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________________ १८५ गणं च पट्टा, वीस सहस्साई घणुदहीपिंडो ॥ २ घणतणुवायागासा, असंखजोयण जुया पिंडो || ३२२||२ अर्थ - प्रमाणांगुले करी (लक्खुवरि) के० एक लाख योजन उपर (असइ) के० ऐसी, (बत्तिस) के० बत्रीश, (अडविस) के० अट्ठावीस (वीसा ) के० बीस. ( अट्ठार) के० अढार, ( सोल ) के० सोल, अने (अड ) के० आठ ए सर्व योजनना ( सहसा ) के० सहस्र एटले हजार जोडवा. एटले रत्नप्रभानुं एक लाख एंशी हजार योजननुं, शर्करामभानुं एक लाख वीस हजार योजननुं, वालुका प्रभानुं एक लाख अट्ठावाश हजार योजननुं, पंकप्रभानुं एफ लाख वीस हजार योजननुं, धूमप्रभानुं एक लाख अढार हजार योजननुं, तमप्रभानुं एक लाख सोल हजार योजननुं, अने तमतमप्रभानुं एक लाख आठ हजार योजननुं पृथ्वी पींड जाणवु. वली (घणुहि घणवाय तणुवाया ) के० धनोदधि घनवात तनबात- ।। ३२१ ।। ( गयणं च ) के० अने आकाश ए चारे एक एक पृथ्वीना नीचे ( पहाणं ) के० आश्रय एटले आधाररूप जाणवा. एटले घर्म्मापृथ्वी घनोदधि उपर छे, घनोदधि घनवात उपर छे, घनवात तनुवात उपर छे अने तनुवात आकाश उपर प्रतिष्ठत छे, एम सर्व पृथ्वीना तलने विषे जाणवुं (परंतु एटलं विशेष ले के - सातमी नरक पृथ्वीना तले घनोदधिं घनवात तनुवात अने तेनी नीचे अलाकाकाश बहुल है ॥ ॥ हवे घनोदधि विगेरे चारेनुं मध्यभागे पींड स्थूलपणुं कहे छे || ( घणुदहीपिंडो ) के० घनोदfact fis मध्यभागे (वीस सहस्साई ) के० वीस हजार योजन जाडपणे छे अने ( घणतणुवायागासा ) के० घनवात तनुवात अने आकाश ( असंख्य जोयणजुया पिंडो ) के० ए त्रणेनो पिंड असं ख्याता योजननो छे. तेमां घनवातथी असंख्याता योजन तनुवात,
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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