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________________ . अर्थ-(एगिदियदेहं ) के०. एके दियः जीवोनु शरीर ( उ. कोसं ) के० उत्कृष्टथी ( जायणसहस्समहियं ) के०एक हजार योजनथी अधिक होय छे. ॥ ४२६ ॥ वलि (बि) के० बेंद्रीय शंखा. दिक जीवोनुं शरीर (बारस जायण) के बार योजननु, (ति) के० तेंद्री कीडी कोडादिक जीवोनुं शरीर (.तिकोस) के० त्रण गाउनु, (चरिदिसरीरं ) के० चउरिंदिनीवोनुं शरीर (चउकोसं) के० चार गाउनु होय छे. अने (पणिदिय) के पंचेंद्रिय जोवोर्नु शरोर ( जोयणसहस्स) के० एक हजार योजन- उत्कृष्टथी होय छे, ए (ओहे वुच्छं ) के० सामान्यथी शरीरममाण कयु. ( विसेसं तु) के० विशेषयी शरीरप्रमाण आगलनी गाथाओथी कहेछे.॥४२७॥ अंगुलअसंखभागो, सुहमनिगोओ असंखगुण वाऊ ॥ तो अगणि तओ आऊ,तत्तो सुहमा भवे पुढवी ॥४२॥११ तो बायर वाउँगगी, आळे पुढवी निगोय: अगुकमसो॥ पत्तेयवणसरीरं, अहियं जोयणसहस्सं तु ॥ ४२९ ॥२०१० अर्थ-वनस्पतिकायना साधारणं अने प्रत्येक एवा बे भेद छे. तेमां साधारण शब्दथी निगाद अनंतकाय कहेवाय छे. ते (सुहमनिगोओ) के० सूक्ष्मनिगोदीयांनुं शरीर (अंगुलअसंखभागो) के० आंगुलना असंख्यातमां भागनुं होय छे, तेथी ( असं वगुणबाऊ ) के० असंख्यातगणु सूक्ष्म वायुकायर्नु जाणवु. (तो ) के. तेथी असंख्यातगणु ( अगणि) के० सूक्ष्म अग्निकायन शरीर जाणवू. ( तओ ) के० तेथी असंख्यातगणु (आऊ) के० सूक्ष्म अफायन जाणवू. अने (तत्तो) के० तेथी असंख्यातगणु (सुहमा पुटवी भवे ) के सूक्ष्म पृथ्वी काय, होय एम जागवू ॥ ४२८ ॥
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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