे. तथा (गन्मयनिरियनराणं) के० गर्भज तिर्यच अने मनुष्यने (छल्लसा) के० छलेश्या Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ हाय छे. तथा ( सेसाणं ) के बाकीना संजीवोने ( तिनि )के० त्रण लेश्या होय छे. ॥ ४४६ ॥ अंतमुहत्तंमि गए, अंतमुहत्तंभि सेसए चेव ॥ लेसोहि परिणयाहिं, जीवा वचंति परलोयं ॥४४७।। ___ अर्थ-(जोवा ) के० मनुष्य तथा तिर्यंच ( लेसाहि परिणयाहिं ) के० परभवनो लेश्या आव्या पछो ( अंतमुहुत्तमि गए ) के• एक अंतर्मुहुर्त गये थके मरण पामे छे अने देवता तथा नारकी (अंतमुहुत्तंमि सेसए चेच ) के० एक अतर्मुहूर्त पोतानी लेश्या बाकी रही होय त्यारेज (परलोयं वच्चति ) के० मरण पामे छे. ॥ ४४७ ॥ तेज वात आगली गाथाथी कहे छेतिरिनर आगामिभवे, लेस्सोए अइगए सुरानिरया ॥ पुव्वभव लेस्ससेसे, अंतमुहुत्ते मरणमिति ॥ ४४८ ॥ . अर्थ-( तिरिनर ) के० तिर्यंच तथा मनुष्य ते ( आगामि भवे ) के० आवता भवनी ( लेस्साए अइगए ) के० लेश्या आव्याने अंतर्मुहूर्त गया पछी मरण पामे छे. तथा ( सुरानिरया ) के० देवता अने नारको ते ( पुचभव ले ससेसे अंतमुहुत्ते ) के. पोताना पूर्वना एटले चालता भवनी लेश्या एक अंतर्मुहूर्त बाकी होय त्यारेज ( मरणमिति) के० मरण पामे छे. एटले तेजो लेश्यावाला देवता पृथ्वी अप अने प्रत्येकवनस्पतिकायमां आव्याने अंतमुहर्त थाय त्यांसुधी तेमने तेजो लेश्या होय छे. आ कारणथी पृथ्वी अप अने प्रत्येक वनस्पतिकायने चार लेश्या कहीछे. ॥४४८॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ हवे मनुष्य तथा तिर्यचने लेश्यानी स्थिति कहे छे. अंतमुहुत्तट्ठिइओ, तिरियनरागं हांति लेस्साओ ॥ चरिमा नराण पुण नव, वासूगा पुत्र कोडीवि ॥ ४४९ ॥ अर्थ - ( तिरियनराणं ) के० पृथ्वीकायादि तिर्येच तथा मनुष्यने (लेस्साओ ) के० पोतपोताने संभवती लेश्याओ (अंतमुहुत्तइिओ) के० एक अंतर्मुहूर्त्तनी स्थितिवाली ( हवंति ) के० होय छे. ( पुणे ) के० वली ( नराणं) के० मनुष्यने (चरिमा ) के० छेल्ली शुक्ललेश्या ( नववासूणा पुव्त्रकोडीवि ) के ० नव वर्ष उगी एक पूर्व कोडी वर्ष सुधी रेहे छे. ते एवी रीते के - गर्भकालना नवमास रहित आठ वर्षमां चारित्र न होय, माटे कोइक जीव नवमे वर्षे चारित्र लइ केवलज्ञान पामे अने त्यार पछी नव वर्ष उगी एव एक पूर्वकोडी वर्ष पर्यंत जोवतो रहे त्यां सुधी केवलीने एक शुक्ल लेश्याज होय. अने वीजा मनुष्यने तो शुक्ल लेश्या अंतर्मुहूर्त सुबीज होय छे. ॥ ४४९ ॥ तिरियाणवि मुहं भणियम से संपि संपई कुच्छं | अभिहियदाख्भहियं, चउगइ जीवाण सामन्नं ॥ ४५०॥ अर्थ - ( तिरियाणवि ) के० एकेंद्रियथी आरंभी पंचेंद्री सुधीना सर्व चिनी (विइपमुह ) के० स्थितिप्रमुख ( असे संपि ) के० सर्व आठे द्वार ( भणियं ) के० कद्या. ( संपइ ) के० हवण ( अभिहियदारम्भहियं ) के० जे द्वार पूर्वे का नयी ते ( चउगइ जीवाण) के० चारे गतिना जोवोना ( सामन्नं ) के० सामान्यपणे द्वार (वुच्छं) के० कहीश. ॥ ४५० ॥ देवा असंखनरतिरि-इत्थीपुंवेय गन्भनरतिरिया || संखाउया तिवेया, नपुंसगा नारगाईया ॥ ४५९ ।। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० अर्थ-(देवा ) के० देवता तथा ( असंख नरतिरि ) के० असंख्याता आयुष्यवाला युगलिया मनुष्य अने तिर्यंच ए जीवोमां ( इत्थी पुंवेय ) के० स्त्रीवेद अने पुरुषवेद एवा देद होय छे. चलो ( संखाउया ) के० संख्याता आयुष्यवाला (गब्भनरतिरिया ) के० गर्भज मनुष्य अने गर्भज तिर्यच ते जीवोमां (तिबेया) के० पुरुष स्त्री तथा नपुंसक एवा त्रण वेद होय छे. अने (नारगाईया ) के० नारकी आदि एटले नारकी, एकंद्री, बेंद्री, तेंद्री चउरेंद्री, संमुश्छिम मनुष्य तथा संमुछिम तिर्यच ए जीवो ( नपुंसगा ) के० एक नपुंसक वेदवाला जाणवा. ॥ ४५१ ॥ हो पूर्वे कहेला विमानादिक जे अंगुलप्रमाणथी मपाय ते कहेछे. आयंगुलेण वत्थु, सरीर मुस्सेह अंगुलेण तहा॥ नगपुढविविमाणाई, मिणसु पमाणंगुलेणं तु ॥ ४५२॥30 अर्थ-आंगुलनां त्रण भेद छे, आत्मांगुल, उत्सेद्धांगुल अने प्रमाणांगुल. तेमां ( आयंगुलेण) के० आत्मांगुले करी (वत्थु ) के० वास्तु जे घर कूवा तलाव विगेरे मपाय.. ( तहा) के० तथा ( उस्सेह अंगुलेण ) के० उत्सेद्धांगुले करीने ( सरीरं) के० देवता विगेरेनुं शरीर मपाय. (तु) के० वली (प्रमाणंगुलेणं ) के० प्रमाणांगुले करीने ( नगपुढविविमाणाई ) के० पर्वत, नरकपृथ्वी, अने देव विमान विगेरे मिणसु) के० मपाय छे. ॥ ४५२ ॥ जे काले जे प्राणीओ पोताना हाथना आंगुलथी माप करे ते आत्मांगुल कहेवाय छे. हवे उत्सेद्धांगुलनुं स्वरूप कहे छे. सत्थेण सुतिखेणवि, छित्तं मित्तुं च जंकिर न सका। तं परमाणुं सिद्धा, वयंति आइं पमाणाणं ॥ ४५३ ।। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अर्थ-(मुतिवखेणवि ) के० अत्यन्त तीक्ष्ण एवा (सत्थेण) के० शस्त्रेकरीने (जं) के. जे वस्तु ( किर ) के० निश्चे (छित्तुं भित्तुं न सका ) के० छेदी भेदी न शकाय. ( सिद्धा ) के० सिद्ध एटले केवलज्ञानी पुरुषो ( तं ) के० ते वस्तुने ( परमाणु वयंति ) के० परमाणु कहे छे. अने ते परमाणु ( पमाणाणं ) के० सर्व प्रमाणोनी मध्ये ( आई ) के० आदि प्रमाण छे. ॥ ४५३ ॥ परमाणू तसरेणू रहरेणू, वालअग्ग लिक्खा य॥ जूय जव अट्ठगुणो, कमेण उस्सेह अंगुलयं ॥४५॥ अंगुल छकं पाओ,सो दुगुण विहत्थि सा दुगुण हत्थो।। चउहत्थं धणुदुसहस्स,कोसो ते जोयणं चउरो॥४५५॥ ____अर्थ-(परमाणू ) के० आठ व्यवहार परमाणुए (तसरेणू) के० एक तसरेणु थाय. आठ तसरेणुए ( रहरेणु ) के एक स्थरेणु थाय. आठ रथरेणुए ( बालअग्ग ) के० एक बालाग्र थाय. आठ वालाग्रे ( लिक्खाय) के० एक लीख थाय. आठ लीखे ( जूय ) के० एक जू थाय. आठ जूये (जव) के० एक जव थाय. अने ( अठगुणो ) के. जवने आठगुणो करीये त्यारे ( कमेण ) के० अनुक्रमे करीने (उस्सेह अंगुलयं) के० एक उत्सेद्धांगुल थोय. ॥४६४ ॥ (अंगुलछकं ) के० तेवा छ उत्सेद्धांगुले ( पाओ) के० एक पग थाय. ( सो दुगुण) के० पगने बमणो करीये त्यारे ( विहत्थि ) के० एक वेंत थाय, ( सा दुगुण )के० बे ते (हत्थो) के० एक हाथ. (चउहत्थे ) के० चार हाथे (धणु) के० एक धनुष्य थाय, ( दुसहस्स) के० तेवा बे हजार धनुष्ये (कोसो) के० एक कोश थाय. (ते चउरो) के० ते चारकोशे (जोयणं) के० एक योजन थाय छे. ॥ ४५५ ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ . हवे प्रमाणांगुलनु स्वरूप कहे छे. "चउँसयगुणं पमाणं-गुलमुस्सेहंगुलाउ बोधव्वं ॥ उस्सेहंगुल-दुगुणं, वीरस्सायंगुलं भणियं ॥ ४५६ ॥३५, अर्थ-(चउसयगुणं ) के० चार सो गणु (उस्सेहुँगुलाउ) के० उत्सेद्धांगुल करीये अर्थात् चारसो उत्सेद्धांगुले (पमाणंगुलं ) के० एक प्रमाणांगुल (बोधव्वं ) के० जागवू आ प्रमाणांगुले श्रीऋषभदेव भरतचक्रवर्तीनुं शरीर एकसो वीस अंगुल लांबु जाणवू, ते एकसो वीस अंगुलने चारसो गणुं करीये त्यारे अडतालीश हजार अंगुल थाय. अहिं छन्नु अंगुले धनुष्य थाय छे माटे अडतालीश हजारने छन्नुए भागीए त्यारे पांचसो धनुष्यनुं देहमान थाय. वली (उस्सेहंगुलदुगुणं) के० उस्सेद्धांगुलने बमणां करीये त्यारे (वीरस्स ) के० वीरप्रभुनुं ( आयंगुले ) के० एक आत्मांगुल (भणियं) के० कयुं छे. एवा चोराशी अंगुलप्रमाण श्रीमहावीर प्रभुनुं शरीर हतुं. चोराशीने बमणा करीये त्यारे एक सो अडसठ थाय. एक हाथना चोवीस अंगुल गणतां एकसो अडसठने चोवीसे भांगता श्रीमहाबीर प्रभुनु सात हाय प्रमाण शरीर हाय. एकारणे बे. उस्सेद्धांगुले श्रीमहावीरना एक आत्मांगुल कयो छे. ॥ ४५६ ॥ हवे चोराशी लाख जीवायोनीना भेद कहे छे. पुढवाइसु पत्तेय, सग वण पत्तेय णंत दस चउद ॥ ३५१. विगले दुदु सुरनारय,तिरि चउचउ चउदस नरेसु।।४५७॥ अर्थ-(पुढवाइसु ) के० पृथिव्यादिकने विवे एटले पृथ्वी, अप, ते उ. अने वायु ए चारने विषे ( पत्तेयं ) के० दरेकने (सग) Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ के० सात सात लाख योनि होय छे. तथा ( वण पत्तेय ) के० प्रत्येक वनस्पतिकायने (दश ) दशलाख योनि होय छे. अने (अणंत) के. साधारण वनस्पतिकायने (चउद) के० चउद लाख योनि होय छे. वली (विगले) के० बेंद्री तेंद्री अने चउरेंद्रीने दरेकने (दुद) के० बेबे लाख योनि होय छे. तथा (सुरनारय तिरि) के देवता नारकी अने पंचेंद्री निर्यचने (चउ चउ.) के० चार चार लाख योनि हाय छे. अने (नरेसु) के० मनुष्यने विषे (चउदस) के० चउद लाख योनि होय छे. ॥ ४५७॥ अहिं चोराशी लाख योनि संख्यानी गणती करतो सामान्यपणे योनि जातिये करी एक जीव निकायमा जेनो वर्ण, गंध रस अने स्पर्श सरखो होय ते एक जातियोनिमां ग्रहण कराय. तेवा सर्व मली चोराशी लाख भेद थाय छे.॥ ___ हवे एक एक योनिमां कुल होय ते कहे छे. एगिदिएसु पंचसु, बार सगति सत्त अट्ठवीसा य ॥ विगलेसु सत्त अड नवाजल खह चउपय उरगभुयगे॥४५८ अद्धतेरस बारस, दस दस नवगंनरामरे निरए । बारस छवीस पणवीस,हुंति कुलकोडि लक्खाइं ॥४५९॥3 इगकोडि सत्त नवई, लक्खा सहा कुलाण कोडीणं ॥३५ ___ अर्थ-(पंचसु एगिदिएसु )के० पांच एकेंद्रिय एटले पृथ्वी अप तेउ वाउ अने वनस्पतिकायने विषे अनुक्रमे करीने (बार) के० बार लाख, ( सग) के० सात लाख, (ति )के० त्रण लाख, ( सत्त) के० सात लाख अने ( अट्ठावीसा ) के० अहोवीश लाख कुल कोटी जाणवी. ( विगलेसु) के० विकलेंद्रीं एटले बेंद्री तेंद्री Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ अने चउरंद्रीने विषे अनुक्रमे (सत्त) के सात लाख,) (अड) के० आठ लाख, अने (नव )के० नव लाख कुलकोटी जाणवी. वली (जल) के० जलचर, (खह) के० खेचर, (चउप्पय) के० चतुष्पद, ( उरग) के० उरपरि सर्प अने ( भुयगे ) के० भुजपरिसर्प ए पांचेने अनुक्रमे ॥ ४५८ ॥ (अद्धतेरस ) के० साडावार लाख, (वारस) के० बार लाख, (दस) के० दश लाख, (दस) के० दश लाख, अने ( नवगं ) के० नव लाख कुलकोटी जाणवी. एमज (नरामरे निरये) के० मनुष्य, देवता अने नारकीने विषे अनुक्रमे (बारस) के० बार लाख, (छवीस) के० छवीश लाख अने ( पणवीस ) के पचीस लाख (हूंति कुलकोडि लक्खाई ) के० कुलकाडी जाणवी. ॥४५९ ॥ ए सर्व संख्या एकठी करीय त्यारे ( इगकोडि ) के० एक कोडा काडी, अने ( सानवइ लकवा सहा ) के० साडोस. त्ताणु लाख कोडी एटली (कुलाण कोडीग) के० कुलकोटी एटले एटली जीवोने उपजवानी योनिमांहे कुलकोडो छे. हवे बीजे प्रकारे योनी कहे छे. संवुडजोणि सुरेगिदि-नारया वियड विगल गभु ___ भया ।। ४६० ॥ .. अर्थ-(सुर ) के चार प्रकारना देवता, (एगिदि ) के० एकंद्री ते पृथ्वी आदि पांच स्थावर, अने ( नारया ) के० नारकी ए सर्वे ( संवुडजोणि ) के० ढांकेली योनिवाला होय छे. त्यां देवताना देवदुष्ये ढांकेला देवशयनीय होय, एकंद्रिय जीवोनी योनि स्पष्ट जाणां शकोय नहीं, नारकीने ढाकेला गोखने आकारे आला छे. वला ( विगल ) के० विकलेंद्रीने तथा संमूच्छिम तिर्यंच अने संमूच्छिम मनुष्यने (वयड ) के० प्रगट जलाशय सरोवर विगेरे Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ देखाय छे. तथा ( गमुभया) के० गर्भज पंचेंद्रीतिर्यच अने गर्भज पंचेंद्री मनुष्य ए बन्नेने संतृत अने विवृत एटले ढांकेली अने प्रगट एम प्रकारे योनी होय छे. ॥ ४६० ॥ वली पण योनीना भेद कहे छे. अचित्तजोणि सुरनिरय, मीस गब्भे तिभेय सेसाणं ॥3 सी उसिण निरय सुरगब्भ,मीसत्ते उसीण सेस तिहा४६१॥3 ____अर्थ-(सुर ) के० देवता अने (निरय ) के० नारकी तेमनी (अचित्तजोणि ) के० अचित्तयोनी होय छे. जोके सूक्ष्म जीव तो सर्वलोक व्यापी छे तो पण सूक्ष्म एकेंद्री जीवने प्रदेशे ते क्षेत्र संबंध नथी. तथा ( गम्भे ) के० गर्भज तिर्यच अने गर्भज मनुप्यने (मोस ) के० मीश्र एटले सचित अचित होय छे. शुक्र ऋतु रुधिर संग्राह्य सचित्त अने बीजी अचित जाणवी. ( सेसाणं ) के० एकेंद्री, बेंद्री, तेंद्री, चउरेंद्री,समूच्छिम पंचेंद्री तिर्यच अने संमूछिम पंचेंद्री मनुष्य एटलानी (तिभेय ) के० सचिन अचित्त अने मिश्र योनी होय छे. जीवती गाय विगेरेना शरीरे क्रमी उपजे ते सचित्त योनी जाणवी, सूका लाकडामां घुण विगेरे उपजे.ते अचित्त योनी जाणवी, अर्द्ध सूका लाकडा तथा गाय विगेरे शरीरना क्षत्तादिकमां घुण क्रमि विगेरे उपजे ते मिश्र योनी जाणवी. ( निरय ) के० नारकीजीवोने केटलाकने (सी) के० शीतयोनी अने केटलाकने ( उसिण ) के० उष्ण योनी होय छे. ( सुर ) के० देवनाने तया ( गम्भ ) के० गर्भज तिर्यंच अने गर्भज मनुष्यने ( मीस) के० शीत अने उष्ण एम मिश्रयोनी होय छे. ( ते ) के० तेउकाय जीवोने एक उष्ण योनी होय छे. (सेस) के० बाकी रहेला जे पृथ्वी, आ, वाउ, वनस्पति, संमूच्छिम तिर्यंच अने संमूच्छिम Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ मनुष्य ए छपने ( तिहा ) के० शीत, उष्ण अने शीतोष्ण योनी होय . ॥ ४६१ ॥ हवे एकला मनुष्यनी योनीना भेद कहे छे. . हयगन्भ संखवत्ता, जोणी कुम्मुन्नयाइ जायंति || अरिहहरि चक्करामा, वंसी पत्ताइ सेस नरा ||४६२|| 39 अर्थ – मनुष्यनी योनी त्रण प्रकारे हे एक शंखावर्ती, बीजी कुर्मोन्नता, त्रीजी वंशीपत्रा तेमां ( संखवत्ता) के० शंखावर्त्ता ( जोणी ) के० योनी ( हयगव्भ ) के० हतगर्भा होय छे. कारण एमां उपजेलो गर्भ अत्यंत अग्नितापथी मरण पाने छे. तेवी योनी चक्रवर्तीनी खीने होय छे. बीजी ( कुम्मुन्नयाइ ) के० कुर्मोनता ते काचवानी पीठ सरखी उंची होय. ते मांहे अरिहहरि चाकरामा के० अरिहंत, वासुदेव, चक्रवर्ती अने बलदेव ( जायंति) के० उत्पन्न थाय छे. त्रोत्री (वंसीपत्ताई ) के० सीपत्रा ते बांसना पत्राकार योनी होय तेमां ( सेसनरा ) के० बाकीना सर्व मनुष्यनो जन्म थाय छे. ॥। ४६२ ॥ वे आयुष्यबंध संबंधी कांइ विशेष कहे छे. आउस्स बंधकालो, अवाहकालो य अंतसमओ य ॥ अपवत्तण णपवत्तण, उवकम णुवकमा भणिया ।। ४६३ ॥ अर्थ — चालता भवनुं आयुष्य पूर्ण थवाना पहेला परभवनुं आयुष्य बांधे ते ( आउस्स) के० आयुष्यनो ( बंधकालो ) के० बंधकाल कहेवाय १, आयुष्य बांध्या पछी जेटलो काल गये थके आयुष्य उदय आवे तेना वचमानो जे काल ते ( अवाहकालो ) के० अवावाकाल कहवाय २, भोगवातुं आयुष्य जे समये पूर्ण थाय Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ ते ( अंतसमय ) के अंतसमय कहीये ३, घणा काले वेदवा योग्य आयुष्यने थोडा समयमां वेदीये ते ( अपवत्तण) के० अपवर्तन कहीये ४, जे आयुष्य जेटले काले वेदवानु छे ते आयुष्य तेटलेज काले वेदाय ते ( णपत्रत्तण) के० अपवर्तन कहीये ५, जेणे करी आयुष्य ओछु करीये ते ( उत्रकम) के० सोपक्रम कहीये ६, कारण मल्यां छतां पण आयुष्य घंटे नहीं ते ( णुत्रकमा ) के ० अनुपक्रम कहीये ७, एत्री रीते आयुष्यना सात भेद ( भणिया ) के० का छे. ॥ ४६३ ॥ हवे ते साते द्वार अनुक्रमे विस्तारथी वखाणे छे. बंधति देव नारय, असंख नरतिरि छपास सेसाऊ ॥ परभवियाऊ सेसा, निरुवक्कम तिभाग सेसाऊ ||४६४ || 3 सोवक्कमाज्या पुण, सेस तिभागे हे नवम भागे ॥ सत्तावीसइमे वा, अंतमुहुर्त्ततिमे वाव ॥ ४६५ ।। 33 જે अर्थ - (देव) के० चार निकायना देवता, (नाश्य ) के० नारकी तथा ( असंख नरतिरि ) के० असंख्याता आयुष्यवाला युगलिया मनुष्य अने तिर्येच ते सर्व (छमास सेसाऊ ) के० पोताना चालता भवनुं आयुष्य छ मास वाकी होय. त्या रे ( परभवियाऊ ) के० पर भवनुं आयुष्य ( बंधंति ) के० बांधे छे. अने ( सेसा ) के० बीजा संख्याता आयुष्यवाला तिर्यंच, मनुष्य, एकंद्री, बेंद्री, तेंद्री, चौरेंद्री अने पंचेंद्री जीवो ( निरुत्रकमतिभागसेसाऊ ) के ० निरुपक्रम एवां पोतानां भोगवातां आयुष्यनो त्रीजो भाग बाकी होय त्यारे परभवनुं आयुष्य बांधे छेः ॥ ४६४ ॥ ( पुणे ) के० वली ( सोवकमाया ) के० सोपक्रम आयुष्यवाला मनुष्य, तिर्यच, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ एकेंद्री, बद्री, तेंद्री, चौरेंद्री अने पंचेंद्री जीवो (सेसतिभागे) के० पोताना. भोगवाता आयुष्यनो त्रीजो भाग बाकी होय त्यारे, ( अहव ) के० अथवा (नवमभागे)के० नवमो भाग बाकी होय त्यारे, अथवा ( सत्तावीसइमे वा ) के सत्तावीसमो भाग बाको होय त्यारे, अथवा ( अंतमुहुत्तंतिमेवावि )के छल्ले अंतर्मुहूर्त आयुष्य बाको होय त्यारे परभवनुं आयुष्य बांधे छे. ।। ४६५ ॥ ए बंधकालनुं प्रथमद्वार का. हवे अबाधाकालादिकना वीजा द्वारो कहे छे. जइमे भागे बंधो, आउस्स भवे अबाहकोलोसो ॥ ३२ अंते उज्जुगइ इग-समय वक्क चउपंच समयंता ॥४६६॥ ___ अर्थ-( जइमे भागे ) के जे जीव पूर्व कहेला जे भागे ( आउस्स बंधो ) के. परभवनां आयुष्यनो बंध करे (सो अबाहकालो) के० ते अबाधाकाल एटले आयुष्यनो बंध कर्या पछी परभवना आयुष्यनी उदय पहेलांनो अर्थात् वच्चेनो समय ते अबाधाकाल ( भवे ) के० होय छे. वली ( अंते ) के० अंतसमये जीवने परभवे जातां बे गति होय छे. एक ऋजुगति, बीजी वक्रगति. तेमां जे.( उज्जुगइ ) के० ऋजुगात छे ते ( इगसमय ) के० एक समय प्रमाण होय छे अने ( वक्त ) के० वक्रगति छे ते ( चउपंच समयंता) के० चार पांच समयनी होय छे. ॥ ४६६ ॥ उज्जुगइ पढासमए, परभवियं आउयं तहाहारो॥ वक्काइ बीयसमए, परभवियाउं उदयमेई ॥ ४६७ ॥ ५. अर्थ-( उज्जुगइ) के० ऋजुगतिये ( पढमसमए ) के० पहेला समयने विषे (परभवियं आउयं ) के० परभवतुं आयुष्य उदय Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ आवे, तहा के० तेमज ( आहारो ) के० आहार पण पहेलेज समये उदय आये. ( बकाइ ) के० वक्रगतिये ( बीयसमए) के० बीजा समये ( परभवियार्ड) के० परभवनुं आयुष्य तथा आहार (उदयमेई ) के० उदय आवे छे. ते एक समयनी वक्रगति जाणवी. बोजी वक्राएं त्रण समय लागे त्रीजी, वनाए चार समय लागे. अने चोथी चक्राए पांच समय लागे. अहिं प्रथम समये अने अंत समये जीवने आहारक जाणवो. वचला एक वे ऋण समये अनाहारक होय छे. ॥ ४६७ || एज़ बात आगलनी गाथाथी कहे छे. इगदुति च वकासु, दुगाइसम एसु परभवाहारो ॥ दुगवक्काइस समया, इगदोतिन्निय अगाहारा ||४६८॥ ३२८ अर्थ - ( इगदुति वकासु ) के० एक वे ऋण अने चार समयनी वक्रगतिये जीव ( दुगाइ समए) के० वे आदि समयने विषे ( परभवाहारो ) के० परभवनो आहार करे छे. एटले एक समयनी वक्रगतिये वीजे समये, समयनी वक्रगतिये वाजे समये, त्रण समयनी वक्रगतिये चोथे समये, अने चार समयनी वक्रगविये पांचमें समये परभवनो आहार करे छे. (दुगवकाइ ) के० बेसमयादिक वक्रगतिमां ( इगदोतिनिय ) के० एक, बे, त्रण विगेरे समय सुधी जीव (अणाहारा ) के० अनाहारक होय. ॥ ४६८ ॥ बहुकालवेयणिज्जं, कम्पं अप्पेण जमिह कालेणं ॥ वेइज्जइ जुग चिय, उन्न सवप्पएसंगं ॥ ४६९ ।। ३२ अपवत्तणिज्जमेयं, आउं अहवा असेसकम्मपि ॥ बंधसमवि बद्धं, सिढिलं चिय तं जहा जोगं || ४७० ॥ 3२ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(इह ) के० अहिं (बहुकालयाणज्जं ) के० बहुकाले वेदवा योग्य (जं कम्मं ) के० जे. आयुष्य कर्म ( अप्पण कालेणं ) के० थोडा कालमां ( सबप्परसग्गं ) के० आत्माना सर्व प्रदेशना अग्रभागे ( उइन्न ) के० उदय आणी (चिय ) के० निश्चे ( जुगवं ) के० समकाले (वेइज्जइ) के० देदे ॥४६॥ (एयं) के० ए ( आउं) के. आयुष्य कर्म (अपवन्तणिज) के अपवर्तन कहीये. ( अहवा ) के• अथवा आयुष्यनी . (असेसकम्मंपि ) के० बीजां सर्व कर्म पण बहुकाले देदवा योग्य छतां थोडे काले वेदाय ते अपवर्त्तन कहीये. अहिं कोइने शंका थाय के-जेवी रीते कर्म बांध्यु होय तेवी रीते न वेदाय तो पछी यांध्या न बांध्यामां विशेष शुं ? त्यां उत्तर कहे छे के-( बंधसमरवि ) के बंधना अवसरे पण (तं) के० ते कर्म (जहा जोगं) के० यथायोग्य मलेला कारणे करी (चिय) के० निश्चे ( सिढिलं बद्धं ) के शिथिल एटले ढीलु कर्म बांध्यु होय जेथी देशकालादिक कारग मलबाथी थोडा समये ते कर्म वेदाय ते सोपक्रम कहेवाय छे. ॥ ४७७ । जं पुण गादनिकायण-बंधेग पुवमेव किल बद्धं ॥ तं होइ अणपवत्तण, जुगं कम वेयणिज्जफलं॥४७१॥ ... 'अर्थ- पुण ) के वली . ज ) के जे कर्म ( गाढनिकायगधेग ) के० गाह निकाचित बधेकरीने (पुवमेव ) के० प्रथमथोज (किल ) के निश्च ( बद्धं ) के. बांध्यु छे. (ते ) के० ते ( अणपवत्तण ) के. अनपवर्तन ( होइ ) के होय. ते ( जुग्गं ) के० योग्य रीतेज ( कम ) के० अनुक्रो करी (वेयणिजमलं ) के. घेदवा योग्य फलवालुं होय छे. ॥ ४७१ ॥ हवे कया जोवो सोपक्रमी अने कया जीवो निरुपक्रमी ते कहछे. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ उत्तम चरमसरीरा, सुरनेरइया असंखनर तिरिया || हुति निरुकमाओ, दुहावि सेसा मुणेयवा ॥ ४७२ ॥ अर्थ - चोवीस तीर्थकर, बार चक्रवर्ती, नव वासुदेव, नव प्रतिवासुदेव ने नव बलदेव एटला ( उत्तम ) के० उत्तम पुरुषो कवायते, तथा ( चरम सरीरा ) के० तेज भवे मोक्षे जनारा चरम शरीरवाला, तथा ( सुर ) के० चार प्रकारना देवता, तथा ( नेरइया ) के० साते नरकना जीवो, तथा ( असंखनरतिरिया ) के० असंख्याता आयुष्यवाला युगलिया मनुष्य अने तिर्यच एटला जीवो (freeकमाओ ) के० निरुपक्रम आयुष्यवाला (हुति ) के० होय . अने ( सेसा ) के ते विनाना बीजा जीवो ( दुहावि ) के० सोपक्रन आयुष्यवाला तथा निरूप कम आयुष्यवाला एम वे प्रकारना (मुगेयव्या ) के० जाणवा. ॥ ४७२ ॥ मुकमिज्जइ, अप्पसमुत्थेण इयरगेणावि ॥ सो असाणाई, कवकमो इयरो || ४७३ ॥ - अर्थ - ( जेण ) के ० . जे ( अप्पसमुत्थेण ) के० आत्माथी उत्पन्न थयेला अध्यवसायादिके करीने अथवा ( इयरगेणावि ) के० ahar शस्त्रविषादि करीने (आउ उनकमिज्जइ ) के० पोतानुं आयुष्म ओछे करीये. ( सो अज्झवसाणाई ) के० ते अध्यवसाय विगेरे ( उवकम) के उनक्रम कहीये. अने ( इयरो ) के० बीजा ते अणुवकमो ) के अनुपक्रम कहीये. ॥। ४७३ ॥ हवे उपक्रमना आत भेद कहे छे. د अज्झवसाण निमित्ते, आहारे वेयणा पराधाए ॥ फासे आणावा, सत्तविहं झिज्झर आउं ॥ ४७४ || Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ अर्थ - ( अज्झत्रसाण ) के० राग स्नेह भय विगेरे मननो विकल्प, ( निमित्ते ) के० शत्रु विगेरे कारण, ( आहारे ) के० आहार, (वेपणा) के० शीघ्र विनाशी शूलादि वेदना, (परावाए ) के० खाडा कुत्रामां तथा वृक्ष विगेरेथी पडवु. ( फाले) के० सर्प अग्नि विष वगेरेनो स्पर्श, अने ( आणापाणू ) के० श्वासतुं न्यूनाविक चालवू. ( सत्तविहं ) के० ए सात प्रकारे ( आई ) के आयुष्य ( झज्झर के० नाश पाने छे. ॥ ४७४ ॥ ए सात प्रकारना बालमरण क्रोधादिक चार कषायना कारथी थाय छे मोटे क्रोधादिक चार कपायनुं स्वरूप कहे छे. जलरेणु पुढविपव्यय - राई सरिसो उन्हो कोहो । तिण सलया कअि - सेलत्थंभोमो माणो ॥४७५॥ अर्थ – संजलननो, प्रत्याख्याननो अप्रत्याख्याननो, अने अनंतानुबंधीनो एम (चच्हिो कोहो ) के० चार प्रकारनो क्रोध ते अनुक्रमे (जल) के० पाणीमां करेली रेखा सरखो, (रेणु ) के० रेतीमां करेली रेखा सरखो, ( पुढवि ) के० पृथ्वीमां पडेला रेखा सरखो, अने ( पव्वयराइ सरिसो) के० पर्वतमा पडेली फाट सरखो जाणवो. तथा संजलननो, प्रत्याख्याननो, अप्रत्याख्याननो, अने अनंतानुबंधीनो एम चार प्रकारनो ( माणो ) के० मान ते अनुक्रमे ( तिणसलया ) के० नेतरना थांभला सरखो, (कड ) के० लाकडाना थांभला सरखो, ( अट्ठिअ ) के० हाडकाना थांभला सरखो, अने (सेलत्थंभोवमो ) के० पथ्थरना थांगला सरखो जाणवो. ॥ ४७५ ॥ मायावलेहिगोमुत्ती, मिढसिंगघणवंसमूलसमा ॥ लोहोहलिद्दखंजण-कद्दमकिमिरागसारिच्छों ॥। ४७६ ।। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ अर्थ-संजलननी, प्रत्याख्याननी, अप्रत्याख्याननी अने अनंतानुबंधी एम चार प्रकारनी ( मायो ) के० माया ते अनुक्रमे ( अवलेहि ) के० वांसनी छाल सरखी, (गोमुत्ती ) के० गोमुत्रसरखी, ( मिसिंग ) के० मेंढाना शिंगडा सरखी, अने (घणवंसमूलसमा) के० कठीन बांसना मूल सरखी छे. तेमज संजलननो, प्रत्याख्याननो, अप्रत्याख्याननो अने अनंतानुबंधीनो (लोहो) के० लोभ ते ( हलिद्द ) के० हलदरना रंग सरखो, (खंजण) के० सरावलोना मेल सरखो, ( कद्दम ) के० . कादवना पास सरखो, अने ( किमिरागसारिच्छो ) के० करमजीना रंग सरखो होय छे. ॥ ४७६ ) पक्वं चउमास संवच्छर-जावजीवाणु भवे कमसो॥ देव नरतिरिय नारय-गइ साहणहेउआ भणीया ॥४७७॥ ___अर्थ-ते संजलनादिक कषाय ( कमसो) के० अनुक्रमे ( पक्वं ) के० पंदर दिवस, (चउमास) के० चारमास, (संवच्छर) के० एक वर्ष अने (जावजीवाणु ) के० यावत् जीवित सुधी ( भवे ) के० होय, वली ते संजलनादिक कषाय अनुक्रमे (देषनरतिरियनारयगइ ) के० देवता, मनुष्य, तिर्यच अने नारकीनी गतिना ( साहणहेउआ) के० भेलवबाना कारण (भणिया) के० कयां छे. ॥ ४७७ ॥ हो सर्व जीवने पर्याप्ति कहे छे. आहारसरीरिंदिय, पज्जत्ती आगपाण भास मणे ॥ चउपंचपंचछप्पिय, इग विगलासन्निसन्नीणं ॥ ४७८ ॥ ___ अर्थ-पुद्गल परिणमन हेतु जे आत्मशक्तिविशेष ते पर्याप्ति कहेवाय. पर्याप्ति छ प्रकारे छे. (आहार) के० आहारपर्याप्ति, ( सरीर) के० शरीरपर्याप्ति, (इंदिय पज्जती) के० इंद्रियपर्याति, Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ (आणपाण) के. श्वासोश्वासपर्याप्ति, (भोस ) के भापापर्याप्ति, (मणे) के० मनपर्याप्ति. तेमां (इग) के० एकेंद्रियजीवोने (चउ) के० चार, (विगल) के० विकलेंद्रियजीवोने (पंच) के० पांच, (असन्नि) के० असंज्ञी पंचेंद्रियने (पंच) के० पांच, अने (सन्नीणं) के० संज्ञी पंचेंद्रियने ( छपिय) के० छ पर्याति होय छे. ॥४७८॥ आहारसरीरिदिअ, ऊसासवओ मणोभि निबत्ति ॥ होइजओ दलियाओ,करगं पइ सा उ पज्जत्ती ॥४७९॥ अर्थ-(आहार ) के० आहारपर्याप्ति, ( सरीर) के० शरीरपर्याप्ति, (इंदिअ) के० इंद्रियार्याप्ति, (पइ) के० प्रत्ये (ऊसास) के० श्वासोश्वासपर्याप्ति, (वओ ) के० वचनपर्याप्ति, अने (मगो) के० मनपर्याप्ति, ए छ पर्याप्तिनी ( अभिनिव्वत्ति ) के० उत्पत्ति (जओ दलिआओं ) के० जे पुद्गल दलथकी आहारादिकनी उत्पतिप्रत्ये (करण) के. जीव सम्बन्धी शक्तिविशेष ( होइ ) के० थाय ने (पज्जत्ती) के० पर्याप्ति कहेवाय छे. ॥ ४७ ॥ हवे जीवने दश प्राण होय ते कहे छे. पण इंदिय तिबलूसा,साऊ दस पाण चउ छ सग अट्ठ॥ इगदुतिचउरिंदीणं, असन्निसन्नीण नव दस य ॥४८०॥ अर्थ-स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु अने श्रोत्र ए (पण इंदिय) के० पांच इंद्रिय, मनोबल वचनवल अने कायवलरूप (तिबल) के० त्रण बल, (ऊसास) के० श्वासोश्वास, अने (आऊ) के० आयुष्य ए ( दस पाण ) के० दश प्राण जाणवा. तेमां ( इग) के एकद्रियने ( चउ ) के० चार, ( दुतिचउरिदिणं ) के० बेंद्री तेंद्री अने चरिंद्रीने अनुक्रमे ( छ सग अट्ठ) के० छ सात अने आठ प्राण होय छे. (य) के० तथा ( असन्निसन्नीण ) के० असंज्ञी पंचेंद्रीय Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा संज्ञीपंचेंद्रीयने ( नव दस) के० नव अने दश प्राण अनुक्रमे जाणवा. ॥ ४८०॥ . एगिंदियस्सवि आहार-भयमेहुणपरिग्गहाइ सन्नाइ । कोहे माणे माया-लोहे ओहे य लोगे य॥ ४८१॥ ___ अर्थ-(एगिदियस्सवि ) के० एकेंद्रीय जीवोने ( आहार) के० आहार, ( भय ) के० भय, ( मेहुण ) के० मैथुन, (परिग्गह) के० परिग्रह, ( कोहे ) के० क्रोध, (माणे ) के० मान, (मायो) के० माया, (लोहे) के० लोभ. (आहेय) के० ओघ अने (लोगेय) के. लोक ए दश (सन्नाइ) के० संज्ञा होय छे. ॥ ४८१ ॥ . हवे जीवोने समुदूघात कहे छे.. वेयण कसाय मरणे, वेउव्वी तेय हार केवलिया ॥ सग पण चउ तिन्नि कमा, नर सुर नेरइयतिरियाणं॥४८॥ अर्थ-(वेयण) के० वेदना, (कसाय) के० कसाय, (मरमे) के० मरण, (वेउव्वी) के वैकिय, (तेय) के तेजस, (आहार) के० आहारक अने (केवलिया) के केवली, ए सात समुदूधात जाणवातेमां (नर) के० मनुष्यने (सग) के० सात, (सुर) के० देक्ताने (पण) के० पांच, निरइय) के० नारकीने (चउ) के० चार, अने (तिरियाणं) के० तिर्यचने (तिनि) के० त्रण समुदघात (कमा) के० अनुकमे होय छे. ॥ ४८२ ॥ ___ हवे संक्षेपे संग्रहणीना चोवीस द्वार कहे छे. संखित्तयरी उ इमा, सरीरमोगाहणा य संघयणा ॥ । सन्ना संठाण कसाय,लेसिदिय दु समुग्घाया ॥४८३॥ । दिछीदंसणनाणे, जोगुवओगोववायचवणट्ठिइ ॥ पज्जत्ति किमाहारे, सन्नि गई आगई वेए ॥ ४८४॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अर्थ-(इमा ) के० आ संग्रहणी ( संवित्तयरी ) के० अति संक्षेपमात्र चोवीसद्वारे करी कहे छे, १ ( सरीर ) के० शरीरद्वार, २, ओगाहणाय ) के० अवगाहना द्वार, ३ (संघयणा ) के० संघयणद्वार, ४ ( सन्ना) के० संज्ञाद्वार, ५ (संहाण) के० संस्थामद्धार, ६ ( कसाय ) के० कसायझर, ७ (लेस) के० लेश्याद्वार, ८ ( इंदिय ) के० इंद्रियहोर, ९ ( दुसमुग्घाया) के० द्विसमुदघातद्वार, १० (दिट्टी) के० दृष्टिद्वार, ११ (दसण) के० दर्शनद्वार, १२ (नाणे) के० ज्ञानद्वार अने १३ अज्ञानद्वार, १४ (जोग) के० जोगद्वार, १५ (उवओग) के० उपयोगद्वार, १६ ( उववाय ) के० उपपातहार, १७ (चवण) के० चनद्वार, १८ (टिइ) के० स्थितिद्वार, १९ (पज्जत्ति ) के० पर्याप्तिद्वार, २० ( किमाहारे ) के० किमाहारद्वार. २१ (सन्नि) के० संज्ञाद्वार, २२ (गई) के० गतिद्वार,२३ (आगई) के० आगतिद्वार,२४(वेए) के० वेदद्वार॥४८४॥ मलहारहेमसुरीण, सीसलेसेण सूरिणा रइयं ॥ संधयणिरयणमेयं, नंदउ जावीरजिगतित्थं ॥ ४८५ ॥ ____ अर्थ-(मलहार हेमसुरीण) के० मलधारी गच्छना हेमचन्द्रमूरिना (सीसलेसेण) बालशिष्य एवा (मूरिणा) के० चन्द्रमूरिए (रइयं) के० रचेलु (संपयणिरयणं ) के० आ संग्रहणीरत्न ( जावीरजिणतित्थं ) के० ज्यां सुधी वीरतीर्थप्रवर्ते त्यां सुधी (नंदउ) के० वृद्धिपाभो ॥ इति चन्द्रमूरिरचिता संग्रहणी समाप्ता ।। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाहेर खबर. 08-0 ... अमारो पासेथी जैनधर्मनां दरेक जातना उपयोगी पुस्तको मलशे. 1 पंच प्रतिक्रमण गुजराती नव स्मरण तथा जीववि चारादि चारे प्रकरणो अर्थ साथै आवृत्ति आठमी....२-८-० 2 देवसीराइ अर्थ सहित ....... ...0-80 3 जीवविचारादि चार प्र. अर्व साथ......... 4 सामायक सूत्र अर्थ साथे .. ... ... ... .. 0-1-0 5 छुटक वोलो सीधांतना शास्त्री मोटा राइपमा... 6 नवाणू प्रकारनी पूजा भाषांतर साथे ... ... 7 विविध पूजासंग्रह भाग 1-2-3-4 दरेक आचागौनी पूजाओ तथा शांतिनाथना मोटा कलश ... .....2-0-0 8 देववंदनमाला गुजराती ......... ... ...2-40 9 स्तोत्र संग्रह तथा जैन वार्षिक पों...' 10 जीन शतक टीका सहित संस्कृत ग्रंथ 0-12-0 11 नीत्य रसरणीय शेजा प्रकरण ...... 12 रत्नाकर पचीसी ... ... ... ... ... -2-6 13 देवसीराइ मल मोटा अक्षर शाखी टाइप... ...0-6-8 24 देवसीराइ गुजराती मूल मोटा टाइपमा ... ....04-8 15 दंडक प्रकरण (1) द्वारवालु शास्त्री ... .. ...0.6-8 16 दीवाली कल्प भाषांतर सहित गुजराती... ... ...0-60 ते सिवाय दरेक जात्तनां जैनधर्मनां पुस्तको तेमज छापवा छपाववाना कागलो पण अमारी पांसेथी मलशे. मलयानुं ठेकाणु:मास्तर उमेदचंद रायचंद. है. पांजरापोळ-अमदावाद -2 000