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१६६ के० जीवो ( आहारगा ) के० आहारक जाणवा. ॥ २९१ ॥ ___ हवे देवताना स्वरूपनुं वर्णन करे छे. केसठि मंस नह रोम-रुहिर वस चम्म मुत्त पुरिसेहिं ॥ रहिया निम्मलदेहा, सुगंधनिस्सास गयलेवा ॥२९॥२॥ ___ अर्थ-सर्वे देवता पूर्व भवमां करेलां शुभकर्मना उदयथी (केस) के० केश, ( अहि ) के० हाडका. ( मंस ) के० मांस, (नह) के० नख, ( रोम) के० रुंबाडा, ( रुहिर ) के० रुधिर, ( वस) के० चरबी, (चम्म ) के० चामडी, ( मुत्त) के० मुत्र अने (पुरिसेहिं) के० विष्टा. एटली वस्तुये करीने ( रहिया ) के० रहित. तथा ( निम्मलदेहा ) के० निर्मल शरीरवाला, (सुगंध निस्सास ) के० कपूर तथा कस्तुरीना समान श्वासवाला अने (गयलेवा) के० रज परसेवादिकना लेपरहित होय छे. ॥ २९२ ॥ अंत मुहुत्तेणं चिय, पज्जत्ता तरुणपुरिससंकासा ।। सव्वंगभूसण धरा, अजरा निस्यों समा देवा ॥२९३।। ___ अर्थ-वली उत्पन्न थया पछी ( अंतमुहुत्तेणं ) के० एक अंतर मुहूर्तमा ( चिय ) के० निचे (पजता ) के० पूर्ण पर्याप्तिवाला थइने ( तरुणपुरिससंकासा ) के० युवान पुरुष सरखा, ( सव्वंग भूसणधरा) के० सर्वांगे आभूषणने धारण करनारा, (अजरा ) के० नित्य युवावस्थावाला, (निरुया ) के रोगरहित, अने ( समा ) के० समचतुरस्र संस्थान वाला ( देवा ) के० देवता छे, श्रीजीवाभिगमसूत्रना अभिप्रायथी कोइक एम कहे छे के-देवता आभरण तथा वस्त्र रहित छे, परंतु ते उत्पत्ति समयेज जाणवा. कारण उत्पत्ति समये उत्पन्न थया पछी अभिषेक सभाये स्नान